शनिवार, 27 जनवरी 2024

अरुण योगीराज - मूर्तिकार

अरुण योगिराज – मूर्तिकार विश्वकर्मा काराम के प्रतिबदफ़ह अनुयायी मूर्तिकार अरुण योगिराज ही नहीं हैं बल्कि उनकी पीढियां प्रतिबद्धतस के साथ मूर्तिकार कौशल को सहेजते आ रही हैं। कौन हैं यह अरुण योगीराज ? कर्नाटक के मूर्तिकार वंशज का एक युवा मूर्तिकार हैं जिन्होंने अयोध्या राममंदिर के रामलला की मूर्ति को गढ़ा है। जिन लोगों ने रामलला का दर्शन नहीं किया है उनके लिए अरुण योगीराज नाम एक मूर्तिकार का लगेगा किन्तु जिन्होंने रामलला का दर्शन किया है उनके लिए अरुण योगिराज एक विलक्षण प्रतिभा हैं। सत्तर के दशक में एक हिंदी फिल्म का नाम था “गीत गाया पत्थरों ने” तबके दर्शक इस नामको मात्र नाम तक ही सीमित रखे होंगे जबकि कुछ लोग भारतीय विरासत की मूर्तियों में सप्तक को तलाशे होंगे, पाए होंगे। एक मूर्तिकार के रूप में क्या अरुण अपनी मूर्तियों में संगीत प्रवाहित करते हैं। रामलला की मूर्ति बनाने की प्रक्रिया का वर्णन स्वयं अरुण योगिराज ने किया। उन्होंने कहा कि मूर्ति के निर्माण के लिए उनका चयन होना उनके लिए परम सौभाग्य है। चयन होने के बीस दिन तक अरुण कुछ भी कार्य नहीं कर पाए। उनकी मनोदशा भारत के रामभक्तों के लिए स्वीकार्य योग्य मूर्ती बनाने की थी। रामलला की मूर्ती पांच वर्ष के बालक की तरह निर्मित करनी थी। योगीराज बच्चों के अनेक फोटो देखे पर उन्हें उनके मन को छू लेनेवाला चेहरा नहीं मिल पा रहा था। मूर्ति निर्माण के लिए चयनित पत्थर संग बैठकर अरुण अपनी कल्पनाओं को उस पत्थर में प्रसारित कर रहे थे। निश्चित ही वह चयनित पत्थर भी अरुण योगीराज से कुछ न कुछ अवश्य बोल रहा होगा अन्यथा दोनों का प्रतिदिन घंटों संग बैठे रहने का उद्देश्य क्या रहा होगा। यहां पर हिंदी फिल्म “गीत गाया पत्थरों ने” याद आयी और लगा कि हो सकता है पत्थर गा रहा हो बिना परस्पर समुचित अनुराग के भला किसी रचना का रचा जाना संभव है क्या? वह चयनित पत्थर और अरुण एक-दूजे को पढ़ रहे थे, अंतस में गढ़ रहे थे। समरसता और सामंजस्यता तैयार कर वह चयनित पत्थर और अरुण दोनों एक दूसरे के लिए तैयार हो चुके थे जैसे गर्भ में भ्रूण आकार ले रहा हो। प्रत्येक बड़े और विशिष्ट कार्य को बिना ईश्वरीय कृपा के पूर्ण नहीं किया जा सकता है। क्या मूर्तिकार के रूप में चयनित हो जाना ही अरुण के ऊपर ईश्वरीय कृपा मानी जाए। यदि उत्तर हां है तो बीस दिन से सिर्फ पत्थर के पास बैठकर अपनी रचना क्यों नहीं आरंभ कर सके। रामलला को गढ़ने की बात है जिनके समक्ष आस्था और निष्ठा के संग असंख्य सिर झुकेंगे यह भाव निरंतर योगीराज के मन में स्पंदित होते रहता था। कार्य की विशालता और मूर्ति भाव की व्यापकता अरुण योगीराज को बांधे हुई थी। चारों प्रहर रानलला की