शनिवार, 5 जुलाई 2025

हिंदी की वर्तमान स्थिति

हिंदी की वर्तमान स्थिति


भाषा सामाजिक संरचना का वह अनिवार्य धागा है जो संबंधित समाज की सभ्यता और संस्कृति को जोड़ता रहता है, विकास और विन्यास करते रहता है। यदि इसी परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा की बात की जाए तो यह विषय अप्रासंगिक नहीं होगा। तमिलनाडु हिंदी का विरोध करते रहा है पर अब महाराष्ट्र में भी हिंदी का विरोध हो रहा है। कर्नाटक में इसकी हल्की सुगबुगाहट यदा-कदा दिखती रहती है। यदि स्पष्ट कहा जाए तो तमिलनाडु और महाराष्ट्र प्रखर रूप से हिंदी का विरोध कर रहे हैं। इसे मात्र राजनीतिक वक्तव्य कहकर खारिज  कर देना अदूरदर्शिता कही जाएगी। 


हिंदी के विरोध का कारण क्या है इसपर विचार करना आवश्यक है। यदि तमिलनाडु की बात की जाए तो यह संविधान से जुड़ा है क्योंकि संविधान ही कहता है कि संजह की राजभाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी। तमिलनाडु इसमें परिवर्तन चाहता है जिससे केंद्रीय कार्यालयों, उपक्रमों आदि में हिंदी में कामकाज करने की पहल, प्रशिक्षण समाप्त हो जाये और तमिलनाडु के लोगों को इन कार्यालयों आदि में अधिक से अधिक संख्या में सेवा का अवसर मिले।


महाराष्ट्र में गिर मराठी भाषा-भाषियों की संख्या और इनका राज्य के विकास में अभूतपूर्व योगदान है। कई दशक से महाराष्ट्र में राहट्स हुए इन गैर मराठी भाषा वासियों ने आर्थिक और सामाजिक रूप से अपनी पकड़ मजबूत कर ली है परिणामस्वरूप मराठी भाषा भीड़ में दबी-दबी सी पड़ी है। इनकी फ़िल्म या रंगमंच अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। इतर राज्यों की सभ्यता और संस्कृति मराठी जत्न-जीवन स्वयं में घुटन सा अनुभव कर रहा है परिणामस्वरूप राजनैतिक विरोध मराठी जनमानस का समर्थन प्राप्त करने के लिए प्रयासरत है।


यह अवसर है कि हिंदी को और सशक्क्त किया जाए जिसमें हिन्दीतर राज्यों में प्रयुक्त अति लोकप्रिय शब्दावली का हिंदी भाषा में प्रचुर प्रयोग कर हिंदी में अंगीकार कर लिया जाए। यद्यपि मराठी तथा हिंदी में विशेष अंतर नहीं है तथा दोनों भाषा की लिपि देवनागरी है ऑयर इनकेके अधिकांश शब्द मिलते-जुलते हैं फिर भी विरोध जारी है मराठी भाषियों को लामबंद करने के लिए। हिंदी और मराठी भाषा एक-दूसरे के इतने करीब हैं कि यह काल्पनिक भय महाराष्ट्र के राजनैतिक पक्ष को सता रहा है कि कहीं मराठी भाषा प्रयोग में गिरावट न दर्ज कटे। इस भाषा के माध्यम से राजनीति दूसरे स्तर पर है।


यह सत्य है कि हिंदी भाषी अपने कार्यों में हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी का प्रयोग करना एक गर्व की बात समझते हैं। भाषा का यह मनोभाव हिंदी प्रदेश के हिबड़ी भाषियों में हिंदी भाषा के प्रति एक हीनग्रंथि का निर्माण कर रहा है। बैंक या किसी कार्यालय के कागज पर हिंदी के बजाय अंग्रेजी में लिखना एक बौद्धिक श्रेष्ठता की निशानी बन चुकी है जिससे अभी भी हिंदी प्रदेश के अधिकांश हिंदीभाषी ग्रसित है। ऐसी स्थिति में तमिलनाडु को महाराष्ट्र के हिंदी विरोध का एक सहारा मिल गया है और तमिलनाडु ऊनी पूरी ऊर्जा के साथ हिंदी विरोध को मुखर कर रहा है जो संलग्नक में स्पष्ट है।


धीरेन्द्र सिंह

11.29

06.07.2025




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बुधवार, 2 जुलाई 2025

लाईक और कमेंट्स

सोशल मीडिया पर लाईक और कमेंट्स के द्वारा किसी भी पोस्ट को सराहा जाता है। अधिकांश सोशल मीडिया का उपयोग करनेवाले लाईक और कमेंट्स के अंतर को नहीं समझते हैं। यहां पसंद और प्रतिक्रिया शब्द का प्रयोग करुण तो 59% उपयोगकर्ता इस शब्द का अर्थ ही नहीं समझ पाएंगे जो कि हिंदी भाषा के दुर्गति का प्रतीक है। हिंदी में लिखनेवाले बोलचाल की शब्दावली का प्रयोग करते हैं जिससे उनके भाव जो कहना चाहते हैं वह बोलचाल के शब्दावली में ठीक से नहीं कर पाते हैं। इसी प्रकार जो लोग किसी रचना को न तो पढ़ते हैं और न समझते हैं ऐसे लोग विशेषकर लिखित पोस्ट को लाइक कर अपना सोशल मीडिया फ़र्ज़ निभाते हैं। लाईक वीडियो के लिए उचित है या मैसेज के लिए किन्तु किसी लिखित पोस्ट कविता, कहानी आदि के लिए लाईक का प्रयोग करना यह दर्शाता है कि लाईक करनेवाले ने रचना को नहीं पढ़ा।


कमेंट्स लिखने को पाठक विवश हो जाएगा यदि वह लिखित पोस्ट को पढ़े क्योंकि पढ़ने के बाद मन सहमत, असहमति, सुझाव आदि देने को तत्पर रहता है  प्रतिक्रिया यह दर्शाती है कि पोस्ट को महत्व दिया गया है और लेखन को प्रोत्साहन। यदि किसी भी समूह में किसी रचनाकार को कमेंट्स के बजाय मात्र लाईक मिलने लगे तो यह स्पष्ट संकेत है कि उसकी रचना को न तो पढ़ा जा रहा है और न महत्व दिया जा रहा है। यदि ऐसी स्थिति निर्मित होती है तो कमेंट्स से प्रभावित रचनाकार को वह समूह छोड़कर दूसरे समूह में जाना चाहिए जहां उसका लेखन सार्थक साबित हो।


सुबह चलते-फिरते गुड मॉर्निंग आदत के अनुसार भाव हीन बोलनेवालों की तरह लिखित पोस्ट पर लाईक है। यदि रचना का सम्मान है तो मात्र लाईक ही मिलता रहे तो यह एक चेतावनी देता संकेत है कि यहां ऐस रचना की पूछ नहीं इसलिए दो शब्द लिखना भी कोई समूह सदस्य उचित नहीं समझता है। लिखित पोस्ट पर लाईक बच्चों का झुनझुना है।


धीरेन्द्र सिंह

03.07.2025

07 53



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शनिवार, 28 जून 2025

आकर्षण

हृदय-हृदय सौगात है

अधर-अधर है बात

धड़कन मन से कहे

संवर-संवर कर बांट


अच्छी लगती बातें हैं

सुंदर से लगे जज़्बात

कुछ मिलकर ऐसा करें

एक-दूजे को हों ज्ञात


जितना आपको पढ़ लिया

उससे बिगड़े हैं हालात

और गहन पढ़ना चाहूं

मनभाव सजी है बारात


कुछ तो है आकर्षण में

मन चलता जैसे जांत

निकलें मेरे जैसा होकर

क्या देता जग को मांद।


धीरेन्द्र सिंह

29.06.2025

06.15








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मचान

कदम अब कदम हैं कहाँ वह उड़ान 

जनम अब जनम है कहाँ वह मचान 


हंसी-खुशी मिलजुलकर आँगन गहना 

इसका दिया उसका लिया और पहना 

परिवार के चलन में  सब बड़े थे सुजान 

जनम अब जनम है कहाँ वह मचान 


है सौभाग्त्शाली संग बुजुर्ग जो हैं पास 

कितना भी पढ़ो इनमें बात कुछ खास 

अनुभव के मचान में छिपे कई निदान 

जनम अब जनम है कहाँ वह मचान 


दादा-दादी, नाना-नानी अनुपम बानी 

परिवार में आत्मदीप्ति कोई ना सानी 

कल जो नींव थी चर्चित अब विज्ञान 

जनम अब जनम है कहाँ वह मचान।


धीरेंद्र सिंह

28.06।2025

13.32






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शब्द चल रहे थे, सामान्य थी बात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय में रात

उनका सवाल था बहुत भोला, सरल, मासूम
निःशब्द था परिवेश पर रात्रि में चमक धूम
मन बह गया क्या-क्या कह गया जज्बात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय में रात

सुनती और प्रश्न करती चर्चित थी प्रशंसा
एक बहाव का निभाव थी कहीं न आशंका
बोलीं अचानक इतनी तारीफ क्या है नात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय से रात

रात्रि ढल चुकी थी नई तिथि का था आरम्भ
प्रयास यही था करें क्या कहां से मन प्रारंभ
पूछी इतनी रात बात लेखन कब नहीं ज्ञात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय से रात

सुबह नींद से उठे नयन में लिए वह स्पंदन
अधरों पर दौड़ी मुस्कान किया हृदय वंदन
चैट भी भरते हैं खुमारी, नशा कई उत्पात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय से रात।

धीरेन्द्र सिंह
28.06.2025
08.05



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शुक्रवार, 27 जून 2025

अब मेरी कहानी भी है उनकी जुबानी

कब कही रूहानी है जगती


आह्लाद में संवाद का अपना सुख 

बेबात के विवाद का अपना दुख

सुख-दुख में है सबकी कहानी 

कब कही रूहानी है जगती जवानी 


एक उम्र कह रही सुमिरन करें 

भाव न कहे लोग हैं सघन कहें 

अपना कहाँ समाज की मनमानी 

कब कह रही रूहानी है जगती कहानी 


परिपक्वता है ओढ़े झूठ का लबादा 

गंभीरता का क्षद्म दिखलाता श्लाघा 

बाधा का प्यादा उम्र की ज़िंदगानी 

कब कह रही रूहानी है जगती कहानी 


जो हैं तोड़ते बंधन है स्वयं  का वंदन 

उभरती भावनाओं को हैं  देते  चन्दन 

ऐसे ही लोग जीव आत्म कद्रदानी

कब कह रही रूहानी है जगती कहानी।


धीरेंद्र सिंह 

27.06.2025

14.08






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सोमवार, 23 जून 2025

खुदबुदाती जिंदगी - दिल

जीवन को जीव सजीव करने के लिए जी जान से सतत प्रयत्नशील रहता है। सजीव जीने की कामना दिल से उत्पन्न होती है। प्रत्येक जीव का दिल आजीवन सक्रिय रहता है और इसी सक्रिय दिल के कारण हिलमिल कर झिलमिल जगमगाने की चाहत नयनों में समेटे बढ़ते रहता है। यह प्राकृतिक आश्चर्य है कि प्रत्येक दिल सबसे पहले प्यार की अनुभूति से जागृत होता है। प्यार जो प्रत्येक पल का सदियों से एक स्थायी मुद्दा है सुगंधित होकर उड़ जाने का। 

उड़ता जीव नहीं बल्कि उड़ता तो दिल है। प्रत्येक दिल की आत्मिक भाषा एक ही होती है जो भावपूर्ण होती है किंतु शब्दहीन भी होती है और इस भाव को स्पर्श या भावाभिव्यक्ति द्वारा जीव आदिकाल से अपनाता रहा है किंतु इसमें पूरी सफलता और संतुष्टि नहीं मिलती है। प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए जीव ने अपनी एक भाषा निर्मित की और उंसमें निरंतर निखार लाते जा रहा है। वर्तमान में प्यार की भाषा बहुरंगी और बहुआयामी हो गयी है जिसमें भावनाएंकम और कामनाएं अधिक हो गयी हैं।

दिल मूलतः भावनाओं और कामनाओं की धरती पर संतुलन बनाकर जीता है। दिल को लोग हार भी जाते हैं, दिल को लूट भी लिया जाता है, दिल को चुरा भी लेते हैं, दिल अंगड़ाईयाँ भी लेता है, दिल टूटता भी है, दिल कातिल भी है आदि-आदि विभिन्न भाव और शब्द हैं जो दिल को प्रस्तुत करते रहता है। दिल एक लक्ष्य भी है दिल एक खोज भी है। यह बहुत कम होता है कि दिल से दिल मिल जाए और जीवन मधुर जुगाली बन जाए। 

जीवन में सर्जन की सभी क्रियाएं दिल से होती हैं और ऐसा सर्जन ही अपनी पहचान बना पाता है। सोशल मीडिया के कारण सर्जन का अंधानुकरण खूब हो रहा है परिणामस्वरूप मौलिक सर्जन छुपा-छुपा, दबा-दबा प्रतीत होता है। दिल की यह खुदबुदाहट एक अस्वस्थ प्रतियोगिता को जन्म देती है। दिल के अनुसार पूरी तरह चला भी नहीं जा सकता। विवेक का यदि दिल पर यथेष्ट नियंत्रण न रहे तो दिल सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं को ठेंगा दिखाते अनहोनी कही जानेवाली घटनाओं का उद्गम केंद्र बन जायेगा। नमक या मसाले की ततः विवेक का प्रसार दिल की समस्त कामनाओं और भावनाओं पर होना चाहिए। दिल हमेशा चाहता है कि अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता मिले पर  दिल हो जाना  दिल को यह नहीं मालूम कि पूर्ण दिल हो जाना अर्थात मौन हो जाना है।


धीरेन्द्र सिंह

23.06.2025

15.40

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सोमवार, 7 अप्रैल 2025

कबीला में व्यक्ति

सृष्टि के प्रारंभ में व्यक्ति कबीले में रहता था और आखेट कर जीवनयापन करता था। कालांतर में क्रमशः गांव, कस्बा, शहर, नगर, महानगर और अब मेगासिटी के रूप में ढलते गया। एक अति विशाल भीड़ का व्यक्ति हिस्सा हो गया। समाज और सामाजिकता मानव प्रगति का मूल मंत्र हो गया। अंतर राज्य और अंतरराष्ट्रीय संपर्क और संबंध मानव विकास में नई ऊर्जा और संकल्पना संग गतिशील हुई। संपर्क के नित नए विकसित इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने दूरियां समाप्त कर दीं। वैश्विक गांव की संकल्पना यथार्थ में परिणित हो गयी। इस प्रकार की प्रगति के साथ क्या मानव कबीले से बाहर हो गया ?


