रविवार, 21 जून 2009

हिंदी-राष्ट्र की धड़कन-राष्ट्र की सोच.

भारत देश में आम बोलचाल की भाषा, फिल्मों तथा दूरदर्शन के निजी चैनलों पर चटखती-मटकती हिंदी, राष्ट्र की धड़कनों को बखूबी बयॉ कर रही है परन्तु यह हिंदी राष्ट्र की सोच को अभिव्यक्ति नहीं कर पा रही है। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र की धड़कनों और राष्ट्र की सोच के मध्य एक लंबा अन्तराल निर्मित हो गया है। यह अन्तराल हिंदी की धड़कनों (हिंदी के अध्यापक, रचनाकार आदि) को हिंदी की सोच (व्यावसायिक, राजनैतिक, विधिक, नीतिपरक आदि) से मिलाने में बाधक है। लोकप्रिय हिंदी (बोलचाल, मीडिया, फिल्में, साहित्यिक आदि) और राजभाषा हिंदी, रेल की पटरियों की तरह सामानान्तर हैं जिनके मिलन का प्रयास अत्यावश्यक है। हिंदी की लोकप्रियता भाषा की पराकाष्ठा की और है तथा हिंदी के इस विधा में लगातार नवीनताऍ और विभिन्नताऍ जुड़ती जा रही हैं। विश्व की प्रमुख भाषाओं को चुनौती देती हिंदी का कमज़ोर पक्ष है राष्ट्र की सम्पूर्ण सोच का वाहक बनना। वर्तमान में राजभाषा के रूप में हिंदी की चुनौती राष्ट्र की संपूर्ण सोच को अभिव्यक्ति प्रदान करने के अधिकार को प्राप्त करना है।

वर्तमान विश्व में उन्नत राष्ट्रों की विभिन्न विशिष्टताओं में उनकी अपनी भाषा का पल्लवन भी एक प्रमुख विशेषता है। एक राष्ट्र किसी भी दूसरे राष्ट्र के विकसित भाषा को स्वीकार कर अपनी माटी की विश्व पहचान नहीं करा सकता यह अनेकों माध्यमों से प्रमाणित हो चुका है। इसके बावजूद भी हिंदी के राजभाषा स्वरूप को लेकर तर्क-कुतर्क जारी है जिससे राजभाषा हिंदी की हानि हो रही है। बैकिंग, बीमा, आयकर, सीमा शुल्क, प्रौद्योगिकी, रसायन, विधि आदि की भिन्न-भिन्न शब्दानलियॉ हैं जिनको आम हिंदी की शब्दावलियों के द्वारा अभिव्यक्त करना कठिन है। यह केवल हिंदी के साथ नहीं है बल्कि विश्व की सभी उन्नत भाषाओं के साथ ऐसा ही होता है। ज्ञातव्य है कि प्रत्येक भाषा में बोलचाल की भाषा, मीडिया की भाषा, साहित्यिक भाषा और कामकाजी भाषा में अन्तर होता है। सड़कों पर प्रयुक्त शब्दावली जनहित के कार्यालयों की शब्दावली नहीं बन सकती, कार्यालयों की शब्दावली विधि की शब्दावली नहीं बन सकती, विधि की शब्दावली प्रौद्योगिकी की शब्दावली नहीं बन सकती यद्यपि न सभी में हिंदी अपनी स्वाभाविक पहचान के साथ अवश्य रहती है। हिंदी शब्दावलियों की इतनी विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं का विकास करना अत्यावश्यक है। हिंदी के परम्परागत साहित्य (कहानी, कविता आदि) को छोड़ दें तो शेष विषयों पर कितना लिखा जा रहा है और क्या लिखा जा रहा है, यह सोच का विषय है।

