गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

विश्व हिंदी दिवस

हिंदी दिवस के संग विश्व हिंदी दिवस का मनाया जाना हमारे लिए आश्चर्यजनक हो सकता है। आश्चर्य शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि हमारे भारत देश में अभी तक हिंदी राजभाषा के रूप में सरकारी कार्यालयों तक पैठी ही नहीं, उच्च शिक्षा के पाठ्यसामग्रियों में तथा कक्षाओं के विभिन्न सत्र में बैठी ही नहीं और चल पड़ी हिंदी विश्व की और, आखिर यह माज़रा क्या है। भारतीय भाषाओं के प्रति भारतीयों की सामान्य प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही होती है और भाषाएं लहरों की तरह अपनी मंज़िलें तय करती रहती हैं अथक, अनवरत और असीमित। यदि भारतीय विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर रहे हैं तब उनकी भाषा को विश्व में दर्ज़ करने को कब तक टाला जा सकता है। हिंदी की भी यही स्थिति है। कहीं बोलचाल के रूप में, कहीं गीत-संगीत में ढली हुई, कहीं तीज-त्यौहार में उमंगमयी तो कहीं भक्ति-दर्शन आदि अनेक रूपों में हिंदी विश्व में पाई जा रही है। हिंदी के इस विस्तार के बारे में कितने भारतीय परिचित हैं यह कहना कठिन है किंतु यह कहा जा सकता है कि हिंदी के विस्तार के बारे में अनभिज्ञता बनी हुई है जो हिंदी के साथ-साथ राजभाषा के लिए हितकर नहीं कहा जा सकता है। वर्तमान युग में भाषा के वर्चस्वता की प्रतियोगितापूर्ण दौड़ में यदि विश्व हिंदी दिवस का आयोजन न किया जाए तो हम अपनी भाषिक शक्ति का न तो प्रदर्शन कर पाएंगे और न ही विश्व में फैले हिंदी प्रेमियों को एक मंच ही प्रदान कर पाएंगे इसलिए विश्व हिंदी दिवस का आयोजन केवल एक आवश्यकता ही नहीं है बल्कि समय की मांग है।

समय की मांग के संग चलना सामान्यतया अत्यावश्यक होता है किंतु उस मांग की पूर्ति करना सामान्यतया एक कठिन चुनौती लगती है। चूंकि हिंदी विश्व में फैली हुई है इसलिए विश्व हिंदी दिवस के द्वारा हिंदी को सहज, सरल बनाते रहने के साथ-साथ इसके एकरूपता पर भी ध्यान देना आवश्यक है अन्यथा हिंदी भाषा में भटकाव आ सकता है। यह एक चुनैतीपूर्ण कार्य है। इसके अतिरिक्त विश्व हिंदी दिवस के आयोजन के द्वारा विश्व की भाषाएं मित्रवत हिंदी की तरफ बढ़ेंगी जिससे हिंदी का साहित्य भी समृद्ध होगा। भूमंडलीकरण के दौर में केवल कुछ राष्ट्रों तक सिमट कर रहने से व्यापक लाभ नहीं होगा बल्कि इसके लिए अधिकाधिक देशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार होना चाहिए। प्रत्येक उन्नत और उन्नतिशील देश अपनी-अपनी भाषाओं के प्रसार के लिए पयत्नशील हैं तो तमाम खूबियोंवाली हिंदी के लिए विश्व में मुनादी से हिंदी को क्यों वंचित रखा जाए, आखिरकार विश्व में अनिवासी भारतीय के रूप में हिंदी के प्रतिनिधियों की सशक्त टीम भी तो है। विश्व हिंदी दिवस को हिंदी से जुड़े आयोजन विश्व में हिंदी की लोकप्रियता का संदेश देंगे तथा साथ ही यह भी दर्शाएंगे कि हिंदी भारतीयों के दिल की भाषा है। यदि इस प्रकार विश्व हिंदी दिवस संदेश देने में सफल हो जाता है तो हिंदी विश्वभाषा बनने की होड़ में अपनी प्रबल दावेदारी रख सकेगी।