मूर्ति की कल्पनाएं, भावनाएं उमड़ती-घुमड़ती रहती थी और मूर्ति का कार्य नहीं हो पा रहा था। सर्जना जब तक मन के तंतुओं को झंकृत नहीं करती तब तक अभिव्यक्तियां मुखरित नहीं होती। इसी विचार क्रम में अरुण अयोध्या के दीपावली उत्सव में सम्मिलित हुए। आतिशबाजी के संग राम की विभिन्न झांकियां भी अयोध्या को आकर्षित कर रही थीं। इन झांकियों में तीन-चार झांकियों में रामलला का चेहरा अरुण योगीराज को मिल गया। अचानक प्राप्त इस उपलब्धि से अरुण के मन में रामलला की मूर्ति का अरुणोदय हुआ। इस घटना को एक सहज प्रक्रिया भी माना जा सकता है और राम का एक सांकेतिक आशीष भी कहा जा सकता है।अब अरुण की सर्जनात्मक प्रतिभा आस्था और निष्ठा की आंच पर रामलला मुखमंडल के नाक-नक्श को संवारने लगी। बीस दिनों तक उस चयनित पत्थर संग बैठ निर्मित परस्पर रागात्मकता को एक स्वर मिला और अरुण का मूर्ति कौशन उस पत्थर पर विश्वकर्मा ऋचाएं गढ़ने लगा। अद्भुत अनुभूति में सर्जना जब अपना अंकुरण करती है तो अचेतन मन का नेपथ्य आलोकित होकर अपनी ऊर्जाओं को उस सर्जन में समाहित करता रहा। अब वह पत्थर अरुण के लिए मात्र पत्थर नहीं था बल्कि करोड़ों सनातनियों का आस्था केंद्र था। अवचेतन मन की ऊर्जा, करोड़ो सनातनियों की आस्था, प्रभु राम का विराट और मर्यादित स्वरूप ने अरुण योगीराज को एक नई दुनिया प्रदान की जिसमें रामलला की मूर्ति के एक-एक बारीक कौशन को प्रतिभा से उकेरना था और यह कार्य अरुण ने लगभग पूर्ण कर लिया। लगभग पूर्ण कर लिया से क्या तात्पर्य है? लगभग इसलिए कि मूर्ति का अति सूक्ष्म और अति प्रभावशाली कार्य शेष था जो रामलला का चेहरा था। अरुण योगीराज के शब्दों में “पांच वर्ष के बालक की मूर्ति तो बन गयी पर अब इस बालक में राम को ढूंढना था।“ पत्थर पर भाव उकेरना सर्जना का सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। अरुण की कल्पनाएं पुनः अयोध्या की दीपावली की झांकी की ओर गयी और चेहरे का भाव तलाशने लगी। एक प्रेरणा ने बल दिया और अरुण के हांथों की सधी जादूगरी ने मूर्ति पर वह भाव ला दिया जिस भाव की कल्पना योगीराज के मन में जन्म ली थी। इस प्रक्रिया में अरुण अपनी सात वर्षीय बेटी से बार-बार पूछते रहे कि मूर्ति का चेहरा क्या बच्चे जैसा दिख रहा है और हर सर्जना के प्रयास को उनकी बेटी यही कहती थी “हां, चेहरा बच्चे जैसा ही है।“ यह वाक्य क्या एक बालिका के सहज उद्गार थे या नारी निहित वात्सल्य का दुलार। कौन जाने उस समय अरुण की बिटिया बोल रही थी या बिटिया के माध्यम से माँ कौशल्या। रामलला की मूर्ती के निर्माण काल में प्रतिदिन शाम 4 और 5 के बीच एक बंदर आता था और मूर्ती को देखकर चला जाता था। अरुण योगीराज के अनुसार “मैंने दरवाजा बंद कर दिया था फिर भी वह बंदर आकर धड़-धड़ दरवाजे पर चोट कर दरवाजा खोलने का आग्रह करता था।