सोमवार, 27 अप्रैल 2009

ओ मेरे मितवा

इन्टरनेट जगत में राजभाषा विषय पर गिने-चुने लोग ही दिखलाई पड़ते हैं जिनके स्वर में हमेशा एक पुकार सुनाई पड़ती है जैसे विरह वेदना में मन पुकार उठे “आ जा तुझको पुकारे मेरे गीत रे ओ मेरे मितवा”। यह पुकार किसी व्यक्तिगत हित के लिए नहीं है बल्कि यह आवाज़ एक कारवॉ बनाने की है जिससे राजभाषा को और गुंजायमान किया जा सके। यहॉ प्रश्न उठता है कि यह पुकार क्यों ? क्या पुकारनेवाले राजभाषा जगत के नहीं हैं? यदि यह लोग राजभाषा जगत के हैं तो क्यों नहीं रू-ब-रू मिलकर अपनी समस्याओं को सुलझाते हैं आखिरकार राजभाषा की अनेकों समितियॉ कार्यरत हैं, अनेकों सशक्त मंच हैं फिर यह नेट पुकार क्यों? इस प्रश्न का उत्तर कोई भी राजभाषा अधिकारी नहीं देना चाहेगा क्योंकि यह एक सामान्य प्रश्न नहीं है बल्कि राजभाषा का एक यक्ष प्रश्न है। राजभाषा की नेट पुकार करनेवाले राजभाषा के ख्वाबों के मसीहा हैं जिसे पूरा करने के लिए उन्हें सक्षम प्रतिभाओं की आवश्यकता है। ज्ञातव्य है कि प्रतिभा को तलाशना पड़ता है तथा इस खोज़ के लिए नेट दुनिया से बेहतर जगह और नहीं है।

राजभाषा अधिकारियों ने राजभाषा को राजभाषा नीतियों के अंतर्गत एक तालाब मानिंद मर्यादित बना रखा है। राजभाषा कार्यान्वयन एक दशक से कार्यान्वयन के चौराहे पर खड़ी है तथा विभिन्न दिशाओं में ताक-झांक रही है पर किसी एक दिशा में कदम बढ़ाने की कोशिश नहीं कर रही है। यह उलझन अनेकों चुनौतियों से परिपूर्ण है। कहीं पर कर्मचारियों का अंग्रेज़ी में कार्य करने की आदत है, कहीं प्रौद्योगिकी की चुनौतियॉ हैं, कहीं राजभाषा पुरस्कार की अपार चाहत की बेचैनी है, कहीं काल्पनिक प्रशासनिक अड़चनों की दीवार है और इस प्रकार राजभाषा कार्यान्वयन की समस्याओं के अनेकों मदें हैं जिनके समाधान का प्रयास नेट पर आरम्भ हो चुका है। यहॉ प्रश्न उठता है कि इन समस्याओं के समाधान के लिए राजभाषा कार्यान्वयन समिति है, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति है तथा इससे भी सक्षम समितियॉ हैं फिर नेट पुकार क्यों? नेट पुकार इसलिए क्योंकि इन सब मंचों तक प्रत्येक राजभाषा अधिकारी नहीं पहुँच सकते तथा कभी-कभी तो इन समितियों में प्रत्येक उपस्थितों को अपनी बात रखने का अवसर ही नहीं मिल पाता है अतएव इन समितियों की अपनी सीमाएं और मर्यादाएं हैं जिसके अंतर्गत निश्चित एवं निर्धारित संख्या रहती है। नेट जैसी व्यापकता इन समितियों में नहीं मिलती इसलिए नेट पुकार समय की मॉग बन गई है।

राजभाषा अधिकारियों के अपने-अपने राजभाषाई टापू हैं जिसके अंतर्गत एकसमान मानसिकता वाले राजभाषा अधिकारी राजभाषा का अपना आसमान निर्मित करते रहते हैं। एक राजभाषाई टापू दूसरे राजभाषाई टापू की तीखी आलोचना करने से बाज नहीं आता है जिसके परिणामस्वरूप राजभाषा का कारवॉ गठित नहीं हो पाता है। यह हिंदी की एक त्रासदी है। राजभाषा कार्यान्वयन में जब तक एकलक्ष्यी, एकमार्गी, एकजुट होकर कार्य नहीं किया जाएगा तब तक सफलता नहीं मिल सकती है। कटु य़थार्थ यह है कि विभिन्न सार्थक-निरर्थक कारणों से राजभाषा अधिकारियों में एकजुटता नहीं हो पा रही जिसका प्रतिकूल परिणाम राजभाषा कार्यान्वयन पर पड़ रहा है। एकजुट ना हो पाने का प्रमुख कारण हिंदी की बौद्धिक वर्चस्वता को जतलाना है। एक राजभाषा अधिकारी स्वंय को दूसरे से श्रेष्ठ मानता है। इस सोच के संघ्रष में राजभाषा फंसी है तथा कुछ कर्मठ राजभाषा अधिकारी भी फंसे हैं जैसे अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंसे थे।

