हमारे देश में राजभाषा का दौर राजभाषा नीति के तहत अस्सी के आरम्भिक दशक से आरम्भ हुआ तथा तब से अब तक राजभाषा कार्यान्वयन में कोई व्यापक परिवर्तन नहीं हुआ है। यदि मैं कहूं कि यात्रिक, प्रौद्योगिकी, फांन्ट को छोड़कर कोई परिवर्तन नहीं हुआ है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजभाषा कार्यान्वयन में प्रगति अवश्य होती रही है जिसकी गति अधिकांशत: धीमी ही रही है। मैंने अस्सी के दशक के आरम्भ का उल्लेख इसलिए किया क्योंकि राजभाषा का गति का अनुभव केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों के कर्मियों को इसी समय से होना आरम्भ हुआ। तीन दशक बीत जाने के बाद भी राजभाषा कार्यान्वयन में अभी तक अस्सी के दशक की ही छाप है। कुछ निम्नलिखित उदाहरणों से इस कथन की सच्चाई को तलाशने का प्रयास किया जाएगा।
राजभाषा नीति : किसी भी केन्द्रीय कार्यालय, बैंक, उपक्रम के स्टाफ से यदि राजभाषा नीति की चर्चा की जाए तो वह बोल उठेगा – भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, जिसमें राजभाषा शब्द इस वाक्य के शेष दो शब्दों से गौण माना जाता है। कर्मचारियों के मन में राजभाषा को स्थापित करने की कोशिश की जाती है जिसमें भारत सरकार का उल्लेख अत्यधिक प्रभावशाली होता है तथा गृह मंत्रालय इसको और अधिक स्वीकार्य योग्य बनाता है। यहॉ धमकी की और ईशारा बिलकुल नहीं है बल्कि कार्यान्वयन को गति देने के लिए यह करना अस्सी के दशक से लेकर नब्बे की दशक तक आवश्यक था अन्यथा कार्यान्वयन उतनी सहजता से नहीं दो पाता जितनी सहजता से तब हुआ। देखा जाए तो अब भी भारत सरकार, गृह मंत्रालय का नाम राजभाषा से जोड़े बिना कार्यान्वयन को गति नहीं मिल पाती है। राजभाषा को स्वतंत्र करने की कोशिश में और गति लाने की आवश्यकता है। होना यह चाहिए कि राजभाषा का नाम लेते ही भारत सरकार, गृह मंत्रालय का नाम स्वत: ही याद आ जाए। इसी प्रकार राजभाषा के नियमों का उल्लेख कर कर्मचारियों राजभाषा में कामकाज के लिए सचेत किया जाता है। राजभाषा को अब नियमों, अधिनियमों से आगे निकलकर कर्मचारियों की आदत में शुमार होना चाहिए।
हिंदी कार्यशाला : हिंदी कार्यशाला में अब से बीस वर्ष पूर्व जिस संदर्भ सामग्री की सहायता ली जाती थी वह अब भी जारी है। इसमें प्रौद्योगिकी विषय से कुछ नवीनता आई है अन्यथा वही राग, वही बात। राजभाषा प्रशिक्षण के लिए राजभाषा या हिंदी कार्यशालाओं का खूब आयोजन होता है इसलिए एक कर्मचारी को कई बार इस कार्यशाला में सहभागी के रूप में सम्मिलित होना पड़ता है तथा सम्मिलित कर्मचारी जब अनुभव करता है कि वही पुराना पाठ्यक्रम, वही चर्चा के विषय तब उसे राजभाषा कार्यशाला से जुड़ पाना कठिन लगने लगता है, ऊबन का अनुभव होने लगता है परिणामस्वरूप वह कार्यशाला में केवल शारीरिक रूप में उपस्थित हो पाता है। इस प्रकार कार्यशाला काग़जों पर कुछ आंकड़ों के साथ पड़ी रह जाती है तथा इसका मूल धेय पराजित हो जाता है। यह सिलसिला अब भी जारी है।
राजभाषा निरीक्षण : प्राय: राजभाषा अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन के निरीक्षण के लिए अपने अधीनस्थ कार्यालयों में जाते हैं और निरीक्षम करते समय केवल फाईलों से जुड़े रहते हैं तथा उन फाईलों के निरीक्षण के बाद स्टाफ से सामूहिक चर्चा कर तत्काल आवश्यक दिशानिर्देश नहीं देते जिससे सम्प्रेषण नहीं हो पाता है। यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है।
उपरोक्त कुछ उदाहरण है जो यह दर्शाते हैं कि राजभाषा कार्यान्वयन में नएपन की आवश्यकता है। यह नयापन कहीं और से नहीं लाना है बल्कि नवीनता संस्था विशेष की कार्यशैली में ही छुपी रहती है, बस उससे राजभाषा को जोड़ने के कुशल प्रयास की आवश्यकता है। कुशलता का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है कि प्राय: इस प्रकार के जुड़ाव से राजभाषा गौण हो जाती है तथा संस्था विशेष का अन्य समसामयिक मुद्दा उसपर हावी हो जाता है। यदि कारोबार के किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास किया जा रहा हो तो राजभाषा को कारोबार विकास का एक लोकप्रिय माध्यम बनाकर प्रस्तुत किया जाता है तथा कुछ दिनों बाद सिर्फ कारोबार का लक्ष्य रह जाता है तथा राजभाषा गौण हो जाती है। ऐसी स्थिति में राजभाषा को बनाए रखना एक कौशल है।
राजभाषा को व्यापकता प्रदान करने के लिए कार्यान्वयन की शैली में संस्था के दायरे के अन्तर्गत अभिनव परिवर्तन लाना चाहिए। राजभाषा को केवल राजभाषा नीति और भारत सरकार, गृह मंत्रालय के अतिरिक्त कर्मचारियों से भी जोड़ कर देखना चाहिए। एक ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहिए जिससे राजभाषा कार्यान्वयन की नई धड़कनों का अनुभव समस्त कर्मचारियों को होता रहे। प्रत्येक कार्यालय में समय-समय पर नए संदर्भ साहित्य तैयार होते रहते हैं, नई शैली तथा नए कार्यप्रणाली से कर्मचारी परिचित होते रहते हैं आदि-आदि किन्तु इस परिप्रेक्ष्य में यदि राजभाषा को देखें तो उसमें नवीनता बहुत मुश्किल से मिलती है। यह भी एक कारण है जिससे राजभाषा कार्यान्वयन प्रभावित होती है। यदि राजभाषा नीति के अंतर्गत राजभाषा कार्यान्वयन के व्यपकता का चिंतन होगा तो अनेकों नायाब तरीकों से परिचय होगा जिससे राजभाषा कार्यान्वयन में नई ताजगी झलकने लगेगी।
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