हिंदी कथा साहित्य के परिचारित विभिन्न हिंदी कथा साहित्य पुरस्कार प्रदाता पिछले दशक से जितने भी पुरस्कार दिए उसकी अनुगूंज एक बिजली सी कौंध दर्शा न जाने कहाँ शांत हैं। अब पहले की तरह न तो पुरस्कृत पुस्तकों पर पूरे देश के विश्वविद्यालय/ महाविद्यालय में चर्चा होती है और न ही राष्ट्र स्तरीय स्वीकार्य समीक्षक (यदि हों) की समीक्षा दृष्टव्य होती है। यह लिखने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वर्तमान में हिंदी कथा लेखन अनचीन्हा क्यों निकल जाता है ? क्या हिंदी कथा लेखन थक चुका है या लोकप्रियता से स्वयं को बचा रहा है। यह भी बात सुनाई पड़ती है कि पाश्चात्य लेखन की लोकप्रिय पुस्तकों के कथानक की झलकियां हाल-फिलहाल की पुरस्कृत हिंदी पुस्तकों में भी दिखलाई पड़ती हैं जिसपर बहस उठ सकती है।
मुंशी प्रेमचंद के समकक्ष रचनाकारों के बाद हिंदी में गद्य लेखन ऐसा नहीं हुआ जिसे रंगमंच लपक ले या हिंदी फिल्म निर्माता रुचि दिखाएं। हिंदी पुस्तकों को पठन क्रमशः कम होते जा रहा है पर पुस्तकों का प्रकाशन जारी है। क्या विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक चैनल की तरह हिंदी कथालेखन भी सत्य को जस का तस प्रस्तुत करने लगा है? अपने संवादों में स्वतः उठने वाली पाठक की वाह! ध्वनि अब गूंजती क्यों नहीं है? पुस्तक लिखना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि प्रति महीने कई पुस्तकें छप रही हैं और बिना अपनी धमक जताए सुप्त होती जा रही हैं।
संलग्नक की पंक्तियां यही गम्भीर स्थिति दर्शा रही हैं। अब हिंदी की पहले आ चुकी फिल्मों की कहानी में कुछ अंश जोड़कर नई हिंदी फिल्में बनाई जा रही हैं। दक्षिण भारत की फिल्में हिंदी फिल्म को खूब प्रभावित कर रही हैं। बड़ी बजट की हिंदी फिल्म पश्चिम की फ़िल्म के अनुरूप विशेष प्रभाव और कृतिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर रहे हैं। इस व्यस्तता में हिंदी का कथा जगत अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व को हिंदी रंगमंच और हिंदी फिल्मों से उदासीन क्यों रखे हुए है ?
धीरेन्द्र सिंह
04.10.2024
13.12
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