सोमवार, 28 मई 2012

राजभाषा में भ्रष्टाचार – एक संभावना, एक विश्लेषण



राजभाषा कार्यान्यवन तेज़ गति से प्रगति दर्शा रही है। व्वर्तमान में देश में चारों तरफ विभिन्न भ्रष्टाचार की गूंज है ऐसे में एक सोच यह भी उत्पन्न होती है कि क्या राजभाषा में भी भ्रष्टाचार हो सकता है? इस दिशा में एक आकलन करने का प्रयास किया जा रहा है जो निम्नलिखित है :-
1.      राजभाषा (हिन्दी) की तिमाही रिपोर्ट :  राजभाषा कार्यान्यवन के प्रगति की प्रतीक राजभाषा की तिमाही प्रगति रिपोर्ट है जिसके अनुसार अधिकांश कार्यालय लक्ष्य से कहीं अधिक राजभाषा की प्रगति दर्शा रहे हैं किन्तु कार्यालयों के निरीक्षण से जो तथ्य स्पष्ट होता है वह दर्शाता है कि हिन्दी की तिमाही प्रगति रिपोर्ट में दर्शाये गए आंकड़ों और कार्यालयों के विभिन्न टेबलों पर पाये जानेवाले राजभाषा के कार्यों के बीच काफी फासला है। यह फासला किसी एक या दो तिमाही रिपोर्टों का नहीं है बल्कि कथनी और करनी का यह फर्क वर्षों से चलते आ रहा है। दूसरे शब्दों में वर्षों से राजभाषा की तिमाही रिपोर्ट में आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाया जा रहा है जिससे कार्यालयों को राजभाषा के विभिन्न पुरस्कार प्राप्त करने में सुविधा हो सके। इस पर किसी प्रकार की रोक लगाने की कोशिश नहीं की गयी है, परिणामस्वरूप कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्यवन का प्रयास करने के बजाए तिमाही रिपोर्ट में अधिक रिपोर्टिंग करने तक ही राजभाषा सिमटती जा रही है। क्या यह प्रक्रिया भ्रष्टाचार के दायरे में नहीं मानी जाएगी?
2.      राजभाषा (हिन्दी) कार्यशाला का आयोजन : प्रत्येक केंद्रीय सरकार के कार्यालय, बैंक और उपक्रम राजभाषा कार्यशाला का आयोजन करते आ रहे हैं। वर्तमान में कार्यशाला की अवधि मात्र एक दिन की रह गयी है अन्यथा एक सप्ताह से तीन दिवसीय फिर दो दिवसीय की यात्रा करते हुये अब यह कार्यशाला एक दिवस तक सिमट गयी है। यूनिकोड विषय को छोडकर कार्यशाला के सभी विषय बीस वर्ष पुराने हैं। यहाँ यह गौर करनेवाली बात है कि मात्र विषय ही पुराने नहीं है बल्कि कार्यशाला सामग्री भी पुरानी है। पुरानी कार्यशाला सामग्री के अतरिक्त अधिकांश राजभाषा अधिकारियों के चर्चा आदि में भी बासीपन को सहजता से पाया जा सकता है। राजभाषा कार्यशाला की ना तो सामग्री में नवीनता है और ना ही राजभाषा अधिकारियों का प्रशिक्षक के रूप में नयी सोच की धार है। ऐसी स्थिति में राजभाषा को नए रूप, नए अंदाज़ और नए प्रभाव के रूप में कैसे और कौन प्रस्तुत करेगा? क्या यहाँ पर दायित्व बोध में लापरवाही प्रतीत नहीं होती है? यदि इसे भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या कहा जाये?
3.      राजभाषा कार्यान्यवन समिति की बैठक : किसी भी कार्यालय में राजभाषा की धड़कन उस कार्यालय के राजभाषा कार्यान्यवन समिति में होती है। इस समिति की बैठक तीन महीने में एक बार आयोजित की जाती है। इस बैठक की कार्यसूची भी अब लगभग एक परंपरा का निर्वाह करते प्रतीत होती है लगभग एक जैसी कार्यसूची का वर्षों से उपयोग करनेवाले कार्यालयों को ढूँढने के लिए विशेष श्रम की आवश्यकता नहीं है। इस समिति की बैठक भी प्रायः अपनी पूरी गंभीरता से नहीं होती है जिसकी जानकारी बैठक के कार्यसूची से मिलती है। समिति की बैठक का आयोजन अनिवारी है इसलिए अनिवार्यता के कारण तो यह बैठक नहीं होती है? यदि राजभाषा के प्रति समर्पित भाव से बैठक आयोजित नहीं की जाती है तो उसका परिणाम भी मंद होता है। इस तरह के मंद परिणामोंवाले कार्यवृत्त वर्षों से लिखे जा रहे हैं। अत्यधिक महत्वपूर्ण समिति के प्रभाव को कम कर कार्य करना राजभाषा का भ्रष्टाचार माना जाना चाहिए।
विश्लेषण :  राजभाषा का प्रचार-प्रसार तीव्र गति से हो रहा है किन्तु प्रभावशाली ढंग से नहीं हो रहा है। कार्यालयों को चाहिए वे अपने राजभाषा विभाग को समीक्षात्मक और तुलनात्मक दृष्टि से देखें। राजभाषा का उच्चतम पुरस्कार यदि नहीं प्राप्त हो रहा है तो उसकी गहन और व्यापक समीक्षा की जाय। यदि विभिन्न कार्यालयों के राजभाषा विभाग की निगरानी कार्यालय के अन्य विभागों द्वारा की जाएगी तो यह विभाग अपना सर्वोत्तम दे पाएगा अन्यथा उक्त अनियमितताएँ पनपती रहेंगी, अपनी जड़ें जमाती रहेंगी जिससे राजभाषा के भ्रष्टाचार को एक सशक्त आधार मिलता रहेगा। 


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शनिवार, 26 मई 2012

समिति द्वारा पत्रिका का प्रकाशन



राजभाषा कार्यान्यवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पत्रिका प्रकाशन भी है। प्रत्येक कार्यालय अपने-अपने स्तर पर पत्रिका प्रकाशित करती हैं। राजभाषा कार्यान्यवन समिति भी पत्रिका प्रकाशित करती है जिसमें समिति के सदस्य-सचिव पर पत्रिका के संपादन का दायित्व रहता है और समिति के कुछ चयनित सदस्य पत्रिका के संपादन मंडल के सदस्य होते हैं। पत्रिका के लेख,कविता आदि के चयन के अतिरिक्त पत्रिका का कलेवर, समय से प्रकाशन आदि अनेकों कार्य होते हैं जिसके लिए सम्पादन मण्डल को कई बार बैठक आयोजित कर निर्णय लेना पड़ता है। इन सारी प्रक्रियाओं के दौरान कई ऐसी स्थितियाँ  निर्मित होती हैं जो यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि राजभाषा कार्यान्यवन जगत में यह सब कब तक जारी रहेगा। ऐसी ही कुछ स्थितियों का वर्णन किया जा रहा है :-
1.   सम्पादन मण्डल का गठन : पत्रिका के सम्पादन मण्डल का गठन करना भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। मिति के सदस्य-सचिव का यह प्रयास रहता है कि सम्पादन मण्डल में ऐसे सदस्य आयें जिनमें साहित्य की समझ और रचना प्रतिभा हो। इस सोच के बावजूद भी चयन में  निम्नलिखित बिन्दुओं की प्रमुख भूमिका होती है :
   बड़े कार्यालयों को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति ।
ख   क्रमानुसार प्रत्येक बैंक को अवसर देने की नीति।
ग   दबंग अधिकारियों से न निपट पाने पर उन्हें अवसर देने की विवशता ।
घ   चापलूसी के आधार पर सम्पादन मण्डल में सदस्यता के अभिलाषी । इन्हें नदेखा करना
    अत्यंत कठिन कार्य है।
च   वरिष्ठता के आधार पर अयोग्य राजभाषा अधिकारी को सम्मिलित करने की विवशता।

