सोमवार, 30 मार्च 2009

राजभाषा अनुशासन

अनुशासन शब्द एक निर्धारित व्यवस्था का द्योतक है। देश, काल, समय और परिस्थिति के अनुरूप अनुशासन में यथावश्यक परिवर्तन होते रहता है। अनुशासन के लिए हमेशा एक सजग, सतर्क तथा कठोर पर्यवेक्षक की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि स्वनुशासित होना बेहतर होता है। स्वनुशासन प्राय: जागरूक लोगों में पाया जाता है। राजभाषा भी जागरूक है इसलिए अनुशासित है। नियम, अधिनियम, राष्ट्रपति के आदेश, वार्षिक कार्यक्रम आदि राजभाषा को अनुशासन की पटरी पर सदा गतिमान रखते हैं। तो क्या राजभाषा लोग है? नहीं, ऐसे कैसे सोचा जा सकता है? इसमें न तो भावनाओं का स्पंदन है और न ही विचारों का प्रवाह है, यह तो मात्र नीति दिशानिर्देशक है। लोग तो राजभाषा अधिकारी हैं जो राजभाषा के बल पर एक प्रभावशाली पदनाम के साथ राजभाषा कार्यान्वयन कर रहे हैं। जब कभी भी राजभाषा के लिए अनुशासन शब्द का प्रयोग किया जाएगा तो राजभाषा अधिकारी स्वत: ही जुड़ जाएगा। अतएव राजभाषा अधिकारियों के अनुशासन पर चर्चा की जा सकती है। प्रश्न यह उभरता है कि क्या राजभाषा अधिकारियों के अनुशासन पर चर्चा प्रासंगिक एवं आवश्यक है? यदि राजभाषा कार्यान्वयन प्रासंगिक है तो राजभाषा अधिकारियों पर चर्चा भी समीचीन है।

कैसे की जाए राजभाषा अनुशासन की चर्चा? राजभाषा अधिकारी तो एक अनछुआ सा विषय है. यदा-कदा कभी चर्चा भी होती भी है तो राजभाषा अधिकारी की तीखी आलोचनाओं के घेरे में उलझकर चर्चाएं ठहर जाती हैं। वर्तमान परिवेश में जितना बेहतर प्रदर्शन राजभाषा अधिकारी कर पाएंगे उतना ही प्रभावशाली राजभाषा कार्यान्वयन होगा। राजभाषा कार्यान्वयन संबंधित राजभाषा अधिकारी के कार्यनिष्पादनों का प्रतिबिम्ब है। राजभाषा अधिकारियों को स्वनुशासित होने के लिए निम्नलिखित मानदंड निर्धारित किए जा सकते हैं –

1. आत्मविश्वास
2. भाषागत संचेतना
3. राजभाषा नीति का ज्ञान
4. सम्प्रेषण कौशल
5. अनुवाद कौशल
6. बेहतर जनसंपर्क
7. रचनात्मक रूझान
8. कार्यान्वयन कुशलता
9. प्रतिबद्धता
10. प्रदर्शन कौशल

उक्त के आधार पर अनुशासन की रेखा खींची जा सकती है। ज्ञातव्य है कि सशक्त आधार तथा कुशलताओं के बल पर बेहतर से बेहतर कार्यनिष्पादन किया जा सकता है। राजभाषा अधिकारी अपनी-अपनी क्षमताओं के संग राजभाषाई उमंग का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। आवधिक तौर पर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की समीक्षा भी होती रहती है। इस प्रकार की समीक्षाएं राजभाषा कार्यान्वयन में सतत् सुधार के अतिरिक्त अनुशासन बनाए रखने में भी सहायक है। इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि राजभाषा कार्यान्वयन संबंधित कार्यालय के कामकाज का एक हिस्सा है अतएव इसे कार्यालय की धारा के संग चलना पड़ता है अन्यथा कार्यान्वयन सुचारू रूप से नहीं हो सकता है। चूँकि कार्यान्वयन कार्यालय के कामकाज से जुड़ा है इसलिए कार्यालय के अनुशासन से भी बंधा है। इसके बावजूद भी यदि राजभाषा अधिकारी उक्त मानदंडों पर खरा नहीं उतरता है तो वह अनुशासित नहीं है अर्थात प्रभावशाली राजभाषा कार्यान्वयन के लिए सक्षम नहीं है।

धीरेन्द्र सिंह.