वर्तमान में मानव सभ्यता और संस्कृति के लिए यह सोचना अत्यावश्यक है कि मानवता के वैश्विक टेर के बीच एकल मानव कहा है ? विश्व में या अपने कुनबे में? विश्व में निरंतर हो रहे संघर्ष और युद्ध क्या कबीलों की तरह अपनी वर्चस्वता के लिए नहीं लड़ रहे ? क्या धर्म के संस्कार व्यक्ति को अपनी सीमाओं में सफलतापूर्वक नहीं बांधे हैं? क्या भाषा स्थान विशेष और प्रांत विशेष को बांधे रखने में अपनी स्वतंत्र भूमिका नहीं निभा रही है? क्या आर्थिक गतिविधियां अपनी भाषा और अपनी संस्कृति की प्रणेता नहीं हैं? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो व्यक्ति को एक कबीले में ही बांधे हुए है या यूं भी कहें कि व्यक्ति मूलतः कबीलाजीवी है। 


अब विश्व में कहीं और किसी से भी संपर्क किया जा सकता है परंतु क्या व्यक्ति विश्व के विभिन्न व्यक्तियों और समुदायों से संपर्क करने को इच्छुक है ? विश्व को जानना और समझना व्यक्ति की मूल उत्सुकता में से एक रही है। जानना और समझना अलग है और संपर्क भी एक अलग प्रवृत्ति है। व्यक्ति संभवतः अधिकतम पचास व्यक्तियों का करीबी होता है और यह व्यक्तिगत अनुभव की संख्या है। व्यक्ति हमेशा एक कबीला चाहता है जहां उसके अनुकूल अधिकतम सुविधाएं हों। इलेक्ट्रॉनिक जगत में समूह के रूप में संचालित असंख्य “कबीले” कार्यरत हैं । अंतर्राष्ट्रीय रूप में भी कुछराष्ट्र मिलकर अपना “कबीला” गठित किये है। अपने नाते-रिश्तेदारों में भी कुछ ही लोगों से व्यक्ति की हृदय खोलकर बातें होती हैं यह भी तो लघुतम कबीला है।


सृष्टि के विभिन्न अविष्कार “कबीला” गठित कर ही हुआ है। समूह नाम कबीला शब्द का ही परिष्कृत रूप है। आधुनिक समाज जिसे भेद-भाव कहता है मूलतः वह कबीला संस्कृति ही है। धर्म, भाषा, रंग ने कबीला संस्कृति को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है। सामाजिक एकीकरण का प्रयास जारी है जिससे यह अपेक्षा है कि वह कबीला संस्कृति को और परिष्कृत कर एक रोचक रूप देगा। 


धीरेन्द्र सिंह

08.04.2025

09.00

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गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

सहमा आकाश

जीवन में, कल्पनाओं में अपना आकाश न हो तो जीवन निष्प्रयोजन लगने लगता है। यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या मात्र आकाश से ही व्यक्ति की अभिलाषाएं पूर्ण हो सकती है? अभिलाषा पूर्ति के लिए भाषा, अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का संतुलित तालमेल आवश्यक है। अपनी भावनात्मक और रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना निजी व्योम उतना ही आवश्यक है जितनी कि सांस। अभिलाषाएं निर्मित होती रहती हैं और भावनात्मक तथा रचनात्मक शक्ति भी मानव मन में निरंतर क्रियाशील रहता है। 


आकाश ही है जिससे जुड़ व्यक्ति अपनी कामनाओं को बनाता, संवारता और रंगता है। स्वयं को अभिव्यक्ति करने की छटपटाहट व्यक्ति में निहित एक स्वाभाविक विशेषता है अतएव प्रत्येक व्यक्ति निरंतर स्वयं को अभिव्यक्त करते रहता है। इसी स्वाभाविक अभिव्यक्ति में भाषा का महत्व समय के साथ बढ़ता गया। समय ने न केवल भाषा के महत्व को बढ़ाया बल्कि उसकी शब्दावली में भी अंग्रेजी के अनेक शब्द प्रवाहित कर दिए। ज्ञातव्य है कि अंग्रेजी भाषा भारत की वह स्वीकार्य भाषा है जिसमें मान्य है कि ज्ञान और विज्ञान के नवीनतम द्वार सहजता से खुलते रहते हैं। हिंदी और भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी के नित नई शब्दावलियों का जुड़ना सामान्य व्यक्ति के आकाश को भाषिक दृष्टि से भ्रमित कर रखा है। ऐसे आकाश को भ्रमित करने के कारण निम्नलिखित हहैं :-


(क) : हिंदी “की बोर्ड” का लोप :- अब प्रत्येक हाँथ में एंड्रॉएड मोबाइल है जिसमें यह सुविधा है कि रोमन लिपि में टाइप करने से हिंदी शब्द टंकित हो जाते हैं। इस प्रकार तेज गति से हिंदी “की बोर्ड” का लोप हो रहा है। हिंदी ही क्यों अन्य भारतीय भाषाओं की भी यही स्थिति है।


(ख) : शब्दावली का अभाव :- भारतीय भाषाओं की प्रयुक्त शब्दावलियों का प्रयोक्ता के प्रयोग में लगातार कमी आती जा रही है। अपना व्योम है, कल्पनाएं हैं, अभिव्यक्ति की तृष्णा भी है किंतु सटीक अभिव्यक्ति के लिए उचित शब्दावली नहीं है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण विभिन्न हिंदी समूहों और इंटरनेट के विभिन्न पोस्ट अवलोकन से मिल जाएगा। 


(ग) : मनोभाव का विश्लेषण न करना :- अपना व्योम रंगते समय रंग-रोगन विषयक ज्ञान और जानकारियां अत्यावश्यक है। एक मनोभाव उभरा और तत्काल उसे अभिव्यक्त कर देना परिपक्व चेतना नहीं होती। मनोभाव संग कुछ घंटे या दिन पूरी तरह से रहने पर अनुभूति की वह गहराई प्राप्त होती है जिसे अभिव्यक्त करते समय उचित शब्द स्वयं उभर आते हैं। ऐसी अभिव्यक्ति सशक्क्त और मनमोहक होती है।


(घ) : प्रकाशन की ललक :- कुछ भी लिखकर कुछ भी प्रकाशित कर देना एक ख्याति ललक के सिवा कुछ नहीं है। लेखन का यदि मूल उद्देश्य पुस्तक प्रकाशन है तो इसमें गहन धैर्य की आवश्यकता होती है। भावनाओं की रसरी जितनी बार कल्पनाओं पर आएगी-जाएगी अभिव्यक्ति उतनी ही निखरी और प्रभावशाली होगी। प्रायः धैर्य की कमी पाई जाती है जो व्यक्ति के आकाश को एक सामान्य रूप देती है और वह आकाश की भीड़ में खो जाता है।


(ङ) : सभ्यता और संस्कृति की समझ :- अभिव्यक्ति जिस पृष्ठभूमि से हो रही है उस पृष्ठभूमि की सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान या जानकारी नहीं रहेगी तो अभिव्यक्ति की अर्थछटा अपूर्ण या भ्रामक भाव संप्रेषित कर सकती है जिसका प्रभाव हानिकारक हो सकता है। ऐसे खतरों से बचना आवश्यक है।


उक्त आकलन से विभिन्न हिंदी समूह के लेखन से प्राप्त त्रुटियों की झलकियों से यह स्पष्ट हो रहा है कि न केवल हिंदी समूह के एडमिन, मॉडरेटर या सदस्य बल्कि इंटरनेट पर अपने-अपने आकाश को लेकर अपनी पहचान निर्मित करने के उत्सुक विभिन्न अभिव्यक्तिकार अपने आकाश के प्रभाव का गहन विश्लेषण नहीं करते हैं परिणामस्वरूप हजारों की संख्या में नित अभिव्यक्तियों के प्रवाह में अधिकांश अभिव्यक्तियाँ इतनी उबड़-खाबड़ होती हैं कि अत्यधिक आकाश  अनगढ़ और सहमे हुए प्रतीत होते हैं। हिंदी भाषा और हिंदी लेखन ऐसे ही दौर से गुजरते हुए एक प्रतियोगी दौड़ का भ्रम पाले हुए है।


धीरेन्द्र सिंह

04.04.2025

09.00


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बुधवार, 2 अप्रैल 2025

नग्नता के विरोध में


नग्नता हमेशा सीमा रेखाओं के अंतर्गत चर्चित शब्द है। नग्न कितना होना चाहिए इसपर भी समाज में स्पष्ट भेद है। कहीं नग्नता पूजनीय है जैसे महावीर जी, नागा साधु-सन्यासी तो कहीं नग्नता फैशन शो में वस्त्र और आभूषण सज्जित मान्य है तो कहीं नग्नता परिवेशगत परिस्थितियों में  स्वीकार्य है जैसे नदी, पोखर में स्नान आदि। व्यक्ति कपड़े क्यों पहनता है यदि यह प्रश्न उभरे तो उत्तर होगा मौसम प्रमुख रूप से प्रभावी है कालांतर में नग्नता एक असभ्यता के रूप में मानी जाने लगी और वस्त्र उस असभ्यता को ढाँपता एक सामाजिक अनिवार्यता बन गया।


नग्नता विषयक इसी उधेड़बुन में मैंने एक कविता लिख दी। इस कविता को अपने फेसबुक और अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने के बाद हिंदी के कुछ समूह में पोस्ट किया। अपनी रचना के सम्प्रेषण को और प्रभावशाली तथा संप्रेषणीय बनाने के लिए बैले नर्तकी की इमेज भी डाल दिया। कविता और इमेज निम्नलिखित है :-


वस्त्र की दगाबाजी

कहां से सीखा मानव

कब कहा प्रकृति ने

ढंक लो तन कपड़ों से,

सामाजिकता और सभ्यता का दर्जी

सिले जा रहा कपड़े

मानवता उतनी ही गति से

होती जा रही नग्न,

क्या मिला 

ढंककर तन,


धरती, व्योम पहाड़, जंगल

जल, अग्नि, वायु सब हैं नग्न,

जंगल में कैसे रह लेते हैं

पशु, पक्षी वस्त्रहीन

नहीं बहती जंगल में

कामुकता और अश्लीलता की बयार,

क्या मनुष्य ने

चयन कर वस्त्र

किया निर्मित हथियार ?


नग्न जीना नहीं है

असभ्यता या कामुकता

बल्कि यह 

स्वयं का परिचय,

स्वयं पर विश्वास,

शौर्य की सांस, 

शालीनता का उजास है,

नग्न कर देना

आज भी सशक्त हथियार है

मानवता

वस्त्र में गिरफ्तार है।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2025

16.49


(संबंधित इमेज संलग्न है)


इस कविता को पोस्ट करते ही तत्क्षण एक समूह के एडमिन का संदेश आया “चित्र बदलकर पुनः पोस्ट कर दीजिए धीरेन्द्र जी” आग्रह बहुत मीठा और सम्मानजनक था। एडमिन के इस आग्रह को एक सुझाव मानकर इमेज बदलने के लिए स्क्रीन पर अंगुली दौड़ाया ही था कि मस्तिष्क ने प्रश्न किया – “लेकिन क्यों ?” यह सुनकर स्क्रीन पर अंगुली ठिठक गयी और मैंने एडमिन को संदेश टाइप किया –“रचना ही हटा देता हूँ” उत्तर मिला –“ नहीं। मेरी विवशता समझें। महिलाएं बहुत हैं न मंच पर” यह पढ़कर मैंने भी “जी” टाइप कर इस विषय को विराम दे दिया।


थोड़ी देर बाद एक दूसरे समूह के मॉडरेटर शर्मा की समूह में प्रकाशित इस कविता और इमेज पर टिप्पणी आयी –“फोटो रचना के अनुरूप है फिर भी इस तरह के फोटो न डालें महोदय” मॉडरेटर ने भी शालीनता से अपनी बात रखी। रचना को संपूर्णता में स्वीकार कर इमेज अस्वीकार करना मुझे आहत कर गया और समूह छोड़ने की बात कह दी। अंदाज़ में मेरे तल्खी थी। कई घंटे बीत गया पर मॉडरेटर का कोई उत्तर नहीं आया। इसी रचना पर समूह के दूसरे मॉडरेटर जैन जो ग्रुप एक्सपर्ट हैं उन्होंने भी इस कविता की प्रशंसा की और मैंने कहा कि बैले डांस करती नर्तकी की टांग कैसे अशोभनीय है। आपके समूह के मॉडरेटर शर्मा की फोटो पर आपत्ति है चूंकि आप समूह विशेषज्ञ हैं इसलिए विचार देय।  उत्तर नहीं मिला। मेरी रचनाओं पर इसी समूह के एडमिन भी अपनी प्रतिक्रिया देते थे वह भी पूरा दिन गुजर जाने के बाद भी मेरे इस पोस्ट पर नहीं आये। यह समूह मेरठ से संचालित होता है हिंदी के एक ख्यातिप्राप्त कवि के नाम पर है।