इस प्रकार प्रायः नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति द्वारा प्रकाशित पत्रिका के सम्पादन मण्डल को सभी सदस्य योग्य, उत्साही और साहित्य में रुचि लेनेवाले नहीं मिल पाते हैं।

2 रचना चयन प्रक्रिया :  रचनाओं के चयन में भी कहीं रचना स्वीकारने की अनिवार्यता तो कहीं रचना को सम्मिलित करने की विवशता पत्रिका को अपने बेहतर रूप में प्रकाशित करने में बाधक साबित होती हैं। समिति के सदस्य-सचिव अथवा सम्पादन मण्डल के एक या कुछ सदस्य चाह कर भी उक्त स्थितियों में परिवर्तन नहीं ला सकते हैं। सामान्यतया लगभग सभी सदस्यों को और विशेषकर सक्रिय सदस्यों को पत्रिका में यथोचित स्थान देना ही पड़ता है इसलिए रचना की गुणवत्ता से अक्सर समझौता करना ही पड़ता है। यद्यपि पत्रिका में रचना से कहीं अधिक फोटो प्रकाशन का दबाव रहता है। फोटो प्रकाशन में भी प्रत्येक सदस्य कार्यालय का निर्धारित कोटा होता है जिसमें नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रमों आदि को ही सम्मिलित किया जाता है। रचना चयन में आनेवाली कुछ प्रमुख कठिनाईयाँ निम्नलिखित हैं :

रचनाओं का ना मिल पाना: समिति की सदस्य संख्या चाहे 30 हो या 60 रचनाओं की समस्या हमेशा रहती है। ऐसी बात नहीं है कि कार्यालयों में लिखनेवाले कम हैं किन्तु अधिकांश इसलिए हिन्दी में नहीं लिखते हैं कि उन्हें वर्तनी विषयक समस्याएँ और भ्रांतियाँ रहती हैं और अर्थ का अनर्थ की आशंका से हिन्दी में नहीं लिख पाते हैं। प्रत्येक कार्यालय में सीमित संख्या में हिन्दी में लिखनेवाले होते हैं जिनकी पहचान लेखक के रूप में बखूबी स्थापित हो चुकी होती है जबकि यह और बात है कि इनके द्वारा लिखी गयी रचनाएँ स्तरीय हों यह आवश्यक नहीं है। रचनाओं के प्रेषण में समिति के अधिकांश राजभाषा अधिकारी अधिक सक्रिय होते हैं और उनकी कोशिश रहती है कि उनकी रचना को प्रमुखता प्रदान करते हुये प्रकाशित किया जाये। कई अनुस्मारक और प्रयास के बाद सीमित संख्या में रचनाएँ आती हैं जिन्हें प्रकाशित करने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहता है।

न रचना का कलेवर बदलता है ना रचनाकार : अधिकांश राजभाषा कार्यान्यवन समिति की पत्रिकाओं की यदि समीक्षा की जाय तो यह तथ्य उभरता है कि प्रत्येक समिति में रचनाकारों का एक समूह होता है जो अपनी-अपनी शैली में एक जैसी ही रचनाएँ लिखता है जिसके कथ्य, शब्द चयन, वाक्य विन्यास आदि एक समान होते हैं जिससे इन पत्रिकाओं पर नज़र रखनेवाले सदस्य को शीघ्र ही पत्रिका की रचनाओं से उकताहट होने लगती है। पत्रिका के संपादक के रूप में  समिति का सदस्य-सचिव आखिर करे भी तो क्या करे, आखिर उसे सबको साथ लेकर जो चलना है।


3 सम्पादन : पत्रिका के सम्पादन के समय सम्पादन मण्डल की कई बार बैठक आयोजित की जाती है जिसमें प्रमुख होता है प्रेस से आई पत्रिका की पाण्डुलिपि की वर्तनी में सुधार करना, फोटो के क्रम को ठीक करना। शायद ही कभी होता हो कि रचनाओं का सम्पादन किया जाता हो अन्यथा जैसी रचना आती है वैसी ही प्रकाशित हो जाती है। रचनाओं में आवश्यक सुधार भी नहीं किए जाते, अधिकांश सम्पादन मण्डल केवल नाम के लिए होते हैं। जिस समिति का सम्पादन मण्डल अपना कार्य निष्ठापूर्वक करता है उस समिति की पत्रिका अपना अलग प्रभाव दर्शाती है लेकिन ऐसी पत्रिका गिनी-चुनी हैं। सम्पादन के दौरान प्रत्येक सदस्य कार्यालय पत्रिका में अपनी वर्चस्वता चाहता है किन्तु बाज़ी सम्पादन मण्डल के सदस्य कार्यालयों के पास होती है। यदि संपादक मण्डल के किसी सदस्य के मन में वर्चस्वता का विचार आए तो उसे पूर्ण करने में उसके पास अवसर होता है और यदि वह प्रेस में जाकर किसी पृष्ठ के साथ छेड़-छाड़ करता है तो या तो वह सफल हो जाता है अथवा उसकी चाल सम्पादक मण्डल के समझ में आती है। इस तरह की चतुराई के प्रयास से अधिकांश पत्रिकाएँ अपने स्तर को छू नहीं सकी हैं।

4 प्रकाशन और वितरण : पत्रिका का प्रकाशन और वितरण राजभाषा कार्यान्यवन के संयोजक बैंक द्वारा किया जाता है। पत्रिका का प्रकाशन एक सराहनीय कार्य है जिससे राजभाषा कार्यान्यवन को नयी गति और ऊर्जा मिलती है।

नगर राजभाषा कार्यान्यवन द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं की यदि समीक्षा की जाये और इन पत्रिकाओं का तुलनात्मक अध्ययन कर प्रकाशित किया जाय तो राजभाषा कार्यान्यवन के क्षेत्र में एक उल्लेखनीय कार्य होगा।
  


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गुरुवार, 17 मई 2012

विश्व पटल पर हिंदी

विश्व भाषा उस भाषा को कहते हैं जिसका प्रयोग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होता है और जिस भाषा को लोग दूसरी भाषा या अतिरिक्त भाषा के रूप में सीखते हैं।हिंदी भाषा की बढ़ती जा रही लोकप्रियता का अंदाजा इसी से ही लगाया जा सकता है कि विश्व भर में हिंदी सीखने वालों की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ है।पिछले 8 वर्षों में हिंदी बोलने की मांग में 50% की वृद्धि हुयी है। भारत देश के चतुर्दिक विकास को दृष्टिगत रखते हुए अनिवासी भारतीय भी अपनी अगली पीढ़ी को हिंदी सिखाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं जिससे भारत में या तो वे निवेश कर सकें अथवा वापस लौट आयें। 1980 और 1990 के दशक में भारत में उदारीकरण, वैश्वीकरण तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई परिणामस्वरूप अनेक विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में आईं तो हिंदी के लिए एक खतरा दिखाई दिया था, क्योंकि वे अपने साथ अंग्रेजी लेकर आई थीं, आज मनोरंजन की दुनिया में हिंदी सबसे अधिक मुनाफ़े की भाषा है कुल विज्ञापनों का लगभग 75 प्रतिशत हिंदी माध्यम में है। ‘गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड – अब इंडिया तोड़ेगा’ कार्यक्रम का हिंदी में प्रस्तुति विश्वव्यापी हिंदी के प्रभुत्व का ही परिणाम है।

अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी को थोपा थाशताब्दियों बाद भी अंग्रेजों के तात्कालीन उपनिवेश में अंग्रेजी अभी तक जनभाषा नहीं बन पाई है। इसके अतिरिक्त भारत के राज्यों में हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में अपनी जड़ें जमा चुकी है सिर्फ यहीं तक नहीं बल्कि पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, दक्षिण एशिया, खाड़ी के देशों आदि में भी हिंदी अपनी लोकप्रियता में सतत वृद्धि करती जा रही है। यद्यपि वर्तमान में चीनी भाषा अधिकाँश लोगों द्वारा बोली जाती है परन्तु शीघ्र ही चीनी भाषा का स्थान हिंदी ग्रहण कर लेगी क्योंकि विश्व में भारतीय चाहे तामिलनाडु के हों, केरला या ओडिशा के हों अथवा किसी अन्य भारतीय राज्य के जब यह सब विदेशों में आपस में मिलते हैं तो इनकी संपर्क भाषा हिंदी होती है। इसके अतिरिक्त विदेशों में हिन्दी पठन-पाठन का भी चलन ज़ोर पकड़ने लगा है। हिंदी सोसाइटी सिंगापुर / Hindi Society (Singapore) द्वारा कुल 7 हिंदी प्रशिक्षण केंद्र चलाये जा रहे हें जिसमें बच्चों से लेकर वयस्कों तक को हिंदी प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। यह संस्था वर्ष 1990 में स्थापित हुयी है और अब तक कुल 2100 से अधिक विद्यार्थियों को सफल प्रशिक्षण प्रदान कर चुकी है। इसके अतिरिक्त 54 स्कूलों में पेरेलल हिंदी प्रोग्राम (Parallel Hindi Programme) (PHP) चल रहा है। ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत की सरकार ने देश की केंद्र सरकार से हिंदी को राष्ट्रीय पाठ्रयक्रम में शामिल करने की गुजारिश की है। विक्टोरियन सरकार ने राष्ट्रीय पाठ्यक्रम अथॉरिटी से पूछा है कि क्यों हिंदी को देश के पाठ्यक्रम में 11 भाषाओं के साथ शामिल नही किया जा सकता? राज्य सरकार ने अपने पत्र में कहा कि हिंदी देश में सबसे ज्यादा बोली जाने भाषा बन चुकी है, हिंदी ने पिछले दस सालों में 100 प्रतिशत से भी ज्यादा की गति से विकास किया है।

लेकिन भारत में विदेशी भाषा सीखने का चलन उतना उत्साही नहीं है। लेकिन अब केंद्रीय विद्यालयों में अगले सत्र से चीनी भाषा की कक्षाएं शुरू करने की तैयारी चल रही है, लेकिन सवाल उठ खड़ा हुआ है कि सिखाएगा कौन? दिल्ली में कुछ संस्थान चीनी भाषा सिखाते हैं, इसलिए चीनी जानने वाले कुछ लोग तो मिल जांएगे। थोड़ी बहुत मदद चीनी दूतावास भी करने को तैयार है। लेकिन दिल्ली के सभी स्कूलों और अन्य शहरों के स्कूलों में चीनी पढ़ाने के लिए सैकड़ों शिक्षक चाहिए होंगे। इसके लिए केंद्रीय विद्यालय संगठन ने सांस्कृतिक आदान –प्रदान कार्यक्रम और अन्य शैक्षिक कार्यक्रमों के तहत भारत में हिंदी सीखने या शोध के लिए आए चीनियों से हिंदी सिखाने की गुजारिश कर रहा है। केंद्रीय विद्यालय प्रशासन ने विदेशी भाषाओं की बढ़ती जरूरत के मद्देनजर छात्रों को छठी कक्षा से ही इनका आरंभिक ज्ञान कराने का निर्णय लिया है। शुरूआत जर्मन से की जा चुकी है। लेकिन अभी तक 34 केंद्रीय विद्यालयों में ही जर्मन भाषा की पढ़ाई शुरू हो पाई है। अगले सत्र से स्कूलों में चीनी भाषा की शुरूआत की जा रही है। जो अन्य भाषाएं बाद में शुरू होंगी उनमें फ्रेंच, जापानी, स्पेनिश शामिल हैं। एक उच्च अधिकारी के अनुसार हम चीनी भाषा पढ़ाने वाले शिक्षकों की तलाश कर रहे हैं।

यूँ तो हमारी संस्कृति में "वसुधैव कुटुंबकम" वर्षों से रचा-बसा है पर जिस साज-सज्जा से वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण ने खुद को प्रस्तुत किया है, उससे ही प्रभावित होकर भारतीय विज्ञापन मुखर हो बोल पड़ा-'कर लो दुनिया, मुट्ठी में'। कथा साहित्य, यात्रा वित्रांत, फिल्मों, विदेशी वस्तुओं से चलते-मचलते, विदेश कब देश जैसा लगने लगा पता ही नहीं चला। कल तक नौकरी के लिए की जानेवाली विदेश यात्रा कब शापिंग और भ्रमण के रूप में ज़िंदगी की आम चर्चा का विषय हो गई, यह विभिन्न देशों के जनमानस को भी ज्ञात नहीं। तकनीकी क्रांति ने तो वर्षों से लोकप्रिय गीत-'मेरे पिया गए रंगून, किया है वहॉ से टेलीफून, कि तेरी याद सताती है' को जनसामान्य के जीवन में विभिन्न राग-रागिनियों के साथ उतार दिया और इस प्रकार हर प्रकार की दूरियॉ नजदीकियों में परिवर्तित हो गई और साथ ही बदलने लगी अपनी-अपनी कहानी संग लोगों की जिंदगानी, पर क्या जिंदगानियों में परिवर्तन सचमुच में आ गया है अथवा परिवर्तन बाधित सा लगता है? नहीं, ऐसा कैसे संभव हो सकता है भला, कि एक तरफ हम भूमंडलीकरण के निनाद के नित-प्रतिदिन नए रंग-ओ-अंदाज़ से रू-ब-रू हो रहे हैं तथा दूसरी ओर विभिन्न बाधाओ की भी अनवरत चर्चाएँ जारी हैं। शायद द्वंद्व ही विकास की सीढ़ी है और इसी दौर से भूमंडलीकरण का प्राथमिक चरण गुज़र रहा है।

विकासशील युग में समतल होती दुनिया में भौगोलिक सीमाएँ नि:संदेह टूट रही हैं किन्तु सांस्कृतिक मूल्यों के साथ अभिव्यक्ति में किसी प्रकार की टूट-फूट और समामेलन नहीं दिखलाई पड़ रहा है बल्कि सांस्कृतिक मूल्य और नीजि अभिव्यक्ति शैली ने विश्व में भाषा की अस्मिता को जिस प्रखर अंदाज़ में पिछले कुछ वर्षों से एक सामयिक व महत्वपूर्ण विषय बनाया है उससे विश्व पटल पर भाषाएँ एक नई दीप्ति और महत्व के संग अपनी उमंग, तरंग की लय में अपने अस्तित्व आरोहण का मृदंग बजा रही हैं। यह सब पूर्वनियोजित कार्यप्रणाली का परिणाम नहीं है और वैसे भी अखिल विश्व स्तर पर अपनी-अपनी भाषा की साधना, आराधना और विश्व विजय कामना की उर्जापूर्ण हलचलें गणेश जी को दूध पिलाने जैसी रहस्यमयी लोकचेतना नहीं हो सकती है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि भूमंडलीकरण के परलीकरण में अपनी शरण में किन भावी आवरणों को छुपाए भाषाएँ अपने-अपने तीर द्वारा अश्वमेध यज्ञ में निमग्न हैं। पिछले दो दशकों से भाषाई संघर्ष चल रहा है तथा जैसे-जैसे वैश्वीकरण अपने प्रभाव को बढ़ाते जा रहा है वैसे-वैसे भाषा का मसला अपनी गहराईयों का विश्लेषण करते हुए अपने निखार को और सँवार रहा है। हिंदी तो अपनी संघर्ष यात्रा अनवरत जारी रखे हुए है तथा इस संघर्ष के दौरान हिंदी की अनेकों छटाएँ बरबस अपनी ओर खींच लेने की कूवत पा बैठी है।