विश्व की अन्य विकसित भाषाओं में न केवल तथाकथित साहित्य बल्कि अन्य विषयों पर खूब लिखा जाता है, मौलिक लिखा जाता है। हिंदी अब भी अनुवाद के सहारे चल रही है। यह तथ्य है कि प्रौद्योगिकी में कुछ समय तक अनुवाद पर निर्भर रहना पड़ेगा किन्तु अन्य क्षेत्रों में तो मौलिक लिखा जा सकता है। यहॉ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अन्य क्षेत्रों से क्या तात्पर्य है। मेरा आशय विभिन्न सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों आदि के विभिन्न विषयों पर हिंदी में मौलिक रूप से लिखना। यदि इस तरह का मौलिक लेखन व्यापक स्तर पर नहीं किया जाएगा तो राष्ट्र की सोच की संवाहिनी हिंदी कैसे बन सकेगी। इन क्षेत्र में हिंदी में जो भी लिखा जा रहा है उसमें अधिकांश अनुवाद है. क्या राजभाषा को अनुवाद की भाषा होना चाहिए ? यहॉ प्रश्न ऊभरता है कि कठिनाई क्या है ? कठिनाई सिर्फ यह है कि इस दिशा में न तो पहल हो रही है और न ही सवाल किए जा रहे हैं अलबत्ता राजभाषा के कार्य से जुड़े लोगों पर छींटाकशी की जाती है। राजभाषा कार्यान्वयन के लिए एक जनमत की आवश्यकता है। राजभाषा विकसित हो चुकी है, सक्षम हो चुकी है परन्तु खुलकर प्रयोग में नहीं लाई जा रही है। हिंदी राष्ट्र की धड़कन तो बन चुकी है परन्तु राजभाषा अब भी राष्ट्र की सोच की भाषा बनने की प्रतीक्षा कर रही है। और कितनी प्रतीक्षा ? इसका उत्तर और कहीं नहीं हमारे पास है, हम सबके पास।

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 15 जून 2009

भाषाई जाल - अस्तित्व और अस्मिता

भारत देश की परम्परा में वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धान्त पल्लवित होते रहता है जिसे भूमंडलीकरण ने और गति प्रदान की है। वसुधैव कुटुम्बकम पूरे ब्रह्मांड को एक परिवार के रूप में मानता है जिसके अनेकों कारण हैं। आज मानव यह बखूबी अनुभव करने लगा है कि दुनिया सिमटती जा रही है और व्यक्ति इस दुनिया में एक नए विस्तार में जीने लगा है। सात समंदर पार जाना अब स्वप्न नहीं रह गया है। यह मानवीय क्रांति भूगोल, समाजशास्त्र, साहित्य, कारोबार आदि को गहराई से प्रभावित करने लगा है जिसमें अभिव्यक्ति विशाल चुनौतियों से गुज़र रही है। दो सुदूर देशों के व्यक्तियों का मिल पाना तो आसान है किन्तु उनकी आपसी बातचीत आसान नहीं है। कल तक अंग्रेज़ी को विश्वभाषा मानने का विश्वास वसुधैव कुटुम्बकम के यथार्थ ने बखूबी तोड़ा है। अब अंग्रेजी के अतिरिक्त भी विदेशी भाषाएं सीखने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।

भाषा के इस द्वंद्व का ताजा अनुभव आई.पी.एल. मैच के दौरान हुआ। विश्व के कई देशों के खिलाड़ी एक टीम में खेल रहे थे इसमें से किसी को अंग्रेज़ी भाषा के सिवा अन्य भाषाओं की जानकारी नहीं थी तो कोई हिंदी नहीं जानता था तथा किसी को ना तो अंग्रेज़ी आती थी और ना ही हिंदी का ज्ञान था। इस विकट परिस्थिति में आपस में बातें भी स्पष्ट नहीं हो पातीं थीं जिससे अक्सर यह होता था कि कहा कुछ जाता था और समझा कुछ जाता था जिसके परिणामस्वरूप टीम का कार्यनिष्पादन प्रभावित होता था और आपसी ताल-मेल पर भी प्रतिकूल असर पड़ता था। यही स्थिति सैलानियों के साथ भी होता होगा, व्यापार में भी इस भाषा दीवार से खासी दिक्कतें पैदा होती होंगी। ऐसी स्थिति में भारत देश की कौन सी भाषा प्रयोग में लाई जाती है ? उत्तर सर्वविदित है – अंग्रेजी। यह अंग्रेजी विश्व के कितने देशों में सफल सम्प्रेषण में सहायक होती है ? इस बारे में अनेकों आंकड़ें, कथ्य-तथ्य आदि हैं परन्तु इन सबके बावजूद भी विश्व के आधे देशों तक में अंग्रेज में सफल सम्प्रेषण नहीं किया जा सकता है। फिर हिंदी को क्यों छोड़ दिया गया है। गीत-संगीत, मनोरंजन, भाव-निभाव आदि में जिस हिंदी का वर्चस्व है वह कारोबार, वैश्विक संपर्क में मूक क्यों हो जाती है ?