हिंदी समूह में शब्दों द्वारा श्रृंगार को इस हद तक निखारा जाता है कि श्रृंगार की शालीनता कंपित होने लगती है, ऐसे पोस्ट प्रायः पढ़ने को मिलते हैं। यदि एक विश्व प्रसिद्ध नर्तन मुद्रा की इमेज रचना संग पोस्ट कर दी जाती है तो एक मॉडरेटर अश्लीलता की ओर इशारा कर रचनाकार को शालीन इमेज पोस्ट करने की सकाह देता है। समूह का ग्रुप एक्सपर्ट चुप रहता है और समूह के एडमिन क्या उत्तर दें इस डर से प्रतिदिन की तरह वह सब भी पोस्ट पर नहीं आए। यहां एक व्यावहारिक पक्ष उभरता है कि निःशुल्क अपनी सेवा देनेवाला मॉडरेटर एक रचनाकार से कहीं अधिक उपयोगी इस समूह को लगा या यह भी कहा जा सकता है कि मॉडरेटर विशेष पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने की समूह पदाधिकारियों में चाहत ही न हो। एक संदेह पर रचनाकार समूह से प्रातःकाल से प्रश्न दो बार कर चुका पर शाम तक उत्तर ही नहीं है। हिंदी के अधिकांश समूह इसी प्रकार कार्य करते हैं।


मेरा हिंदी समूह में एक सदस्य के रूप में जाकर प्रतिदिन पोस्ट भेजते हुए यह अनुभव हुआ कि मध्य प्रदेश के हिंदी समूह देश के अन्य राज्यों के हिंदी समूह की तुलना में अधिक कुशलता से कार्य करते हैं। पश्चिमी उत्तरप्रदेश के हिंदी समूह में अक्खड़पन और समूह के सदस्यों के साथ व्यवहार में शुष्कता रहती है। मैंने उस समूह को तो नहीं छोड़ा जो इस प्रस्तुति का पहला समूह है और मध्य प्रदेश से कार्यरत है और जहां “जी” लिखकर छोड़ दिया था। दूसरा समूह छोड़ने जा रहा हूँ क्योंकि गूंगे और मूक लोगों के बीच जीवंतता क्रमशः लुप्त हो जाती है। ऐसे अबोले समूह एडमिन और मॉडरेटर के बीच रहकर रचनात्मकता घायल होती है अतएव ऐसे समूह का त्यजन ही श्रेष्ठ मार्ग है।


धीरेन्द्र सिंह

02.04.2025

17.02





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शुक्रवार, 14 मार्च 2025

जोगिया यह संसार

जगत के जोग (योग) में जोगिया बने अधिसंख्य लोग इहलोक से लेकर परलोक तक को सुसज्जित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। वर्ष 2025 का महाकुम्भ जोगिया जीवन का विस्तृत प्रदर्शन और प्रस्तुति कर्म में सफल रहा है। यहां यह उल्लेखनीय है कि यदि महाकुम्भ को कैमरे की दृष्टि से देखा जाएगा तो महाकुम्भ के किसी एक कोने का ही दृश्य मिलेगा और लगभग सम्पूर्ण अनुभूति के लिए जब तक महाकुम्भ जैसे परिवेश में व्यक्ति स्वयं न जाए तब तक आंशिक और अपूर्ण तथ्यों-कथ्यों में ही भृमण करना होगा। जोगिया क्या विभिन्न अखाड़ों के साधु-सन्यासी मात्र थे? यदि जोगिया परिधान और अखाड़ा विशेष से संबंधित ही जोगिया के पात्र हैं ? ऐसी सोच भ्रामक कही जा सकती है।


दस-बीस किलोमीटर सर पर बोझ लिए चलते असंख्य व्यक्ति मात्र श्रद्धालु नहीं थे बल्कि अपने-अपने स्तर पर योगी थे। सब जोगिया थे। हम कितना अपनी दृष्टि से देख, बांच और विश्लेषण कर पाते हैं। वर्तमान में तो इलेक्ट्रॉनिक शक्ति के वशीभूत होकर लोग उसी दिशा में चल पड़ते हैं जहां इलेक्ट्रॉनिक जगत ले जाता है। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि महाकुम्भ की भीड़ भी इलेक्ट्रॉनिक जगत का प्रभाव हो ? कुंभ, अमावस्या और माघ मेला से अपरिचित लोग ही इस तरह के तर्क पर विश्वास कर सकते हैं अन्यथा यह तो सदियों से भारतीय संस्कृति का अविभाज्य अंग रहा है। जोगी हो जाना एक जीवन शैली है और संभवतः प्रत्येक घर या खानदान में कोई न कोई जोगी के जीवन को जीते हुए मिल जाता है।


जोगिया का अभिनव रूप होली में भी निखरता और बिखरता है। महाकुम्भ में मीडिया नागा साधु के अखाड़े, अमृत स्नान के इर्दगिर्द अधिक रहा जबकि श्रेष्ठ भूमिका निभाते कई अखाड़े तन्मय होकर जनसेवा कर रहे थे। कल्पवासी और अधिकांश अखाड़े प्रयागराज महासकुम्भ से लौट गए थे तब उदासीन अखाड़ा का कार्यनिष्पादन मैंने देखा और पाया कि उनकी चाय और भोजन सेवा इतनी गुणवत्तापूर्ण थी कि बाजार के होटल की चाय आदि फीकी लगती थी। मैं जिस टेंट में रुका था उसके ठीक सामने उदासीन अखाड़ा था। इस उदाहरण का अभिप्राय यह है कि हम दूसरे द्वारा प्रस्तुति विशेषकर मीडिया को सत्य मानकर स्वीकार कर लेते हैं पर क्या मीडिया हमेशा सत्य दर्शाता है यह विचारणीय है।


नग्नता व्यक्ति को आकर्षित करती है और भारतीय समाज में नग्नता को छुपाने में लगभग 60 प्रतिशत ऊर्जा नित्य व्यय होती है। अमृत स्नान के लिए नागा साधू आ रहे हैं और लोगों की भीड़ आंखें फाड़कर उन्हें देखने नहीं दर्शन करने के लिए लालायित हैं। नग्नता कहां सहजता से उपलब्ध है भारत में ? नागा साधु और साध्वी कुछ तप से कुछ कृत्रिम रूप से स्वयं को संयमित कर नग्नता को पूजनीय रूप में प्रस्तुत करते है। देवी-देवता भी इसी तथ्य के सर्वोत्तम रूप में पूजनीय और वंदनीय हैं। नग्न हो जाना असाधारण बौद्धिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति का परिचायक है। महाकुम्भ में गंगा घाट के किनारे जब मैं अपने लोगों के कपड़े और जूते-चप्पल की रखवाली करने के लिए बैठा था तो नग्नता अपने सहज और स्वाभाविक रूप में चारों ओर थी और कोई फटी आंखों से किसी को न तो घूर रहा था न देख रहा था चाहे श्रद्धालु हों, पुलिसकर्मी हों या चाय बेचनेवाला सब कुछ सहज और सामान्य था। नग्नता वहां संज्ञाहीन और आकर्षणहीन थी। स्नान कर तट पर लौटी भीड़ में बैठे-बैठे लगभग 45 मिनट तक यही विश्लेषण करते रहा।


गंगा घाट की तरह विचारों और अभिव्यक्तियों की सरणी के कई हिंदी समूह सक्रियतापूर्वक कार्यरत हैं। इन हिंदी समूहों की प्रकाशित लेखन की विभिन्न विधाओं का विश्लेषण करने के बाद ज्ञात हुआ कि समूह भी घाट की तरह काम कर रहा हैं। कुछ समूह केवल भावनात्मक प्यार की पोस्ट से ही भरे होते हैं ठीक वैसे ही जैसे तीन दशक पहले हिंदी फिल्मों में नायक और नायिका के चुम्बन को दो फूलों को झुकाकर एक दूसरे से सटाकर प्रदर्शित किया करते थे। कुछ समूह बिना मॉडरेशन के कार्यरत हैं और आश्चर्य की बात हैं कि ऐसे समूह में कथित अभद्रता नहीं दिखती है क्योंकि ऐसे समूह साहित्य की विधा का एक अनुशासन और एक निर्धारित ढर्रा अपनाए हैं। ऐसे भी समूह मिले जो दो-चार पंक्तियों में अनियंत्रित विचारों को पोस्ट करते रहते हैं।


हिंदी समूहों का महाकुम्भ भी अपने विभिन्न अखाड़े (समूह) को लेकर हिंदी साहित्य के जिस विविध रूप को प्रस्तुत कर रहा है उंसमें कुछ परेशानियां है जैसे अभद्र, अशोभनीय और राजकीय अभिव्यक्तियाँ जो समूह के लिए  न तो उपयुक्त हैं और न ही समूह इतनी व्यापकता की तह तक जाने की सामर्थ्य रखता है अतएव समूह को निरंतर सजग और चौकन्ना रहना पड़ता है। कुछ समूह के एडमिन और मॉडरेटर साहित्य की इतनी गहन समझ रखते हैं कि पहली नजर में ही पोस्ट की गुणवत्ता समझकर पोस्ट को अनुमोदित कर देते हैं। कुछ समूह रचनाकार को पढ़ते हैं और उनकी पोस्ट को उनका नाम देखते ही पटल पर जाने देते हैं। हिंदी समूह सत्यता को नग्नता की हद तक नहीं ले जाना चाहता है। हिंदी समूह के इस महाकुम्भ में अखाड़े जीवंत हों इसके लिए विभिन्न समूह का श्रम वंदनीय है।


धीरेन्द्र सिंह

15.03.2025

09.17


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मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

महाकुम्भ - एक अनुभूति

वर्ष 2025 सनातन की लहर का वर्ष माना जाएगा। वर्ष 144 के बाद ग्रह, नक्षत्रों का यह अद्भुत संयोग सनातनियों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहा। राजकीय, राष्ट्रीय और प्रशासकीय सहयोग ने इस महापर्व को एक गति और ऊंचाई प्रदान की। निजी चैनल और सोशल मीडिया ने विशेष प्रयास कर महाकुम्भ को नई गरिमा प्रदान की। प्रतिदिन कोई न कोई फोटो संगम स्नान की महत्ता और आवश्यकता की मुनादी दे रहा था और कहीं न कहीं यह बोल रहा था कि यदि महाकुम्भ 2025 में नहीं गए तो स्वर्णिम अवसर से चूक जाएंगे। यह मूक सलाह और प्रोत्साहन आए दिन हजारों नए श्रद्धालु निर्मित कर रहे थे।


शनिवार रात्रि 11.30 पर प्रयागराज में संगम घाट के पहले ही कार को रोक दिया गया। महाकुम्भ में टेंट लगाए परिचित से जब पार्किंग विषयक दिशानिर्देश मांगा तो कहा गया एग्रिकल्चर पार्किंग में पसर्क कर दें और वहां परिचित पहुंच रहे हैं। परिचित अपनी मोटरसाइकिल से आये और हम लोगों को दो फेरी मैं टेंट तक ले गए। पार्किंग से टेंट तक की दूरी लगभग 20 किलोमीटर थी। एक परिचित द्वारा यह प्रयास दिल को छू गया। मोटरसाइकिल से पार्किंग से सेक्टर 4-5 स्थित टेंट में जाते समय सड़क को भीड़ से दबा पाया। जिस कौशल और जिस खतरनाक अंदाज में मोटरसाइकिल चला रहे थे कि लगा अब नहीं तब हादसा होगा। इतनी भीड़ में पैदल चलना कठिन है उस भीड़ में दोपहिया  वाहन कैसे चल सकता है। सकुशल टेंट पहुंचकर राहत की सांस ली यद्यपि चलना नहीं पड़ा था।


सभी टेंट में एकत्रित हो गए तो गंगा स्नान पर चर्चा हुई। परिचित ने कहा कि त्रिवेणी संगम एक मीडिया जनित आकर्षण है। जिस स्थान पर अमृत गिरा था उसके  चारों ओर 3 किलोमीटर तक एक ही प्रभाव रहता है इसलिए टेंट से 500 मीटर दूर स्थित घाट पर स्नान किया जाना ठीक रहेगा। हमलोग पिछले 24 घंटे से लगातार सड़क पर कार संग दौड़ते रहे इसलिए आंखों में नीद भरी थी। भोर की बेला थी और हमसब टेंट में अपने-अपने बिस्तर पर लुढ़क गए। रविवार दोपहर को नींद पूरी हुई और फिर से चर्चा आरम्भ हुई गंगा स्नान की। परिचित ने कहा कि चूंकि आज नितिन गडकरी आए हैं इसलिए बोट सेवा बंद है। भोजन पश्चात तन की ऊर्जा ने मन की ऊर्जा को अपने होने का आभास दिया। यह तय हुआ कि सोमवार की सुबह 5 बजे बोट चलेगी तथा प्रति व्यक्ति रुपए दो हजार किराया होगा, परिचित ने बोटवाले से बात भी कर ली। यह निर्णय हुआ कि आज की शाम करीब के दशाश्वमेध घाट पर स्नान किया जाए।