रविवार, 29 मार्च 2009

राजभाषा तथा हिंदी साहित्यकार.

एक युग वह भी था जब हिंदी कार्यालयों की देहरी तक भी अपना प्रभाव निर्मित नहीं कर सकी थी। एक सामान्य धारणा थी कि हिंदी बातचीत और गानों-बजानों की भाषा है। यह मान्यता भी निर्मित हो चुकी थी कि हिंदी में कारोबारी अभिव्यक्तियाँ संभव नहीं है । भारतीय संविधान की व्यवस्था के अन्तर्गत राजभाषा नीति के कार्यान्वयन के लिए सरकारी कोशिशें शुरू हुई तथा हिन्दी की एक नई विधा - राजभाषा का प्रादुर्भाव हुआ। अधिकांशत: हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी अथवा हिंदी माध्यम से शिक्षा प्राप्त हिंदीसेवी राजभाषा अधिकारी के पद पर राजभाषा कार्यान्वयन के दायित्वों का निर्वाह करना आरम्भ किया। कार्यालयीन परिवेश की विभिन्न अभिव्यक्तियों के लिए हिंदी में शब्द उपलब्ध नहीं थे जिसका कारण स्पष्ट था कि पहले हिंदी कभी भी सरकारी कामकाज की भाषा नहीं थी। राजभाषा के नए-नए शब्दों पर काफी टिप्पणियाँ आनी शुरू हुई और राजभाषा पर यह आरोप लगाया गया कि यह दुरूह शब्दावलियों से भरी हुई है। ऱाजभाषा को विभिन्न विशेषणों से संबोधित करते हुए राजभाषा अधिकारियों पर अंगुलियां उठने लगी। भाषागत यह एक विकट स्थिति थी।

कार्यालय के विभिन्न विषयों के लिए निर्धारित अलग-अलग शब्दावलियों के बीच में आम बोलचाल की हिन्दी शब्दावली ठगी सी खड़ी होकर अपरिचित शब्दों को देखती रही। प्रयोगकर्ता इन शब्दों को देखकर विचित्र भाव-भंगिमाएं बनाते थे। परिणामस्वरूप अधिकांश समय यह नए शब्द प्रयोगकर्ता की देहरी तक ही पहुँच कर आगे नहीं बढ़ पाते थे और आज भी लगभग यही स्थिति है। भाषाशास्त्र के अनुसार यदि शब्दों का प्रयोग न किया जाए तो शब्द लुप्त हो जाते हैं। तो क्या राजभाषा के अनेकों शब्द प्रयोग की कसौटी पर कसे बिना ही लुप्त हो जाएंगे ? यह आशंका अब ऊभरने लगी है जबकि राजभाषा अधिकारियों की राय में इस प्रकार की सोच समय से काफी पहले की सोच कही जाएगी। राजभाषा अधिकारियों का तो कहना है कि राजभाषा की पारिभाषिक, तकनीकी आदि शब्दावलियों का खुलकर प्रयोग हो रहा है। एक हद तक यह सच भी है क्योंकि इन शब्दावलियों के प्रयोगकर्ता राजभाषा अधिकारी ही हैं। इन शब्दावलियों का अधिकांश प्रयोग अनुवाद में किया जाता है जिसे कर्मचारियों का छोटा प्रतिशत समझ पाता है। राजभाषा कार्यान्वयन की इसे एक उपलब्धि माना जाता है तथा कहा जाता है कि इन शब्दावलियों को कर्मी समझ रहे हैं अतएव इन शब्दावलियों को स्वीकार किया जा रहा है। सकार और नकार के द्वंद्व में राजभाषा ऐसे प्रगति कर रही है जैसे तूफानी दरिया में एक कश्ती। राजभाषा अधिकारी चप्पू चलाता मल्लाह की भूमिका निभाते जा रहा है।