भाषाई जाल तथा अस्तित्व अस्मिता का एक ताज़ातरीन उदाहरण अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के 2 मई, 09 के मुंबई संस्करण में पढ़ने को मिला। वर्ष 2010 में दिल्ली में आयोजित होनेवाले कॉमनवेल्थ खेलों के लिए भिखारियों ने विदेशी भाषाओं को सीखना आरम्भ कर दिया है। यह एक चौंकानेवाली सूचना है क्योंकि अशिक्षित भिखारी कैसै विदेशी भाषा सीख सकते हैं ? समाचार में यह सूचना दी गई थी कि अनुभवी भिक्षुक राजू सांसी दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र में एक विद्यालय खुले आसमान के तले चला रहा है जिसमें चयनित 45 बच्चों को भीख मांगने के ज्ञान और गुर को सिखाया जा रहा है जिससे इन बच्चों के भीख मांगने के कौशल में वृद्धि हो सके। इसके अतिरिक्त दिल्ली के पटेल नगर की कटपुतली कॉलोनी में पतलू द्वारा दूसरा विद्यालय चलाया जा रहा है जिसमें विदेशी भाषाओं के प्रमुख शब्दों और वाक्यों के साथ-साथ वास्तविक विदेशी करेंसी रूपयों की सही पहचान का भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इन भिखारियों को सिखाई जानेवाली प्रमुख भाषाएं अंग्रेजी, फ्रेंच तथा स्पैनिश हैं। रोटी के साथ भाषा का मेल काफी पुराना हो चला है अब तो संपन्नता के साथ भाषा के मेल का दौर चल पड़ा है जिसमें कई स्तरों पर उपेक्षा जैसी त्रासदी के बीच भी हिंदी प्रगति कर रही है। कॉमनवेल्थ के इस खेल में भाषा का यह खेल कुछ लोगों को संपन्न अवश्य बनाएगा यह इन भिखारियों के परिप्रेक्ष्य में एक सटीक बात प्रतीत होती है।

भाषा के इस वैश्विक संघर्ष में हिंदी अपने अस्तित्व के लिए कितना प्रयासरत है इसकी व्यापक समीक्षा समय की मांग है। मीडिया और मनोरंजन के अतिरिक्त व्यापार तथा अंतर्राष्ट्रीय समारोहों आदि में जब तक हिंदी का खुलकर प्रयोग नहीं किया जाएगा तब तक हिंदी अन्य विश्व भाषाओं से प्रतिद्वद्विता करने के लिए स्वंय को सक्षम नहीं बना सकती है। यद्यपि हिंदी की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है लेकिन इन क्षमताओं का प्रभावशाली प्रदर्शन भी किया जाना अत्यावश्यक है। इसके लिए सम्पूर्ण देश में भाषागत जागरूकता की आवश्यकता है। भिक्षुकों द्वारा की जा रही अपनी भाषागत तैयारियॉ यह दर्शाती हैं कि यदि लक्ष्यपरक कार्य किया जाए तो भारत देश के विभिन्न कार्यालयों के कामकाज में हिंदी का प्रयोग न तो कठिन है और न हीं दोयम दर्ज़े का है। इन सबके बावजूद भी राजभाषा कार्यान्वयन को एक “राजू सांसी” तथा एक “पतलू” की तलाश है जिनमें राजभाषा कार्यान्वयन की दीवानगी भी हो तथा साथ ही साथ कामकाजी हिंदी की वास्तविक प्रगति के आकलन की दृष्टि भी हो। खेल का मैदान हो या कि कारोबारी दुनिया हर जगह हिंदी को ले जाने की ईच्छाशक्ति की आवश्यकता है। हिंदी हर क्षेत्र तथा हर विधा को बखूबी अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है तथा इसमें सतत विकास हो रहा है। भूमंडलीकरण में भाषाई जाल में हिंदी अपने अस्तित्व और अस्मिता का लड़ाई लड़ रही है तथा उसे आप जैसे योद्धा की आवश्यकता है। क्या आप तैयार हैं ?