कभी भी किसी की आलोचना अथवा प्रतिकूल टिप्पणियों से राजभाषा कार्यान्वयन नहीं किया जा सकता है बल्कि इससे कार्यान्वयन की गति को क्षत्ति अवश्य पहुँचाया जा सकता है। अपने-अपने कार्यालयों की परिधि से बाहर निकलकर यदि कोई राजभाषा अधिकारी नेट पर एक कारवॉ बनाने का प्रयास कर रहा है तो यह एक उल्लेखनीय पहल है। इस प्रकार हिंदी की अन्य प्रतिभाओं को राजभाषा कार्यान्वयन से किसी ना किसी रूप से जोड़ा जा सकता है। यह प्रयास राजभाषा के प्रचार-प्रसार की गति को तेज़ करने के लिए अत्यधिक आवश्यक है। कामना यही है कि अनेकों मितवाओं तक यह आवाज़ जाए तथा उनके विचार राजभाषा कार्यान्वयन को और विशाल तट प्रदान करता रहे।

धीरेन्द्र सिंह.

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

प्रौद्योगिकी से प्रीत

व्यक्ति की चाहत हो या ना हो प्रौद्योगिकी से प्रीत करनी ही पड़ती है। आज प्रौद्योगिकी ललकार रही है कि मुझसे बच कर दिखाओ तो जानें। चमकती स्क्रीन से आँखें प्रभावित हो सकती है, चश्मा आँखों से या आँखें चश्मे से बेपनाह मुहब्बत शुरू कर सकती हैं, अंगुलियों में दर्द उठ सकता है या फिर स्पांडलायसिस हो सकता है। इतनी सारी चुनौतियों सह भय के बावजूद भी मन है कि मानता नहीं। कम्प्यूटर, एक मित्र है, हमराज है, खुशियों का अलहदा साज है अजी अल्हड़ता के झूले पर पगलाया सा मधुमास है। कल तक इसे समय की बर्बादी के अंदाज़ से देखनेवाले, सामाजिक गतिविधियों से दूर ले जानेवाली मुसीबत के रूप में पहचाननेवाले आज ख़ुद कम्प्यूटर से नैन-मटक्का करते पाए जाते हैं। कितना मज़ा आता है जब गुगल महाराज से कहते हैं कि हमें फलां जानकारी दो या फलां चीज़ दिखलाओ और पलक झपकते ही वह हाज़िर। अलादीनी चिराग के टक्कर का मामला है यह तो।

जब तक कम्प्यूटर से व्यक्ति अपरिचित है तब तक उसके स्वर इसके बाबत या तो निष्पक्ष या निष्क्रिय होते हैं या फिर एनाकोंडा की तरह विरोध में फुंफकारते रहते है। यद्यपि इस वर्ग के व्यक्ति अब धीरे-धीरे लुप्तप्राय प्राणियों में आने लगे हैं। अब तो कम्प्यूटर उपयोगिता की लहलहाती फसलों का मौसम है जिसमें सम्प्रेषण के नित नए प्रवाह चलते हैं तथा सोच और चिंतन को पुरवैया का ख़ुमार दर ख़ुमार मिलते रहता है। अब तो यह तय करना मुश्किल है कि सोच की गति तेज़ है अथवा सम्प्रेषण की गति और इन दोनों की संगति में मति के भ्रमित हो जाने का अंदेशा बना रहता है। जिसका यदा-कदा नमूना देखने को मिलते रहता है। ख़ैर यह सब छोटी-छोटी कलाकारियाँ चलती ही रहेंगीं क्योंकि भावनाओं और विचारों पर भला कभी नियंत्रण लग सका है। अभिव्यक्ति की इस आजादी पर यदि अपनी मनमानी न किया तो फिर क्या किया ?

