रविवार, 28 नवंबर 2010

व्यापकता की तलाश में राजभाषा कार्यान्वयन

हमारे देश में राजभाषा का दौर राजभाषा नीति के तहत अस्सी के आरम्भिक दशक से आरम्भ हुआ तथा तब से अब तक राजभाषा कार्यान्वयन में कोई व्यापक परिवर्तन नहीं हुआ है। यदि मैं कहूं कि यात्रिक, प्रौद्योगिकी, फांन्ट को छोड़कर कोई परिवर्तन नहीं हुआ है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजभाषा कार्यान्वयन में प्रगति अवश्य होती रही है जिसकी गति अधिकांशत: धीमी ही रही है। मैंने अस्सी के दशक के आरम्भ का उल्लेख इसलिए किया क्योंकि राजभाषा का गति का अनुभव केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों के कर्मियों को इसी समय से होना आरम्भ हुआ। तीन दशक बीत जाने के बाद भी राजभाषा कार्यान्वयन में अभी तक अस्सी के दशक की ही छाप है। कुछ निम्नलिखित उदाहरणों से इस कथन की सच्चाई को तलाशने का प्रयास किया जाएगा।

राजभाषा नीति : किसी भी केन्द्रीय कार्यालय, बैंक, उपक्रम के स्टाफ से यदि राजभाषा नीति की चर्चा की जाए तो वह बोल उठेगा – भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, जिसमें राजभाषा शब्द इस वाक्य के शेष दो शब्दों से गौण माना जाता है। कर्मचारियों के मन में राजभाषा को स्थापित करने की कोशिश की जाती है जिसमें भारत सरकार का उल्लेख अत्यधिक प्रभावशाली होता है तथा गृह मंत्रालय इसको और अधिक स्वीकार्य योग्य बनाता है। यहॉ धमकी की और ईशारा बिलकुल नहीं है बल्कि कार्यान्वयन को गति देने के लिए यह करना अस्सी के दशक से लेकर नब्बे की दशक तक आवश्यक था अन्यथा कार्यान्वयन उतनी सहजता से नहीं दो पाता जितनी सहजता से तब हुआ। देखा जाए तो अब भी भारत सरकार, गृह मंत्रालय का नाम राजभाषा से जोड़े बिना कार्यान्वयन को गति नहीं मिल पाती है। राजभाषा को स्वतंत्र करने की कोशिश में और गति लाने की आवश्यकता है। होना यह चाहिए कि राजभाषा का नाम लेते ही भारत सरकार, गृह मंत्रालय का नाम स्वत: ही याद आ जाए। इसी प्रकार राजभाषा के नियमों का उल्लेख कर कर्मचारियों राजभाषा में कामकाज के लिए सचेत किया जाता है। राजभाषा को अब नियमों, अधिनियमों से आगे निकलकर कर्मचारियों की आदत में शुमार होना चाहिए।

हिंदी कार्यशाला : हिंदी कार्यशाला में अब से बीस वर्ष पूर्व जिस संदर्भ सामग्री की सहायता ली जाती थी वह अब भी जारी है। इसमें प्रौद्योगिकी विषय से कुछ नवीनता आई है अन्यथा वही राग, वही बात। राजभाषा प्रशिक्षण के लिए राजभाषा या हिंदी कार्यशालाओं का खूब आयोजन होता है इसलिए एक कर्मचारी को कई बार इस कार्यशाला में सहभागी के रूप में सम्मिलित होना पड़ता है तथा सम्मिलित कर्मचारी जब अनुभव करता है कि वही पुराना पाठ्यक्रम, वही चर्चा के विषय तब उसे राजभाषा कार्यशाला से जुड़ पाना कठिन लगने लगता है, ऊबन का अनुभव होने लगता है परिणामस्वरूप वह कार्यशाला में केवल शारीरिक रूप में उपस्थित हो पाता है। इस प्रकार कार्यशाला काग़जों पर कुछ आंकड़ों के साथ पड़ी रह जाती है तथा इसका मूल धेय पराजित हो जाता है। यह सिलसिला अब भी जारी है।

राजभाषा निरीक्षण : प्राय: राजभाषा अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन के निरीक्षण के लिए अपने अधीनस्थ कार्यालयों में जाते हैं और निरीक्षम करते समय केवल फाईलों से जुड़े रहते हैं तथा उन फाईलों के निरीक्षण के बाद स्टाफ से सामूहिक चर्चा कर तत्काल आवश्यक दिशानिर्देश नहीं देते जिससे सम्प्रेषण नहीं हो पाता है। यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है।

