जीवन को जीव सजीव करने के लिए जी जान से सतत प्रयत्नशील रहता है। सजीव जीने की कामना दिल से उत्पन्न होती है। प्रत्येक जीव का दिल आजीवन सक्रिय रहता है और इसी सक्रिय दिल के कारण हिलमिल कर झिलमिल जगमगाने की चाहत नयनों में समेटे बढ़ते रहता है। यह प्राकृतिक आश्चर्य है कि प्रत्येक दिल सबसे पहले प्यार की अनुभूति से जागृत होता है। प्यार जो प्रत्येक पल का सदियों से एक स्थायी मुद्दा है सुगंधित होकर उड़ जाने का।
उड़ता जीव नहीं बल्कि उड़ता तो दिल है। प्रत्येक दिल की आत्मिक भाषा एक ही होती है जो भावपूर्ण होती है किंतु शब्दहीन भी होती है और इस भाव को स्पर्श या भावाभिव्यक्ति द्वारा जीव आदिकाल से अपनाता रहा है किंतु इसमें पूरी सफलता और संतुष्टि नहीं मिलती है। प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए जीव ने अपनी एक भाषा निर्मित की और उंसमें निरंतर निखार लाते जा रहा है। वर्तमान में प्यार की भाषा बहुरंगी और बहुआयामी हो गयी है जिसमें भावनाएंकम और कामनाएं अधिक हो गयी हैं।
दिल मूलतः भावनाओं और कामनाओं की धरती पर संतुलन बनाकर जीता है। दिल को लोग हार भी जाते हैं, दिल को लूट भी लिया जाता है, दिल को चुरा भी लेते हैं, दिल अंगड़ाईयाँ भी लेता है, दिल टूटता भी है, दिल कातिल भी है आदि-आदि विभिन्न भाव और शब्द हैं जो दिल को प्रस्तुत करते रहता है। दिल एक लक्ष्य भी है दिल एक खोज भी है। यह बहुत कम होता है कि दिल से दिल मिल जाए और जीवन मधुर जुगाली बन जाए।
जीवन में सर्जन की सभी क्रियाएं दिल से होती हैं और ऐसा सर्जन ही अपनी पहचान बना पाता है। सोशल मीडिया के कारण सर्जन का अंधानुकरण खूब हो रहा है परिणामस्वरूप मौलिक सर्जन छुपा-छुपा, दबा-दबा प्रतीत होता है। दिल की यह खुदबुदाहट एक अस्वस्थ प्रतियोगिता को जन्म देती है। दिल के अनुसार पूरी तरह चला भी नहीं जा सकता। विवेक का यदि दिल पर यथेष्ट नियंत्रण न रहे तो दिल सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं को ठेंगा दिखाते अनहोनी कही जानेवाली घटनाओं का उद्गम केंद्र बन जायेगा। नमक या मसाले की ततः विवेक का प्रसार दिल की समस्त कामनाओं और भावनाओं पर होना चाहिए। दिल हमेशा चाहता है कि अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता मिले पर दिल हो जाना दिल को यह नहीं मालूम कि पूर्ण दिल हो जाना अर्थात मौन हो जाना है।
धीरेन्द्र सिंह
23.06.2025
15.40
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