“ उन्होंने आगे यह भी कहा कि “यह कहना कठिन है कि एक ही बंदर प्रतिदिन निर्धारित समयावधि में आता था।“ यह एक सामान्य घटना तो नहीं कही जा सकती है। राम और हनुमान का अन्योन्याश्रित संबंध है। हनुमान रामभक्ति के अप्रतिम उदाहरण है। क्या वानर कोई और नहीं हनुमान ही थे? अरुण योगीराज का यह कहना है कि जब कभी भी रामलला की मूर्ति निर्माण में किसी भी प्रकार की कठिनाई आयी उन्हें किसी न किसी रूप में सहायता प्राप्त हुई। रामलला के नयनों को लेकर भी उलझन में पड़ गए थे उनके मित्रों ने नयन की प्रशंसा की। यही नहीं उनके मित्रों ने यह भी कहा कि मूर्ति निर्माण में उन्हें दक्षता प्राप्त है इसलिए निर्बाध गति से रामलला मूर्ति निर्माण में जुट जाएं। इनके परिवार का योगदान तो अवर्णनीय है। अरुण योगीराज में किसी भी प्रकार का न तो गर्व है और न तो इस उपलब्धि का जुनून। इनका कहना है कि मूर्ति तो राम ने बनाई वह तो निमित्त मात्र थे। रामलला की मूर्ति बन जाने के बाद अरुण स्वयं हतप्रभ थे कि यह मूर्ति बन कैसे गयी। रामलला की मूर्ति को लेकर अनेक प्रश्न भी उठ रहे हैं जिनमें यह सरोपरि है कि क्या मृत व्यक्ति के देह मेन प्राण प्रतिष्ठा की जा सकती है ? यदि नहीं तो पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा कैसे संभव हैं ? इस प्रश्न को करनेवाले यह नहीं सोचते कि देह कर्म आधारित एक यात्रा का भाग है जिसमें उन्नयन के लिए प्राण त्यजन अनिवार्यता है। ईश्वर अमर हैं जिनकी ऊर्जा कण-कण में व्याप्त है यह वाक्य वही लोग कहते हैं जो प्राण प्रतिष्ठा के विरोधी हैं। सम्पूर्ण जीवन ऊर्जा संचालित है तथा पत्थर ऊर्जा सुचालक नहीं अतएव मंत्रों और विधि-विधान से मूर्तियों में ऊर्जा संचारित कर प्राण प्रतिष्ठा की जाती है जो स्थायी रहती है। ज्ञातव्य है कि प्राण प्रतिष्ठा दिवस से ग्यारह दिन पूर्व से श्री नरेन्द्र मोदी ने अन्न त्याग दिया था तथा भूमि शयन करते थे। इस दौरान राम और शंकर के मंदिरों का दर्शन कर स्वयं को शुद्धतम रूप में रामलला के समक्ष प्रस्तुत किए। सांकेतिक उदाहरण से प्राण प्रतिष्ठा विधि-विधान की गहनता और आध्यात्मिक चेतना को दर्शाने का प्रयास है यद्यपि यह अति गूढ़ क्रिया है। अरुण योगीराज ने एक बहुत आश्चर्यजनक बात कही कि “ राममंदिर के गर्भगृह का विग्रह उनके द्वारा बनाई गई मूर्ति नहीं है।“ यह एक चौंकानेवाला कथ्य है कि प्राण प्रतिष्ठा के बाद अरुण द्वारा निर्मित रामलला की मूर्ति वह मूर्ति नहीं रही जिसे उन्होंने गढ़ा था। एक साक्षात्कार में उनसे प्रश्न किया गया कि क्या स्वप्न में किसी ने दर्शन दिया था तो उत्तर में अरुण ने कहा कि उन सात महीनों में वह सोए ही कहाँ थे। धीरेन्द्र सिंह 27.01.2024