बुधवार, 29 जुलाई 2009

भाषा युद्ध

प्रत्येक राष्ट्र के भाषाविद्, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता आदि एक स्वर में मातृभाषा में ज्ञानार्जन तथा अभिव्यक्ति को महत्व देते रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक कारणों से यह संभव नहीं हो पाता कि प्रत्येक व्यक्ति की मातृभाषा को व्यापक प्रचार-प्रसार मिले इसलिए उस देश की कुछ भाषाओं को ही वह स्थान प्राप्त हो पाता है जहॉ से वह भाषा लिखित और मौखिक प्रयोगों में अपनी उपयोगिता प्रमाणित करती है। इस प्रकार भाषाऍ अपनी क्षमताओं में निरन्तर विकास करती जाती हैं तथा प्रत्येक क्षेत्र की अभिव्यक्ति को बखूबी बयॉ करती रहती है। भाषा अपनी तमाम विशेषताओं के संग अपनी वर्चस्वता को भी बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहती है। आधुनिक युग में भाषा की सहजता, सुगमता और सहज स्वीकृति उतनी चुनौतीपूर्ण नहीं है जितनी चुनौतियॉ भाषा की वर्चस्वता के लिए है। अपने राष्ट्र की परिधि से निकल भाषा जितने अधिक अन्य राष्ट्रों में जाएगी वह भाषा उतनी ही सशक्त और सक्षम मानी जाएगी। उन्नत और उन्नतशील राष्ट्रों में भाषा की वर्चस्वता को लेकर एक अघोषित युद्ध जारी है।

यह अघोषित युद्ध दूसरे राष्ट्रों की भाषाओं के नकार जनित नहीं है बल्कि इस युद्ध का एकमात्र लक्ष्य अपनी भाषा की वर्चस्वता को स्थापित कर अपनी एक विशेष पहचान बनाना है। यह युद्ध भाषा की दृष्टि से ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टि से भी एक सकारात्मक युद्ध है जिसमें इन्टरनेट की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। सिमटते विश्व में एक राष्ट्र अपनी भाषा का प्रचार-प्रसार कर दूसरे देशों की प्रतिभाओं को अपने देश में आकर्षित करने का वैश्विक परम्परागत प्रयास करता है। विकासशील और विकसित दोनों राष्ट्र इस क्षेत्र में काफी तेजी से सक्रिय हैं तथा खामोशी से भाषा का युद्ध जारी है। यह युद्ध केवल राष्ट्रों के बीच नहीं है बल्कि अधिकांश बहुभाषी देशों में भी है जहॉ पर राष्ट्र की एक भाषा से दूसरी भाषा से लड़ाई है अर्थात राष्ट्र के भीतर भी वर्चस्वता के लिए भाषाऍ लड़ रही हैं। आए दिन समाचारों में भाषा विषयक इस प्रकार के समाचार मिलते रहते हैं।

इस युद्ध में तत्परतापूर्वक सिर्फ निर्णय ही नहीं लिया जा रहा है बल्कि निर्णय के कार्यान्वयन हेतु पहल और प्रयास भी हो रहा है। हाल ही में मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री मुह्यीद्दीन यासीन ने घोषणा कर दी कि वर्ष 2012 से विद्यालयों में गणित तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी भाषा में नहीं दी जाएगी बल्कि अंग्रेज़ी के स्थान पर चीनी या तमिल भाषा में शिक्षा प्रदान की जाएगी। इस प्रकार भाषा की एक जोरदार बहस मलेशिया में छिड़ गई तथा अंग्रेजी से चीनी तथा तमिल भाषा का संघर्ष आरम्भ हो गया। इस युद्ध का परिणाम मलेशिया के उप-प्रधानमंत्री की घोषणा में सहजता से पाया जा सकता है। नेपाल ने भी भाषा का एक स्पष्ट युद्ध छेड़ दिया है। नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम उप-राष्ट्रपति परमानन्द झा द्वारा हिंदी में ली गई शपथ को अमान्य करते हुए उन्हें फिर से नेपाली भाषा में शपथ लेने के लिए कहा है। क्या यह दो उदाहरण भविष्य में भाषा के युद्ध में वृद्धि के संकेत नहीं दे रहे हैं ? यदि संशय है तो निम्नलिखित आंकड़े तस्वीर को और साफ करने में सहायक होंगे –

