शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

राजभाषा की दुनिया

दुनिया, विस्तृत विशाल दुनिया, दुनिया के भीतर दुनिया, यह अजीब दुनिया, आदि, इन भावों में डूबी अनेकों कथा-कहानियॉ, गीत आदि हम सबने सुना है और दुनिया को कम और इसके रहस्य को समझने का अधिक प्रयास अधिक किया है। सदियों से इंसान दुनिया में किसी नई तलाश के लिए भटक रहा है। तलाश की इस अनवरत प्रक्रिया में एक दुनिया राजभाषा की भी दुनिया है। सागर में सुदूर किसी टापू की तरह पड़ी इस दुनिया के इर्द-गिर्द से असंख्य नाविक गुज़र रहे हैं परन्तु इनमें से की कोलम्बस इस दुनिया को नहीं मिला। सामान्यतया इस दुनिया में हलचल रहती है। इस दुनिया के मूल निवासी प्रत्येक गुजरने वाली नाव या पोत की और ईशारा कर अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते रहते हैं। इस दुनिया की मूल भाषा राजभाषा है जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है परन्तु बोलचाल की हिंदी से दूर दिखती है. इसलिए इस भाषा को समझने में अकसर लोगों को कठिनाईयों का अनुभव होता है। ऐसा कई बार हुआ है कि नाव या पोत इस दुनिया में रूकते हैं किंतु भाषा पूरी तरह समझ में ना आने से अपनी यात्रा पर निकल पड़ते हैं। दुनिया अबूझी की अबूझी रह जाती है।

आईए, हम इस दुनिया की यात्रा करते हैं। यह यात्रा कितनी सफल होगी वह आपकी सोच और आपकी दूरदर्शिता निर्धारित करेगी। मेरी भूमिका तो मात्र एक सामान्य गाइड की होगी। इस दुनिया में प्रवेस करते ही पहली जॉच होगी कि आगंतुक किस भाषिक क्षेत्र का है तदनुसार उसे क, ख तथा ग क्षेत्र के अनुसार पत्र दिया जाता है। यह प्रक्रिया अत्यंत सरल है इसलिए इसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होती है। यहॉ यह ध्यान देनेवाली बात यह है कि भाषिक क्षेत्र का पार्मूला केवल भारतीयों पर ही लागू है। यदि विदेशी अर्थात अंग्रेजी भाषिक आगंतुक प्रवेश करता है तो सबसे पहले उसे भारत सरकार के राजभाषा अधिनियम धारा 3(3) के अंतर्गत जॉचा जाता है। यह जॉच प्रक्रिया विशेष विशेषज्ञतायुक्त है अतएव इसमें प्राय: चूक होने की संभावना बरकरार रहती है। अंग्रेजी को हिंदी करना मात्र अंग्रेजी शब्द के स्थान पर हिंदी शब्द रखना नहीं होता है बल्कि संबंधित विषय के भाव को अभिव्यक्ति प्रदान करनी होती है। इसमें कैसी उलझन होती है इसका उदाहरण निम्नलिखित अधूरे वाक्यांश द्वारा प्रस्तुत है –

Parcel is being addressed to their branch or correspondent bank

पार्सल है उनकी शाखा या संवाददाता बैंक को संबोधित किया जा रहा है.

क्या कहेंगे आप कि इस दुनिया में ऐसे ही राजभाषा वाक्य की रचना होती है। जी हॉ, एक हद तक आपकी सोच सही तो हो सकती है पर इस दुनिया में भी अनेकों धुरन्धर हैं जो चुपचाप राजभाषा के विकास में लगे हुए हैं। ऐसे लोग ना तो शोरबाजी करते हैं और ना ही निरर्थक मंचबाजी इसलिए प्राय: चर्चाओं में नहीं रहते हैं। इस दुनिया की प्रथम रीति यह है कि –

राजभाषा की प्रतिभाओं को विकास का पूर्ण अवसर नहीं मिल रहा है।

भूलिएगा नहीं कि मैंने अवसर की बात नहीं की है बल्कि पूर्ण अवसर की बात की है क्योंकि बगैर पूर्णता के किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं की जा सकती है।