हम पुलिया पारकर घाट के पास पहुंचे तो परिचित ने कहा कि संगम पर यह सड़क जाती है। जाकर देखे तो पाया लोगों को रोका गया है। पुलिस से पूछने पर कि कब खुलेगा उत्तर मिला नहीं कहा जा सकता। हम लौटकर नीचे कारीबवाले घाट की ओर बढ़े। घाट नीचे था और उसके साथ ऊंचाई पर संगम जानेवाली सड़क थी। नीचे से हम सड़क की ओर भी देख रहे थे कि कुछ हलचल दिखाई दे तो हम भी सड़क पर चढ़ जाएं। घाट पर उचित स्थान की खोज में आगे बढ़ते जा रहे थे कि अचानक एक दृश्य देख रुक गए। घाट से ऊंचाई पर स्थित सड़क पर लोग सड़क की ऊंचाई से जुड़े पत्थरों पर चढ़कर सड़क पर पहुंच रहे थे। एक हाँथ की दूरी लिए पत्थरों की पैच अनगढ़ सीढियां जैसी चयन पर चढ़ना था।जो अनुचित और असामाजिक कृत्य था।  पत्थर टूटकर नीचे घाटपर न गिरे इसलिए पत्थरों को तार से बांधा गया था। श्रद्धा के समक्ष विवेक कमजोर पड़ गया।


हमने सोचा लोग चढ़ रहे हैं तो हम भी चढ़कर संगम स्नान कर लेते हैं। परिचित और एक व्यक्ति ने कहा कि वह नहीं चढ़ेंगे गिरने का खतरा है। हम में से एक ने कहा कि जल्दी निर्णय लो वरना यहां भी पुलिस आकर हादसे के डर से चढ़ना रोक देगी। इतना सुनते ही मैं पत्थरो को बांधे तारों को पकड़ते हुए चढ़ गया पर अंतिम पत्थर से सड़क थोड़ी ऊंची थी और मैं सोच रहा था किं कैसे सड़क तक पहुंचने के लिए चढूं कि अचानक एक हाँथ ने मुझे पकड़ा फिर दूसरे हाँथ को भी किसी ने पकड़ा और मुझे सड़क पर खींच लिया। अप्रत्याशित पर सुखद था। सामने पड़ी एक बेंच पर बैठकर साँसों को नियंत्रित किया तब तक हम सभी इकठ्ठे हुए और संगम घाट की ओर चल पड़े। पीछे मुड़कर देखे तो सड़क मौन थी मतलब अभी भी लोग रुके हैं। एक विजय की भावना ने ऊर्जा प्रदान की। खूब पानी और नींबू शरबत पीकर संगम घाट पहुंच गए।


त्रिवेणी संगम पर गंगा जी में घुटने तक जाकर मैंने डुबकी लगाने का प्रयास किया तो लगा बैठ गया हूँ एक टीला पर  संतुलन थोड़ा डगमगाया और वहां पर गंगा का गहरा  न होना खला क्योंकि अब तक के वीडियो में घुटने तक पानी में लोगों को डुबकी लगाते देखा था। आगे बढ़ा जहां पर आगे जाने की रोक थी। वहां डुबकी सफल रही। देखा तो लड़के-लड़कियां स्वीमिंग पूल समझकर मस्ती कर रहे थे। आध्यात्म की डुबकी में उन लड़कों और लड़कियों की यह अप्रयुक्त थाप मुझे अच्छी नहीं लगी और मैं बाहर आ गया। घाट किनारे ही कपड़ा बदला और मुझे कहा गया कि 32 नंबर खंभे के पास बैठकर कपड़ों और जूट चप्पलों की रखवाली करूं। बैठ गया। 


चेंजिंग रूम सहजता से उपलब्ध थे और करीब थे इसके बावजूद भी अधिकांश कपड़े घाट पर ही बदल रहे थे। पुरुष और लड़के भींगे हुए केवल चड्ढी में घूम रहे थे जो अशोभनीय लग रहा था पर वह बेखबर थे। लड़कियां और महिलाएं घाट पर ही कपड़े बदल रही थीं। कुछ तो दो महिलाओं के सहयोग से तौलिया आदि का ओट कर वस्त्र बदलने की क्रिया को सफलतापूर्वक पूर्ण कर रही थीं। कुछ भीड़ की परवाह किए बिना वस्त्र बदल रही थीं तो कुछ का ओट ठीक नहीं था। एक अजीब घृणित परिवेश था। उसी में सेल्फी और फोटोग्राफी एक अजीब स्थिति निर्मित कर देती थी। वह लाल साड़ीवाली दो बार मेरे इतने करीब आकर फोटो खिंचवाई कि उसकी साड़ी मुझे स्पर्श कर रही थी। चिल्ला उठा “सब लोग संभल कर आएं यहां फोटोग्राफी हो रही है।“ इतने कपड़े और जूते चप्पल लेकर कहीं जा भी तो नहीं सकता था। चिल्लाना सफल रहा।


सोमवार को हमें वापस आना था लेकिन समस्या थी कि पार्किंग तक कैसे पहुंचा जाए। चौराहे पर खड़े होकर अनेक मोटरसाइकिल और इलेक्ट्रिक रिक्शा से पूछ चुके थे सबका उत्तर था नैनी की तरफ नहीं जाएंगे। परिचित टेंट के एक व्यक्ति को लेकर बोट से स्नान करने निकल चुके थे। अब क्या? एक इलेक्ट्रिक रिक्शा को खाली देख पार्किंग तक चलने को कहा। न जाने हमारी किस बात से प्रभावित होकर वह हमसे बातें करने लगा। कुछ और लोग भी आये और बोले जितना किराया मांगोगे देंगे पर वह तैयार न हुआ। अपना रिक्शा छोड़कर हमारी समस्या को सुना और अपनी समस्या बतलाया कि नैनी की ओर जाते समय पुल पर इलेक्ट्रिक रिक्शा चढ़ नहीं पाता इसलिए वह असमर्थ है पर वह हमारी सहायता के लिए अपने रिक्शे पर बैठाकर हमारे लिए वाहन ढूंढने लगा। अंत में एक रिक्शा स्टैंड पर खोज करते हुए अचानक एक व्यक्ति आया और बोला कि उसके पास कार है और वह छोड़ देगा। चार हजार रुपए में लगभग 20 किलोमीटर स्थित हमारे पार्किंग तक पहुंचा दिया। भीड़ में रेंगते हुए हमारी कार प्रयागराज से बाहर निकली। विभिन्न ऊर्जाओं और अनुभूतियों से भरी महाकुम्भ यात्रा बहुत कुछ दे गई।


धीरेन्द्र सिंह

18.02.2025

19.09

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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

चटकते तार

चटकते तार


सृष्टि, संसार, जीव-जंतु, परजीवी आदि में रक्तवाहिका के रूप में असंख्य नसें होती हैं जो एक-दूसरे से अपने आंतरिक स्वास्थ्य में भिन्न होती हैं इसके बावजूद भी चिकित्सा जगत अपनी सिद्ध प्रणालयों से ही उपचार करता है जिसकी सधी विभिन्न सर्वपरिचित प्रक्रियाएं होती हैं। इसी प्रकार संस्कार के भी विभिन्न तार होते हैं जो विभिन्न देशों में वहां के संस्कार के अनुरूप समाज में व्याप्त रहते हैं। जब किसी समाज के संस्कार के तार टूटने लगते हैं तब न केवल वहां के समाज प्रभावित होते हैं बल्कि मानवता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।


भारत देश में पिछले कुछ वर्षों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देह प्रदर्शन और यौन क्रियाओं का प्रदर्शन का चलन जोरों पर है। इंस्टा, फेसबुक, यूट्यूब में एक जादुई शब्द है मोनेटाइजेशन अर्थात अपनी वीडियो प्रस्तुति से निर्धारित न्यूनतम हिट्स, लाईक पाकर रुपयों की प्राप्ति करना। सदियों से समाज के आकर्षण का केंद्र यौन की विभिन्न गतिविधियों रही हैं वही उन्नत रूप में आज भी हैं।


मनोरंजन में स्टैंड अप कॉमेडी क्या आ गयी मानो फूहड़ता प्रदर्शन कर सस्ते मनोरंजन द्वारा आय का नया मार्ग खुल गया। कॉमेडी शो में एक नाम अति लोकप्रिय है जो वर्षों से दोहरे अर्थ वाले संवाद का उपयोग कर और सिने कलाकारों को बुलाकर पैसा कमा रहा है। फूहड़ है पर सफल है ठीक उसी तरह जैसे एक सिने कलाकार कुछ लोगों को कुछ दिनों तक एक मकान में बंदकर मानव के कुत्सित भावनाओं का मुक्त वैभवपूर्ण प्रदर्शन कर रहा और रुपए कमा रहा, यह भी सफल है।


ऐसे ही प्रेरित होकर एक युवा ने युवा नई सोच के साथ टैलेंट की जगह लैटेन्ट शब्द का उपयोग कर अपना शो आरम्भ किया और सदस्यता लेनेवालों को निर्धारित स्थान पर आमंत्रित कर अभद्र यौन शब्दावली का और असभ्य दैहिक अभिव्यक्ति द्वारा लगातार अपने शो प्रस्तुत करना आरंभ किया। इस शो को देखने के लिए एक साहस की आवश्यकता है जहां आदर्श, सिद्धांत, नैतिकता प्रायः निम्नतम स्तर पर मिलती है।


कहावत है कि हर पाप का घड़ा फूटता है और इलाहाबादी नाम के एक युवा ने लैटेन्ट के मंच से माता-पिता के अंतरंग क्षणों का दर्शक होना या फिर उसमें सहभागी होना जैसे हेय वाक्य बोलकर सनातनी भारत के संस्कार को झकझोड़ दिया। इतना ही नहीं माखीजा नाम की युवती ने  माँ की ममता पर इतनी घृणित वाक्य का प्रयोग किया कि प्रयास के बावजूद भी वह वाक्य लिख नहीं पा रहा।


सनातन का सबसे बड़ा पर्व महाकुम्भ महोत्सव जारी है। सनातन का मूल आधार परिवार है। भारत के सभी घर अपने परिवार की ऊर्जा पर चल रहे हैं। यह दुखद स्थिति है कि परिवार के परम आदरणीय मां, पिता आदि को यौन के अति घृणित वाक्य में पिरोकर मंचीय अपराध किया जा रहा है। क्या यह सनातन को कमजोर करने की प्रक्रिया नहीं है? अपने गौरवशाली इतिहास से भटके ऐसे युवाओं में संस्कार के तार टूट रहे हैं और यह विस्फोटक बनते जा रहे हैं। कैसे लगेगी ऐसे घृणित प्रस्तुतियों पर लगाम ? उपाय की तलाश जारी है।


धीरेन्द्र सिंह

11.01.2025

16.18




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रविवार, 27 अक्टूबर 2024

भाषा रचता शब्द

भाषा रचता शब्द


भाषा शास्त्र में शब्द की महत्ता और एकल इयत्ता है। वैश्विक गांव में जब विभिन्न भाषा और संस्कृति एक-दूसरे के समीप आते जा रहे हैं तब ऐसी स्थिति में भाषा की पारंपरिक शब्दावली को बनाए रखना एक चुनौती है जिससे विशेषकर औपनिवेशिक देश गुजर रहे हैं। हिंदी भाषा भी इनमें से एक है।


भारत देश के एक बड़े प्रकाशन द्वारा अपने दैनिक में मीठा शब्द का प्रयोग रोमन भाषा में किया गया है।(कृपया संलग्नक देखें) क्या यह हिंदी भाषा के लिए एक उत्साहजनक स्थिति कही जाएगी? कुछ अति उत्साही लोग कहेंगे कि देखिए हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन गयी है और लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक ने हिंदी के मीठा शब्द को अपने परिशिष्ट के शीर्षक में MEETHA लिखकर प्रयोग किया है जो अंग्रेजी पर हिंदी के प्रभुत्व का परिचायक है। ऐसी बोली हिंदी के कुछ मंचों पर सुनने को मिलती है पर ऐसी धारणा रखनेवाले संलग्नक में यह भी देखते हैं कि :-


1. देवनागरी लिपि को खतरा :- हिंदी के शब्दों को रोमन लिपि में लिखने और उसके प्रयोग को बढ़ाने से देवनागरी लिपि के लोप होने का खतरा है। मोबाइल के रोमन की बोर्ड इस दिशा में पहले से सक्रिय हैं।


2. भारतीय संस्कृति पर आघात :- संलग्नक के शीर्षक में मीठा शब्द के आगे किसी भारतीय मिष्ठान का फोटो नहीं है बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनी का लोकप्रिय चॉकलेट है। यह भारतीय पर्व आयोजन की परम्परा में व्यावसायिक लाभ और परम्परा पथ भ्रमित करने का प्रयास नहीं है?


3. लंदन का दैनिक नहीं है :- संलग्नक के शीर्षक में meetha शब्द का प्रयोग लंदन के दैनिक में नहीं होगा और न ही इस प्रकार का परिशिष्ट, यह मात्र भारतीय पाठकों को रिझाने का प्रयास है। इस प्रकार का शब्द प्रयोग अंग्रेजी भाषा की जीत है। क्या लंदन या वाशिंगटन के दैनिक में शीर्षक हिंदी के किसी शब्द का प्रयोग किए हैं ? 


4. प्रायोजित परिशिष्ट :- यह भी हो सकता है कि दैनिक के इस परिशिष्ट को बहुराष्ट्रीय कंपनी ने प्रायोजित किया हो जो जानता है बिना स्थानीय भाषा के स्थानीय संस्कृति में किसी प्रकार भी पहुंचा नहीं जा सकता।


यह विषय विचारणीय भी है और चिंतनीय भी।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2024

10.49




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सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

बदलती हिंदी

यह कैसी हिंदी ? निम्नलिखित समाचार शीर्षक में लिपि देवनागरी है पर क्या इसे हिंदी भाषा कहा जा सकता है ? क्या भविष्य की हिंदी शब्दावली नए प्रकार की शब्दावली होगी ? क्या भविष्य में हजारों हिंदी शब्द लुप्त ही


जाएंगे? कृपया संलग्नक देखें और विचार करें कि क्या यथार्थ में हिंदी शब्दावली में अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ जारी है? कौन चाह रहा है शब्दावली बदलना? हिंदी पत्रकार?