कम्प्यूटर पर हिंदी में कुछ टाइप कर लेना अथवा कुछ इ-मेल कर द्नेना ही फिलहाल हिंदी में कम्प्यूटरी महारत है परन्तु दर्द यह है कि यह भी ठीक से नहीं हो पाता है। आजकल के युवा तो कम्प्यूटर से यूँ चिपके रहते हैं जैसे दीवाल से छिपकली मानों छिपकली की तरह एक उचित अवसर की तलाश में हों और अवसर मिलते ही लपक लें। युवाओं के लिए कम्प्यूटर तलाश की भूमिका सर्वाधिक निभाता है। यहां पर चिन्ताजनक बात यह है कि युवाओं द्वारा कम्प्यूटर पर अंग्रेज़ी का ही प्रयोग अधिकांश किया जा रहा है तथा हिंदी से उनका कोई खास वास्ता नहीं है। आवश्यक है कि केवल देवनागरी लिपि में प्रविष्टियॉ भेजने के विभिन्न फोरम बनाए जाएं तथा उन्हें लोकप्रिय बनाया जाए। युवाओं की भी रूचि केवल संदेशों के आदान-प्रदान की है। उन्हें तो दिलों की सदाओं में ही विशेष रूचि है, कम्प्यूटर की शेष विधाएं तो नौकरी के लिए सीखना आवश्यक है।

कार्यालयों में कम्प्यूटर उपयोगिता की अनेकों स्थितियॉ हैं। एक वक्त में यह कहा जाता था कि कम्प्यूटर के साथ मित्रता कार्यालय कर्मी नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनकी उम्र 45 के आसपास है किन्तु कार्यालय कर्मियों ने जिस हौसले से कम्प्यूटर से मित्रता की उससे लोग दांतो तले उंगलियॉ दबाने लगे। अपनी इस कामयाबी पर खुश होकर कर्मी गुनगुनाने लगे – ओ मेरी ]ज़ोहराजबीं...। सफलताएं इस तरह गुनगुनाने का स्वाभाविक अवसर देती हैं। यहॉ भी वही परेशानी है कि काम अंग्रेज़ी में होता है अथवा निर्धारित कमांड से किन्तु हिंदी अभी भी माथे की बिंदी जैसे शोभित नाम लेकर अपनी सूक्ष्म इयत्ता पर भविष्य में पसरने का मंसूबा बनाए हुए है। कार्यालयों में अब भी कई कर्मी मिल जाएंगे जिन्हें फ्लापी ड्राइव के बारे में कुछ भी नहीं मालूम। ऐसी स्थिति में प्रौद्योगिकी से हिंदी को जोड़ने की बात एक कठिन चुनौती लग रही है। कम्प्यूटर की देहरी पर हिंदी सजी संवरी खड़ी है और प्रतीक्षा कर रही है उंगलियों को देवनागरी की बोर्ड पर दौड़ते हुए जिससे कम्प्यूटर की दुनिया में वह अपना आसमान, एक नायाब ज़हान निर्मित कर सके।

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी.

स्थूल रूप से आकलन किया जाए तो वर्तमान में हिंदी के कुल तीन प्रमुख रूप हैं जो कारोबारी हिन्दी, साहित्यिक हिंदी और आम बोलचाल की हिन्दी है। हिन्दी इतिहास के पन्नों को पलटने पर यह स्पष्ट होता है कि विगत में हिंदी कामकाज की भाषा नहीं बन सकी थी किन्तु हिंदी का साहित्यिक रूप अपनी बुलन्दी पर हमेशा रहा है। 90 के दशक से साहित्यिक हिंदी पर कारोबारी हिंदी का प्रभाव पड़ना आरम्भ हुआ जिसे सहजतापूर्वक देखा जा सकता है। यद्यपि कारोबारी हिंदी का स्वर्णिम काल 80 के दशक से ही आरम्भ हो चुका था। कारोबारी हिंदी की इस तूफानी विकास यात्रा में आधुनिक विपणन युग का प्रमुख योगदान है। अतएव अब यह आवश्यक हो गया है कि हिंदी के विकास में सामानान्तर चल रही कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी का अन्तर गंगा-यमुना की संगम की तरह रखा जाए।