विश्व हिंदी दिवस का उद्देश्य विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए जागरूकता पैदा करना तथा हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। इसी संकल्पना सहित 14 जनवरी 1975 से विश्व हिंदी सम्मेलन का आरम्भ हुआ जिसकी संख्या अब तक कुल आठ हो चुकी है जिसके देश मॉरिशस,नई दिल्ली,मॉरिशस,त्रिनिडाड व टोबैगो, लंदन, सूरीनाम और न्यूयार्क हैं। 14 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन में यह संकल्प पारित हुआ कि प्रतिवर्ष 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाए। हिंदी दिवस जिस तरह सुपरिचित है वह स्थिति विश्व हिंदी दिवस की नहीं है। हिंदी से जुड़े सभी लोग जब तक अपने-अपने परिवेश में विश्व हिंदी दिवस का आयोजन नहीं करेंगे तब तक यह दिवस अपनी दीप्ति से जग को आलोकित नहीं कर पाएगा। विश्व हिंदी दिवस के प्रचार-प्रसार की पृष्ठभूमि में राजभाषा की भूमंडलीय उड़ान भी संलग्न है।


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गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

राजभाषा प्रभारी - एक वैचारिक मंथन

वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन में एक क्रांति की आवश्यकता है इसलिए जरुरी है की राजभाषा का वैचारिक मंथन किया जाये। यहाँ यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि जब राजभाषा नीति है तब क्रांति की क्या आवश्यकता किन्तु यहाँ जिस क्रांति कि चर्चा होने जा रही है वह वैचारिक क्रांति है, कार्यान्वयन की क्रांति है। यदि आपका राजभाषा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है तब तो आपका इस मंथन में हार्दिक स्वागत है क्योंकि आपकी प्रतिक्रिया इस मंथन में संजीवनी बूटी का काम करेगा इसलिए अनुरोध है कि अपने अमूल्य विचार अवश्य प्रकट कीजियेगा और यदि आपका राजभाषा से सीधा सम्बन्ध है तब तो आप के बिना यह मंथन संभव ही नहीं है इसलिए कृपया जुड़े रहिये, जमे रहिये। कहाँ से आरम्भ किया जाये यह विचार मंथन जैसे किसी कार्यालय विशेष से, कार्यालय के उच्चाधिकारियों से, कार्यालय कर्मियों से या कहीं अन्य से . क्यों न हम इसे विभिन्न प्रमुख या प्रधान कार्यालय के राजभाषा विभाग से यह चर्चा आरम्भ करें, आखिर कार्यान्वयन की धारा का एक प्रमुख उद्गम स्थल यह भी तो है। कार्पोरेट कार्यालय के राजभाषा विभाग में होते हैं विभागाध्यक्ष जिनसे राजभाषा की गाड़ी के पहिया को गति और दिशा मिलती रहती है। राजभाषा विभाग के विभागाध्यक्ष के बिना राजभाषा कार्यान्वयन की बात करना आधारहीन है, यह वह धूरी है जिसपर कार्यालय विशेष के राजभाषा की गति और दिशा अवलंबित रहती है.