यदि मैं कहूं कि मैंने सत्य को बेबाकी से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है तो यह भी उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जिन्हें पूर्ण अवसर मिल रहा है परन्तु ऐसे लोग अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इस अवसर का अधिक प्रयोग कर रहे हैं अन्यथा राजभाषा की दुनिया में दो चीजों की होड़ क्यों लगी होती। शायद आप भी जानते हों इस होड़ को। यह हैं डॉक्टरेट डिग्री की प्राप्ति तथा पुस्तक प्रकाशन की होड़। यह कार्य अधिकांशत: कार्यालयीन सुविधाओं के सहयोग से पूर्णता प्राप्त करते हैं वैसे अपवाद तो हर जगह पाया जाता है।
अतएव राजभाषा की दुनिया का दूसरा तथ्य है कि –

प्राप्त सुविधाओं की सहायता से विशेषतया डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त करना तथा स्वनाम की पुस्तक प्रकाशित कर में व्यक्तिगत विकास की यात्रा की और बढ़ना।

चुनौतियॉ और राजभाषा एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह लगते हैं। हिंदी दिवस,14 सितंबर के उपलक्ष्य आयोजित हिंदी सप्ताह, पखवाड़ा या हिंदी माह के आयोजन के समय राजभाषा जगत में दीवाली, ईद, क्रिसमस आदि जैसा वातावरण रहता है। इस अवधि के दौरान स्टाफ को एकत्रित करना एक बड़ी चुनौती होती है। जी नहीं, कृपया ऐसा मत सोचिए कि यह चुनौती हमेशा रही है। स्टाफ को राजभाषा के किसी आयोजन में इकटअठा करना पिछले 5-6 वर्षों की समस्या है। इसका कारण यह है कि राजभाषा की दुनिया में जो आयोजन वर्ष 1984 में किए जाते थे वह अब भी जारी है। परिवर्तन के नाम पर पुरस्कार आदि की राशि बढ़ गई है किन्तु इसमें गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है। इसलिए स्टाफ की यह सोच रहती है कि क्यों जाकर बोर होएं इससे अच्छा है कि हिंदी के नाम पर आज जल्दी कार्यालय से चले जाने की सुविधा का उपभोग करें। राजभाषा अधिकारी आयोजन, संयोजन से जूझते हुए अपने उच्चाधिकारी को भीड़ इकट्ठा होने की आश्वासन देते रहता है। इस तथ्य की पुष्टि लगभग सभी कार्यालय के राजभाषा विभाग, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के आयोजन इतिहास के अवलोकन से सहज ही उपलब्ध हो जाता है। इससे तीसरी तथ्य स्पष्ट होता है कि –
राजभाषा की दुनिया में चमक है किंतु अपेक्षित दमक नहीं है इसके बावजूद भी प्रशंसाएं मिलती रहती हैं।

राजभाषा कार्यान्वयन समिति की तिमाही बैठक की कार्यसूची तथा कार्यवृत्त के अवलोकन से यह तथ्य भी उभरता है कि वर्षों से एक ही कार्यसूची तथा लगभग एक जैसे कार्यवृत्त पर राजभाषा की दुनिया दौड़ रही है। कई जगह तो समिति में लिए गए निर्णयों पर कोई ठोस कार्रवाई ही नहीं होती और आधारहीन कारण समिति के समक्ष प्रस्तुत कर कार्यवृत्त की पुष्टि कर ली जाती है। समय-समय पर इस कार्यवृत्त में सदस्यों के नाम बदल जाते हैं। राजभाषा कार्यान्वयन की दिशा निर्धारित करनेवाली यह एक सशक्त समिति अपनी क्षमताओं का बहुत कम उपयोग कर पाती है। इससे यह चतुर्थ निष्कर्ष निकलता है कि –

राजभाषा की दुनिया प्राप्त शक्तियों का उपयोग नहीं कर पाती है तथा बैठकों में परम्पराएं निभाने जैसी झलक मिलती है।

राजभाषा कार्यान्वयन को समुचित गति प्रदान करने तथा आवश्यक दिशानिर्देश देने के लिए अधीनस्थ कार्यालयों का निरीक्षण किया जाना आवश्यक है। यह अनुभव किया गया है कि यह निरीक्षण केवल आवश्यकता पूर्ति के लिए की जाती है। राजभाषा अधिकारी कुछ लोगों से मिलकर लौट आता है या मात्र उपस्थिति दर्ज कराने के उद्देश्य से अधीनस्थ कार्यालय के स्टाफ से मिलता है और निरीक्षण रिपोर्ट तैयार करना अपने एक दायित्व का इतिश्री मान लेता है। स्टाफ से मिलना, बातचीत कर उनकी समस्याओं का तत्काल समाधान करना नहीं हो पाता परिणामस्वरूप राजभाषा कार्यान्वयन को गति नहीं मिल पाती। यह राजभाषा कार्यान्वयन की पॉचवी स्थिति दर्शाता है कि –
राजभाषा निरीक्षण एक औपचारिकता बन गया है जिसका राजभाषा कार्यान्वयन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