उक्त के आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि राजभाषा अनुवाद की भाषा बन रही है ? इस पर भी अलग-अलग प्रतिक्रियाएं हैं। एक वर्ग का कहना है कि राजभाषा शब्दावली एक बेल की तरह अंग्रेज़ी के सहारे विकास कर रही है जबकि दूसरे वर्ग की राय है कि हिंदी में मौलिक रूप से राजभाषा में लेख आदि लिखे जा रहे हैं अतएव राजभाषा अपने अलग व्यक्तित्व को लेकर विकास कर रही है। यदि राजभाषा में इतना कार्य हो रहा है तो क्या यह शब्दावली सामान्य व्यक्ति तक पहुँच पा रही है ? यह एक स्वाभाविक प्रश्न है क्योंकि राजभाषा कार्यान्वयन सरकारी कार्यालयों, बैंकों आदि में हो रहा है जिससे अधिक संख्या में आम आदमी जुड़ा हुआ है अतएव प्रजातंत्र में जनसामान्य की भाषा का प्रयोग कितने हद तक सफल है इसकी भी समीक्षा की जानी चाहिए। एक स्वतंत्र समीक्षा जो विभिन्न आवधिक रिपोर्टों से अलग हो। इससे राजभाषा कार्यान्वयन की एक स्पष्ट तस्वीर ऊभरेगी तथा राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े कर्मियों को प्रोत्साहन तथा दिशानिर्देश भी प्राप्त होगा। फिलहाल यह मान लेना चाहिए कि विभिन्न कार्यालयों द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं आदि के माध्यम से राजभाषा का स्वतंत्र विकास हो रहा है। यदि राजभाषा का सर्वांगीण विकास हो रहा है तो इस लेख का आशय क्या है? इस लेख का एक आशय राजभाषा के सरलीकरण का भी है। विभिन्न मंचों से समय-समय पर राजभाषा में सरल शब्दावली के प्रयोग की चर्चा होती रहती है। इस दिशा में हिंदी के साहित्यकार काफी सहायक साबित हो सकते हैं। अपनी रचनाओं में राजभाषा का प्रयोग कर राजभाषा शब्दावली को और लोकप्रिय बना सकते हैं।

हिंदी के साहित्यकार अपनी रचनाओं में जब कभी भी सरकारी कार्यालयों के पात्रों का सृजन करते हैं तो अक्सर वह पात्र अंग्रेज़ी मिश्रित भाषा बोलता है जबकि रचनाकार यदि राजभाषा की कुछ शब्दावलियों का प्रयोग करें तो पाठक राजभाषा की शब्दावली को सहजता से स्वीकार कर सकता है। यह मात्र एक संकेत है। राजभाषा की शब्दावली को आसान करना तर्कपूर्ण नहीं है क्योंकि सरलीकरण के प्रयास से अर्थ का अनर्थ होने की संभावना रहती है। केन्द्रीय सरकार के विभिन्न कार्यालयों, उपक्रमों तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन के सघन प्रयास किया जा रहा है यदि हिंदी साहित्यकार भी इस प्रयास में योगदान करें तो राजभाषा की शब्दावली अपनी दुरूहता तथा अस्वाभाविकता के दायरे से सफलतापूर्वक बाहर निकल सकती है।

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 23 मार्च 2009

राजभाषा चौक

महानगरों तथा नगरों में राजभाषा चौक का अस्तित्व पाया जाता है। यह चौक पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से लगातार अपनी उपस्थिति में वृद्धि करते हुए प्रगति दर्ज़ करते जा रहा है। राजभाषा चौक एक विशिष्ट चौक है जिसका अस्तित्व सूक्ष्म है पर प्रभाव व्यापक है। यह चौक अपनी परिधि के अंतर्गत चलायमान है अर्थात धरती की तरह अपनी ध्रुरी पर घूमनेवाला यह एक ऐसा विलक्षण ग्रह है जिसे खगोलशास्त्री तक नहीं पकड़ पाए हैं। यह उल्लेखनीय है कि खगोलशास्त्रियों की नज़रों से बचा हुआ राजभाषा चौक नामक यह ग्रह सक्रियतापूर्वक भारत के सभी शास्त्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में व्यस्त है और प्रगति भी कर रहा है। यह चौक चूँकि सूक्ष्म है इसलिए इसको विशेष वर्ग के लोग ही देख सकते हैं जबकि सार्वजनिक तौर पर इसका अनुभव किया जा सकता। इस विशेष वर्ग में प्रमुखतया केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों के कर्मी हैं जो इस चौक से पूरी तरह से वाकिफ हैं। किसी भी नगर में इस चौक को स्थापित करने के लिए संबंधित राज्य से अनुमति नहीं लेनी पड़ती है बल्कि केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग से अनुमति प्राप्त करनी पड़ती है। सामान्यतया एक नगर में केवल एक नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के गठन की अनुमति प्राप्त होती है। इस नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति को में राजभाषा चौक के नाम से अभिव्यक्त कर रहा हूँ।