भूमंडलीकरण को, समतल दुनिया का नाम भी दिया गया है जिससे एक देश से दूसरे देश में आवागमन, संपर्क, व्यापार आदि सहज और सामान्य होता जाएगा। भूमंडलीकरण के समतल होने से देशों के बीच की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि दीवारें टूट रही हैं, हर प्रकार के वाद का विश्वस्तरीय मानकीकरण का एक तेज़ दौर चल रहा है, प्रतियोगिताओं और उपलब्धियों का दायरा अपनी सीमाओं को तोड़ते हुए पूरी धरती तक पसर रहा हैं जिसमें हर तरफ सरल, सहज, सर्वमान्य और सारगर्भित विभिन्न तत्वों व पक्षों की माँग हो रही है। इस प्रकार अति विस्तृत कार्यक्षेत्र मिल जाने से प्रत्येक राष्ट्र अपनी मौलिक सभ्यता, संस्कृति को लेकर उभर रहा है तथा इस सभ्यता और संस्कृति के साथ अपने राष्ट्र की भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बना, अपनी एक मुकम्मल पहचान की फिराक़ में लगा है। वैश्वीकरण का यह दौर प्रत्येक राष्ट्र के शक्ति परीक्षण का है जिसमें अभिव्यक्तियाँ अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाएँगी तथा जिस राष्ट्र का सम्प्रेषण जितना प्रखर और परिस्थितिजन्य होगा वह बाजी उतनी ही सुगम तौर पर उस देश के हाँथ होगी। अतएव भूमंडलीकरण में भाषाओं की वर्चस्वता का अघोषित व अप्रत्यक्ष लड़ाई जारी है।

भूमंडलीकरण के इस आरम्भिक दौर में हिंदी ने स्वंय को राष्ट्र की बिंदी प्रमाणित करते हुए अपने डैने को हनुमान की तरह विशाल रूप देने में सफलतापूर्वक प्रयत्नशील है। हिंदी की जब भी बात हो तब उर्दू भाषा का ज़िक्र न हो यह हो नहीं सकता, अतएव भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के नागरिकों आदि द्वारा हिंदी भाषा को निरन्तर व्यापक और सक्षम आधार दिया जा रहा है। हिंदी की सीमाएँ यहीं आकर ख़तम नहीं हो जाती हैं बल्कि इसके विकास में द्रविड़ीयन, तुर्की, फारसी, अरबी, पुर्तगाली और अंग्रेजी भाषाओं का उल्लेखनीय योगदान है। भारत देश की सभ्यता और संस्कृति को इसी प्रकार की भाषा संचेतना सहित आठ सौ वर्षों से कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त किया जा रहा है। वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में डिजीटल मिडीया द्वारा हिंदी को अफ्रीका, मध्य-पूर्व, यूरोप और उत्तरी अमेरीका में एक चित्ताकर्षक ढंग से लगातार पहुँचाया जा रहा है। दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियॉ दक्षिण एशिया के बाज़ार में पैठ लगाने हेतु हिंदी की उपयोगिता में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी करते जा रही हैं। इन सबके साथ कुशल मानव श्रम, विशेषज्ञों की ज़रूरतों आदि के लिए भी दक्षिण एशिया विश्व को अपनी ओर खींच रहा है। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि विश्व में अन्य भाषाएँ अलसाई सी हैं बल्कि विश्व में अपने परचम को लेकर हिंदी के साथ अग्रणी कतार में दौड़ लगानेवाली जर्मन, फ्रेंच, जापानी, स्पैनिश और चीनी जैसी प्रमुख भाषाएँ भी कदम से कदम मिलाकर एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में दौड़ रही हैं। एक ताज़ा भाषाई अनुमान के अनुसार विश्व में कुल छह हज़ार आठ सौ नौ भाषाएँ बोली जा रही हैं जिसमें से 905 भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या एक लाख से कम है। इन सभी भाषाओं में हिंदी को सीधे चुनौती देनेवाली भाषा चीन में बोली जानवाली मैंड्रीन भाषा है। ज्ञातव्य है कि जनसंख्या की दृष्टि से चीन और भारत को चुनौती दे पाना अन्य देशों के लिए कठिन कार्य है।

भूमंडलीकरण 21 वीं शताब्दी में वैश्विक गॉव बनते जा रहा है। एक अरब से भी अधिक नागरिकों के भारत देश ने, तेज गति से विकसित हो रही  इसकी अर्थव्यवस्था ने, विश्व को अपनी ओर देखने के लिए विवश कर दिया है। हाल ही में जब यह तथ्य उभरा कि दुनिया की 3 हज़ार भाषाओं और बोलियों का अस्तित्व वर्ष 2050 तक समाप्त हो जाएगा, जिसे सुनकर विश्व की भाषाएँ चौंक उठीं तथा भारत देश में दबे शब्दों में एक सुगबुगाहट सी चली कि कहीं हिंदी भी तो इन तीन हज़ार भाषाओं में एक नहीं है। यह एक काल्पनिक भय मात्र है किंतु इससे एक संकेत यह भी मिलता है कि देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें हिंदी भाषा की समाप्ति की शंका है। जबकि अमेरीका के सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेन्सी की 2005 की सी.आई.ए. वर्ल्र्ड फैक्ट बुक के अनुसार धरती पर बोली  जानेवाली भाषाओं में से हिंदी विश्व की सबसे प्रभावशाली चतुर्थ भाषा है। यहॉ पर मेरा प्रयास हिंदी भाषा के व्यक्तव्यों का प्रस्तुतीकरण नहीं है बल्कि कोशिश है हिंदी भाषा की इन दो विरोधी मानसिकता के विश्लेषण का, जिसमें एक ओर भारत देश के कुछ लोगों का भय है तो दूसरी ओर भूमंडलीय स्तर पर उस भय का निराकरण भी उपलब्ध है। यदि हम पहले भारत की इस मानसिकता का विश्लेषण करें तो नतीजा यही होगा कि बहुत कम लोग हैं जो हिंदी की वर्तमान गति और प्रगति की स्पंदनों का अद्यतन अनुभव कर रहे हैं वरना अधिकांशत: लोगों की भाषागत धारणाएँ यत्र-तत्र, पठन-श्रवण के आधार पर वेताल कथा सरीखी हैं। हमारे देश में हिंदी निरंतर विभिन्न स्तरों पर स्वीकारी जा रही है इसके बावजूद भी यह धारणा मानस में घर कर गई है कि - लोग क्या कहेंगे। हमारा देश हिंदी की मानसिकता से अभी भी जूझ रहा है, जबकि विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार और लोकप्रियता का विश्लेषण परिणाम, हिंदी को एक उर्जापूर्ण भविष्य की ओर ले जा रहा है।