यह अंतिम पड़ाव है। अंतिम पड़ाव इसलिए कि इस व्यापक दुनिया का भ्रमण अत्यधिक समय लेनेवाला है। मेरी कोशिश उन महत्वपूर्ण मदों की दर्शाना है जिससे राजभाषा को काफी हानि हो रही है। राजभाषा कार्यान्वयन के स्पंदनों को बखूबी दर्शानेवाली हिंदी की तिमाही रिपोर्ट की स्थिति विवादास्पद बनती जा रही है। इस रिपोर्ट को तैयार करते समय पिछली तिमाही की रिपोर्ट की नकल की जाती है तथा आंकड़ों में थोड़ा सा हेर-पेर कर रिपोर्ट प्रेषित कर दी जाती है। यदि इस रिपोर्ट में दर्शाए आंकड़ों का सत्यापन किया जाए तो कड़ों के समर्थन हेतु कागजात, प्रलेख आदि नहीं मिल पाते हैं। विभिन्न प्रमख कार्यालयों से यह रिपोर्ट व्यवस्थित प्रेषित की जाती है और यथोचित रिकॉर्ड भी रखा जाता है किन्तु अधीनस्थ कार्यालयों में यह स्थिति नहीं है। ज्ञातव्य है कि इसी रिपोर्ट के आधार पर राजभाषा के विभिन्न पुरस्कार निर्धारित के जाते हैं। इससे छठवॉ तथ्य स्पष्ट होता है कि –

राजभाषा कार्यान्वयन का परम लक्ष्य मात्र राजभाषा के विभिन्न पुरस्कार प्राप्त करना है।

यदि यह सिलसिला जारी रहा तो एक स्थिति ऐसी आ जाएगी कि राजभाषा कार्यान्वयन केवल काग़जों में सिमट कर रह जाएगी। समय रहते चेत जाना समाज और राष्ट्र के लिए हितकर होगा।



बुधवार, 21 जुलाई 2010

राजभाषा और नेतृत्व

राजभाषा का प्रचार और प्रसार ही राजभाषा के कामकाज को गति और उन्नति प्रदान करता है। राजभाषा जगत का तथ्य यह है कि इसमें गति तो है किन्तु प्रगति  अपेक्षित नहीं है। इस तथ्य के समर्थन में केवल एक ही उदाहरण काफी है कि प्रत्येक कार्यालय की हिंदी की तिमाही प्रगति रिपोर्ट निर्धारित लक्ष्य से अधिक आंकड़े दर्शा रही है किन्तु कार्यालय में उन आंकड़ों के समर्थन में दस्तावेज, आंकड़े उपलब्ध नहीं है। बिना स्पष्ट आधार के यह गति एक अस्वाभाविक छवि निर्मित कर यह विश्वास दिलाने का प्रयास करती है कि राजभाषा का कार्यालयों में बखूबी प्रचार-प्रसार हो रहा है। वर्तमान में राजभाषा अधिकांश समय अपने प्रगति का विश्वास ही दिलाने में व्यतीत कर रही है। यह एक उदाहरण वर्तमान के राजभाषा कार्यान्वयन की वर्तमान दशा और दिशा की स्थिति का बयान कर रही है। कहॉ हो रही है चूक? किसकी वजह से राजभाषा की यह गति हो रही है? उत्तर स्पष्ट है – नेतृत्व।

क्या है राजभाषा का नेतृत्व? प्रत्येक कार्यालय में स्थित राजभाषा विभाग का विभागाध्यक्ष जो कहीं वरिष्ठ प्रबंधक है,कहीं मुख्य प्रबंधक है तो कहीं सहायक महाप्रबंधक है। राजभाषा विभाग के इन नेतृत्वकर्ताओं के लिए कार्यालयीन कार्यों से निकलकर कुछ नया करने की फुरसत ही नहीं मिलती। नैत्यिक कार्यों की यह व्यस्तता स्वंय में पत्राचार और अनुवाद को ही समेटे रहती है। इन व्यस्तताओं से निकल पाना इन नेतृत्वकर्ताओं की सबसे बड़ी चुनौती है। कार्यालय के सामान्य शब्दावली में इन्हें राजभाषा प्रभारी के रूप में जाना जाता है। राजभाषा कार्यान्वयन के लिए सामान्यतया संपूर्ण कार्यालय इन प्रभारी के सुझावों को अत्यधिक महत्व देता है अर्थात व्यावहारिक तौर पर राजभाषा कार्यान्वयन का नेतृत्व इन्हीं प्रभारियों पर होता है। यदि कोई कार्यालय राजभाषा कार्यान्वयन में उल्लेखनीय कार्य करता है अथवा उपलब्धि प्राप्त करता है तो इसका प्रमुख श्रेय राजभाषा प्रभारी को ही जाता है।