कुल फीचर फिल्मों की संख्या कुल दर्शकों की संख्या (करोड़ में)
भारत 1,132 3,290
यू।एस। ५२० १३६४
चीन ४०० १९६
फ्रांस 240 १९०
जर्मनी 185 129
स्पेन १७३ 108
इटली १५५ 108
रिप. ऑफ़ कोरिया ११३ 151
यू।के। १०२ 164

उक्त आंकड़ों में भारत ने वर्ष 2007 में कुल 1132 फीचर फिल्मों का निर्माण किया जिसमें मुंबई, हैदराबाद तथा चेन्नई में निर्मित फिल्में हैं। भारत में निर्मित फिल्मों की संख्या यू.एस., चीन तथा फ्रांस में निर्मित की कुल फिल्मों के बराबर है। यहॉ अचानक फिल्मों की चर्चा से आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह भी भाषा युद्ध का एक हिस्सा है। जितनी अधिक फिल्में होंगी भाषा का विपणन उतना ही अधिक होगा। भाषा का विपणन भाषा युद्ध का एक अभिन्न हिस्सा है। फिल्में एक भाषा विशेष तथा संस्कृति के आधार और क्षमता को बनाए रखती हैं और उसमें निरन्तर विकास करते रहती हैं। भारत देश में इतनी अधिक संख्या में फिल्मों का निर्माण भारतीय भाषा की पहुँच को विश्वस्तर तक ले जाने का भी एक प्रयास है। कला और संस्कृति से भाषा इतनी गहराई से जुड़ी है कि इनका एक अटूट पैकेज है।

इस भाषा युद्ध में यदि दक्षिण एशिया की चर्चा की जाए तो चीन सर्वोत्तम है तथा इसकी कोई मिसाल नहीं है। अपनी पहचान, अपनी बेहतर छवि तथा अपनी वर्चस्वता के लिए जारी इस भाषा युद्ध में भारत भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज किए है जिसमें फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। यूनिकोड की उपयोगिता में वृद्धि से इंटरनेट पर भी देवनागरी की सहज पैठ बन गई है जिससे हिंदी की लोकप्रियता को एक नया आधार मिला है।। भाषा का नकार तथा स्वीकार जारी है तथा इस युद्ध में भाषाऍ एक नए रूप में अभिव्यक्ति के नए अंदाजों सहित प्रस्फुटित हो रही है।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 1 जुलाई 2009

भाषा के दृष्टिकोण से भारत और चीन

दक्षिण एशिया में सुपर पॉवर बनने की होड़ भारत और चीन के मध्य जारी है तथा दोनों देश समय-समय पर अपनी वर्चस्वता का दावा करते रहते हैं। सुपर पॉवर बनने के लिए किसी भी देश को सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक आदि क्षेत्रों में अपनी वर्चस्वता बनानी पड़ती है तथा इस वर्चस्वता के प्रयासों में भाषा के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। भारत और चीन दोनों बहुसंख्यक और बहुभाषी देश हैं तथा दोनों देशों की अपनी राजभाषा है। हिंदी भारत की राजभाषा है तथा मन्दारिन चीन की राजभाषा है परन्तु दोनों देशों की राजभाषाओं में काफी समानताऍ हैं। भारत की राजभाषा हिंदी अभी भी कार्यान्वयन की स्थिति में है जबकि चीन की राजभाषा मन्दारिन चीन की धड़कनों को अभिव्यक्त करने का सर्वप्रमुख माध्यम है। भारत में अंग्रेजी भाषा का भी बोलबाला है जबकि चीन में मन्दारिन तथा अन्य चीनी भाषाओं का ही प्रयोग होता है।