विश्व स्तर पर हिंदी के विस्तार में हिंदी साहित्य की उल्लेखनीय भूमिका है और अभी भी हिंदी साहित्य अपनी इस भूमिका को बखूबी निभा रहा है। समय के संग भूमिका के तरीके में बदलाव आते जा रहा है। हिंदी साहित्य अब तकनीकी से भी जुड़ रहा है तथा कंप्यूटर की विभिन्न विधाओं में हिंदी अपनी उपस्थिति को दर्ज़ कराते बढ़ रही है। हिंदी गद्य विधा में अभिव्यक्ति, गर्भनाल आदि जैसी वेब पत्रिकाएँ हैं तथा काव्य में अनुभुति आदि जैसी वेब पत्रिकाएँ हिंदी साहित्य के बेहतर छवि को निरंतर निखार रही हैं तथा ऐसी कई पत्रिकाओं को विदेशों से एक बड़ा पाठक वर्ग मिला है। जालघर पर अनेकों हिंदी पत्रिकाएँ और ब्लॉग हिंदी के महत्व को दर्शाते हुए प्रभावशाली ढंग से प्रचार-प्रसार में व्यस्त हैं। भूमंडलीकरण के युग में सूचना और प्रौद्योगिकी के ताल-मेल के बिना हिंदी के विस्तार की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। अपनी तमाम कठिनाईयों के बावजूद भी हिंदी ने जिस तरह प्रौद्योगिकी जगत में अपना पैर जमाया है उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा मुक्त कंठ से जितनी ज्यादा की जाए उतना ही कम है। कौन लोग हैं जो हिंदी और प्रौद्योगिकी के संगम के लिए उल्लेखनीय भूमिकाएँ निभा रहे हैं? नि:संदेह भूमंडल के विभिन्न देशों में बसे भारतीय और हिंदी प्रेमी, भारत सरकार तथा देश में मुट्ठी भर प्रौद्योगिकी से नाता रखनेवाले हिंदी प्रेमीजन। आज व्यक्ति का मोबाईल नंबर जितना जरूरी हो गया है उतना ही महत्वपूर्ण हो गया इंटरनेट का उसका आई.डी.। कंप्यूटर से जुड़े रहने से इंटरनेट की दुनिया में हिंदी के फैलते साम्राज्य की नवीनतम जानकारियॉ मिलती रहती हैं। प्रसिद्ध सर्च इंजन गूगल के प्रमुख एरिक श्मिट का मानना है कि अगले पांच से दस सालों में हिंदी इंटरनेट पर छा जाएगी और अंग्रेजी और चीनी के साथ हिंदी इंटरनेट की दुनिया की प्रमुख भाषा होगी।

इंटरनेट पर हिंदी के प्रयोग में सबसे बड़ी कठिनाई हिंदी फॉन्ट की है। हिंदी के फॉन्ट में एकरूपता के अथक प्रयासों से यूनिकोड की उपलब्धि ने हिंदी फॉन्ट को एकरूपता देने का प्रयास किया है किंतु अभी भी मंज़िल काफी दूर है। जालघर की कुछ प्रमुख पत्रिकाओं ने यूनिकोड को अपना लिया है किंतु विभिन्न बैंकों, कार्यालयों आदि में अभी भी इसे पूरी तरह अपनाया जाना बाकी है। हिंदी की विभिन्न सॉफ्टवेयर कंपनियों को भी चाहिए कि वे इस दिशा में कुछ कारगर कदम उठाएँ किंतु उन्हें व्यावसायिक खतरों का अंदेशा है अतएव एक सार्थक पहल नहीं हो पा रही है। इंटरनेट जगत में हिंदी लिखने के लिए रोमन लिपि का सहारा लिया जा रहा है किंतु इसका आशय यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि देवनागरी लिपि छूट रही है बल्कि याहू जेसे नेट प्रदान करनेवाली कंपनी देवनागरी लिपि को लेकर गंभीर नहीं हुई है जबकि गूगल द्वारा सराहनीय प्रयास हो रहे हैं। नेट पर देवनागरी लिपि की वर्चस्वता के पीछे व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी कहीं अधिक रूकावट दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव है। क्या आप लोगों को नहीं लगता कि भाषा की तमाम खूबियों के बावजूद भी हिंदी दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी का शिकार है। मानव शरीर में रक्त की कमी से प्रचलित शब्द एनिमिक का उपयोग किया जाता है जबकि दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी से हिंदी एनिमिक हो गई है।

हिंदी की एक विचित्र स्थिति नज़र आ रही है जिसके तहत् कुछ लोग हिंदी के वर्तमान गति, प्रगति और नीति को सहज, सामान्य और सुबद्ध नामकरण से विभूषित कर रहे हैं तो कुछ लोग इसे अशुद्ध, अनर्गल और अभद्र विशेषणों से नवाज़ने में नहीं हिचक रहे हैं, इस प्रकार हिंदी चर्चा-परिचर्चा के अनेकों दौर से गुजर रही है तथा समय-समय पर अग्नि परीक्षाओं से गुजरते हुए अपनी कुंदनीय आभा सहित जनमानस के हृदय  में वंदनीय भाषा बनती जा रही है। यह तो स्पष्ट है कि भूमंडल में हिंदी की एक बयार चल पड़ी है, कहीं तेज है, कहीं मंथर है तो कहीं उनींदी सी कसमसा रही है। यह प्रगति पथ यक़बयक़ कैसे उभर पड़ा कोई करिश्मा कहा जाए या कि अलादीनी ताक़त ? स्थूल तौर पर देखा जाए तो यह हमारे देश के बाज़ार का असर है जिसमें आर्थिक विकास, जनसंख्या आदि ने भूमंडल को अपनी ओर मोड़ लिया है। वरना किसने सोचा था कि अमेरिकन प्रशासन एक दिन बोल उठेगा कि 21वीं शताब्दी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिकी नागरिकों को हिंदी सीखनी चाहिए। बात यहीं तक नहीं है बल्कि अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने अपने अहम् राष्ट्रीय भाषण में कहा कि 'हम हॉथ पर हॉथ घर कर नहीं बैठ सकते। दुनिया की अर्थव्यवस्था में हम भारत और चीन जैसे नए प्रतियोगी देख रहे हैं।" हमें दुनिया बड़ी उत्सकुतापूर्ण नज़रों से देख रही है जिसका एक उदाहरण हमें मार्च, 2006 का आम बजट पेश करते हुए ब्रिातानी वित्त मंत्री के वक्तव्य में भी मिलता है जिसमें उन्होंने कहा है कि " भारत और चीन से मिलने वाली कड़ी प्रतिस्पर्धा का मतलब है कि हम हॉथ पर हॉथ धर कर नहीं बैठे रह सकते।" इसके अतिरिक्त बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा हिंदी को गले से लगाना तो सर्वविदित है तथा हमारे समाज के चर्चित तथा मनोरंजन हेतु जनित सास-बहू के झगड़े को भी शीत पेय की बहुराष्ट्रीय कंपनियॉ कोका कोला और पेप्सी के हिंदी विज्ञापन महासमर ने मात कर दिया है। वस्तुत: हिंदी अब केवल जनसामान्य की भाषा ही नहीं रह गई है बल्कि बाज़ार की एक मज़बूरी भी बन गई है। चैनलों पर रिमोटीय उड़ान भर कर देखिए तो हर ठहराव पर विज्ञापन हिंदी ही बोलते मिलेगा।