इस मुद्दे को उठाने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वर्तमान में हिंदी पर चौतरफा भाषाई घुसपैठ जारी है जिसका स्वरूप विशेषकर महानगरों की आम बोलचाल की हिंदी में देखा जा सकता है। इस घुसपैठ को रोकना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है किंतु घुसपैठ के प्रभाव को कम किया जा सकता है। हिंदी भाषा का यह जॉच बिन्दु हिंदी लेखन से सीधे जुड़ा है। हिंदी में लिखनेवालों को अपनी-अपनी विधाओं के अस्तित्व को बनाए रखना है उसे बचाए रखना है। इसके लिए यह आवश्यक है कि यह स्पष्ट किया जाए कि कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी के अन्तर्गत क्या-क्या आता है। कारोबारी हिंदी के अंतर्गत वर्तमान में अंग्रेज़ी की अनुदित सामग्रियॉ अधिक हैं जो केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में उपलब्ध हैं, मीडिया द्वारा कारोबारी हिंदी में प्रयुक्त शब्दावलियॉ हैं, वित्तीय अख़बारों और पत्रिकाओं की भाषा आदि हैं। जबकि साहित्यिक हिंदी में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं के अतिरिक्त मीडिया, रंगमंच, संस्कृति आदि हैं।

कारोबारी हिंदी के विकास के लिए काफी अधिक अनुवाद कार्य हुआ है जबकि साहित्यिक हिंदी में भी अनुवाद अनवरत जारी है लेकिन दोनों के अनुवाद में व्यापक अंतर है। साहित्यिक हिंदी में अनुवाद करने के लिए शब्दों के लिए न तो अटकना पड़ता है और न भटकना पड़ता है। साहित्यिक हिंदी इतर साहित्य को बखूबी अभिव्यक्त कर देती है क्योंकि साहित्यिक हिंदी की परम्परा कारोबारी हिंदी से अत्यधिक पुरानी है और इसमें शब्दों के विपुल भंडार हैं। शब्दों का यह भंडार कारोबारी हिंदी के लिए पूरी तरह से उपयोगी नहीं है। कारोबारी हिंदी को कामकाज की प्रणाली के अनुसार न केवल हिंदी में नए शब्द तलाशने पड़ते हैं बल्कि वाक्य रचना भी साहित्यिक हिंदी से भिन्न रचनी पड़ती है। इस तलाश में एक तरफ नए-नए शब्दों का प्रादुर्भाव होता है तो दूसरी और हिंदी वाक्य रचना की नई शैली भी विकसित होती है। कारोबारी हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं से शब्द लिए जाते हैं तथा नए शब्द गढ़े भी जाते हैं जबकि साहित्यिक हिंदी में इस तरह के परिवर्तन बहुत कम होते हैं और यदि होते भी हैं तो साहित्यिक हिंदी उसे बखूबी खुद में समा लेती है जिसका सामान्यतया अनुभव नहीं हो पाता है।

विपणन के इस युग में प्रत्येक वस्तु का मूल्यांकन किया जा रहा है तथा उसकी कीमतें निर्धारित की जा रही हैं। संपूर्ण विश्व क्रेता और विक्रेता बना हुआ है, अभिव्यक्तियॉ भावनाओं से दूर होती जा रही हैं और व्यवहारिकता को समाज पनाह देने को विवश है। कारोबार आम जीवन शैली को प्रभावित करते जा रहा है और पभोक्तावाद की लहर से कोई भी अछूता नहीं है। जिंदगी को बाज़ारवाद जितनी गहराई से छू रहा है उतनी ही तेज़ी से अभिव्यक्तियॉ भी बदल रही हैं। प्रौद्योगिकी की भाषा अभी हिंदी पर आक्रमण नहीं की है किन्तु जैसे-जैसे हिंदी में प्रौद्योगिकी का प्रयोग बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे हिंदी के समक्ष एक और नई चुनौती उभरती जाएगी। हिंदी भाषा की परंपरागत शैली को बनाए रखने के लिए हिंदी लेखकों को विशेष ध्यान देना चाहिए। अनेकों अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं घुसपैठ की तैयारियॉ कर रही हैं। अगर हमें अपनी वस्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेचनी है तो अपनी भाषा को भी वहॉ ले जाना होगा। अगर भाषा जाएगी तो संस्कृति जाएगी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यदि हमारी संस्कृति अपना ली गई तो वहॉ के बाज़ार में हमारा प्रवेश आसानीपूर्वक हो सकेगा। इस प्रकार की कार्यनीतियॉ निकट भविष्य में भाषागत चुनौतियॉ खड़ी करेंगी जिसमें प्रौद्योगिकी की उल्लेखनीय भूमिका होगी।

धीरेन्द्र सिंह.

