“आपकी कविता में जो शब्द है आज के युवाओं का इनसे परिचय भी नहीं होगा। जिन चीजों को उन्होंने वास्तविकता में देखा नहीं होगा, समझा नहीं होगा, सुना नहीं होगा वो कविता के रूप महसूस कैसे करेंगे?”
उक्त पंक्तियां मेरे द्वारा लिखित कविता “अनुगूंज” पर की गई है जिसकी रचना और पोस्ट की तिथि 15 अक्टूबर, 2024 है। क्यों उक्त पंक्तियां इतनी महत्वपूर्ण हो गयी हैं कि इनपर लिखने का प्रयास किया जा रहा है? कौन हैं जिया पुरस्वानी ? मुझे भी नहीं मालूम पर उन्होंने एक ज्वलंत समस्या को रखा है जिसमें “आज के युवाओं” के शाब्दिक ज्ञान की बात की गई है। उक्त पंक्तियों का मैंने निम्नलिखित उत्तर दिया :-
“एक जीवन होता है जो केवल अनुकरण करता है और जो परिवेश है उसके अनुसार ढलते जाता है, इस प्रकार के जीवन के लिए कुछ कहना, कुछ सुनना विशेष अर्थ नहीं रखता क्योंकि ऐसी जिंदगी जो मिल रहा है उससे खुश होती है। मेरी रचना भी परिवेश मुग्ध लोगों के लिए नहीं होती है और ऐसे लोग पूरा पढ़ते भी नहीं क्योंकि पढ़ नहीं पाते, कारण अनेक हो सकते हैं।
अब प्रश्न है कि फिर मैं लिखता क्यों हूँ ? मेरा लेखन हिंदी भाषा संचेतना के इर्द-गिर्द रहता है। मेरा लेखन शब्दावली में निहित अर्थ को और प्रखर तथा परिमार्जित करना होता है जो विभिन्न वाक्य प्रयोग से होता है। वर्तमान में हिंदी विज्ञान, अभियांत्रिकी, प्रौद्योगिकी आदि में हिंदी शब्दावली और उसके प्रयोग का जो अभाव है उसका एक प्रयोग है। मेरी रचनाएं भाषा शास्त्रियों और भाषा मनीषियों के चिंतन राह का एक सहयोगी पथिक है।
कुछ रचनाएं मात्र रचनाएं नहीं होतीं बल्कि एक दूरगामी लक्ष्य की धमक होती है और इस परिप्रेक्ष्य में आपकी सोच और चिंतन एक सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। धन्यवाद😊”
पुनः प्रश्न उभरा :-
“...जी, दूरगामी लक्ष्य में, भविष्य में, क्या आज के युवा सम्मिलित नहीं होंगे।
यदि होंगे तो भाषा का स्तर, थोड़ा बहुत उनकी समझ का तो होना चाहिए”
पुनः उत्तर देने का प्रयास :-
“...जी भाषा का रचयिता समाज होता है। प्रौद्योगिकी और अंग्रेजी भाषा को भारतीय युवा सीख रहे हैं अतएव विश्व में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। भाषा या भाषा की शब्दावली किसी के पास नहीं जाती, इन्हें समाज ही रचता है और समाज ही अभिव्यक्ति की बारीकियां इसमें समाहित करता है इस आधार पर विश्व क प्रत्येक भाषा की ओर व्यक्ति ही आते हैं। भाषा को समझना व्यक्ति का एक बौद्धिक और सामाजिक दायित्व है। हां यह कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति को अपने काम भर की भाषा आ जाती है तो वह व्यक्ति अपनी शाब्दिक दुनिया के अनुरूप ही शब्द सुनना चाहता है जो एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव है पर यथार्थ में भाषा या शब्द कहीं रुकती है ? नहीं, इनमें सतत विकास और विन्यास होते रहता है जो समय की मांग है😊”
मेरी रचनाओं को पढ़नेवाले अनेक लोग मेरे द्वारा चयनित शब्दावली से अपरिचित होने की बातें करते रहते हैं। अनेक लोगों को अनेक बार आश्वासन भी दिया हूँ कि सरल शब्दावली का प्रयोग करूंगा और करता भी हूँ पर क्या सभी विचार और भाव बोलचाल की शब्दावली में अभिव्यक्त किए जा सकते हैं ? उत्तर है नहीं। यहां प्रश्न उठता है भाषा की वृहद भूमिका की और शब्दावली के अभिव्यक्ति क्षमता की। यहां पर एक पाठक वर्ग जो सहज और सामान्य शब्दावली का पक्षधर है इस वर्ग की मांग उचित है किंतु लेखन के व्यवहार्य के अनुकूल नहीं है। सामान्य शब्दावली के अतिरिक्त भी कई शब्दावली हैं जैसे विधि शब्दावली, प्रशासनिक शब्दावली, रेल शब्दावली, बीमा शब्दावली, बैंक शब्दावली, तकनीकी शब्दावली, प्रौद्योगिक शब्दावली, पारिभाषिक शब्दावली आदि । इन शब्दावली के शब्दों का यदि प्रयोग न किया जाएगा तो हिंदी कैसे एक सक्षम और समर्थ भाषा बन सकती है ?”
हिंदी के शब्द क्रमशः मरते जा रहे हैं बोलियां भी समाप्त हो रही हैं ऐसे समय में न केवल हिंदी भाषा पर बल्कि भारतीय संस्कृति के एक भाग के प्रभावित होने का भी खतरा बना रहता है। शब्द यदि बचेंगे और सुगठित होते हुए जीवन के प्रत्येक भाग की अनुभूतियों और भावनाओं को सफलतापूर्वक अभिव्यक्त कर पाएंगे तो हिंदी ललित लेखन के अतिरिक्त भी अन्य विधाओं को बखूबी दर्शा पाएगी। शब्द कठिन होते हैं यह भाषा विषयक भ्रांति निकाल देनी चाहिए।
धीरेन्द्र सिंह
15.10.2024
16.55
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