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 8 जून 2009

हिंदी, मुकाबला और दिबांग

एनडीटीवी इंडिया ने दिनांक 06.06.2009 को रात्रि 8.00 बजे मुकाबला कार्यक्रम प्रस्तुत किया जिसका विषय था – “क्या अंग्रेज़ी हमारे देश में नई गुलामी की निशानी है ?” इस कार्यक्रम का संचालन श्री दिबांग कर रहे थे। विषय मेरी रूचि का था तथा मुझे लगा कि काफी शोध और मेहनत से यह कार्यक्रम बनाया गया होगा इसलिए मैंने इस कार्यक्रम को देखने का निर्णय लिया। विशेष उत्साह का कारण यह भी था कि एक निजी चैनल ने हिंदी विषय पर एक सामयिक कार्यक्रम तैयार किया है, मन पहले से ही इस चैनल को साधुवाद देने लगा। इस कार्यक्रम में भाग लेनेवालों का नाम हैं – राजेन्द्र यादव, आलोक राय, सुधीश पचौरी, देवेन्द्र मिश्र, सुहेल शेख, तरूण विजय तथा महेश भट्ट। हिंदी और अंग्रेजी की यह चर्चा मुझे भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मैच से कहीं ज्यादा रूचिकर और आकर्षक लगती है, हमेशा। उत्सुकता और उत्कंठा के बीच कार्यक्रम शुरू हुआ। कार्यक्रम में मैंने पाया कि दिबांग की रूचि सुहेल, आलोक तथा सुधीर में ज्यादा थी तथा शेष प्रतिभागियों से पूछने के लिए प्रश्न पूछ लिए जाते थे। कार्यक्रम के निर्माता-निर्देशक भी तो कार्यक्रमों में प्रत्यक्ष पर प्रभावी भूमिका निभाते हैं, केवल दिबांग का ही नाम क्यों ? केवल सुविधावश। कार्यक्रम की प्रमुख झलकियॉ, सहभागियों के शब्दों में -

सुहेल शेख ( विज्ञापन जगत के हैं) – वह ज़माना गया, कॉमर्स या नौकरी करनी है तो अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी है।अंग्रेज़ी सीखना ग़ुलामी है कहना ठीक नहीं है। हिंदी के कारण ही चैनल प्रभावी हैं।मुझे मातृभाषा पर गर्व है। अंग्रेज़ी की ज़रूरत हर समय ज़्यादा होगी। भारत में लोग अंग्रेज़ी जानते हैं, वह लाभ है। अंग्रेज़ी के पीछे कोई नहीं दौड़ रहा है। अपने मनोरंजन और कल्चरल सेटिस्सफेक्शन के लेहिंदी को देखते हैं।अंग्रेज़ियत को महत्व नहीं देना चाहिए। अंग्रेज़ी की जरूरत कमर्शियल टूल की तरह है। विज्ञापन की दुनिया ने हिन्दी को अब्यूज़ किया है।

आलोक राय ( हिंदी और अंग्रेज़ी के ज्ञाता) – अंग्रेज़ी को इतना महत्व द्नेना गुलामी की निशानी है। अंग्रेज़ी एक साधन है। अंग्रेज़ियत को समझने के लिए गहराई में जाना पड़ेगा। अंग्रेज़ी को लेकर नाराज़गी क्यों ? अंग्रेज़ी से ज्ञान, कविता, साहित्य मिलता है। भाषा को लेकर क्या नाराज़गी। जो अंग्रेज़ी नहीं जानते वो हिंदी भी नहीं जानते। अंग्रेज़ी की वर्चस्वता की जड़ें कहीं और हैं। हिंदी की विविधता कठिनाई नहीं है। वह हिंदी को संपन्न करती है। हिंदी का दुर्भाग्य है कि हिंदी के प्रतिनिधि के रूप में कुछ गलत लोग आए हैं। हिंदी को खास परंपरा से जोड़ा जाता है। भाषा को केवल व्यापार से नहीं देखना चाहिए। छोटे जगहों पर सोचें कि अंग्रेज़ी सीख लें वह नहीं होता है। सरकार बहुत कुछ कर सकती है, सोच-समझकर भाषा नीति अपनानी चाहिए। भाषा के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया पर नीति काम नहीं करती है, उसकी एक प्रक्रिया है।

सुधीश पचौरी – बिना हिंदी के अंग्रेज़ीवाला चल नहीं सकता। अंग्रेज़ीवालों से पूछो कि हिंदी उनकी ज़रूरत क्यों हो गई है। हिंदी में ठेकेदारी प्रथा है। हिंदी एक ग्लोबल भाषा है। हिंदी, साहित्य सम्मेलन की भाषा नहीं रह गई है। भाषा का ब्राह्मणवाद बंद कर देना चाहिए। हिंदीवाला सोचता है कि यदि फूंक भी मार दूंगा तो 5 करोड़ उड़ जेंगे इसलिए वह विनम्रता से मुस्कराते रहता है। हिंदी इन्क्लुयज़न (inclusion) की भाषा है। पंडितों की हर बात सरल नहीं होती है। बाषा तो जनता लाती है। भाषाएं एक-दूसरे में घुल-मिल जाती है जैसे आदमी-आदमी से मिल जाते हैं।