प्रत्येक कार्यालय के प्रधान या प्रमुख कार्यालय में राजभाषा विभाग होता है जिसमें एक विभागाध्यक्ष होता है। यह विभागाध्यक्ष राजभाषा कार्यान्वयन के लिए योजनायें बनाते हैं तथा इसकी स्वीकृति उच्च प्रबन्धन से प्राप्त करते हैं । राजभाषा के विभागाध्यक्ष उच्च प्रबंधन में कनिष्ठतम पद के होते हैं इसलिए इनके पास स्वयं निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं होता है।, यह केवल राजभाषा कार्यान्यवन की अपनी संस्था में निगरानी करते हैं । प्रायः राजभाषा कार्यान्वयन के निर्णय राजभाषा विभाग के महाप्रबंधक द्वारा किया जाता है । यह महाप्रबंधक राजभाषा कार्यान्वयन के बारे में पूरी जानकारी रखते हों यह आवश्यक नहीं है बल्कि इनका प्रमुख कार्य राजभाषा के वित्तीय मामले को स्वीकृति प्रदान करना है इसलिए राजभाषा कार्यान्वयन का प्रमुख दायित्व राजभाषा विभाग के प्रमुख का होता है जो विशेषज्ञ होते हैं . राजभाषा के प्रमुख दातिव्य से मेरा अभिप्राय राजभाषा कार्यान्वयन की योजनायें बनाना , महाप्रबंधक से उसका अनुमोदन प्राप्त करना और राजभाषा कार्यान्यवन समिति में उसकी स्वीकृति प्राप्त करना है । अक्सर राजभाषा कार्यान्यवन की योजनाओं को स्वीकृति मिल जाती है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जिस संस्था के राजभाषा विभाग का प्रमुख जितना सक्रिय, सतर्क और सामयिक सोच लिए होता है वह संस्था राजभाषा कार्यान्यवन में उतनी ही अग्रणी होती है .

राजभाषा विभाग का प्रमुख बन पाना आसान कार्य नहीं होता है । इस पद तक पहुंचते-पहुंचते राजभाषा अधिकारी के सेवा के अधिकतम 4- 5 वर्ष ही शेष रह जाते हैं । सेवाकाल के इन शेष वर्षों में राजभाषा कार्यान्यवन की चुनौतियों के संग राजभाषा अधिकारियों की टीम को भी प्रेरित, प्रोत्साहित और प्रयोजनमूलक बनाये रखने का दायित्व होता है । इसके अतिरिक्त संस्था के शीर्ष प्रबंधन से लेकर संस्था के छोटे से छोटे पद तक के कर्मचारी को राजभाषा से जोड़े रखना , राजभाषा की नवीनतम जानकारियों से अवगत करना होता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न सरकारी , गैर सरकारी बैठकों में सहभागी होकर राजभाषा पर चर्चाएं करना और अपनी संस्था को एक अग्रणी के रूप में बनाये रखना होता है । इन सबके बीच में राजभाषा के सामान्य कामकाज को भी जरी रखना होता है । इसलिए यह कहना कि 4-5 वर्ष का कार्यकाल राजभाषा कार्यान्यवन के लिए यथेष्ट है कुछ हद तक सत्य भी है और कहीं असत्य भी लगने लगता है । सत्य और असत्य के परस्पर विरोधी शब्दों का यहाँ प्रयोग इसलिए किया गया है कि राजभाषा विभाग के प्रमुख भी सामान्यतया ऐसे ही कार्यनिष्पादन दर्शाते प्रतीत होते हैं। सामान्यतया तीन प्रकार के राजभाषा प्रमुख होते हैं : पराक्रमी , लक्ष्यभेदी और उदासीन । इन तीनों के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं :-

पराक्रमी राजभाषा प्रमुख : राजभाषा के प्रति पूर्णतया समर्पित राजभाषा अधिकारी ही विभाग प्रमुख बन जाने पर पराक्रमी राजभाषा प्रमुख बन पाते हैं । यह वर्षों से संचित गुणों का प्रतिफल है अन्यथा राजभाषा प्रमुख बन जाने पर यदि एक राजभाषा अधिकारी पराक्रमी बनने की कोशिश करता है तो उसे असफलता ही मिलाती है । पराक्रमी राजभाषा कार्यान्यवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना और अपने संस्था का नाम रोशन करता है तथा इस वर्ग के राजभाषा अधिकारी की एक अलग पहचान बन जाती है । संस्था के प्रबंधन से लेकर राजभाषा जगत में अपने व्यक्तित्व को स्थापित करना इनकी प्रमुख विशेषता होती है। राजभाषा कार्यान्यवन के नए कीर्तिमान अधिकांशतः इसी वर्ग द्वारा स्थापित किया जता है . यह राजभाषा का दूरदर्शी वर्ग है । पराक्रमी राजभाषा प्रमुख कभी -कभी मिल पाते हैं और राजभाषा कार्यान्यवन में एक नयी जान फूंक जाते हैं जिसे दूसरी संस्थाएं भी सहर्ष अपनाती हैं .