विभिन्न कार्यालयों का यह आम प्रचलन है कि वरिष्ठ कार्यालयों अथवा सरकार से प्राप्त अनुदेशों, आदेशों, दिशानिर्देशों के हद तक ही राजभाषा कार्यान्वयन किया जाए। इस कार्य में भी न्यूनतम समय में अधिकाधिक परिणाम का लक्ष्य रखा जाता है। स्वंय की पहल से कुछ नया और नवीन कार्य करने के कठिन कार्य से प्राय: प्रभारी बचते हुए पाए जाते हैं। वह ना तो शीर्ष प्रबंधन को इस विषयक सूचित करते हैं और ना ही किसी अभिनव कार्य के लिए  अपनी उत्सुकता दर्शाते हुए सार्थक पहल करते हैं। यदि सभी राजभाषा प्रभारी अपनी सार्थक एवं नवीन कार्नीतियों को अपनाएं तो राजभाषा की दुनिया में उल्लेखनीय विकास हो सकता है और राजभाषा स्टाफ में अपनी लोकप्रियता में प्रभावशाली वृद्धि दर्शा सकती है। यह मात्र कल्पना नहीं है बल्कि शुद्ध यथार्थ है। सभी राजभाषा प्रभारी आवधिक तौर पर किसी न किसी मंच पर मिलते हैं और राजभाषा कार्यान्वयन की चर्चाएं करते हैं। ऐसे मंचों पर गिनती के सक्रिय राजभाषा प्रभारी होते हैं जो हर बैठक में अपनी सक्रियता से प्रभावित करते रहते हैं परन्तु अधिकांश मात्र एक आदर्श श्रोता होते हैं।

राजभाषा में नेतृत्व की समस्या वर्तमान में ही नहीं है बल्कि पिछले दशक से यह समस्या गंभीर बनी हुई है। अस्सी तथा नब्बे के दशक में अनेकों राजभाषा प्रभारी थे जिनकी कार्यनीतियॉ तथा कार्यनिष्पादन से राजभाषा कार्यान्वयन को न केवल नई गति मिली बल्कि कई नवोन्मेषी कार्य भी हुए। राजभाषा प्रभारी का जब तक राजभाषा विषयक निजी व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं रहेगा तब तक राजभाषा के तीव्र विकास की संभावना दूर प्रतीत होती रहेगी। वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन की सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न कार्यालयों में राजभाषा नेतृत्व का है। वरिष्ठता के आधार पर जब तक राजभाषा प्रभारी का कार्य़भार सौंपा जाता रहेगा तब तक इसमें शिथिलता स्वाभाविक है। राजभाषा प्रभारी के पद को वरिष्ठता के बजाए प्रतिभा और कार्यनिष्पादन के आधार पर करना चाहिए। मानव संसाधन विभाग द्वारा इसमें पहल की आवश्यकता है। प्राय: यह होता है कि वरिष्ठता के आधार पर एक या दो अभ्यर्थी होते हैं जो एक शोचनीय स्थिति है। एक पद और एक या दो अभ्यर्थी ?

वर्तमान समय राजभाषा कार्यान्यवन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ समय है। जिन कार्यालयों के राजभाषा प्रभारी प्रभावशाली हैं उस कार्यालय तथा उसके राजभाषा प्रभारी दोनों की दीप्ति को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यदि इस दिशा में कार्यालय एक योजनाबद्ध तरीके से कार्य करें तो राजभाषा कार्यान्वयन नए युग में अपनी नई पहचान बखूबी स्थापित कर सकेगी।