उपरोक्त कुछ उदाहरण है जो यह दर्शाते हैं कि राजभाषा कार्यान्वयन में नएपन की आवश्यकता है। यह नयापन कहीं और से नहीं लाना है बल्कि नवीनता संस्था विशेष की कार्यशैली में ही छुपी रहती है, बस उससे राजभाषा को जोड़ने के कुशल प्रयास की आवश्यकता है। कुशलता का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है कि प्राय: इस प्रकार के जुड़ाव से राजभाषा गौण हो जाती है तथा संस्था विशेष का अन्य समसामयिक मुद्दा उसपर हावी हो जाता है। यदि कारोबार के किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास किया जा रहा हो तो राजभाषा को कारोबार विकास का एक लोकप्रिय माध्यम बनाकर प्रस्तुत किया जाता है तथा कुछ दिनों बाद सिर्फ कारोबार का लक्ष्य रह जाता है तथा राजभाषा गौण हो जाती है। ऐसी स्थिति में राजभाषा को बनाए रखना एक कौशल है।

राजभाषा को व्यापकता प्रदान करने के लिए कार्यान्वयन की शैली में संस्था के दायरे के अन्तर्गत अभिनव परिवर्तन लाना चाहिए। राजभाषा को केवल राजभाषा नीति और भारत सरकार, गृह मंत्रालय के अतिरिक्त कर्मचारियों से भी जोड़ कर देखना चाहिए। एक ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहिए जिससे राजभाषा कार्यान्वयन की नई धड़कनों का अनुभव समस्त कर्मचारियों को होता रहे। प्रत्येक कार्यालय में समय-समय पर नए संदर्भ साहित्य तैयार होते रहते हैं, नई शैली तथा नए कार्यप्रणाली से कर्मचारी परिचित होते रहते हैं आदि-आदि किन्तु इस परिप्रेक्ष्य में यदि राजभाषा को देखें तो उसमें नवीनता बहुत मुश्किल से मिलती है। यह भी एक कारण है जिससे राजभाषा कार्यान्वयन प्रभावित होती है। यदि राजभाषा नीति के अंतर्गत राजभाषा कार्यान्वयन के व्यपकता का चिंतन होगा तो अनेकों नायाब तरीकों से परिचय होगा जिससे राजभाषा कार्यान्वयन में नई ताजगी झलकने लगेगी।




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गुरुवार, 25 नवंबर 2010

राजभाषा एक ज़रिया या नज़रिया

राजभाषा में आकर्षण नहीं है बल्कि एक वैचारिक घर्षण है जिसके कारण इससे सक्रिय रूप में जुड़नेवालों की संख्या सीमित है। सरकारी कार्यालयों के कर्मियों को अंग्रेज़ी में काम करने की आदत तथा उस आदत में परिवर्तन कर राजभाषा में कार्य करने के लिए प्रेरित करना चुनौतीपूर्ण और कौशलपूर्ण कार्य है। यही कारण है कि कई विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी स्वंय को राजभाषा कार्यान्वयन से निकालकर अपनी संस्था के अन्य कार्यों को करने लगे हैं तथा पूछने पर कहते हैं कि – "मैं कनवर्ट हो गया"। राजभाषा कार्यान्वयन का कल का सिपाही आज स्वंय को राजभाषा से जुड़ा हुआ नहीं बतलाता है, यह स्थिति लगभग प्रत्येक केन्द्रीय कार्यालय विशेषकर बैंकों, वित्तीय संस्थाओं आदि में देखने को मिलती रहती है। इस प्रकार के अधिकारी राजभाषा छोड़ते ही अपने कार्य में अंग्रेज़ी का शुमार करने लगते हैं तब यह सोचना पड़ता है कि क्या राजभाषा विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी के पास भी इतना कमज़ोर आधार लिए रह सकती है ? क्या इस प्रकार के विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी संस्था विशेष में एक अधिकारी के रूप में प्रवेश करने के लिए राजभाषा का उपयोग करते हैं ? जिस विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी को कार्यान्वयन का एक सशक्त ज़रिया बनना चाहिए वह राजभाषा को ही ज़रिया बना रहा है, यह भी एक उल्लेखनीय स्थिति है।