लक्ष्यभेदी राजभाषा प्रमुख : राजभाषा प्रमुख का यह वर्ग अपने लक्ष्य के प्रति बेहद सतर्क रहता है। यह वर्ग अपनी पहल द्वारा किए जानेवाले कार्यान्वयन की तुलना में अपने वरिष्ठों विशेषकर अपने महाप्रबंधक की पहल का खासा ध्यान रखते हैं। यह हमेशा अपने वरिष्ठों द्वारा निर्धारित लक्ष्य की तलाश में रहते हैं और एक बार लक्ष्य मिल जाने क् बाद उसे पूर्ण करने में जुट जाते हैं। यद्यपि यह वर्ग खासा लोकप्रिय होता है किंतु राजभाषा कार्यान्वयन की दृष्टि से सफल नहीं होता है। हमेशा लक्ष्य की तलाश में रहने के कारण इस वर्ग के कार्यों में तारतम्यता नहीं रहती है परिणामस्वरूप कार्यान्वयन में बिखराव रहता है। यह वर्ग स्व के इर्द-गिर्द घूमते रहता है जिसके कारण स्वस्थ टीम भावना विकसित नहीं हो पाती है। राजभाषा जगत में इस वर्ग का बहुमत नज़र आता है।

उदासीन राजभाषा प्रमुख : इस वर्ग के प्रमुख राजभाषा कार्यान्वयन को बस चलाते रहते हैं तथा दैनिक कार्य अथवा अत्यावश्यक कार्य चलते रहता है। इस वर्ग के लोग प्राय: कार्यालयीन व्यवस्था से दुःखी रहते हैं तथा उन्हें लगता है कि संस्था ने उनकी योग्यता को पहचाना नहीं है। यह वर्ग जैसा चल रहा है, चलने दो नीति के अंतर्गत कार्य करता है। इनकी झोली में या तो शिकायतें रहती हैं अथवा कभी किए गए राजबाषा कार्यान्वयन की विजय गाथा रहती है जिसे यह लोग खुलकर बॉटा करते हैं। राजभाषा कार्यान्वयन को ऐसे प्रमुखों से काफी हानि होती है तथा प्रगति बाधित होती है या इतनी मंद हो जाती है कि लगता है कि रूक सी गई हो। यह वर्ग अपनी सुविधाओं तथा सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों पर अधिक केंद्रित रहता है।

किसी भी कार्यालय में यदि प्रभावशाली राजभाषा कार्यान्वयन करना हो तो सबसे पहले राजभाषा प्रभारी के कार्यनिष्पादनों का समग्रता से विश्लेषम किया जाना चाहिए। यदि सक्षम राजभाषा प्रभारी हैं तब उस कार्यालय को राजभाषा कार्यान्वयन में अभूतपूर्व सफलता मिलती है तथा राजभाषा की विभिन्न उपलब्धियॉ सहजतापूर्वक प्राप्त हो जाती हैं।


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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