चीन की अन्य विशेषताओं में से एक प्रमुख विशेषता चीनी भाषा में संपूर्ण शिक्षा प्रदान करना है। बारम्बार विभिन्न मंचों से कहा जाता रहा है कि मातृभाषा में शिक्षा प्रतिभा विकास में अत्यधिक सहायक सिद्ध होती है। भारत में भी मातृभाषा में शिक्षा पर बल दिया जाता है परन्तु अंग्रेजी भाषा यहाँ लोगों को मोहित करती नज़र आती है। चीन में अपनी भाषा के प्रति आदर सराहनीय है तथा चीनी भाषा के प्रति सजग भी प्रतीत होते हैं। भाषा के प्रति सम्मान भारत में भी है। चीन के पेकिंग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष श्री जियांग जिंगूकी का कहना है कि “ मेरे को ” शब्द का प्रयोग भारतीय क्यों करते हैं यह अशुद्ध है ‘मेरे को’ के स्थान पर ‘मुझको’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। चीन अब विदेशी भाषाओं में भी अपनी दख़ल बनाने में लग गया है। चीनी हिंदी सीखने में भी पीछे नहीं हैं। भाषा के प्रति ऐसी ललक भारत में बहुत कम दिखलाई पड़ती है। भारत देश में भाषा विषयक मुद्दों पर व्यापक सार्वजनिक चर्चाऍ नहीं हो पाईं यद्यपि आंदोलन अवश्य हुए जिसने भाषा की सोच की प्रक्रिया को तितर-बितर कर दिया।

भारत में चीन के किसी भाषा या मन्दारिन का किस स्तर तक अध्ययन किया जा रहा है तथा चीनी भाषाओं की भारत में क्या संभावनाऍ हैं इसपर जानकारियॉ सहज रूप से अनुपलब्ध हैं जबकि इससे विपरीत चीन में हिंदी को लेकर एक उत्साहजनक स्थिति है। वर्तमान में लगभग सात करोड़ स्नातक नौकरी की तलाश में हैं फिर भी चीन के कैम्पस में हिंदी तथा अन्य भाषाओं के अध्ययन करनेवालों के लिए नौकरी के प्रस्ताव आ रहे हैं। क्या भारत में भाषाओं के प्रति इस प्रकार की संचेतना है। चीन में हिंदी भाषा सीखनेवाले विद्यार्थियों ने अपना नाम हिंदी में लिखकर अपनी एक वैकल्पिक पहचान बनाई है। इन विद्यार्थियों के नाम अजय, सागर, विष्णु आदि हैं तथा यह भारतीय संस्कृति का अध्ययन करते हैं और रामायण और महाभारत सीरिअल देखते हैं। भारत को गहराई तक जानने की यह ललक यह दर्साती है कि चीन में हिंदी की काफी संभावनाऍ हैं। पिछले वित्तीय वर्ष के आर्थिक मंदी के बावजूद भी भारत तथा चीन के बीच कारोबार 34 प्रतिशत रहा किंतु दोनों देशों के व्यापारी शायद ही एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति को समझ पाते हैं। वर्तमान में चीन के सात हिंदी विभागों में लगभग 200 विद्यार्थी हिंदी का अध्ययन कर रहे हैं।

भारत में भाषा का अध्ययन या तो शिक्षण के लिए होता है या फिर मीडिया के लिए। भाषा की अन्य विधाओं की और रूझान अधिक नहीं है। हिंदी प्रमुखतया साहित्य, मनोरंजन और मीडिया की भाषा बनी हुई है तथा इसके विस्तार की आवश्यकता है। शिक्षा में हिंदी की प्रभावशाली उपस्थिति अभी भी नहीं है, प्रशासन में इसकी उपयोगिता में प्रगति धीमी है, राजभाषा के रूप में अपनी छवि बनाने में प्रयत्नशील है आदि कई क्षेत्र हैं। समस्या हिंदी भाषा की क्षमता की नहीं है बल्कि उलझन हिंदी के उपयोगिता की है। मन्दारिन भाषा में प्रयोग किए जानेवाले कुल शब्द 500,000 से भी अधिक हैं जबकि हिन्दी में शब्दों की संख्या 120,000 है। इंटरनेट पर चीनी भाषा प्रयोग करनेवाले 321 करोड़ लोग हैं तथा यह विश्व की दूसरी भाषा है किंतु इंटरनेट की श्रेष्ठ 10 भाषाओं में हिंदी का नाम नहीं है। चीन की भाषागत सोच आधुनिक है तथा भविष्य के लिए चीन अपनी तैयारियॉ कर रहा है और उसका इज़हार भी कर रहा है। भारत में भाषागत ऐसी खनक नहीं है।

धीरेन्द्र सिंह.