राजेन्द्र यादव – अंग्रेज़ी एक माध्यम है। अंग्रेज़ी गुलामी की निशानी थीऔर लड़न् का हथियार थी। स्वतंत्रता के युद्ध के समय का एटीट्यूड (attitude) भाषा को लेकर है, उसे छोड़ना चाहिए। अंग्रेजी वर्चस्व की भाषा है, सत्ता की भाषा है। 250 साल से अंग्रेज़ी हमारी भाषा हो गई है। हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू का देश में कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं है, घर नहीं है। सत्ता जो भाषा बोलेगी वह सब स्वीकारेंगे।

तरूण विजय – जर्मनी, इस्रार्ईल और ना चीन में अंग्रेज़ी में पढ़ाई होती है।

महेश भट्ट – अंग्रेज़ी को कम्यूनिकेशन टूल की अहमियत देनी चाहिए। भाषा को लेकर जब गौरव का अनुभव नहीं होता तब भाषा मर जाती है। बच्चा जब फर्स्ट स्टैंडर्ड में पढ़ता है तो भाषा संस्कृति लेकर आती है। वह जैक एंड ज़िल और बाबा ब्लैक शिप नहीं समझता है। यह सुपर पॉवर की ज़बान है, अपने माई-बाप की भाषा बोलना हमारी मजबूरी है। उसे देवी का दर्ज़ा नहीं देना चाहिए।

देवेन्द्र मिश्र (संस्कृत के विद्वान) – अंग्रेज़ियत में बुराई है अंग्रेज़ी में नहीं। भाषा के माइनस प्वांइट को छोड़ना चाहिए। संस्कृत को राजभाषा बनाने से विरोध नहीं होता।

उक्त चर्चाएं हुईं तथा बाद में इस चर्चा का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए दिबांग ने कहा कि – “अंग्रेज़ी का भारतीयकरण हुआ है तथा उसे देश की भाषा मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।“ एक हिंदी चैनल से अंग्रेज़ी के बारे में दी गई यह टिप्पणी एक सामान्य टिप्पणी नहीं की जा सकती है। यह दिबांग की सोच है चैनल की यह कहना आसान नहीं है परन्तु एक दशा और दिशा की और संकेत और समर्थन करनेवाला यह वाक्य, हिन्दी चैनलों की नई सोच को बखूबी दर्शा रहा है।

बुधवार, 3 जून 2009

हिंदी के इन सफेद हाथियों का सच.

राजभाषा अधिकारियों को निशाने पर ऱखना एक फैशन बन चुका है। जब जी में आता है कोई ना कोई विचित्र विशेषणों का प्रयोग करते हुए राजभाषा अधिकारियों पर उन्मादी छींटें उड़ा जाता है । इसी क्रम में एक नया लेख नवभारत टाइम्स, मुंबई संस्करण में दिनांक 29 मई 2009 को प्रकाशित हुआ। लेखक का नाम था – उदय प्रकाश, हिंदी साहित्यकार। हिंदी साहित्यकार शब्द का नाम के साथ प्रयोग से मेरा पहली बार सामना हुआ। लेख का शीर्षक था – "हिंदी के इन सफेद हाथियों का क्या करें।" इस लेख में कई बेतुके सवाल उठाए गए हैं जिनका उत्तर देना मैं अपना नैतिक कर्तव्य समझता हूँ इसलिए श्री उदय प्रकाश के इस लेख का क्रमवार परिच्छेद चयन कर मैं उत्तर दे रहा हूँ –