सोमवार, 5 जुलाई 2010

राजभाषा और शब्द


राजभाषा कार्यान्वयन की एक प्रमुख समस्या है शब्द। प्राय: यह मांग की जाती है कि राजभाषा के शब्द सरल नहीं हैं। यद्यपि इस समस्या का सार्थक समाधान करने के लिए शब्दावली आयोग के अतिरिक्त विभिन्न विभाग भी सक्रिय हैं किंतु उसके प्रभावशाली प्रयासों का प्रतिफल नहीं मिल पा रहा है। इसी प्रकार बोलचाल की हिंदी के भी की रूप हैं जैसे शुद्ध हिंदी, दक्खिनी हिंदी, बम्बईया हिंदी, मद्रासी हिंदी आदि। इस प्रकार बोलचाल की हिंदी में राष्ट्र के विभिन्न राज्यों के शब्द जुड़ते रहते हैं जिनमें से अधिकांश शब्द लेखन में प्रयुक्त नहीं होते हैं। यदि भाषा के विश्व पटल का आकलन किया जाए तो कुछ महीने पहले प्रकाशित जानकारी के अनुसार प्रमुख भाषाओं की स्थिति निम्नलिखित है –

विश्व में बोली जानेवाली प्रमुख भाषाएं


1. चीनी (मंदारिन)       1.28 मिलियन


2. स्पैनिश                 329 मि


3. अंग्रेजी                  328 मि


4. हिंदी                    260 मि


5. अरबी                  221 मि


6. पुर्तगाली              203 मि


7. बंगला                193 मि


8. रूसी                  144 मि


9. जापानी               122 मि


10. जर्मन               90 मि


स्त्रोत- Ethnologue,16th Edition


उक्त आंकड़ों पर विवाद की संभावना हो सकती है किंतु यहॉ यह तो स्पष्ट है कि मंदारिन भाषा पनी वर्चस्वता बनाए हुए है तथा अंग्रेजी की संख्या को छूने के लिए हिंदी को अभी काफी प्रयास करने पड़ेंगे। स्पेनिश की तथा बँगला की संख्या भी ध्यानाकर्षण करती हैं। इसके अतिरिक्त यदि हम इंटरनेट पर शीर्ष दस भाषाओं का आकलन करें तो निम्नलिखित स्थिति निर्मित होती है –

इंटरनेट की शीर्ष भाषाएं


1. अंग्रेजी           452 मिलियन


2. चीनी             321 मि


3. स्पैनिश         129 मि


4. जापानी         94 मि


5. फ्रेंच             73 मि


6. पुर्तगाली       73 मि


7. जर्मन          65 मि


8. अरबी          41 मि


9. रुसी            38 मि


10. कोरियन     37 मि


स्त्रोत – Internate World States


उक्त आंकड़ों के आधार पर इंटरनेट पर हिंदी की उपयोगिता अत्यधिक कम है। अब हमारे सामने यह स्थिति स्पष्ट हो चुकी है कि हिंदी बोलनेवालों की तुलना में इंटरनेट पर हिंदी का उपयोग करनेवालों की संख्या में काफी अंतर है। भाषा के इन तथ्यों को बाद विश्व के विभिन्न भाषाओं के शब्दों की संख्या का आकलन करते हे हिंदी के शब्द संख्या की स्थिति को भी जान लेना आवश्यक है -
विभिन्न भाषाओं में शब्दों की संख्या


1. अंग्रेजी           999,600


2. चीनी            500,000 +


3. जापानी        232,000


4. स्पैनिश       225,000 +


5. रूसी           195,000


6. जर्मन         185,000


7. हिंदी           120,000


8. फ्रेंच           100,000


9. अरबी        45,000


10. टोकी पोंडा 197


स्त्रोत – Global Language Monitor


यदि हम हिंदी को राजभाषा के रूप में पूर्णतया विकसित कर स्थापित करना चाहते हैं तथा लोकप्रिय बनाना चाहते हैं तो उक्त आंकड़ों की तरह हमें भी अपनी एक व्यवस्था निर्मित करनी चाहे जहॉ अंतर्ष्ट्रीय भाषाओं के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं की स्थितियों पर भी निगरानी रखी जा सके। मैं बार-बार एक शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ विवादित। विवादित शब्द के प्रयोग का प्रयोजन यह है कि भाषा विषयक उक्त पहल और प्रयास अनेकों तर्कों और तथ्यों को जन्म देते हैं जिसके आधार पर इस प्रणाली में आवश्यकतानुसार सुधार होता है. आरम्भ में प्रतिक्रियाएं आक्रामक होती हैं जो क्रमश: कम होती जाती हैं। इसी स्थिति से ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर के अध्यक्ष तथा मुख्य शब्द विश्लेषक पॉल जे.जे. पेएक को गुजरना पडा।