हिंदी चाहे विज्ञापन की भाषा के रूप में हो या किसी अन्य विधा में उसका प्रभाव किसी सीमा तक ही नहीं रहता बल्कि विभिन्न प्रचार-प्रसार माध्यमों से भूमंडल में विस्तृत हो जाता है। संसार के लगभग 120 देशों में भारतीय मूल के लोग रहते हैं। इनमें से बहुत बड़ी संख्या अपनी भाषा भूल चुकी है पर इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि वे हिंदी सीख नहीं रहे हैं। भूमंडलीय आकाश पर पैर पसारती हिंदी अपने कई रूप दिखला रही है तथा यह कहना कठिन है कि किस देश में हिंदी किस अंदाज़ में होगी ठीक वैसे ही जैसे बंबईया हिंदी, मद्रासी हिंदी, लखनवी हिंदी, हैदराबादी हिंदी आदि। ज्ञातव्य है कि प्राय: परिवर्तन प्रगति का परिचायक होता है। परिवर्तन और प्रगति के एक उदाहरणस्वरूप सिंगापुर का उदाहरण लेते हैं जहॉ की जनसंख्या में भारतीयों का प्रतिशत मात्र छह फीसदी है। 1990 में जब सिंगापुर में हिंदी सोसायटी की स्थापना हुई तो सिंगापुर सरकार ने हिंदी को दूसरी ऐसी भाषा घोषित कर दिया जिसे विद्यार्थी सबसे ज्यादा सीखना चाहते हैं। सिंगापुर की हिंदी ज़रूर हमारे देश में प्रयुक्त हिंदी से थोड़ी भिन्न होगी। ब्रिटेन में तो धड़ल्ले से 'हिंगलिश' चल पड़ी है। इतना ही नहीं उपन्यासकार और शिक्षक बलजिंदर महल ने हिंगलिश जैसी मज़ेदार भाषा के संसार को व्यापक बनाने के लिए इसकी एक गाइड, शब्दकोष के रूप पेश की है जिसका नाम है-"द क्वीन्स हिंगलिश हाऊ टू स्पीक पक्का।" अंग्रेजी अख़बार के स्तंभकार श्री जग सुरैया ने हिंगलिश पर अपने एक लेख में लिखा है – you are not believing on me? Just you go to Bilayat or amerika and finding out you will be.Peoples there are using many-many ajib words we desi Angreziwallas are bilkul not understanding, no matter how much koshish karo we do. शायद कुछ लोगों की भृकुटियॉ ऐसी भाषा सुनकर तन जाए और श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी या डॉ. रघुवीर की आत्मा भाषा शुद्धता की मुनादी फिर से शुरू कर दें पर सच तो यह है कि हिंदी बिगड़ नहीं रही है बल्कि भूमंडलीय स्तर पर अपने को विभिन्न रूपों में सजा-सँवार रही है। हॉ, यह कटु यथार्थ है कि हिंदी के वर्तमान मौलिक रूप को बनाए रखने का दायित्व हम सब पर है तथा इन भाषाई झोकों और अंधड़ों से गुजरते हुए हिंदी को हम जिस कलेवर में ढाल पाएँगे हिंदी का वही रूप होगा। वैसे इस हिंगलिश से बच पाना भी कठिन कार्य है।

यहॉ यह सोच भी प्रासंगिक है कि जब वैश्विक स्तर पर हिंदी प्रगति दर्शा रही है तो अब तक संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा क्यों नहीं बन पाई ? सर्वविदित है कि इस समय संसार की छह भाषाएँ - अंग्रेज़ी, फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, चीनी तथा अरबी भाषाएँ संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ हैं, तो क्या कमी है हिंदी में ? इसका केवल यही उत्तर हो सकता है कि हमने अब तक निरंतर गंभीरता से इसपर कार्रवाई नहीं की है परंतु भूमंडलीकरण ने हिंदी को पहचाना है तथा हिंदी का भूमंडल पर गाना-बजाना, साहित्य का रंग-बिरंगा तराना आदि, इसे विश्व भाषाओं में एक सयाना का दर्ज़ा दिए जा रहा है अतएव संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुँचना कठिन नहीं रह गया है। वैसे अनेकों स्वंयसेवी संस्थाएँ भी इस दिशा में अपने-अपने ढंग से प्रयासरत हैं तथा हमें भी अपने-अपने स्तर पर प्रयासरत रहना चाहिए, आशावादी रहना चाहिए। चूँकि अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी अपनी छाप छोड़ रही है तथा आर्थिक रूप से हमारा देश सतत् समृद्ध और सक्षम होते जा रहा है इसलिए लोग अब भारत की ओर मुड़ रहे हैं। हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या 40 करोड़ के आसपास होने का अनुमान है। इसका एक प्रमुख कारण है रोजगार के अवसर में लगातार वृद्धि। हिंदी की लोकप्रियता में हिंदी फिल्मों या बॉलीवुड के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

भूमंडलीकरण के युग में हिंदी की भूमिका संपर्क, सम्प्रेषण और सानिध्य की है तथा जिसे हिंदी बखूबी निभा रही है, हॉ आप चाहें तो बॉलीवुड को अग्रणी स्थान दे सकते है आखिरकार हिंदी फिल्में केवल गीत-नृत्य-संवाद का रंगीन पिटारा ही लेकर भूमंडल में नहीं घूमती हैं बल्कि इसके साथ हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति भी पायल की रून-झुन की तरह विश्व से एक रागात्मकता स्थापित कर रही है। इस विषय पर यदि हम दूसरे पक्ष बैंक, कार्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि की ओर भेदक दृष्टि से देखें तो मन अचानक पूछ उठेगा कहॉ है हिंदी, कहॉ है राजभाषा, कैसे उठती है भूमंडलीकरण में हिंदी दीप्ति की आशा ? यहॉ आकर हिंदी भाषा की मनभावनी विहंगीय उड़ान को एक मचान मिल जाता है तथा मेरे जैसा बोलनेवाला पल भर के लिए सोच में पड़ जाता है। सोच अनुत्तरित होने का नहीं, क्योंकि बौद्धिकता, यक्ष प्रश्नों का जवाब तो ढूँढ ही लेती है, बल्कि सोच उस दिशा की तलाश करती है जहॉ पर समाधान तो है पर उस समाधान का संज्ञान, दिशा को भी नहीं। हिंदी के प्रति एक आरोप हमेशा लगाया जाता है कि यह केवल भावनाओं और संवेदनाओं की भाषा है तथा विचारों की भाषा बनने में असफल रही है। इस आरोप को निराधार साबित करने का दायित्व हम सबका है। हिंदी विचारों की भाषा है इसका प्रचार-प्रसार नहीं हुआ है। संगोष्ठी, परिसंवाद आदि का आयोजन एक दायरे में सिमट कर रह जाता है जबकि आज के युग में प्रत्येक कार्य के लिए प्रचार-प्रसार आवश्यक हो गया है। राजभाषा के रूप में हिंदी की क्षमताओं को देखकर एक सुखद आश्चर्य का होना आवश्यक है किंतु वैचारिक हिंदी को लोकप्रिय बनाने के प्रयासों में वस्तुत: कमी है। वैचारिक हिंदी के विभिन्न रूपों के विकास, प्रचार-प्रसार के लिए किसी भी स्तर पर कोई कमी नहीं है, कमी है तो प्रतिबद्धता की। यदि साहसपूर्ण शब्दों में कहने की हिमाकत करूँ तो हिंदी से जुड़े अधिकांश लोग ही हिंदी के वैचारिक लोकप्रियता में बाधक हैं। यह तो हमारे देश की बात है परन्तु भूमंडल में इस दिशा में भी प्रयास जारी हैं, कहीं पर पत्रिकाओं के माध्यम से तो कहीं पर गोष्ठी आदि के द्वारा तथा इसका व्यापक प्रचार-प्रसार भी हो रहा है।

विश्व पटल पर हिन्दी की सबसे बड़ी चुनौती व्यावसायिकता में इसके उपयोग को लेकर है। यद्यपि हिन्दी अपनी क्षमताओं सहित अनवरत प्रगति दर्शा रही है तथापि व्यवसाय की ऊंची सीढ़ियों पर इसकी उपयोगिता नहीं है जिससे राष्ट्रीय स्तर पर व्यवसाय में हिन्दी का उपयोग नहीं किया जाता है। यह परिस्थिति हिन्दी के वैश्विक विकास के लिए बाधक है तथा इस दिशा में विशेष प्रयास की आवश्यकता है। //media.bloomberg.com/bb/avfile/roQIgEa4jm3w) में उन देशों की सूची दी गयी है जहां अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाएं भी व्यावसायिक कार्यों में प्रयुक्त होती है । उस पर आधारित इस जानकारी पर गौर करें:
व्यावसायिक भाषाएं