इस लेख के पहले परिच्छेद को कोट कर रहा हूँ – “सभी सरकारी विभागों में, पब्लिक सेक्टर की कंपनियों में और कई दूसरी जगहों पर भी भारी रकम खर्च करके राजभाषा हिंदी का ढांचा खड़ा किया गया है। इसमें ऊँची तनख्वाहों पर काम करने वाले लोग अंग्रेजी में तैयार कागज-पत्तर और दस्तावेजों का अनुवाद हिंदी में करने का स्वांग भरते हैं।“
उत्तर – उक्त परिच्छेद में "हिंदी का ढांचा" खड़े करने की बात की गई है जिसके बारे में कहना है कि यह ढांचा सांवैधानिक आवश्यकता के अनुरूप है तथा ढांचा खड़ा नहीं किया गया है बल्कि देश के नागरिकों की भाषाई आवश्कताओं का यह प्रतिबिम्ब है। यदि यह ढांचा ना रहता तो हिंदी में ना तो कोई कागज उपलब्ध हो पाता और ना ही साइन बोर्ड, नाम पट्ट आदि पर हिंदी में नाम पढ़ने को मिलता। "स्वांग" भरने की जानकारी किस आधार पर कही गई है इसका कहीं कोई पता नहीं चल सका है, अभिव्यक्ति में यह तिक्तता केवल अपूर्ण जानकारी की और इंगित करती प्रतीत हो रही है। इन कार्यालयों के कर्मियों से यदि इस बारे में पूछा जाए तो स्पष्ट जानकारी मिल सकती है अन्यथा दूर से धुंधला दिखलाई पड़ना स्वाभाविक है।

कोट – “यह ऐसी हिंदी होती है, जिसका एक वाक्य खुद अनुवाद करने वाले भी नहीं समझ पाते। इस तरह तैयार होने वाले हिंदी दस्तावेज सिर्फ तौल कर बेचने के काम आते हैं, क्योंकि जिन हिंदीभाषियों के लिए इन्हें तैयार किया गया होता है, उनका कुछ प्रयोजन इनसे नहीं सधता।”
उत्तर – चलिए मान लेता हूँ मैं उदय जी की बात कि "खुद अनुवाद करने वाले भी नहीं समझ " पाते वाक्य में कुछ सत्यता हो सकती है किन्तु क्या साहित्यकार जो लिखता है उसे वह हमेशा समझ पाता है ? राजभाषा की नई शब्दावलियाँ, नित नई अभिव्क्तियाँ आदि चुनौतीपूर्ण
हैं। शब्दों से अनजानापन किसी भी भाषा के वाक्यरचना को कठिन बना सकता है, फिर चाहे वह राजभाषा हिंदी ही क्यों ना हो। राजभाषा अभी कार्यान्वयन के दौर में है तथा धीरे-धीरे इसके प्रयोग में वृद्धि होती जा रही है। सत्य तो यह है कि किसी भी दस्तावेज को यदि केवल अंग्रेज़ी में जारी कर दिया जाए तो कर्मचारी हिंदी पाठ की मांग करते हैं क्योंकि हिंदी पाठ के द्वारा कर्मचारी अंग्रेजी पाठ को बेहतर समझ पाते हैं। कोई भी दस्तावेज केवल हिंदीभाषियों के लिए नहीं तैयार किया जाता है बल्कि जहाँ तक कार्यालय विशेष का विस्तार है वहाँ तक वह जाता है। हिंदी दस्तावेज तौल कर बेचने के काम नहीं आते बल्कि राजभाषा को और सरल, सहज और सुसंगठित करने के काम आते हैं। हाँ, काफी पुराने हो जाने के बाद हर भाषा के दस्तावेजों को नष्ट किया जाता है।

कोट – “अर्थव्यवस्था पर स्थायी बोझ बना सरकारी हिंदी का पूरा ढांचा अगर रातोंरात खत्म कर दिया जाए और इससे बचने वाले धन को पिछड़े इलाकों के प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने पर लगा दिया जाए तो इससे न सिर्फ देश के दलित-पिछड़े तबकों को बल्कि पूरे देश को काफी लाभ होगा।“
उत्तर – सरकारी हिंदी क्या है यह अस्पष्ट है। यदि यहाँ पर आशय सरकारी कार्यालयों में कामकाज की भाषा से है तो यदि देखा जाए तो प्रत्येक देश में बोलचाल की भाषा और कामकाजी भाषा में फर्क होता है फिर उसे सरकारी भाषा कहने का क्या औचित्य ? हिंदी का पूरा ढांचा रातोरात खत्म करने का प्रयास काल्पनिक मात्र है तथा विवेक और सच्चाई को परे ऱख कर लिखा गया वाक्य है। ज्ञातव्य है कि हमारा देश प्रगतिशील देश है तथा प्राइमरी स्तर पर भी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है जिसके लिए धन कभी बाधा नहीं रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी जानकारी ना होने पर प्राय: इस प्रकार के वाक्य लिखे जाते हैं।

श्री उदय प्रकाश, हिंदी साहित्यकार के लेख के उक्त अंश लगभग संपूर्ण लेख को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस लेख के बारे में इससे अधिक मैं कुछ और नहीं कहना चाहता हूँ।

धीरेन्द्र सिंह.