विशेषज्ञ अधिकारी की बात यहीं तक रहती तो ठीक रहता किंतु पिछले एक वर्ष अर्थात वित्तीय वर्ष 2009-10 से राजभाषा अधिकारियों में विशेषकर पिछले 2-3 वर्षों में नियुक्त राजभाषा अधिकारियों में एक नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी में जाने का चलन हो गया है। कनिष्ठ प्रबंधन से मध्य प्रबंधन तथा आगे के पदों को पाने की तीव्र लालसा दिखलाई पड़ रही है। स्थितियॉ भी कुछ ऐसी निर्मित हो गई हैं कि एक लम्बे अर्से के बाद राजभाषा के रिक्त पदों के विज्ञापन निकल रहे हैं। इस स्थिति में भी कोई बुराई नहीं है। अच्छे अवसर को भला कोई कैसे छोड़ेगा। कठिनाई तब निर्मित होती है जब राजभाषा अधिकारी यह सोचकर कार्य करता है कि उसे शीघ्र ही यह संस्था छोड़ देनी है तथा नई संस्था से जुड़ना है तथा इस वैचारिक घटनाचक्र में राजभाषा ठहरी हुई प्रतीत होती है। न तो कोई नई पहल होती है और न ही कार्यान्वयन की कोई नई योजना बनती है। ऐसे राजभाषा अधिकारियों का अधिकांश समय इंटरनेट पर नई रिक्तियों की तलाश आदि में अधिक व्यय होता है। संस्ता को इनसे जो लाभ मिलना चाहिए वह पूरी तरह नहीं मिल पाता है। यहॉ ज़रिया को देखने का नज़रिया इतना भिन्न है कि कार्यान्वयन गौण हो जाता है।

इस समय राजभाषा अधिकारियों का एक तीसरा पक्ष भी है जिसमें अधिकांश वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी 3-4 वर्षों में सेवानिवृत्त होनेवाले हैं तथा इनकी सोच है कि बहुत कर चुके राजभाषा कार्यान्वयन अब सेवांत पश्चात की दुनिया की व्यवस्था की जाए जिसमें उनका अधिकांश समय व्यस्त रहता है। अब ऐसी स्थिति में राजभाषा कहॉ दिखेगी परिणामस्वरूप जो ज़रूरी लगा सो कर दिया शेष के लिए देखी जाएगी रवैया कार्य करने लगता है। यह स्थिति सबसे खतरनाक है। चूंकि इस श्रेणी में प्राय: वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी रहते हैं इसलिए यदि यह शिथिल हो गए तो इनके साथ कार्य करनेवाले राजभाषा अधिकारियों के कार्यनिष्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार राजभाषा कार्यान्वयन की गति धीमी, बेढब हो जाती है और अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते हैं।

आप कहेंगे कि मैं कौन सी नई बात कह रहा हूं यह तो किसी भी कार्यालय में पाई जानेवाली एक सामान्य स्थिती है। सही सोच है किन्तु वहॉ अन्य लोग भी रहते हैं जो स्थिति को संभाल लेते हैं किन्तु राजभाषा के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। यदि राजभाषा अधिकारी शिथिल होता है तो कहीं न कहीं राजभाषा कार्यान्वयन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। राजभाषा अधिकारी तथा राजभाषा कार्यान्वयन के बीच एक अत्यधिक संवेदनशील सम्बन्ध है। एक से दूसरा बहुत जल्दी प्रभावित होता है। इसलिए यह तीसरा पक्ष भी अपनी पुरजोर दखल रखता है।

उक्त तथ्यों तथा कथ्यों में ज़रिया की झलक तो खूब मिल रही है किन्तु राजभाषा कार्यान्वयन का नज़रिया कहीं दबा हुआ प्रतीत हो रहा है। यह स्थिति राजभाषा कार्यान्वयन जगत की ऊभरती हुई एक नई स्थिति है जिसका प्रभाव राजभाषा कार्यान्वयन पर पड़ रहा है किन्तु इस स्थिति को रोकने का कहीं कोई उपाय होते नहीं दिख रहा है। राजभाषा जगत में नई रिक्तियों की भरमार है तथा इस अनोखे अवसर का हर कोई लाभ उठाना चाह रही है तथा राजभाषा कार्यान्वयन की गति धीमी पड़ती जा रही है। नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति आदि जैसे सक्षम मंच इस दिशा की और नहीं देख रहे हैं। यदि शीघ्र ही राजभाषा कार्यान्वयन की इस स्थिति में सुधार लाने की कोशिश नहीं की जाएगी तो राजभाषा कार्यान्वयन काफी प्रभावित हो सकता है। ज़रिया और नज़रिया में एक दूरी आवश्यक है। राजभाषा कार्यान्वयन का नज़रिया और प्रभावशाली और परिणामदायी हो इस दिशा में विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारियों को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए, यही समय की मांग है।