धीरेन्द्र सिंह

22.10.2024

07.32




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"टेबल टॉप" - विपणन थाप

महाबलेश्वर प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित पहाड़ियों पर बसा पंचगनी और महाबलेश्वर प्रत्येक मौसम में यात्रियों को लुभाता है। यहां पर पंचगनी और महाबलेश्वर की प्राकृतिक छटाओं का वर्णन नहीं किया जाएगा। ज्ञातव्य है कि पंचगनी बोर्डिंग विद्यालय का एक श्रेष्ठ स्थल है। महाबलेश्वर में टेबल टॉप स्थल काफी लोकप्रिय स्थल है। चलिए टेबल टॉप पर चलते हैं।


महाबलेश्वर के पहाड़ के शीर्ष पर गोलाकार पर्वतीय हिस्से को टेबल टॉप के नाम से जाना जाता है। यहां पर वाहन रुकते ही कई लोग घेर लेते हैं जो प्रमुखतया घोड़े की एकल सवारी या घोड़ा गाड़ी से टेबल टॉप का भ्रमण कराने का आग्रह करते हैं। वाहन से बाहर निकलते ही घोड़े की लीद और गंध से परिसर भरा रहता है। यहां पर पहली बार जानेवाले व्यक्ति इन व्यक्तियों की बातों में उलझ जाते हैं। पार्किंग क्षेत्र के घोड़ा आग्रह से बचते हुए व्यक्ति जब आगे बढ़ता है तब वहां हाँथ में रसीद लिए व्यक्ति मिलता है और विस्तृत गोलाई को दिखाते हुए विभिन्न पॉइंट की विशेषता और महत्ता बतलाता है। वह यह भी मानसिक दबाव डालता है कि इतनी दूरी को पैदल तय कर पाना थका देता है और अधिक समय लेता है।


व्यक्ति उलझन में पड़ जाता है और जब टेबल टॉप की विस्तृत गोलाई पर दृष्टिपात करता है तो स्वयं को असमर्थ पाता है। एक घोड़ा गाड़ी रुपये 800 या 850 में उपलब्ध हो जाता है। यह पूछने पर की इतनी कम दूरी का इतना अधिक किराया क्यों तो उत्तर मिलता है एक घोड़ा गाड़ी का दिन में एक बार ही नंबर आता है। एक घोड़ा गाड़ी पर सामान्यतया 4 व्यक्ति ही बैठते हैं। यदि कोई व्यक्ति कहे कि दूसरे घोड़ा गाड़ी पर तो 6 लोग बैठे हैं तो उत्तर मिलता है कि व्यक्ति के वजन के अनुसार बैठाते हैं। यात्रियों को यह भी कहा जाता है कि आगे कीचड़ और फिसलन है इसलिए सावधानीवश इन गाड़ियों पर वजन का ध्यान रखा जाता है। भुगतान करने पर गाड़ी आ जाती है।


घोड़ा गाड़ी पर बैठने के बाद यात्रा साहसिक होती है। टेबल टॉप पट जगह-जगह हुए गड्ढे से जब गाड़ी गुजरती है तब यात्रियों को अपना संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी पकड़ को मजबूत करना होता है अन्यथा असन्तुलित होकर गाड़ी में गिरने का खतरा बना रहता है। पांडव चूल्हा और पांडव चरण निशान यथार्थ कम मनोरंजन ज्यादा लगते हैं। बॉलीवुड फिल्मों जैसे “तारे जमीन पर” आदि के शूटिंग स्थल को दिखलाया जाता है जिसे बगैर समझे हां कर देना यात्रियों की नियति है। न फ़िल्म का सेट न कलाकार न कैमरा आदि, मात्र स्थल दिखलाकर यात्रियों को काल्पनिक रूप से विभिन्न फिल्मों से जोड़ा जाता है। यहां अधिकतम पॉइंट हैं जिसे समझना कठिन है क्योंकि देखने के लिए मात्र वादी है। घोड़ा गाड़ी अधिकांश पॉइंट की चर्चा रुक कर करता है जबकि यात्री गाड़ी में बैठे रहते हैं। लगभग दस मिनट में इस तरफ के सारे पॉइंट पूरे हो जाते हैं किन्तु दो जगह जहां घोड़ा गाड़ी रुकती है वहां सायकिल पर आइसक्रीम का डब्बा लिए व्यक्ति रहते हैं। यात्रियों को देखते ही वहां के विभिन्न पॉइंट की जानकारी अच्छी हिंदी में देने लगते हैं। यद्यपि यह जानकारियां इन लोगों का सिद्ध मंत्र जैसा है इसलिए यात्रियों को अपनी भाषा से प्रभावित करते हैं। जानकारी विषयक सिद्ध सूचना मंत्र समाप्त होते ही दूसरा भाग आरम्भ होता है।


एक ही पॉइंट स्थल के दूसरे भाग में बिन बुलाए आइसक्रीम वाला अब यात्रियों को अपनी आइसक्रीम की विशेषता बतलाता है। उसके अनुसार आइसक्रीम पूरी तरह विभिन्न फूलों से बना है जैसे केवड़ा, गुलाब आदि। आइसक्रीम उवाच श्रद्धापूर्वक करता है और प्रसाद के रूप में चखने के लिए आइसक्रीम देता है। हथेली पर गिरा आइसक्रीम का लघु अंश बोलता है कि पुष्प स्वाद है। आईस्क्रीन वाले की लगभग दस मिनट की निःशुल्क जानकारी, ज्ञान और आइसक्रीम प्रसाद के बाद व्यक्ति 50 रुपये का छोटा स्कूप पुष्प निर्मित आइसक्रीम लेकर घोड़ा गाड़ी पर बैठ जाता है। आइसक्रीम चीनी से भरी हुई मिलती है जिसे मीठा दांत हिचकिचाते स्वीकार करता है तथा शेष उसे फेंक देते हैं।  आइसक्रीम वाले की विपणन क्षमता अपना प्रभाव छोड़ जाती है और यात्रियों को याद आता है कि उसने यह भी कहा था कि स्ट्राबेरी और मिर्च की आइसक्रीम सुबह ही समाप्त हो गयी अब शाम की आएगी।


टेबल टॉप का अंतिम पड़ाव गुफा है जहां घोड़ा गाड़ी यात्रियों को उतारकर यह दिशानिर्देश देती है कि सामने ही द्वार है जिससे बाहर निकला जा सकता है और यात्रियों से विदा ले घोड़ा गाड़ी नए यात्रियों की तलाश में लग जाती है।  गुफा में उतरने के लिए सीढियां हैं जिससे नीचे पहुंच गुफा प्रवेश का शुल्क देकर एक संकरी गुफा में प्रवेश किया जा सकता है जो मानव निर्मित है। संकरी गुफा छोटी है जिसमें लाइट व्यवस्था जानबूझकर उपलब्ध नहीं कराई गई है और लोग मोबाइल टॉर्च का प्रयोग कर रोमांचित होते हैं। भीतर शिल्पकार द्वारा निर्मित शंकर भगवान की मूर्ति है जिसे नमस्कार कर लोग लौट आते हैं।


गुफा से ऊपर आकर जब घोड़ा गाड़ी वाले द्वारा दिशानिर्देशित द्वार पर व्यक्ति पहुंचता है तो पाता है कि टेबल टॉप पर इससे पहले आ चुके लोग सीधे इसी द्वार से गुफा तक जाते हैं और वहां से प्रकृति का अवलोकन और गुफा यात्रा कर लौट आते हैं। इस विषय पर पूछने पर पता चला कि घोड़ा गाड़ी से जो दिखलाया जाता है वह सब नीचे घूमने पर स्वतः मिल जाता है। व्यक्ति शायद तब यह सोचता है कि क्या वह टेबल टॉप के विपणन थाप में फंस गया?


धीरेन्द्र सिंह

21.10.2024

17.09





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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

शब्द कठिन या शब्द अपरिचय

“आपकी कविता में जो शब्द है आज के युवाओं का इनसे परिचय भी नहीं होगा। जिन चीजों को उन्होंने वास्तविकता में देखा नहीं होगा, समझा नहीं होगा, सुना नहीं होगा वो कविता के रूप महसूस कैसे करेंगे?”


उक्त पंक्तियां मेरे द्वारा लिखित कविता “अनुगूंज” पर की गई है जिसकी रचना और पोस्ट की तिथि 15 अक्टूबर, 2024 है। क्यों उक्त पंक्तियां इतनी महत्वपूर्ण हो गयी हैं कि इनपर लिखने का प्रयास किया जा रहा है? कौन हैं जिया पुरस्वानी ? मुझे भी नहीं मालूम पर उन्होंने एक ज्वलंत समस्या को रखा है जिसमें “आज के युवाओं” के शाब्दिक ज्ञान की बात की गई है। उक्त पंक्तियों का मैंने निम्नलिखित उत्तर दिया :-

“एक जीवन होता है जो केवल अनुकरण करता है और जो परिवेश है उसके अनुसार ढलते जाता है, इस प्रकार के जीवन के लिए कुछ कहना, कुछ सुनना विशेष अर्थ नहीं रखता क्योंकि ऐसी जिंदगी जो मिल रहा है उससे खुश होती है। मेरी रचना भी परिवेश मुग्ध लोगों के लिए नहीं होती है और ऐसे लोग पूरा पढ़ते भी नहीं क्योंकि पढ़ नहीं पाते, कारण अनेक हो सकते हैं।

अब प्रश्न है कि फिर मैं लिखता क्यों हूँ ? मेरा लेखन हिंदी भाषा संचेतना के इर्द-गिर्द रहता है। मेरा लेखन शब्दावली में निहित अर्थ को और प्रखर तथा परिमार्जित करना होता है जो विभिन्न वाक्य प्रयोग से होता है। वर्तमान में हिंदी विज्ञान, अभियांत्रिकी, प्रौद्योगिकी आदि में हिंदी शब्दावली और उसके प्रयोग का जो अभाव है उसका एक प्रयोग है। मेरी रचनाएं भाषा शास्त्रियों और भाषा मनीषियों के चिंतन राह का एक सहयोगी पथिक है।

कुछ रचनाएं मात्र रचनाएं नहीं होतीं बल्कि एक दूरगामी लक्ष्य की धमक होती है और इस परिप्रेक्ष्य में आपकी सोच और चिंतन एक सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। धन्यवाद😊”

पुनः प्रश्न उभरा :-

“...जी, दूरगामी लक्ष्य में, भविष्य में, क्या आज के युवा सम्मिलित नहीं होंगे।
यदि होंगे तो भाषा का स्तर, थोड़ा बहुत उनकी समझ का तो होना चाहिए”

पुनः उत्तर देने का प्रयास :-

“...जी भाषा का रचयिता समाज होता है। प्रौद्योगिकी और अंग्रेजी भाषा को भारतीय युवा सीख रहे हैं अतएव विश्व में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। भाषा या भाषा की शब्दावली किसी के पास नहीं जाती, इन्हें समाज ही रचता है और समाज ही अभिव्यक्ति की बारीकियां इसमें समाहित करता है इस आधार पर विश्व क प्रत्येक भाषा की ओर व्यक्ति ही आते हैं। भाषा को समझना व्यक्ति का एक बौद्धिक और सामाजिक दायित्व है। हां यह कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति को अपने काम भर की भाषा आ जाती है तो वह व्यक्ति अपनी शाब्दिक दुनिया के अनुरूप ही शब्द सुनना चाहता है जो एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव है पर यथार्थ में भाषा या शब्द कहीं रुकती है ? नहीं, इनमें सतत विकास और विन्यास होते रहता है जो समय की मांग है😊”

मेरी रचनाओं को पढ़नेवाले अनेक लोग मेरे द्वारा चयनित शब्दावली से अपरिचित होने की बातें करते रहते हैं। अनेक लोगों को अनेक बार आश्वासन भी दिया हूँ कि सरल शब्दावली का प्रयोग करूंगा और करता भी हूँ पर क्या सभी विचार और भाव बोलचाल की शब्दावली में अभिव्यक्त किए जा सकते हैं ? उत्तर है नहीं।  यहां प्रश्न उठता है भाषा की वृहद भूमिका की और शब्दावली के अभिव्यक्ति क्षमता की। यहां पर एक पाठक वर्ग जो सहज और सामान्य शब्दावली का पक्षधर है इस वर्ग की मांग उचित है किंतु लेखन के व्यवहार्य के अनुकूल नहीं है। सामान्य शब्दावली के अतिरिक्त भी कई शब्दावली हैं जैसे विधि शब्दावली, प्रशासनिक शब्दावली, रेल शब्दावली, बीमा शब्दावली, बैंक शब्दावली, तकनीकी शब्दावली, प्रौद्योगिक शब्दावली, पारिभाषिक शब्दावली  आदि । इन शब्दावली के शब्दों का यदि प्रयोग न किया जाएगा तो हिंदी कैसे एक सक्षम और समर्थ भाषा बन सकती है ?”