अरबी (Arabic)                     करीब 25 करोड़        (23)

इतालवी (Italian)                  करीब 6 करोड़           (4)

कोरियाई (Korean)               करीब 7 करोड़           (1)
चीनी मैंडरिन (Chinese Mandarin) 100 करोड़ से अधिक (1)
जर्मन (German)                   12-13 करोड़                (6)
जापानी(Japanese)                 12-13 करोड़                (1)
तुर्की   Turkish)                   6-7 करोड़                    (1)
पुर्तगाली(Portuguese)           करीब 20 करोड़          (8)
फ्रांसीसी(French)                   12-13 करोड़       (27)
रूसी  (Russian)                   25-26 करोड़                (4)
स्पेनी (Spanish)                   करीब 40 करोड़          (20)
नोटः- संबंधित भाषा के नाम के आगे उसे बोलने/समझने वालों की अनुमानित संख्या दी गयी है। पंक्ति के अंत के कोष्ठकों में उन देशों की संख्या है जहां भाषा को आधिकारिक होने का दर्जा प्राप्त है। यदि हमारे देश में भी हिन्दी भाषा को व्यावसायिक महत्व दिया जाये तो विश्व पटल पर हिन्दी को स्थापित करने में यह विशेष सहायक होगा।

भारत देश की विभिन्न स्तर की प्रतिभाएँ नौकरी, व्यवसाय के कारण भूमंडल के कोने-कोने में अपने नीड़ का निर्माण कर रही हैं। जो भारतीय विदेशों में जा रहे हैं वे हिंदी को भी अपने साथ ले जा रहे हैं तथा जो काफी पहले से विदेशों में बस कर विदेशी हो गए हैं वे चमकते भारत में हिंदी सीखते हुए आ-जा रहे हैं तथा इस प्रकार भूमंडल में कल-कल, छल-छल हिंदी सरणी प्रवाहित हो रही है। धरती से 35,000 फीट से भी अधिक ऊँचाई पर हिंदी की कमी का अनुभव होने लगा है तथा विदेशी वायुसेवा कंपनियॉ, विशेषकर यूरोप की कंपनियॉ हिंदी को अपनी आवश्यकता बतला रही हैं।आस्ट्रियन एयरलाइन्स, स्विस एयरलाइन्स, एयर फ्रान्स और अलीटॉलिया ने कहा है कि भारतीय यात्रियों की लगातार हो रही वृद्धि को दृष्टिगत रखते हुए वे भारत की अपनी प्रत्येक उड़ान में कम से कम ऐसे दो क्रू को रखेंगे जो हिंदी बोलना जानते हों। भूमंडल पर हिंदी दौड़ रही है तथा वायुमंडल में उड़ रही है तथा राष्ट्रीय अस्मिता और अस्तित्व को पारदर्शी तौर पर विश्व के समक्ष सफलतापूर्वक रख रही है। हिंदी अकेले नहीं है  बल्कि उसके साथ अन्य भारतीय भाषाएँ भी हैं। भारत देश की उभरती आर्थिक शक्तियॉ हिंदी भाषा के द्वारा भी मुखरित हो रही है। हम सबके लिए भविष्य में और भी नई चुनौतियॉ हैं जिसके समाधान के लिए हमें अपनी जुगलबंदी को नया आयाम देना होगा। आईए, हम सब मिलकर अपनी हिंदी लय को और मधुरता दें और प्रखरता प्रदान करें।




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शुक्रवार, 4 मई 2012

राजभाषा के राही



भारत के संविधान की राजभाषा नीति के अनुसार सरकारी कार्यालयों, उपक्रमों, राष्ट्रीयकृत बैंकों में कार्यरत सभी स्टाफ राजभाषा के राही हैं. भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के वार्षिक कार्यक्रम के विभिन्न लक्ष्य ही राजभाषा की राहें हैं. इस प्रकार राह भी निर्धारित है और राही भी इसके बावजूद ना तो राहों की धूल उड़ती हुयी दिखलाई पड़ती है और ना ही कथित राहियों की राह पर अनवरत सक्रिय उपस्थिति का ही एहसास होता है. ऐसी स्थिति में राह पर किसी तरह का सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता है किन्तु राही अवश्य प्रश्नों से घिरा हुआ है। राह पर राहियों का लगातार सक्रियतापूर्वक ना दिखना क्या दर्शाता है? क्या सचमुच इन राहों पर राही नहीं हैं? क्या राहियों को कोई कठिनाई है? इस प्रकार के अनेकों प्रश्न मन में उभरते हैं और अपने उत्तर तलाशते हैं। आखिर यह राह भी तो सामान्य  राह नहीं है बल्कि संविधान द्वारा निर्मित एक ऐसी अद्भुत राह है जो चिंतन, सम्प्रेषण आदि में पूर्णतया स्व की भावना, विचार और कर्म को निर्मित करती है। राह भी प्रशस्त और प्रयोजनमूलक है। राहगीरों की चहल-पहल ना दिखलाई देना सतत एक समाधानकारक विश्लेषण के लिए प्रेरित करते रहता है। इस विश्लेषण में सर्वप्रमुख है राही।

कौन हैं यह राही ? क्या राजभाषा कामकाज से सीधे जुड़े अधिकारी-कर्मचारी? या कि राजभाषा के कार्यों को संपादित करने के लिए विभिन्न कार्यालयों के चयनित स्टाफ ? सत्य यह है कि इन कार्यालयों (केंद्रीय सरकार के कार्यालय, उपक्रम एवं राष्ट्रीयकृत बैंक) के वरिष्ठतम अधिकारी से लेकर कनिष्ठतम कर्मचारी सभी राजभाषा के राही हैं। यदि इन कार्यालयों के कनिष्ठतम कर्मचारी से बात की जाय तो उनका उत्तर होता है कि जब वरिष्ठतम ही कुछ देर इस राह पर चहलकदमी कर दूसरी राह पर चलने लगते हैं तब कनिष्ठ क्या करे ? कनिष्ठ तो प्रायः वरिष्ठ का ही अनुकरण करते हैं। यदि वरिष्ठ से यही प्रश्न किया जाये तो उत्तर होगा कि अक्सर यह पाया गया है कि कनिष्ठों को इस राह के अपने दायित्व का बोध नहीं है और यदि यह बोध है भी तो अनजाना बन जाते हैं। शायद उनकी यह सोच होती हो कि इन राहों पर चलना ना तो अनिवार्य है, ना ही अनुपालन ना करने पर दंड का प्रावधान है, ना ही इस बारे में अपेक्षित गंभीरता है परिणामस्वरूप राजभाषा की राह एक ऐसी ऐच्छिक राह है जिसपर मन किया तो चल पड़े मन नहीं तो नहीं गए।

ऐसा नहीं कि राजभाषा की राह पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है यदि देखा जाये तो हर महत्वपूर्ण मोड़ पर नियंत्रण है जहां यह देखने को भी मिल जाता है कि किसी मोड़ के नियंत्रण पर अपेक्षित गंभीरता है तो किसी मोड़ पर गंभीरता का अभाव है। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय राह पर नियंत्रण, निदेश और निगरानी का दायित्व निभा रहा है इसके अतिरिक्त विभिन्न
मंत्रालयों में शीर्ष राजभाषा कार्यालय भी इस दिशा में कार्यरत हैं और विभिन्न कार्यालयों के शीर्ष अधिकारी भी इस दायित्व को निभा रहे हैं। इस व्यवस्था के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजभाषा की राह अलग-थलग बेगानी सी पड़ी है। यह निर्विवाद सत्य है कि राजभाषा की राह पर किसी