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शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

राजभाषा का राष्ट्रीय नेतृत्व - वर्तमान की आवश्यकता

राजभाषा, की प्रगति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक गैर सरकारी सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता है। देश के सभी केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में राजभाषा के बारे में आवश्यक जानकारियॉ हैं किंतु इसके बावजूद भी वार्षिक कार्यक्रम के लक्ष्यों के अनुरूप राजभाषा गतिशील प्रतीत नहीं हो रही है। आखिर क्या कारण हैं इस धीमी गति के ?  इस विषय में एक सोच यह भी दर्शाती है कि राष्ट्रीय स्तर पर राजभाषा का कोई एक सशक्त नेतृत्व नहीं है जिससे राजभाषा की प्रखर गरिमा से लोग परिचित नहीं हो पा रहे हैं। कार्यालयों में अब भी यही सामान्य धारणा है कि चूंकि सरकार चाह रही है इसलिए राजभाषा कार्यान्वयन की दिशा में कार्रवाई हो रही है। आज तक कोई भी सरकारी कार्यालय इस तथ्य को प्रतिपादित नहीं कर सका है कि राजभाषा इस देश की एक अनिवार्यता है। राजभाषा के प्रचार-प्रसार में किए जा रहे प्रयासों में से असंख्य संगोष्ठियों, बैठकों, सेमिनारों, आयोजनों आदि के बाद भी यदि राजभाषा के महत्व को नहीं बतलाया जा सका है तो यह स्थित यह संकेत देती है कि राजभाषा के प्रचार-प्रसार में भव्यता के संग एक चमक-दमक उत्पन्न की जाए जिससे सहज ही लोग आकर्षित हो सकें। आधुनिक युग में सहज, सामान्य शैली में किया गया कार्य लोगों तक पूरी तरह नहीं पहुंच पाता है इसके लिए इसका विज्ञापन किया जाना आवश्यक है। यहॉ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कौन करेगा विज्ञापन ? सरकार को जिस तरह जितना करना चाहिए वह कर रही है इसलिए अब आवश्यक है कि सरकारी प्रयासों से हटकर राजभाषा के विकास के लिए सोचा जाए।

सर्वप्रथम प्रश्न यह उभरता है कि कौन सोचे इस तरह ? निश्चित ही राजभाषा अधिकारी अथवा राजभाषा से जुड़े लोग ही राजभाषा के बारे में गहराई और विस्तारपूर्वक सोच सकते हैं और तदनुसार कार्रवाई कर सकते हैं। यदि यह सत्य है तो राजभाषा अधिकारियों अथवा राजभाषा से जुड़े लोगों की समीक्षा करनी पड़ेगी जिससे इनमें आवश्यक सुधार किया जा सके या ज़रूरी पक्षों का समावेश किया जा सके। इस विश्लेषण के लिए हमें महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग में झांकना होगा तथा देखना होगा कि स्नातकोत्तर स्तर पर राजभाषा किस रूप में है। लगभग 27 वर्ष पहले मुंबई विश्वविद्यालय में प्रयोजनमूलक हिंदी का आरम्भ किया गया जिसे एक विषय के रूप में  पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया। उस समय केवल राजभाषा नीति की ही चर्चा की जाती थी। विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए डॉ.विनोद गोदरे की प्रयोजनमूलक हिंदी पुस्तक विद्यार्थियों को सहज ही आकर्षित कर लेती थी। अभी हाल ही में एक प्राध्यापक से जब मैंने इस विषय पर चर्चा की तो ज्ञात हुआ कि अभी भी राजभाषा की स्थिति असंतोषप्रद है। क्या यह आवश्यक नहीं है कि प्रयोजनमूलक हिंदी या कामकाजी हिंदी पर कक्षा में चर्चा करने के लिए संबंधित प्राध्यापकों से राजभाषा के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्षों पर समय-समय पर अद्यतन जानकारियॉ दी जाती रहें। इस कार्य के लिए राजभाषा से सक्रिय रूप से जुड़े लोगों का सहयोग लिया जा सकता है। इस विषय पर चर्चा करने का मुख्य उद्देश्य यह है कि बाज़ार से प्रचुर संख्या में नए राजभाषा अधिकारी नहीं मिल पा रहे हैं।