हिंदी के शब्द क्रमशः मरते जा रहे हैं बोलियां भी समाप्त हो रही हैं ऐसे समय में न केवल हिंदी भाषा पर बल्कि भारतीय संस्कृति के एक भाग के प्रभावित होने का भी खतरा बना रहता है। शब्द यदि बचेंगे और सुगठित होते हुए जीवन के प्रत्येक भाग की अनुभूतियों और भावनाओं को सफलतापूर्वक अभिव्यक्त कर पाएंगे तो हिंदी ललित लेखन के अतिरिक्त भी अन्य विधाओं को बखूबी दर्शा पाएगी। शब्द कठिन होते हैं यह भाषा विषयक भ्रांति निकाल देनी चाहिए।

धीरेन्द्र सिंह
15.10.2024
16.55 



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सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

हिंदी समूह - समग्र विकास (पहल-प्रश्रय-प्रभाव)

लिखित अभिव्यक्ति के लिए गठित और बने अनेक हिंदी समूह को संचालित, सुविकसित और सारगर्भित मूलतः एडमिन और मॉडरेटर बनाते हैं। जिनके द्वारा ही रचनाकार विकसित होते हैं और समूह को विकसित करते हैं। यहां यह मान लेना कि समूह का सदस्य रचनाकार दोयम दर्जे का होता है एक गलत सोच कही जाएगी, ऐसा कोई समूह मानता भी नहीं है। अभी भी कुछ हिंदी समूह हैं जहां एडमिन और मॉडरेटर सदस्य रचनाकार को आदर सहित अपने ही कतार में स्थान देते हैं। इस प्रकार के हिंदी समूह के एडमिन, मॉडरेटर अपने प्रयासों से  रचनाकार और रचनाओं की एक आकर्षक माला के रूप में आकर देते हैं जहां सबकी भूमिका उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण होती है। यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि इस विषय पर लिखने की क्या आवश्यकता है ? संबंधित समूह के एडमिन और मॉडरेटर सक्षम हैं समूह को सही दिशा और गति देने के लिए। यह सही सोच है पर क्या सभी हिंदी समूह अच्छे हिंदी समूह हैं? क्या हिंदी भाषा या हिंदी साहित्य के विकास को और तेज गति देने के लिए सभी हिंदी समूह में निरंतर विकास के लिए एक स्वस्थ समीक्षा जरूरी नहीं है ? हम समूह सदस्य यदि इस दिशा में नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा? समय-समय पर इस विषय पर  लिखा जाना हिंदी समूह समग्र विकास के लिए आवश्यक है।

एक हिंदी समूह है और उस समूह में हिंदी रचनाएं ही प्रकाशित होती हैं एक बार समूह में एक अंग्रेजी भाषा में लिखित रचना मिली। यह देखकर आश्चर्य हुआ। दूसरी सबसे उल्लेखनीय बात की संबंधित सदस्य का खाता क्षद्म था क्योंकि जो नाम लिखा था वह विचित्र था उदाहरण के लिए बरगद। उसके साथ ही अंग्रेजी में जो लिखा गया था वह तर्कपूर्ण नहीं था। इस विषय पर एक तीसरा व्यक्ति चर्चा में आकर कह रहा है कि इस समूह में अंग्रेजी भाषा में भी रचना स्वीकार होती हैं। इस विषयक स्पष्टता समूह के नियमावली में क्यों नहीं है, इस प्रश्न पर तीसरे व्यक्ति का उत्तर नहीं मिला।


यहां यह कह देना की समस्या जिस समूह की है वह समूह जाने सुर बेकार के विवाद वाली पोस्ट पर दूसरा समूह क्यों ध्यान दे या क्यों ध्यान दिया जाए। यह सोच क्या उस सोच जैसी नहीं होगी कि बगल के घर में क्या हो रहा है उससे क्या मस्तलब ? हिंदी के विकास के लिए किए जा रहे उल्लेखनीय प्रयास को अति श्रेष्ठ बनाने के लिए त्रुटियों का उल्लेख सकारात्मक भाव किया जाना आवश्यक है।


एक और हिंदी समूह है जिसमें एक उत्सव में  सहभागी “बैकलेस” परिधान की नारी का कहीं से उठाया हुआ फोटो है जिसपर नारी के संस्कार पर टिप्पणी की गयी है। पुरुष जब अपने "सिक्स" या "एट" पैक दिखाता है तो उसे शारीरिक सौष्ठव कह सराहा जाता है और यदि नारी ऐसा वस्त्र पहन लें तो तत्काल संस्कार उभर आता है। किसी भी परिधान का कोई कारण होता है जिसमें फैशन उद्योग की भी भूमिका होती है। ऐसे कार्य अनुभवी मॉडल करती हैं। इस मुद्दे को प्रस्तुत कर यह कहने का प्रयास किया जा रहा है कि पोस्ट करनेवाली की रचना मौलिक होनी चाहिए और रचना समर्थन में उवयुक्त फोटो होना चाहिए।


एक तीसरे समूह में एक अच्छे कवि ने किसी दूसरे कवि की रचना पोस्ट की जिसमें मूल कवि का नाम भी था। रचना पोस्ट करनेवाले सदस्य स्वयं अच्छी कविता लिखते हैं तथा दूसरे कवि की संलग्न रचना नारी गरिमा को ठेस पहुंचाती चतुराईपूर्वक लिखी गयी थी। चर्चा के बाद पोस्ट करनेवाले सदस्य सहमत हुए की उनकी रचनाएं अच्छी होती हैं। समूह का यह दायित्व भी होता है कि मौलिक लेखन को प्रोत्साहन दें।


नारी, नारी और नारी, यह सत्य है कि यत्र-तत्र-सर्वत्र नारी की अति महत्वपूर्ण भूमिका होती ही। नारी के अनेक सौंदर्य हैं या ऐसे भी कहा जा सकता है कि नारीत्व ही सौंदर्य है। क्या सौंदर्य का एकमात्र मानक नारी देह रह गया है जी कुछ हिंदी समूह में प्रमुखता से प्रदर्शित किया जा रहा है। निकट भविष्य में हिंदी का प्रमुख दायित्व हिंदी समूहों पर आनेवाला है और हिंदी समूहों का अपना भविष्य भी है अतएव समूह की महत्ता और गुणवत्ता पर निरंतर प्रयास की आवश्यकता है। इनपर गंभीरता से सोचना और सामयिक समीक्षा करना समय की मांग है।


धीरेन्द्र सिंह

08.10.2024

09.44




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शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

हिंदी-अंग्रेजी-हिंदी

वर्तमान समय में हिंदी या केवल एक भारतीय भाषा सीखकर कुशल जीवनयापन या अति तार्किक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती है। विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन हो,हिंदी पत्रकारिता हो, विज्ञापन की दुनिया हो, उच्च शिक्षा के विभिन्न विषयों पर हिंदी में पुस्तकें तैयार करनी हो आदि, हर जगह बिना अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से हिंदी में कथ्य, भाव आदि अभिव्यक्ति में त्रुटियां होने की संभावना रहती है।


संलग्नक की दो भाषाओं में रिपोर्टिंग में हुई त्रुटि कितना बड़ा अर्थभेद उत्पन्न कर रही है। एक बड़े प्रकाशन समूह से प्रकाशित दिनांक 06 अक्टूबर 2024 के दोनों अंक हैं। अंग्रेजी दैनिक कहता है कि "87 वर्ष के मस्तिष्क मृत्यु के वरिष्ठतम व्यक्ति का अंगदान" जबकि हिंदी दैनिक का शीर्षक यह दर्शाता है कि जैसे  मुंबई के सबसे एमबी जिंदगी जीनेवाले व्यक्ति ने स्वेक्षा से अंगदान किया है। हिंदी दैनिक ने ब्रेन डेड  शब्द को शीर्षक से बाहर कर दिया जिससे यह भाव स्पष्ट हो रहा है कि मुंबई के सबसे अधिक दीर्घजीवी ने अंगदान किया। पत्रकारिता के स्वतंत्र, सरल, सहज और संक्षिप्त लेखन कौशल की विशिष्टता का अर्थ यह कदापि नहीं होता है कि भ्रामक शीर्षक दिया जाए। यद्यपि इस शीर्षक विषयक विस्तृत समाचार पढ़ने पर स्थिति स्पष्ट होती है किंतु क्या अंग्रेजी के पत्रकार की तरह हिंदी पत्रकार स्पष्ट शीर्षक नहीं लिख सकते थे ?


आए दिन हिंदी की विभिन्न विधाओं के लेखन में अर्थ फेर और सत्य लोप जैसे पाठ मिलते रहते हैं। यदि कोई पाठक मात्र शीर्षक पढ़कर आगे पढ़ने लगे तो एक अपूर्ण और भ्रामक सूचना का  वह संवाहक हो सकता है। वर्तमान में अनेक पाठक कई रिपोर्ट के शीर्षक मात्र पढ़कर आगे पढ़ने लगते हैं। यह एक उदाहरण है जो दर्शाता है कि हिंदी लेखन कुछ-कुछ छोड़ते, मोड़ते कार्यरत है जिससे हिंदी के विविध लेखन साहित्य में उपलब्ध जानकारी आदि एक पुष्टिकरण के लिए प्रेरित कर रही हैं। क्या वर्तमान समय कह रहा है कि अच्छी हिंदी के लिए क्या अंग्रेजी ज्ञान आवश्यक है?


धीरेन्द्र सिंह

06.10.2024

09.40




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शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

हिंदी लेखन - भाववाद से भौतिकवाद

हिंदी कथा साहित्य के परिचारित विभिन्न हिंदी कथा साहित्य पुरस्कार प्रदाता पिछले दशक से जितने भी पुरस्कार दिए उसकी अनुगूंज एक बिजली सी कौंध दर्शा न जाने कहाँ शांत हैं। अब पहले की तरह न तो पुरस्कृत पुस्तकों पर पूरे देश के विश्वविद्यालय/ महाविद्यालय में चर्चा होती है और न ही राष्ट्र स्तरीय स्वीकार्य समीक्षक (यदि हों) की समीक्षा दृष्टव्य होती है। यह लिखने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वर्तमान में हिंदी कथा लेखन अनचीन्हा क्यों निकल जाता है ? क्या हिंदी कथा लेखन थक चुका है या लोकप्रियता से स्वयं को बचा रहा है। यह भी बात सुनाई पड़ती है कि पाश्चात्य लेखन की लोकप्रिय पुस्तकों के कथानक की झलकियां हाल-फिलहाल की पुरस्कृत हिंदी पुस्तकों में भी दिखलाई पड़ती हैं जिसपर बहस उठ सकती है।


मुंशी प्रेमचंद के समकक्ष रचनाकारों के बाद हिंदी में गद्य लेखन ऐसा नहीं हुआ जिसे रंगमंच लपक ले या हिंदी फिल्म निर्माता रुचि दिखाएं। हिंदी पुस्तकों को पठन क्रमशः कम होते जा रहा है पर पुस्तकों का प्रकाशन जारी है। क्या विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक चैनल की तरह हिंदी कथालेखन भी सत्य को जस का तस प्रस्तुत करने लगा है? अपने संवादों में स्वतः उठने वाली पाठक की वाह! ध्वनि अब गूंजती क्यों नहीं है? पुस्तक लिखना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि प्रति महीने कई पुस्तकें छप रही हैं और बिना अपनी धमक जताए सुप्त होती जा रही हैं।


संलग्नक की पंक्तियां यही गम्भीर स्थिति दर्शा रही हैं। अब हिंदी की पहले आ चुकी फिल्मों की कहानी में कुछ अंश जोड़कर नई हिंदी फिल्में बनाई जा रही हैं। दक्षिण भारत की फिल्में हिंदी फिल्म को खूब प्रभावित कर रही हैं। बड़ी बजट की हिंदी फिल्म पश्चिम की फ़िल्म के अनुरूप विशेष प्रभाव और कृतिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर रहे हैं। इस व्यस्तता में हिंदी का कथा जगत अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व को हिंदी रंगमंच और हिंदी फिल्मों से उदासीन क्यों रखे हुए है ?


धीरेन्द्र सिंह

04.10.2024

13.12



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बुधवार, 11 सितंबर 2024

सांखल बंधी हिंदी

एक दशक से हिंदी भाषा में हो रहे परिवर्तन को लोग देख और समझ नहीं रहे हैं ऐसा सोचना गलत है। सोच के संग संग समझ भी है पर यथोचित समाधान नहीं है। हिंदी भाषा के असंख्य शब्द घायल पड़े हैं और कुछ शब्द मरते जा रहे हैं इन सब नकारात्मक स्थितियों कर बाद भी यह कहना कि हिंदी पर हमें गर्व है पीड़ादायक प्रतीत होता है। यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि ऐसी क्या स्थिति आ गयी कि हिंदी के प्रति इतनी नकारात्मक विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। यद्यपि यह विषय गूढ़ और व्यापक है फिर भी कुछ बिंदुओं को दर्शाया जा रहा है:-


(क) हिंदी दिवस 14 सितंबर :- भारत के संविधान में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी को संघ की राजभाषा का पद दिया गया है। कितने केंद्रीय कार्यालयों, राष्ट्रीयकृत बैंकों और उपक्रमों में लिखित कार्य हिंदी में होता है? यदि निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए तो बेहद निराशाजनक परिणाम मिलेंगे। हिंदी दिवस पर ढोल, नगाड़े बजाना और विभिन्न आयोजनों द्वारा प्रगति और प्रयास का भ्रम फैलाने की एक अघोषित स्वीकार्य प्रथा सी चलन में है। भारत देश मरीन हिंदी राजभाषा के रूप में एक स्थिरता धारण किए हुए है।


(ख) साहित्यिक हिंदी का लोप होना ;- वर्तमान की हिंदी पत्र-पत्रिकाएं, हिंदी की प्रकाशित पुस्तकें (कहानी, कविता, उपन्यास) हिंदी के शब्दों का न तो नए बिम्ब, उपमा, प्रतीक के रूप में प्रयोग कर रहे हैं और न ही भावनाओं की सटीक अभिव्यक्ति के उचित शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। सीधी, सरल और सपाट हिंदी में अधिकांश लरखं हो रहा है और शायद ही किसी पाठक को अर्थ के लिए शब्दकोश देखने की आवश्यकता हो। सरल हिंदी में लिखने का एक अतार्किक और अप्रयोज्य परंपरा साहित्यिक हिंदी को लील रही है।