राजभाषा विभाग की हिंदी पत्रिकाएं

प्रत्येक सरकारी कार्यालय, बैंक, उपक्रम में सामान्यतया दो पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं जिसमें से एक गृह पत्रिका होती है तथा दूसरी राजभाषा विभाग की पत्रिका होती है। गृह पत्रिका द्विभाषिक होती है जबकि राजभाषा विभाग की पत्रिका केवल हिंदी में होती है। यदि राजभाषा विभाग की पत्रिका और गृह पत्रिका दोनों का अवलोकन किया जाए तो यह ज्ञात होता है कि सामग्री की दृष्टि से दोनों में समानता है और गृह पत्रिका केवल अंग्रेजी सामग्रियों के कारण राजभाषा विभाग की पत्रिका से भिन्न हैं अन्यथा दोनों पत्रिकाओं में बात एक ही है। ऐसी स्थिति में दोनों पत्रिकाओं की सामग्री में फर्क कर पाना मुश्किल होता है परिणामस्वरूप पाठक स्टाफ में एक उलझन की स्थिति निर्मित होती है। यहां यह कह देना आवश्यक है कि कुछ राजभाषा विभाग की पत्रिकाएं अपनी विशेष पहचान बनाए हुए हैं जिनकी संख्या काफी कम है। एक ही प्रकार की सामग्री सहित एक ही कार्यालय से दो पत्रिकाओं के प्रकाशन के औचित्य पर विचार कर आवश्यक परिवर्तन करने के बारे में सोचा क्यों नहीं गया यह एक आश्चर्यचकित करनेवाली स्थिति है।

यदि राजभाषा विभाग की पत्रिका पर गौर किया जाए तो यह प्रतीत होता है कि अधिकांश पत्रिकाएं – "छाप दिया जाए, प्रकाशित कर दिया" जाए शैली में कार्यरत हैं। सर्वविदित है कि राजभाषा विभाग की पत्रिकाओं का एकमात्र उद्देश्य राजभाषा कार्यान्वयन के विविध पक्षों में गतिशीलता लानी है। अपने-अपने क्षेत्रों से प्रकाशित यह पत्रिकाएं अपने क्षेत्र के कर्मियों के लिए कितनी सामग्री, संदर्भ साहित्य आदि प्रस्तुत करती हैं यदि इसका विश्लेषण किया जाए तो उत्साहजनक स्थिति नहीं होगी। इस पत्रिका में प्राय: हिंदी के किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार की रचना होती है और स्टाफ-सदस्यों की कहानी, कविता, व्यंग्य, पाककला, चुटकुले, हिंदी के विभिन्न प्रतियोगिताओं के पुरस्कार विजेताओं की सूची, विभिन्न आयोजनों के फोटो आदि के अतिरिक्त संदेश एवं संपादकीय होता है। पत्रिका का यह कलेवर अपने मूल उद्देश्य से हटकर कहीं व्यावसायिक पत्रिकाओं का अनुसरण करते हुए प्रतीत होता है। क्या यह कलेवर पत्रिका को राजभाषा कार्यान्वयन के लिए प्रेरक या मार्गदर्शक की भूमिका में प्रस्तुत करने में सहायक होगा यह एक विचारणीय मुद्दा है।

राजभाषा विभाग की पत्रिका को अपने आप में अति विशिष्ट और अपने क्षेत्र की कर्मियों की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। भारत सरकार की राजभाषा नीति को क्रमश: और निरन्तर प्रकाशित करते रहना चाहिए। प्रौद्योगिकी के माध्यम से भारतीय भाषाई सामंजस्यता के विभिन्न रूपों को सोदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। क्षेत्र विशेष की भाषाओं सहित उसका हिंदी पाठ से इतर राज्यों से आए स्टाफ को सहज ही भाषा परिचय हो सकेगा। स्टाफ सदस्यों को हिंदी में मौलिक लेखन के लिए प्रोत्साहन के साथ-साथ प्रत्येक अंक में नए स्टाफ के योगदान का समावेश सुनिश्चित करना चाहिए। इस प्रकार अनेकों ऐसे माध्यम हैं जिसके द्वारा पत्रिका स्टाफ तक और स्टाफ पत्रिका तक पूर्णतया पहुंच सकते हैं। सामन्यतया यह पाया गया है कि पत्रिका पूर्णतया स्टाफ केन्द्रित नहीं रहती है बल्कि उसका झुकाव साहित्य की तरफ अधिक होता है। प्रसंगवश यहॉ भारतीय रिज़र्व बैंक की पत्रिका बैंकिंग चिंतन-अनुचिंतन का उल्लेख करने से रूक पाना कठिन है क्योंकि यह पत्रिका अपने आप में एक आदर्श रूप है। राजभाषा विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका में बैंकिंग साहित्य के अलावा इतर साहित्य का समावेश विशेष अवसरों पर अधिकतम दो पन्नों का किया जाए तो पत्रिका का उद्देश्य बरकरार रहता है। ज्ञातव्य है कि इस प्रकार की पत्रिकाएं आंतरिक परिचालन के लिए होती हैं इसलिए इनका लक्ष्य भी आंतरिक परिवेश के अनुरूप होना चाहिए।