राष्ट्रीय स्तर के गैर सरकारी नेतृत्व एक ऊँची उड़ान कही जा सकती है किन्तु आधारहीन उड़ान के रूप में इसे नहीं देखा जा सकता है। प्रश्न यह भी उठता है कि यहॉ गैर सरकारी से क्या अभिप्राय है ?  क्या सरकारी कार्यालय में कार्यरत व्यक्ति नेतृत्व का पात्र नहीं है ? यूं भी सर्वविदित है कि नेतृत्व प्राप्त करनेवाले नेतृत्व प्राप्त कर ही लेते हैं। गैर सरकारी से अभिप्राय है सरकार पर पूर्णतया आश्रित हुए बगैर। जिस तरह बैंकों, उपक्रमों की नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियॉ कार्यरत रहती हैं उसी तरह वृहद आयोजनों द्वारा कुछ राष्ट्रीय स्तर के राजभाषा के व्यक्तित्व प्राप्त होंगे जिससे राजभाषा में  एक नएपन का अनुभव होगा। यहॉ यह आशय नहीं है कि वर्तमान में प्रखर नेतृत्व नहीं है, यदि देखा जाए तो प्रत्येक मंत्रालय में कुछ लोग तो अवश्य हैं किंतु जब तक राष्ट्रीय स्तर पर केंद्रीय कार्यालय, बैंक, उपक्रम एक मंच पर एकत्र होकर सम्मलित रूप से राजभाषा कार्यान्वयन की चर्चा नहीं करेंगे तब तक राजभाषा कार्यान्वयन की विशालता से लोग पूर्णतया परिचित नहीं हो पाएंगे। यह कार्य न तो कठिन है और ना ही असुविधापूर्ण है। राजभाषा के अनेकों मंच हैं जहॉ इस मुद्दे को उठाया जा सकता है तथा यथार्थ में परिणित किया जा सकता है। बस आवश्यकता है इस तरह की सोच पर एक सार्थक सोच और चर्चा की।

यहॉ मंतव्य ना तो राजनीति प्रेरित है और ना ही किसी व्यक्तिगत लाभोन्मुखी है बल्कि यह वर्तमान राजभाषा की दशा और दिशा से ऊभरी परिस्थितियों का संकेत है, पुकार है, गुहार है। विश्वविद्यालय स्तर से लेकर कार्यालय स्तर तक राजभाषा की बागबानी की आवश्यकता है अन्यथा समय की मॉग के अनुरूप न तो राजभाषा अधिकारी मिल पाएंगे और न ही राजभाषा कार्यान्वयन कुलांचे भर पाएगी। समय यदि सावधान होने का संकेत दे तो सावधान हो जाना है युक्तिसंगत है। राजभाषा यदि राष्ट्र की कामकाज की भाषा है तो राष्ट्रीय स्तर के राजभाषा व्यक्तित्व की तलाश राजभाषा से जुड़े लोगों का कर्तव्य है। 
  