(ग) हिंदी भाषा के प्रति अरुचि ;- हिंदी भाषा के प्रति रुचि में कमी हो रही है। “शुद्ध हिंदी बोलता/बोलती है” अब एक सम्मानजनक वाक्य नहीं रह गया है। हिंदी खिचड़ी भाषा होते जा रही है जिसमें हिंदी की मूल संरचनागत प्रवृत्ति और प्रांजलता धूमिल होते जा रही है। अब तो अधिकांश लोग न ठीक से हिंदी बोल पाते हैं और न लिख पाते हैं।


3. उक्त बिंदुओं के आधार पर यह निष्कर्ष तक पहुंच जाना कि हिंदी के प्रति यह पूर्वाग्रह पीड़ित निजी व्यथा है, हिंदी भाषा के प्रति घातक सोच कही जाएगी। केंद्र सरकार से लेकर विद्यालय तक 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मना रहा है। यह हिंदी भाषा के उत्सव का दिन है। अंतर्मन हिंदी दिवस की शुभकामनाएं देते हुए यह कल्पना कर रहा है कि आगामी हिंदी दिवस तक हिंदी राजभाषा, साहित्यिक भाषा और पत्रकारिता भाषा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति दर्शाएगी।


धीरेन्द्र सिंह

11,09.2024

10.53




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शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

दरकती देवनागरी लिपि – आगे

हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स के 14 जनवरी 2015 के अंक में अंग्रेजी लेखक चेतन भगत ने कहा था “रोमन लिपि अपनाओ, हिंदी भाषा बचासो।” इस शीर्षल के नीचे रोमन लिपि में लिखा था “Waqt ke saath-saath bhasha ko bhi badlana zaruri hai.” यह लरखं आया और चला गया। इस मुद्दे पर न तो वर्ष 2015 में किसी ने चिंता व्यक्त की और न ही वर्ष 2024 तक कोई व्यापक चर्चा-परिचर्चा हुई। इस अवधि में यह अवश्य हुआ कि बोलकर टाइप करने की सुविधा सबको उपलब्ध हुई। हिंदी की अनेक सरकारी और गैर-सरकारी विभिन्न संस्थानों ने रोमन लिपि का प्रयोग कर टाइप करने पर न तो विरोध किया न चर्चा की, केवल परिचर्चा होकर इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर मूक सहमति बनी। एक कारण यह भी दिया गया कि यदि रोमन से हिंदी टाइप करने की सुविधा होगी तो देवनागरी लिपि का ज्ञान न रखनेवाले भी हिंदी का उपयोग कर सकेंगे।

 

आज स्थिति क्या है? अधिकांश हिंदी रोमन लिपि के सहयोग से लिखी जा रही है। यह एक स्वाभाविक सुविधा मोह है या उस कथन का एक यथार्थ रूप जिसमें कहा गया है “सुख-सुविधा से जीना।“ सुविधा को अधिकांश भारतीय अपना चुके हैं। वर्तमान में कोई ऐसी युक्ति, सुविधा या प्रौद्योगिकी मंत्र है जिसके द्वारा ऐसे लोगों को देवनागरी टंकण के लिए मोहित, प्रेरित या प्रोत्साहित किया जा सके? उत्तर यफी नहीं है तो फिर आगे क्या ? प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हिंदी प्रेमी वर्ग बहुत कम सोचता है। इस वर्ग का प्रयास प्राप्त प्रौद्योगिकी सुविधाओं को सीखने का अधिक होता है। विडंबना यह कि एक सुविधा को सीखते-सीखते दूसरी उन्नत सुविधा आ जाती है और इस प्रकार सीखने का क्रम जारी रहता है।

 

सीखना एक अच्छी क्रिया हौ किन्तु इसके संग उस संबंधित चिंतन और मनन भी होना चाहिए। क्या रोमन लिपि हिंदी वर्णमाला के प्रभाव को कम देगी? यहां यह कहना जरूरी है कि अंग्रेजी ने हिंदी वर्णमाला के प्रभाव को कम कर दिया है। हिंदी जगत में पुस्तक प्रकाशन, आदर, सम्मान, पुरस्कार आदि में व्यस्त हैं। वर्तमान में कोई भी सक्षम और सशक्त हिंदी आधार इस विषय पर नहीं सोच रहा है। उत्तरप्रदेश के हिंदी माध्यम के विद्यार्थी से देवनागरी लिपि में चैट कर रहा था। उस लड़के ने कहा कि उसे अंग्रेजी में चैट करना आता है। मैंने अंग्रेजी भाषा में छाIत करना आरंभ किया। एह लड़का अंग्रेजी भाषा देख झुंझलाया और कहा अंग्रेजी में लिखिए। थोड़ी देर बाद समझ पाया कि वह हिंदी को रोमन लिपि में टाइप करने को कह रहा। यही उसकी अंग्रेजी थी।

 

भविष्य अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के हाँथ में है। अप्रत्याशित चमत्कार की संभावना कृत्रिम बुद्धिमत्ता में सदैव बनी रहती है। देवनागरी लिपि के प्रयोग का कोई नया ढंग और ढर्रा इससे मिल सकती है। आगे हिंदी टंकण और उसमें देवनागति लिपि का सीधे प्रयोग और प्रभाव की युक्ति के आने की संभावना है और तब कहीं वर्तमान प्रयोग में परिवर्तन हो सकता है।

 

धीरेन्द्र सिंह

30.08.2024

23.15




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गुरुवार, 22 अगस्त 2024

टेढ़ी होती हिंदी

बांकपन हिंदी का एक ऐसा शब्द है जिसके माध्यम से अनेक सरस अभिव्यक्तियां की जाती रही हैं। यदि यही बांकपन हिंदी भाषा की अभिव्यक्तियों को टेढ़ा कर दे तो क्या कहा जा सकता है? किसे इसके लिए दोषी ठहराया जाएगा? निरुत्तर हो जाता है व्यक्ति क्योंकि जब भाषा निरंतर क्रमशः टेढ़ी होती जाती है तो इस “बांकपन” की सहज अनुभूति नहीं होती है बल्कि व्यक्ति का मानस भी भाषा के संग “बांकपन” ग्रहण करते टेढ़ा होते जाता है। भाषा इस प्रकार अपना तांडव करती है जो आजकल हिंदी भाषा में जोरों पर है। दोषी को ढूंढने के प्रक्रिया में चिंतन अंततः वहीं जाकर ठहर जाता है जहां पर हिंदी के विभिन्न दायित्व निर्वहन करनेवाले ज्ञानी होते हैं। लीजिए हिंदी के लिए हिंदी वाले ही दोषी? क्या यह एक कुंठाग्रस्त अभिव्यक्ति नहीं है? क्या इसे पूर्वाग्रह नहीं कहा जा सकता है? 


वर्षों से ही हिंदी भाषा में अनेक शब्द प्रवेश कर रहे हैं और वह शब्द सीधे हिंदी शब्द को आघात नहीं पहुंचा रहे हैं। हिंदी में “की” और “किया” पर दिल्ली तथा आसपास के शहरवासी सीधे आक्रमण कर “की” को “करा” बना दिये हैं और “किया” को “करी” में परिवर्तित कर चुके हैं। इन क्षेत्र के अधिकांश धड़ल्ले के साथ हिंदी के शब्दों को पदच्युत कर “करा-करी” बोल रहे हैं। आश्चर्य तो तब हुआ जब उच्चतम भारतीय पद के लिए प्रशिक्षण संस्थान चलानेवाली भी “करा-करी” से स्वयं को न बचा पाई। हिंदीभाषी क्षेत्र द्वारा हिंदी शब्दों पर इतना प्रखर प्रहार वर्तमान भारतीय शब्द विज्ञान में नहीं मिलेगा। यह मात्र एक उदाहरण स्वरूप है। भारत की अन्य भाषाओं के शब्द भी हिंदी शब्द को खिसकाने का प्रयास किए पर या तो उनका प्रयोग राज्य विशेष तक सीमित रहा या क्रमशः लुप्त हो गया। “करा-करी” में दृढ़ता दिखलाई पड़ रही है।


 हिंदी भाषा पर अंग्रेजी का प्रभाव जग जाहिर है।  पहले बोलचाल में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग खूब होता था। दो दशक पहले हिंदी के वाक्यों में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग शिक्षित होने का एक अघोषित प्रमाण माना जाता था। इस अवधि में हिंदी की वाक्य रचना और शब्दावली चयन टेढ़ी होना आरंभ की जिसे शाब्दिक परिवर्तन के रूप में माना जा सकता था। इस अवधि के विशेषकर गद्य रचनाकार भी लेखन में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने लगे। इसी समयावधि में टाई संस्कृति भी जोरों पर थी। अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ने भी हिंदी और अंग्रेजी मिश्रित खिचड़ी भाषा के उन्नयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया। अंग्रेजी भाषा ने हिंदी के मौखिक प्रयोग में परिवर्तन ला दिया।


भारतीय भाषाओं ने भी अपनी शब्दावली के द्वारा हिंदी को परिवर्तित करने का प्रयास आरंभ कर दिया है जिससे हिंदी में अपरिचित शब्दावली प्रायः मिल जाते हैं। “बवाल काटा” का अर्थ क्या निकाला जाए? सजा काटने के अनुरूप यह “बवाल काटा” परिलक्षित होता है। प्रतिदिन हिंदी में ऐसे शब्दों का प्रयोग मिल रहा है जो दशक पूर्व तक नहीं थे। हिंदी परिवर्तित हो रही है, विकसित हो रही है या टेढ़ी हो रही है इसका सहज मूल्यांकन प्रत्येक हिंदी भाषा प्रेमी कर सकता है।


धीरेन्द्र सिंह

23.08.2024

08.47



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शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

हिंदी के समूह और हिंदी

आए दिन हिंदी के नए समूह बन रहे हैं। हिंदी भाषा के विकास के लिए हिंदी समूह का गठन एक अच्छी परंपरा है। प्रौद्योगिकी ने अभिव्यक्ति के लिए इतने आयाम निर्मित कर दिया है और इतने नए आयाम खुल रहे हैं कि इस दशक को अभिव्यक्ति का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। विगत कुछ महीनों से हिंदी के विभिन्न समूहों का निकट से अवलोकन कर रहा हूँ। यह अवलोकन हिंदी के विकास क्रम का एक स्वतंत्र सर्वेक्षण है। वर्तमान में हिंदी साहित्य के लिए सक्रिय विभिन्न समूहों ने अब तक निम्नलिखित जानकारियां दी हैं :-


1. हिंदी का वर्तमान में सर्वश्रेष्ठ समूह की पड़ताल जब आरंभ किया तो कुल पांच हिंदी समूह सर्वश्रेष्ठता के दावेदार मिले :-


क. सबसे पहले मुझे “शब्दालय” समूह मिला जहां पर उच्च कोटि की काव्य पोस्ट लगभग प्रतिदिन पढ़ने को मिलती है। एडमिन और मॉडरेटर इतने सक्रिय और हिंदी विकास के प्रेमी थे कि मुझे लगा इस समूह में मेरी कोई भूमिका नहीं है और पूर्णतया सक्षम समूह है। इस समूह को मैंने छोड़ दिया। नए चार समूह मिले जिनमें सर्वश्रेष्ठ होने की चिंगारी लिए सर्वश्रेष्ठ हैं, वह समूह हैं:-


1., काव्यस्थली

2. गोपाल दास नीरज साहित्य संस्थान समूह

3. कुछ तुम लिखो, कुछ हम लिखें

4. बेमिसाल साहित्यिक मंच


उक्त चारों समूह में एडमिन और मॉडरेटर की सक्रिय भूमिका का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हुआ कि “काव्यस्थली” समूह पहले अपने रचनाकारों का मूल्यांकन करती है और उनकी पोस्ट पर विश्लेषणात्मक दृष्टि बनाए रखती है। इस प्रक्रिया के दौरान एडमिन या मॉडरेटर रचनाकार से एक भावनात्मक संबंध निर्मित कर लेते हैं अपनी प्रतिक्रियाओं के द्वारा। कुछ समय बाद रचनाकार को यह विशेष अधिकार समूह देता है कि बिना मॉडरेशन के वह रचनाकार सीधे समूह में अपनी रचना पोस्ट कर सकता है। यह एक समूह द्वारा किसी रचना को प्रदत्त एक शीर्ष सम्मान है। यही "काव्यस्थली" की अनोखी विशिष्टता है।


“गोपाल दास नीरज साहित्य संस्थान” में गद्य, पद्य प्रकाशित होते हैं। इस समूह ने रचना प्रेषण विधा पर रोक नहीं लगाया है। यदि कहूँ कि हिंदी के समस्त समूह में से सर्वश्रेष्ठ एडमिन और मॉडरेटर इस समूह में हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जल संरक्षण के लिए जिस तरह नदियों में बांध बनाए जाते हैं उसी प्रकार अपने रचनाकारों की सृजनशीलता को आदर देने के लिए एडमिन, मॉडरेटर सम्मान का एक बांध बना देते हैं। सभी एडमिन और मॉडरेटर रचनाकार की पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देते हैं जिससे पोस्ट की गुणवत्ता भी बनी रहती है। यदि कभी रचना मद्धम हुई तो इनकी प्रतिक्रियाएं कोमलता से आगाह कर देती हैं कि थोड़ी और ऊंचाई और गहराई होती तो बात ही कुछ और होती! यहां के एडमिन और मॉडरेटर अहं से ढूर हैं यह तथ्य ज्ञात होने पर हतप्रभ भी हुआ। बेहद श्रम करते हैं और रचनाओं की गुणवत्ता बनाए रखते हैं।