संपादन किसी भी पत्रिका का मेरूदंड होता है। यद्यपि यह भी एक कटु सत्य है कि संपादक की भूमिका निभानेवाले राजभाषा अधिकारियों में से अत्यधिक अल्प लोगों को संपादन का सामान्य ज्ञान और रूझान होता है इसलिए इन पत्रिकाओं का अवलोकन करते समय एक अलग नज़रिया की आवश्यकता होती है। अधिकांशत: राजभाषा अधिकारियों की पृष्टभूमि साहित्य की होती है इसलिए उनके लिए हिंदी साहित्य और कार्यालयीन साहित्य में अन्तर कर पाना कठिन हो जाता है और इसीलिए पत्रिका में इन दोनों साहित्य का न तो बेहतरीन तालमेल दिखलाई पड़ता है और ना ही पत्रिका अपनी विशेष छवि ही बना पाती है। यहॉ पर संपादक पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। संपादक ही सामग्री को संपादक मंडल के समक्ष रखता है इसलिए सामग्री का प्रथम चयन संपादक ही करते हैं। संपादक ही पत्रिका को रूप और दिशा देता है इसलिए पत्रिका की सफलता का दारोमदार प्रमुखतया पत्रिका के संपादक पर ही होता है। कार्यालयीन पत्रिका के प्रकाशन के लिए संस्था विशेष की जानकारी तथा राजभाषा नीतियों के ज्ञान के साथ-साथ इस विषयक अनोखी परिकल्पनाएं अत्यावश्यक है। राजभाषा कार्यान्यन का स्वप्न देखनेवाला ही राजभाषा विभाग से स्तरीय पत्रिका का प्रकाशन कर सकता है।

वर्तमान में निकलनेवाली राजभाषा विभाग की पत्रिकाओं के संपादकों का प्रत्येक छमाही में बैठक आवश्यक है जहॉं पर पत्रिका के माध्यम से राजभाषा कार्यान्वयन के लिए नए कदमों पर चर्चा हो तथा तदनुसार कार्यान्वयन हो। एक पत्रिका प्रकाशन आवश्यक है इसलिए पत्रिका प्रकाशित की जानी चाहिए जैसी सोच से इन पत्रिकाओं की गुणवत्ता में सुधार नहीं होगा। संपादक मंडल में संस्था विशेष के उच्चाधिकारी रहते हैं जो समय-समय पर मार्गदर्शन देते रहते हैं किंतु सामग्री एकत्र करना आदि संपादक मंडल का नहीं बल्कि संपादक, सह-सम्पादक आदि का कार्य है। प्रत्येक कार्यालय राजभाषा विभाग की पत्रिका के लिए लगातार सहयोग प्रदान करते रहता है तथा पत्रिका को राजभाषा कार्यान्वयन में उल्लेखनीय कार्य करने के लिए ऊँचाई प्रदान करना संपादक और कार्यालय विशेष के राजभाषा विभाग का कार्य है।


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