प्रकार की असुविधा नहीं है। इस राह के प्रत्येक मोड़ पर किसी ना किसी रूप में दिशानिर्देशक उपलब्ध हैं। राजभाषा में यदि किसी कार्यालय में अपेक्षित उपलब्धि नहीं होती है तो ज़िम्मेदारी राह पर नहीं डाली जा सकती है। यदि किसी कार्यालय का स्टाफ राजभाषा की राह पर दोषारोपण करने का प्रयास करता है तो यही कहा जा सकता है कि नाच ना जाने आँगन टेड़ा

यदि राह पर कोई कठिनाई नहीं है तो स्वाभाविक तौर पर यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्याएँ राही के इर्द-गिर्द ही हैं। समस्याएँ होने की वजह राहियों के विभिन्न प्रकार की श्रेणियाँ हैं जिनमें से कुछ को नीचे दर्शाया जा रहा है :-
1 पदोन्नति प्रधान
2 सुविधानुसार स्थानांतरण प्रधान
3 अज्ञानता प्रधान
4 लोकप्रियता प्रधान
5 गुटबाजी प्रधान
6 कर्मठता प्रधान

1 पदोन्नति प्रधान राही : इस श्रेणी के राजभाषा अधिकारी का एकमात्र लक्ष्य होता है सेवा में पदोन्नति प्राप्त करना। इस श्रेणी के लोगों को उनके उच्चाधिकारी जो कहते हैं उसे स्वीकार कर तदनुसार कार्य करते हैं। राजभाषा नीति के नियम की अनदेखी कर भी इस श्रेणी के लोग अपने उच्चाधिकारी के अनुरूप कार्य करते हैं। ऐसे लोग उच्चाधिकारी को राजभाषा कार्यान्यवन की सलाह नहीं देते हैं बल्कि उच्चाधिकारी के आज्ञाकारी स्टाफ बनकर उनकी नज़रों में अपनी छवि को एक कर्मनिष्ठ अधिकारी के रूप में निर्मित करना चाहते हैं। ऐसे बहुत कम उच्चाधिकारी हैं जो इस खूबसूरत और प्रीतिजनक आवरण की भेदक दृष्टि रखते हों। स्वयं की प्रशंसा प्रायः सभी को अच्छी लगती है क्योंकि यह एक सामान्य मानवीय गुण है। इस श्रेणी के राजभाषा अधिकारी अपने लक्ष्य में अवश्य सफल होते है। इनके लिए राजभाषा कि राह से अधिक व्यक्तिगत उपलब्धि प्रधान होती है। व्यक्तिगत प्रगति के लिए राजभाषा के साथ समझौता करना इनकी आदत होती है।  

2 सुविधानुसार स्थानांतरण प्रधान राही : यह एक सौम्य, शांत, अपने ही दायरे में सिमट कर रहनेवाली  श्रेणी है। इस श्रेणी के राजभाषा अधिकारी अपना कार्य समय, सुविधा और साधन के अनुरूप करते है। सबसे हिल-मिलकर रहना इनकी प्रमुख विशेषता है। इनकी चाहत सिर्फ स्थानांतरण तक ही सीमित रहती है। अक्सर इनके दबे-सहमे व्यवहार से प्रसन्न होकर प्रबंधन इन्हें मनचाही जगह पर स्थानतरित कर देता  है। राजभाषा कि राह इनके लिए गौण होती है और पारिवारिक सुख परम प्रधान होता है।  

3 अज्ञानता प्रधान राही : इस श्रेणी के राजभाषा अधिकारी को राजभाषा कार्यान्यवन का प्रचुर ज्ञान नहीं रहता है इसलिए ऐसे अधिकारी एक ही स्थान पर काफी समय तक पड़े रहते हैं। ना तो इनकी चर्चा होती है और ना ही इनसे कोई अपेक्षा की जाती है। सामान्य तौर पर राजभाषा के कार्यों को निपटाते रहते हैं जिसमें ना तो आकर्षण होता है और ना ही कोई नयी बात होती है। इस श्रेणी के राजभाषा अधिकारी राजभाषा कि राह से बेमन से चलते हैं जैसे कोई इन्हें चलने के लिए विवश कर रहा हो।


4 लोकप्रियता प्रधान राही : लोकप्रियता की अभिलाषा में डूबे राजभाषा अधिकारी अपने टेबल पर कम और इधर-उधर अधिक पाये जाते हैं। यहीं की खबर वहाँ करना, व्यक्तिगत समस्याओं में विशेष रुचि लेकर सहायता करना आदि प्रकार के कार्य इस श्रेणी के राजभाषा अधिकारी करते हैं। यदि यह टेबल पर होते हैं तो अधिकांश समय फोन से जुड़े रहते हैं। इस लोकप्रियता में राजभाषा गौण रहती है और ऐसे लोग राजभाषा कि राह के बारे में गंभीर नहीं होते हैं।

5 गुटबाजी प्रधान राही : मुक्त होकर आलोचना करना और समूह बनाकर एक दबाव की नीति बनाए रखने के खयाल से कुछ राजभाषा अधिकारी गुट बना लेते हैं। यह गुट राजभाषा अधिकारियों का होता है और राजभाषा अधिकारी के खिलाफ कार्य करता है जैसी अफवाहें फैलाना, किसी को योगी बताते हुये उसे एक नयी पहचान देने का प्रयास करना आदि। इनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं रहता बल्कि ऐसे राजभाषा अधिकारी अपनी अयोग्यता को छुपाने के लिए योग्य राजभाषा अधिकारी की छवि धूमिल करने का भरसक प्रयास करते हैं। राजभाषा की राह पर चहलकदमी करते दिखानेवाले कदम इस श्रेणी के राजभाषा अधिकारियों के होते हैं।  

6 कर्मठता प्रधान राही : इस श्रेणी के लोगों की दुनिया राजभाषा और हिन्दी जगत में खोयी रहती है तथा राजभाषा कार्यान्यवन में नित नए कार्य करने की इनकी कोशिश जारी रहती है। यद्यपि इस श्रेणी के
 लोगों की संख्या काफी कम होती है लेकिन कोई कार्यालय या संस्था ऐसे राजभाषा अधिकारियों के कार्यनिष्पादन के सहयोग से राजभाषा की गति को बनाए रखने में सफल होती है। लोग अपनी धुन में रहते हैं और सदा राजभाषा के राही रहते हैं। राजभाषा की राह की वर्तमान दीप्ति के जनक इस श्रेणी के राजभाषा अधिकारी हैं।

वर्तमान में राजभाषा की राह अर्थात राजभाषा नीति और वार्षिक कार्यक्रम के अनुरूप राजभाषा के राही अर्थात सामान्यतया विभिन्न कार्यालयों के कर्मचारी और विशेषकर राजभाषा अधिकारियों की स्थितियों को प्रस्तुत करने के इस प्रयास के पीछे यह उद्देश्य है कि यथासंभव अनुकूल परिवर्तन लाकर राजभाषा की राह को और आलोकित किया जा सके जिसपर उपलब्धियों कि पताका लिए राहियों का अनंत काफिला चलता रहे। राही के रूप में राजभाषा अधिकारियों का चयन इसलिए किया गया है कि यह तस्वीर स्पष्ट हो सके कि यदि राजभाषा के सैनिकों कि यह स्थिति है तो कार्यालयों के सामान्य स्टाफ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है।   
                     


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