“कुछ तुम लिखो, कुछ हम लिखें” और “बेमिसाल साहित्यिक मंच” इन दोनों समूह में दूरदर्शी और तेज-तर्रार महिलाएं हैं। इन दोनों समूह में महिला प्रधान प्रशासन है और यह सनुभव किया गया है कि इनकी दृष्टि रचनाकार की परख रखती है और किसी नियमावली में आंशिक संशोधन भी करना पड़ता है तो यह विदुषी महिलाएं सकारात्मक निर्णय लड़ने में नहीं हिचकती हैं। महिला सशक्तिकरण और महिला संचासलित हिंदी के अभिनव समूह हैं।


2.  सर्वश्रेष्ठ और श्रेष्ठ के बीच के समूह :- इस वर्ग में आनेवाले समूह रचना अपने सिद्धांतों और रचना के नीचे रचनाकार की पोस्ट के बीच एक संतुलित सामंजस्यता को निर्मित करने में संघर्षरत दिखते हैं। ऐसे हिंदी समूह हैं :-


1. काविश

2. साहित्य कुंज

3. साहित्यनामा पत्रिका

4. Hindi Poetry/ - हिंदी कविता

5. गुलज़ार की यदि 

6. शब्द कलश – शब्दों का विशाल संग्रहालय

7. अनसुलझी कहानियां

8. हिंदी लेखक परिवार (समूह)


यहां पर आकर यह सहज प्रश्न उभरता है कि यह वर्गीकरण किस आधार पर? हिंदी के कुल 80 से भी अधिक समूहों की सदस्यता लेकर महीनों तक इन समूहों की गतिविधियों और पोस्ट चयन आदि का विश्लेषण किया गया। उक्त आठ समूह में यदि आंशिक सुधार संबंधित एडमिन, मॉडरेटर द्वारा किया जाए तो सर्वश्रेष्ठ हिंदी समूह बनने में अधिक समय नहीं लगेगा।


हिंदी समूह किस प्रकार अपने रचनाकारों को लेखन में गतिशील और सक्रिय बने रहने में योगदान करते है, यह सर्वप्रथम आकलन किया गया। दूसरा पक्ष था एडमिन और मॉडरेटर स्तर पर पहल और दिशानिर्देश। कुल दो समूह के एडमिन अभिमान तथा गुटबंदी में पाए गए और दोनों एडमिन पुरुष हैं। एडमिन और मॉडरेटर के समक्ष यह चुनौती है कि कैसे रचनाकार को लेखन के प्रति आकर्षित कर लेखन गुणवत्ता को बढ़ाया जाए। अधिकांश समूह हिंदी लेखन की प्रतियोगिताएं करते हैं और विजेताओं को सॉफ्ट प्रति में प्रमाणपत्र प्रदान करते हैं। रचनाकार को यह छूट दी जाती है कि वह अपनी रचना के नीचे अपना फोटो लगा सकते हैं जो एक प्रकार की लेखन गति को एक लुभावनी पहल है।


शेष हिंदी समूह कहीं दिशाहीन नजर आते हैं  कहीं कुछ समूह सदस्यता संख्या बढ़ाने के लिए अभद्र फोटो व लेखन में लिप्त मिले। अच्छे रचनाकारों के लिए अच्छे समूह भी हैं जिनमें से कुछ की चर्चा उपरोक्त परिच्छेद में कई गयी है। उच्च स्तरीय लेखन क्रमशः सर्वश्रेष्ठ और श्रेष्ठ समूह में बढ़ रहा है। एक सुखद साहित्यिक भोर की ओर बढ़ते हिनफी समूह हिंदी लेखन के वर्तमान के सक्रिय इंजन हैं।


धीरेन्द्र सिंह

16.08.2024

18.08


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मंगलवार, 16 जुलाई 2024

साहित्य और एक चोर

चोरी समाज की एक असभ्य और आपराधिक क्रिया है। क्या सभी चोर आपराधिक भावना के होते हैं? साहित्यिक दृष्टि से नहीं किन्तु न्यायिक दृष्टि से प्रथम दृष्टया यह अपराध ही माना जाता है। एक घटना जुलाई 2024 के प्रथम सप्ताह में नवी मुंबई के पास नेरल में घटित हुई। नेरल प्राकृतिक दृष्टि से सम्पन्न स्थल है जहां भीड़ बहुत कम दिखती है। एक चोर कुछ दिनों से एक बैंड पड़े घर पर नजर गड़ाए हुए था और अवसर पाकर उसने उस बैंड घर का ताला तोड़कर प्रवेश किया और एलईडी टीवी संग कुछ अन्य वस्तुओं को चुरा ले गया। उस घर में चोरी के प्रथम कार्यनिष्पादन के दौरान चोर को यह अनुभव हुआ कि घर में चोरी की अच्छी संभावना है।


एक उत्सुक ऊर्जा, उत्साह और चोरी भावना में डूबा वह चोर दोबारा घर में प्रवेश कर गया और चोरी की क्रिया आरंभ की किन्तु अचानक एक फोटो और कुछ साहित्य देख चोर हतप्रभ जड़वत हो गया मानो काटो तो खून नहीं। यह क्या कर बैठा वह, चोर सोचने लगा और उसे भी नहीं पता कब उसके हाँथ जुड़कर उस फोटो को प्रणाम कर बैठा। मराठी के सुप्रसिद्ध दलित कवि नारायण सुर्वे का फोटो था तथा उनकी कुछ पुस्तकें थीं। अपराध भाव से द्रवित चोर कांपते मन से उस घर से खाली हाँथ बाहर निकल गया। उस चोर का मन उसे धिक्कार रहा था जैसे कह रहा हो छी यह क्या कर बैठे चोर। दलितों की साहित्यिक लड़ाई लड़नेवाले एक कर्मवीर और दूरदर्शी नायक के घर चोरी। दुख में कैसा खाना-पीना बस निढाल पड़ा अपने कुकर्म के लिए अपने को ही पश्चाताप की अग्नि में तपा रहा था।


उस चोर ने सोचा कि स्वयं को धिक्कारने से भला पश्चाताप पूर्ण हो सकता है। नहीं उसकी आत्मा नेकहा। फिर? चोर की बुद्धि ने प्रश्न किया। आत्मा चुप थी किन्तु विवेक ने कहा तत्काल टीवी सुर सनी वस्तुएं लौटा दे अन्यथा पश्चाताप की आग तुझे इतना तपाएगी कि तू झुलस जाएगा। अविलंब उस चोर ने उस घर से चोरी की गई सभी वस्तुओं को वापस उस घर में रख दिया। सामान बंद घर को लौटा जब चोर बाहर निकलने लगा तो उसे लगा कि कोई पीछे से उसका कॉलर पकड़ उसे खींच रहा है। रुक गए उसके कदम और स्वयं से प्रश्न कर बैठा, अब क्या? आत्मा ने कहा मैंने रोका है और तुम्हारे सामान लौटाने मात्र से बात नहीं बनेगी।


चोर सोच में पड़ गया कि इसके बाद अब क्या? विवेक ने कहा यह नारायण सुर्वे का घर है एक अद्वितीय सर्वहारा वर्ग का रचनाकार, शब्द से क्षमा प्रार्थना करो तब कहीं यह महान कवि तुम्हें क्षमा करेंगे। बुद्धि सक्रिय हुई और उस चोर ने मराठी में क्षमा याचना की और अंत में अंग्रेजी में “सॉरी” लिखकर घर के भीतरी दीवार पर चिपका दिया। उस चिपके कागज पर मराठी में  व्यक्त भावों का हिंदी अनुवाद निम्नलिखित है:-

मुझे मालूम नहीं था कि यह नारायण सुर्वे का घर है अन्यथा मैं चोरी नहीं करता। मुझे माफ़ कीजिए। मैंने आपका जो सामान लिया है उसे लौटा रहा हूँ। मैंने टीवी भी लिया था उसे वापस लाकर रख दिया हूँ, sorry


एक साहित्यकार का प्रभाव कितना गहन और व्यापक होता है। स्वर्गीय नारायण सुर्वे प्रख्यात दलित साहित्यकार थे और उनके फोटो तथा साहित्य से चोर द्रवित होकर पछताने लगता है। रचना कभी मरती नहीं। क्यों इस विषय पर लिखने का प्रयास किया गया जबकि समाचार यह सूचना दे ही रहा है। समाचार यह नहीं बोल रहा और न बोलेगा की साहित्यकार के अमर पहचान के अनेक उदाहरण विश्वविद्यालय और मंचों से प्रस्तुत किया जाता है। अब यह उदाहरण भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए कि स्वर्गीय नारायण सुर्वे के फोटो और साहित्य ने चोर का हृदय परिवर्तन कर दिया। यह एक विशिष्ट साहित्यिक घटना है।


धीरेन्द्र सिंह

17.07.2024

11.42



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भूतिया लेखन और हिंदी

भूत का अस्तित्व नहीं होता है, भूत का अस्तित्व होता है। बहुत अतृप्त आत्मा है, मृत्यु के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता। तर्क-वितर्क-कुतर्क और इनसे उपजा दर्शनशास्त्र। दर्शन व्यक्ति को अनछुए डगर का संकेत देता है। संकेत के इसी ऐतिहासिक इतिहास में यह शोध कर पाना कठिन है कि पहले “घोस्ट राइटिंग” अंग्रेजी में अस्तित्व में आया या हिंदी में भूतिया लेखन अपनी उपस्थिति दर्शा चुका था। लेखन में भूत कौन? वह अनजाना व्यक्ति जो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए पुस्तक आदि लिखता है और दूसरा व्यक्ति बिना लिखे लेखक बन जाता है और पुस्तक लिखनेवाला व्यक्ति अपना पारिश्रमिक लेकर गायब हो जाता है।


प्रतिभाओं की देश में कभी भी कमी नहीं रही है। यह अवश्य होता रहा है हिंदी विशेष के अधिकांश प्रतिभाओं के साथ जिनको वह अवसर नहीं मिल पाया जिसके आधार पर अपना जीविकोपार्जन कर पाते। भूतिया लेखन के उद्भव और विकास पर शोध विद्यार्थी कभी अपना काम करेंगे। यहां महत्व की बात यह है कि क्या वर्तमान में हिंदी भूतिया लेखन वर्ग सक्रिय है? कठिन प्रश्न है। यदि हां कहा जाए तो तत्काल प्रमाण की मांग उठेगी। भला भूत का कैसा प्रमाण?  सूचना, प्रत्यक्ष अनुभव तथा वर्तमान में पुस्तक के लेखक द्वारा पुस्तक पर न बोल पाना आदि कुछ ऐसे संकेत हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि भूतिया लेखन अभी भी सक्रिय है।


कौन है संरक्षक भूतिया लेखन का? संरक्षक? यह कैसा प्रश्न? क्या भूतिया लेखन असामाजिक उद्योग है ?  जी हां भूतिया लेखन के संरक्षक हैं। हिंदी के कुछ प्रकाशक तथा कुछ पीएचडी गाइड, कुछ गीतकार आदि भूतिया लेखन के संरक्षक हैं। बगैर विषय का ज्ञान होते हुए भी हिंदी माध्यम से डॉक्टर की डिग्री प्राप्त की जाती है। इस कार्य के लिए ऐसे गाइड की खोज करना श्रमसाध्य कार्य है। हिंदी के कुछ प्रकाशक भूतिया लेखन द्वारा पुस्तक प्रकाशन की व्यवस्था रखते हैं। खूबसूरत आवरण के अंतर्गत भूतिया लेखक अपने-अपने सरंक्षकों के अंतर्गत कार्यरत है। भूतिया लेखन कितने करोड़ का कारोबार है इसका आकलन व्यापक शोध से ही संभव है।


इस विषय पर लिखने की आवश्यकता क्यों निर्मित हुई यह स्वाभाविक प्रश्न भी उभरता है। आजकल अंग्रेजी में यह विज्ञापन चलन में है कि “घोस्ट रायटर” उपलब्ध हैं जो व्यावसायिक तौर पर कुशलता से भूतिया लेखन कर सकता है। अंग्रेजी अब खुलकर स्वीकार कर रही है कि भूतिया लेखन निर्धारित पारिश्रमिक पर उपलब्ध है। इस तरह यह भी संभव है कि कालांतर में कोई मंच उभरे और कहे कि भूतिया लेखन सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध है। हिंदी जगत के विभिन्न गलियारों के कालीन के नीचे सक्रिय भूतिया लेखक समूह यदि अपने लेखन का विज्ञापन आरंभ कर देगा तो कितनी बौद्धिक अनियमितता प्रसारित हो जाएगी। एक सोचनीय स्थिति निर्मित हो सकती है।


यदि यह संशय उभर रहा है कि अब तक भूतिया लेखन कहां-कहां अपना घुसपैठ कर चुका है तो कहा जा सकता है जहां हिंदी है वहां भूतिया लेखन का कोई न कोई प्रकार अवश्य प्रचलित होगा। एक सामान्य उदाहरण ऑनलाइन हिंदी समूहों का है। यहां बेहिचक एक दूसरे समूहों की पोस्ट और रचनाओं की चोरी होती रहती है। चोरी कर आंशिक बदलाव कर कोई दूसरा अपने नाम से उसी रचना को प्रकाशित करता है तो यह भी भूतिया लेखन का एक प्रकार है। कई रचनाकार अपनी रचना को रंगीन अक्षरों में टाइप कर उसका फोटो निकालकर समूह में पोस्ट करते हैं और आश्वस्त हो जाते हैं कि उनकी रचना न चोरी होगी और न कोई दूसरा अपने नाम से इस रचना को प्रकाशित करेगा। सोचिए।


धीरेन्द्र सिंह

16.07.2024

16.02


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