रविवार, 19 अप्रैल 2009

अंग्रेज़ी और शन्नो

दिनांक 18 अप्रैल, 2009 को समाचार की सुर्खियों में एक 11 वर्षीय बालिका शन्नो की मृत्यु की ख़बर के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा की भी चर्चा थी। समाचार में उल्लेख था कि अंग्रेज़ी का अल्फाबेट याद न करने पर शिक्षिका मंजू ने शन्नो को दंडित करते हुए उसके कंधे पर दो इंटें लटकाकर दो घंटे तक खड़ा किया था जिसके फलस्वरूप शन्नो की मृत्यु हो गयी। यह एक बेहद दुखद ख़बर थी। विभिन्न समाचार विश्लेषकों ने शन्नो की मृत्यु के लिए विद्यालय और शिक्षिका को ज़िम्मेदार ठहराने का प्रयास किया। दिनांक 19 अप्रैल 2009 को इस विषयक जॉच की खबर प्रकाशित हुई और इसके बाद इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। मैं बेसब्री से किसी और पहल, किसी और सोच की प्रतीक्षा करता रहा किंतु शन्नो का मामला विद्यालय के सख्त रवैया के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा।

शन्नो मुझे एक बालिका नहीं लग रही है और न ही शन्नो की मृत्यु केवल एक दुर्घटनाजनित मृत्यु ही लग रही है और न ही विद्यालय या शिक्षिका इस दुर्घटना के लिए केवल जिम्मेदार नज़र आ रहे हैं। शन्नो भारत की उन असंख्य बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों, पुरूष-महिलाओं की प्रतिनिधि है जो अपनी मातृभाषा और हिंदी को छोड़कर अंग्रेज़ी भाषा को अलादीन का चिराग मानकर अपनाने का अथक प्रयास करते रहते हैं। अपनी मातृभाषा या हिंदी में सोच, चिंतन करते हुए उसे अंग्रेज़ी में अनुदित करने का प्रयास करते रहते हैं और सटीक शब्दावली याद न आने पर ख़ुद पर खीझते हुए स्वंय को ज़ाहिल, गंवार कहने में भी नहीं हिचकिचाते। शिशु जब से तुतलाना आरम्भ करता है उसी समय से अंग्रेज़ी का अल्फाबेट जन्मघुट्टी की तरह पिलाने का प्रचलन हमारे देश की आम बात है। केवल अंग्रेज़ी बोलने भर से शिक्षित होने का प्रमाण माना जाना हमारे देश की परम्परा बन चुकी है। शन्नो इसी सोच की बलि चढ़ गई। “जैक एंड ज़िल, वेंट प द हिल” को यदि बच्चे परिवार, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच नहीं सुना पाते तब तक न तो वह बच्चा समझदार माना जाता है और न ही उसके अभिभावक आधुनिक ख़याल के माने जाते हैं।

ऐसी स्थिति में क्या करे विद्यालय और क्या सिखाए शिक्षक ? एक अंग्रेज़ी ही तो है जिसके लिए अभिभावक परेशान रहते हैं क्योंकि यदि अंग्रेज़ी नहीं आएगी तो इंग्लिश मिडीयम स्कूल में एडमिशन नहीं हो पाएगा और यदि बच्चा इंग्लिश मीडियम स्कूल में नहीं पढ़ता है तो फिर वह एक कमज़ोर विद्यार्थी माना जाता है। प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय का लक्ष्य अपने विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी सिखाना रहता है। यदि शन्नो के विद्यालय ने अंग्रेज़ी सिखाने के लिए सख्ती की तो उसका दायित्व केवल विद्यालय पर ही नहीं जाता है बल्कि हमारा समाज भी ज़िम्मेदार है। दंडित शन्नो को दंड से अधिक मानसिक भय भी रहा होगा। अल्फाबेट न सीख पाने का दुःख भी रहा होगा। आज न जाने कितने विद्यार्थी प्राथमिक विद्यालय में अल्फाबेट से जूझ रहे हैं और इस भाषा को सीखने के लिए मानसिक कष्टों से गुज़र रहे हैं। इस विषय पर यदि सर्वेक्षण या शोध किया जाए तो कई चौंकानेवाले तथ्यों के उजागर होने की संभावना है।