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

राजभाषा और हिदी का द्वंद

राजभाषा और हिंदी में फर्क कर पाना केन्द्रीय कार्यालय में कार्यरत कर्मियों के लिए भी संभव नहीं है तब ऐसी स्थिति में विभिन्न कार्यालयों में जानेवाले नागरिकों से राजभाषा में अधिकाधिक कार्य करने की अपेक्षा स्वत: बौनी प्रतीत होने लगती है। हाल ही में एक संगोष्ठी में सम्मिलित होने का अवसर मिला जिसमें केन्द्रीय कार्योलयों, बैंकों, आदि के प्रतिनिधि सहभागी थे। संगोष्ठी राजभाषा कार्यान्वयन के एक पक्ष पर थी। भव्य आरम्भिक औपचारिकताओं के बाद संगोष्ठी के पहले वक्ता ने बोलचाल की हिंदी पर बोलना आरम्भ किया जो मेरे लिए आश्चर्यजनक था फिर भी स्वंय को सांत्वना देते हुए अगले वक्ता की प्रतीक्षा करने लगा इस उम्मीद के संग कि शायद अगला वक्ता हिंदी के बजाए राजभाषा हिंदी पर बोले किंतु मेरी प्रतीक्षा वक्ता दर वक्ता बढ़ती चली गई।  सभी वक्ता बोलचाल की हिंदी,विभिन्न चैनलों की हिंदी, बॉलीवुड की हिंदी, तमिलनाडु की हिंदी आदि पर बोले जा रहे थे और तालियॉ भी बटोरे जा रहे थे। कृपया इस संगोष्ठी को सामान्य संगोष्ठी मत समझिएगा काफी दिग्गज पदनाम मंच को सुशोभित कर रहे थे। हद तो तब हो गई जब राजभाषा अधिकारी भी आकर राजभाषा विषय पर बोलचाल की हिंदी की विशेषता, लोकप्रियता, विस्तार आदि के बारे में बोल गए और मेरे समक्ष एक ज्वलंत प्रश्न छोड़ गए कि बोलचाल की हिंदी और कार्यालयों में लिखित राजभाषा हिंदी के अंतर को इन वक्ताओं ने क्यों नहीं समझा ?

किसे दोषी ठहराया जाए, किस स्तर पर हुई चूक की ओर इंगित किया जाए आदि अनेकों प्रश्न मुझे झकझोरने लगे। आखिर में संगोष्ठी के विषय़ तथा वक्ताओं की प्रस्तुति पर अपने विचार आमंत्रित करने के लिए मुझे भी बुलाया गया फिर क्या था विचारों का बादल फट पड़ा और मेरी सोच काफी तीखे अंदाज़ में संगोष्ठी में पसर गई। दो-तीन लोग मेरे बाद भी बोलने वाले थे इसलिए मैं उत्सुक था अपने विचारों पर तत्काल प्रतिक्रिया प्राप्त करने के लिए। वह घड़ी भी आ गई तथा मेरे बाद के वक्ता ने कहा कि राजभाषा कार्यान्वयन के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है तथा जोश और उत्साह में राजभाषा कार्यन्वयन तत्काल प्रभाव नहीं दे पाता है आदि-आदि। मैं यह सुनकर हतप्रभ रह गया और कितने वर्ष, और कितना धैर्य ? राजभाषा की संगोष्ठी में इस तरह के विचार यदि प्रस्तुत किए जाएंगे तो क्या इससे राजभाषा कार्यान्वयन की गति प्रभावित नहीं होगी ? क्या इससे राजभाषा से जुड़े कर्मियों का उत्साह प्रभावित नहीं होगा  ? क्यों नहीं उस मंच से यह स्पष्ट किया गया कि बोलचाल की हिंदी, चैनलों की हिंदी, बॉलीवुड की हिंदी से कार्यालयों में लिखी जानेवाली हिंदी में फर्क होता है। सरकारी कामकाज की शब्दावली ना तो बोलचाल की शब्दावली से समरसता स्थापित कर सकती है और ना ही बोलचाल के शब्दों को राजभाषा में बेधड़क पिरोया जा सकता है। राजभाषा कार्यान्वयन की यह कितनी सामान्य बात है जिससे अभी भी सरकारी कार्यालयों के अधिकांश स्टाफ अनजान हैं। इन कार्यालयों के राजभाषा विभाग को इस दिशा में सार्थक प्रयास कर बोलचाल की हिंदी और कार्यालयों में लिखित हिंदी के अंतर को स्पष्ट करना होगा वरना हिंदी और राजभाषा का यह द्वंद राजभाषा कार्यान्वयन को काफी क्षत्ति पहुंचा सकता है।

यदि आपको भी कभी इस तरह की संगोष्ठी में उपस्थित होने का अवसर मिले और राजभाषा की पटरी पर बोलचाल हिंदी की गाड़ी दौड़ाई जाए तो कृपया हस्तक्षेप का लाल संकेत देकर उसे रोकिएगा। केवल रोकिएगा ही नहीं बल्कि राजभाषा की पटरी पर कामकाजी हिंदी की गाड़ी को चला भी दीजिएगा। राजभाषा कार्यान्वयन में यह आपका अद्वितीय योगदान होगा। राजभाषा कार्यान्वयन में जब तक आपका खुलकर सहयोग नहीं होगा तब तक इस तरह की गंभीर त्रुटियॉ जारी रहेंगी।


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