यद्यपि विभिन्न प्रकार की राजभाषा शब्दावलियॉ निरन्तर जुड़ती जा रही हैं तथा उनका प्रयोग भी किया जाता है फिर भी यह कह पाना कठिन है कि प्रति वर्ष या प्रति तिमाही में राजभाषा के कितने नए शब्द जुड़ते हैं। ग्लोबल लैगेवेज मॉनिटर के शोध टीम के अनुसार प्रत्येक 98 मिनट में अंग्रेजी में एक नया शब्द जुड़ता है। शब्द केवल जुड़ते ही नहीं हैं बल्कि लुप्त भी होते हैं। राजभाषा में अनेकों ऐसे शब्द हैं जिन्हें कठिन शब्द कह कर प्रयोग नहीं किया जाता है और धीरे-धीरे ऐसे शब्द प्रयोग में लुप्त हो जाते हैं। उपरोक्त आंकड़ों के अनुसार यह स्पष्ट है कि हिंदी विश्व को अपने प्रभाव में लेने को तत्पर है किंतु प्रश्न यह उभरता है कि इस तत्परता के साथ-साथ क्षमताएं भी होनी चाहिए। क्षमताएं न केवल अभिव्यक्ति की बल्कि नित नए शब्दों को स्वंय में बखूबी रचाने-बसाने की भी। अनिवासी भारतीयों तथा हिंदी फिल्मों. गीतों आदि ने हिंदी के विस्तार में अपनी उल्लेखनीय भूमिकाओं को बखूबी प्रदर्शित किया है और अब भी कार्यरत हैं, इन्हें अब एक विश्व स्तरीय सशक्त आधार की आवश्यकता है। हिंदी के विस्तार संग राजभाषा कार्यान्वयन का प्रयास जुड़ा है।

यहॉ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह कार्य कैसे किया जा सकता है ? लिए हमें ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर से सीखना पड़ेगा। आधारभूत शब्दों को ही गणना में सम्मिलित किया जाना चाहिए जैसे दौड़, दौड़ता, दौड़ रहा है को एक शब्द ही गिना जाएगा। इस ग्रह पर कुल बोली जानेवाली 6919 भाषाओं में से सभी भाषाओं का अपना सांस्कृतिक महत्ता है। अन्य भाषाओं से शब्दों को ग्रहण कर कुशलतापूर्वक आत्मसात करनेवाली भाषा ही वर्तमान की जीवंत और सक्रिय भाषा कही जाएगी। भाषा की जीवंतता के लिए उसमें प्रयुक्त शब्दों की निगरानी एवं विश्लेषण समय की मॉग है। बैंकिग शब्दावली, प्रशासनिक शब्दावली, बीमा शब्दावली, विधि शब्दावली आदि अनेकों शब्दावलियों का राजभाषा में प्रयोग हो रहा है किन्तु इनका एक सामान्य मंच नहीं है अतएव एक-दूसरे की उपलब्धियों की जानकारी इन्हें नहीं है जो हिंदी भाषा और राजभाषा दोनों के लिए लाभकारी नहीं है।

भाषाविदों का कहना है कि शब्द क्या है इसकी प्रकृति पर ही विवाद है इसलिए शब्द गणना संभव नहीं है। ग्लोबल लैग्वेज मॉनिटर शब्दों तथा मुहावरों, वैश्विक मुद्रण तथा इलेक्ट्रॉनिक मिडिया, इंटरनेट, ब्लॉग में प्रयुक्त शब्द की बारंबराता के अनुसार शब्दों का चयन करता है. इसमें शब्दकोश भी सहायक होते हैं। इस तुलना में यदि हिंदी को देखा जाए तो शब्दकोशों के प्रकाशन की अवधि निर्धारित नहीं है। अतएव हिंदी शब्दों पर निगरानी रखना एक कठिन कार्य हो जाता है। ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर का मुख्य ध्येय वैश्विक अंग्रेजी के रूप में इंग्लिश के शब्दों पर निगरानी रखना है। हिंदी के ले से पहल की आवश्यकताएं हैं क्योंकि इस कार्य की क्षमता तथा संभावना तो पहले से ही विद्यमान है। कौन शुरू करे, कैसे शुरू करे, कहॉ शुरू करे आदि प्रश्नों से हटकर इस कार्य को आरम्भ कर देना है शेष समस्याएं खुद-ब-खुद हल हो जाएंगी। नि:संदेह यह कार्य राष्ट्रीय स्तर की संस्था ही कर सकती है। एक नए आरंभ की आशा भी है, जिज्ञासा भी है।





धीरेन्द्र सिंह