शन्नो केवल प्राथमिक विद्यालय स्तर पर ही नहीं पाई जाती है। शन्नो विद्यालयों, महाविद्यालयों, दफ्तरों तक में व्याप्त है। महाविद्यालयों में सामान्यतया यह अनुभव रहा है कि अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों की तुलना में गैर अंग्रेज़ी विद्यालियों में पढ़े विद्यार्थी कहीं बेहतर पाए जाते हैं परन्तु महाविद्यालय की इतर गतिविधियों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है। यह महाविद्यालय की विवशता है वहॉ कार्यरत मंजू शिक्षिकाओं की चुनौती है, महाविद्यालयों की छवि का प्रश्न है, साख का मामला है, विपणन की मांग है। शन्नो हर जगह परेशान हैं। मंजू हर जगह कार्यनिष्पादन के श्रेष्ठ प्रदर्शन के दबाव में है। अन्य भारतीय भाषाएं बिखरी हुई सी पड़ी हैं, ठीक उस नृत्य टोली की तरह जिसमें प्रमुख नर्तक का परिधान, स्थान, मुद्राएं समूह के अन्य नर्तकों से भिन्न और विशिष्ट होता है। अंग्रेज़ी को प्रमुख नर्तक बना दिया गया है तथा अन्य सभी भारतीय भाषाओं को उस टोली का सहायक नर्तक बनाकर प्रस्तुतियॉ की जा रही हैं और तालियॉ बजाई जा रही हैं। शन्नो को प्रमुख नर्तक की भूमिका में ढालने का प्रयास एक दुखद हादसा में बदल जाना पीड़ादायक हो जाएगा, ऐसा तो किसी ने सोचा ही नहीं था।

सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में कार्यरत राजभाषा अधिकारी या हिंदी अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन के लिए मंजू जैसी मानसिकता से ही गुज़र रहे हैं। यहॉ की शन्नो अर्थात कर्मचारी परिपक्व और उम्रदराज़ है फिर भी अंग्रेज़ी के अल्फाबेट को नहीं सीख पा रही है। यह और बात है कि यहॉ की शन्नो काफी चतुर और समझदार है इसलिए अल्फाबेट पूरी तरह याद न होने के बावजूद भी कभी तेज़ी से बोलकर या घसीटकर लिख कर अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर रही है। मंजू को सब पता है फिर भी वह कुछ नहीं कर सकती क्योंकि यह प्राथमिक विद्यालय नहीं है इसलिए खामोशी से देखे जा रही है। आख़िर काम तो चल रहा है न, बस यही तो चाहिए। आक़िर भाषा की उपयोगिता केवल काम ही तो चलाना है फिर भले ही अल्फाबेट आए या ना आए। मंजू अल्फाबेट को लेकर परेशान है और शन्नौ अल्फाबेट को लेकर परेशान है। अंग्रेज़ी चल रह है। शन्नो तुम्हारी मृत्यु इस देश के भाषिक सोच का परिणाम है। यह भाषा की बलिदानी है। प्रणाम शन्नो।

धीरेन्द्र सिंह.

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

अंग्रेज़ी की कठिनाई.

भारत देश में प्राय: यह कहा जाता है कि अंग्रेज़ी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है तथा इस भाषा के द्वारा विश्व के ज्ञान, सूचनाओं आदि की खिड़कियॉ खुलती हैं। इस सोच के विरोध में भारत देश में अनेकों बार स्वर उठते रहे हैं तथा इस कथन की सत्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे हैं किंतु ऐसे स्वरों को अनसुना किया जाता रहा है। इस प्रकार देश के जनमानस में यह प्रचारित किया जा चुका है कि और प्रचारित किया जा रहा है कि भारतीय भाषाओं की तुलना में अंग्रेज़ी भाषा प्रगति का एकमात्र रथ है जिसे अपनाने से तरक्की की गारंटी मिल जाती है। यद्यपि देश में अनेकों ज्वलंत उदाहरण हैं जिनके आधार पर यह बखूबी बतलाया जा सकता है कि प्रगति के लिए अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाएं भी हैं जिनसे तरक्की की जा रही है। अंग्रेज़ी भाषा के संग हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के द्वंद्व में राष्ट्र प्रगति करते जा रहा है फिर भी उपलब्धियों की बुलंदी तक पहुँचना बाकी है। किसी भी राष्ट्र और भाषा का प्रगति में कितना तालमेली योगदान होता है इसके विश्व में कई ज्वलंत उदाहरण हैं। लेकिन बात तो अंग्रेज़ी भाषा के कठिनाई की करनी है तो इतनी लंबी भूमिका क्यों ?

हॉ, इस लेख का प्रेरक दिनांक 16 अप्रैल, 2009 को अंग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स (मुंबई) के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक चौंकानेवाला समाचार है। समाचार के शीर्षक का यदि हिंदी अनुवाद किया जाए तो कुछ ऐसा होगा – शहर के एयरपोर्ट पर भाषा-संबंधी विलंब को गपशप ने सुलझाया। इस शीर्षक में भाषा संबंधी विलंब में एक चुम्बकीय आकर्षण था जिसके प्रभाव में मैं एक सांस में पूरा समाचार पढ़ गया। इस समाचार के पठन के बाद यह सोच उत्पन्न हुई कि भाषा का द्वंद्व ज़मीन से आसमान तक कैसे पहुँच गया ? हमारे देश की सोच में अंतर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेज़ी का दबदबा है फिर यह भाषा की आसमानी लड़ाई कैसी ? क्या सचमुच अंग्रेज़ी बौनी होती जा रही है ? क्या भूमंडलीकरण ने अन्य तथ्यों के संग-संग भाषा की सत्यता को भी प्रकट करना शुरू कर दिया है ? क्या अंग्रेज़ी भाषा के प्रति भारत की सामान्य सोच में परिवर्तन होगा ? क्या संकेत दे रहा है यह समाचार ?

दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स में यह दर्शाया गया है कि क़ज़ाकिस्तान, रूस तथा कोरिया आदि देश के पायलट को एयर ट्रैफिक कंट्रोल (एटीसी) से अंग्रेज़ी में प्राप्त अनुदेशों को समझने में असुविधा होती है। अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त अंग्रेज़ी बोलने के लहज़े से उनको काफी कठिनाई होती है। इस कठिनाई का हल निकालने के लिए यह निर्णय लिया गया कि एटीसी और इस प्रकार के विदेशी पायलटों के बीच गपशप हो जिससे पायलट अंग्रेज़ी के लहज़े को भी समझ सकें। समाचार में इसका भी उल्लेख है कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अनुसार मार्च, 2008 तक भारत में विदेशी पायलटों की संख्या 944 थी। इस क्षेत्र की चूँकि निर्धारित शब्दावली एवं सीमित वाक्य होते हैं जिससे एक अभ्यास के बाद इसे सीखा जा सकता है परन्तु सामान्य बातचीत में कठिनाई बरकरार रहेगी। भविष्य में अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अनेकों भाषाएं विश्व में अपना दबदबा बनाने का प्रयास करेंगी अतएव हिंदी को अब और व्यापक रूप में अपनाने की आवश्यकता है। अंग्रेज़ी भाषा की इस प्रकार की कठिनाई की तरह कहीं भविष्य हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए घोर संकट न पैदा कर दे।
धीरेन्द्र सिंह.

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

अंग्रेज़ी की दुहाई.

अभिव्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति के लिए भी उस राष्ट्र की भाषा का महत्व होता है। भाषा विज्ञान भी इस तथ्य को मानता है। यह तथ्य है कि किसी भी समाज के विकास में केवल भाषा का योगदान नहीं रहता है किन्तु विकास के क्रम में भाषा के महत्व को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता है। सर्वविदित है कि किसी भी राष्ट्र की सामान्यतया लिखित और मौखिक भाषा का स्वरूप एक सा नहीं रहता है। भाषाओं की तुलना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि प्रत्येक भाषा अपनी ज़मीन का सोंधापन लिए होती है। प्रत्येक भाषा अपने आधार विस्तार के संग-संग दूसरी भाषाओं की विभिन्न खूबियों को स्वंय में मिलाकर अपना विकास करते रहती है। इस प्रकार साहित्य, प्रौद्योगिकी, प्रशासकीय कामकाज आदि में सहजतापूर्वक प्रयोग में लाई जानेवाली भाषा एक विकसित भाषा के रूप में जानी जाती है। इस क्रम में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएं स्वंय को वर्षों से विकसित भाषा के रूप में प्रमाणित कर रही हैं। हमारे देश में विकसित भाषा के रूप में मानी जानेवाली अंग्रेज़ी भाषा कभी अविकसित भाषा के रूप में जानी जाती थी। वर्तमान में हमारे देश में अंग्रेज़ी भाषा के सामने हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जा रहा है जीसकी अनुभूतियों से आए दिन गुज़रना पड़ता है।

भारतीय संविधान भी हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के विकास की बात कहता है। भारत देश के सार्वजनिक जीवन में मौखिक प्रयोग के रूप में भी हिंदी की लोकप्रियता तथा उपयोगिता अपने चरम पर है। संघ की राजभाषा हिंदी का प्रशासकीय कामकाज में उपयोग अपेक्षाकृत काफी कम है। इस कार्य हेतु कोशिशें जारी हैं किंतु जितनी उर्जा, समर्पण तथा स्वप्रेरणा की आवश्यकता है उतनी उपलब्ध नहीं हो पा रही है परिणामस्वरूप हिंदी तथा भारतीय भाषाएं एक औपचारिकता के आवरण में लिपटी दिखलाई पड़ रही है। इस क्रम में राष्ट्र के हिस्से से यह आवाज़ उठती है कि अंग्रेजी को हटाया जाना चाहिए तब उसपर काफी शोर क्यों मचाया जा रहा है? क्या किसी के कह देने मात्र से कोई भाषा समाप्त हो जाती है ? या कि यह भाषा विषयक किसी भय का शोर है ? गौरतलब है कि भारत देश के संविधान में देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी संघ की राजभाषा है जिसके कार्यान्वयन के लिए काफी प्रयास किए जा रहे हैं, तो क्या इस संवैधानिक शक्ति से विभिन्न सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों आदि में राजभाषा हिंदी का प्रयोग लक्ष्य के अनुरूप किया जा रहा है ? यदि नहीं तो यह प्रमाणित करता है कि किसी भाषा के हटा देने की आवाज बुलन्द करने मात्र से कोई भाषा नहीं हटती है तो फिर मीडिया द्वारा अंग्रेज़ी की दुहाई क्यों दी जा रही है ?


ज्ञातव्य है कि भारत देश की सम्पर्क भाषा हिन्दी है तथा इसका सशक्त जनाधार है। देश के विभिन्न राज्यों में संबंधित राज्य की भाषा का बोलबाला है। इन सबके बावजूद भी अंग्रेजी का प्रयोग कम करना कठिन क्यों लग रहा है यह एक विचारणीय प्रश्न है। अंग्रेज़ी हटाओ के पीछे क्या धारणा है इसकी व्यापक समीक्षा नहीं की जा रही है। “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति खा मूल” विचार का गहराई से विश्लेषण नहीं किया जा रहा है। भाषा विचार को प्रभावित करती है या कि विचार भाषा पर अपनी वर्चस्वता बनाए रखता है, से स्पष्ट नहीं किया जा रहा है। स्वतंत्रता और परतंत्रता में भाषा की भूमिका स्पष्ट नहीं की जा रही है। भाषा का प्रयोग एक आदत का या भाषागत व्यवस्था की सहजता का परिणाम है इसे सार्वजनिक तौर पर निरूपित नहीं किया जा रहा है। राष्ट्र की एक भाषा का प्रशासकीय कार्यों में पयोग में लाया जाना राष्ट्रहित में है इसपर खुलकर बहस नहीं की जा रही है। हिंदी को पूर्णतया प्रशासकीय कार्यों में प्रयोग में लाने की बाधाओं का उल्लेख नहीं किया जा रहा है। यह भी नहीं समझाया जा रहा है कि एक भाषा को पूर्णतया सक्षम कर उसके पद पर आसीन करने के लिए एक धमाकेदार प्रयास की आवश्यकता होती है।

इस विषयक दूसरी कटु स्थिति यह है कि राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन से जुड़े अधिकांश लोग अब थके-थके से लगने लगे हैं। ऐसी स्थिति में एक प्रेरणापूर्ण ललकार उनमें नई उर्जा तथा जागृति का संचार कर सकती है। भूमंडलीकरण के दौर में जिस देश की माटी की भाषा को लिखित और मौखिक संप्रेषण में सर्वोच्च स्थान नहीं दिया जाएगा वह देश पिछड़ों की श्रेणी में माना जाएगा। आज हिंदी प्रौद्योगिकी में भी अपनी श्रेष्ठ क्षमता का परिचय दे चुकी है। विज्ञान, तकनीकी आदि विषयों को बखूबी अभिव्यक्त करने की शब्दावलियों सो सजी-संवरी हिंदी और कब तक अपने पद पर आसीन होने के लिए प्रतीक्षारत रहेगी ?

धीरेन्द्र सिंह.