पक नगर के एक कार्यालय में राजभाषा चौक की धुरी स्थापित होती है जहाँ से इस चौक के संयोजन का कार्य होता है। इस चौक के अध्यक्ष तथा सदस्य-सचिव भी इसी कार्यालय में पदस्थ होते हैं। सामान्यतया चौक के संचालन का दायित्व सदस्य-सचिव का होता है जबकि अध्यक्ष नियंत्रण बनाए रखते हैं। गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय के सतत् निगरानी में नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति कार्यरत रहती है। इस प्रकार से चौक की गतिविधियों को संचालित किया जाता है। इस चौक पर हर किसी को आने की अनुमति नहीं है बल्कि राजभाषा चौक के सदस्य अथवा उनके प्रतिनिधि ही चौक पर विचरण कर सकते हैं। विचरण शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि वर्तमान में अधिकांश सदस्य इस चौक पर केवल विचरण करते ही पाए जाते हैं। बहुत कम सदस्य सक्रियतापूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर पाते हैं। एक समय वह भी था जबकि चौक की चमक से नगर के कार्यालयों की राजभाषा दीप्ति में चार चाँद लगा रहता था जबकि आज चौक एक अनियंत्रित गहमागहमी से भरा हुआ है। एक सक्षम, समर्थ चौक जिसके बल पर नगर में राजभाषा की मशाल प्रखरतम की जा सकती है आज अपनी क्षमता के अत्यधिक कम उपयोग से मन ही मन आहत नज़र आता है। चौक सदस्य-सचिव के हवाले कर अधिकांश सदस्य केवल विचरण करते ही नज़र आते हैं।

वर्ष में छमाही आधार पर दो बार राजभाषा चौक की बैठकें आयोजित होती हैं। इस बैठक में राजभाषा की व्यापक और सारगर्भित समीक्षा होती है, भविष्य के आयोजनों के निर्णय लिए जाते हैं। चौक के सदस्य कार्यालयों के प्रमुख अपनी उपलब्धियों को उत्साहपूर्वक चौक के अभिलेख में प्रविष्ट कराते हैं। एक बेहतरीन योजना बनाई जाती है और उसके सफल कार्यान्वयन का वायदा कर सभा समाप्त होती है। नगर में राजभाषा कार्यान्वयन को नई उर्जा, नई दिशा आदि प्रदान करने में इस चौक का उल्लेखनीय योगदान रहता है। चौक की जब बैठक आयोजित होती है तो चौक झूम उठता है। सदस्य-सचिव की भाग-दौड़ चौक की बैठक को गंभीरता प्रदान करते रहता है। राजभाषा अधिकारियों का झुंड एक तरफ अपने सुख-दुःख की चर्चा करते हुए अपनी बेबाक समीक्षाओं में खोया रहता है। विभिन्न कार्यालयों के उच्चाधिकारी अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए फाईलों में डूबे रहते हैं। यहाँ पर एक बौद्धिकतापूर्ण गंभीरता पसरी रहती है, अपने-अपने दायरे को बखूबी बयाँ करते हुए। बीचृ-बीच में सबकी नज़रें सदस्य-सचिव को तलाशते रहती हैं क्योंकि सदस्य-सचिव की गतिविधियाँ बैठक के आरम्भ होने के समय का संकेत देती रहती हैं। चौक जगमग-जगमग करते रहता है।

अचानक फोटोग्राफर सक्रियतापूर्वक कैमरे के लेन्स को व्यवस्थित करते हुए फोटो मुद्रा में प्रवेश करता है और सभी राजभाषा अधिकारी अपनी-अपनी जगह पकड़ लेते हैं। यह गतिविधि अध्यक्ष, अतिथियों आदि के आगमन का स्पष्ट संकेत होता है। तालियां बजती हैं, अध्यक्ष आदि मंच को सुशोभित करते हैं। ऐसे अवसरों पर अक्सर तालियाँ थकी-थकी सी लगती हैं जैसे एक ऐसी औपचारिकता का निर्वाह कर रही हैं जिसकी वह अभ्यस्त हो चुकी हैं। सदस्य-सचिव द्वारा कार्यवाही आरम्भ की जाती है तथा निर्धारित परम्परा के अनुसार बैठक गतिशील होती है। वार्षिक कार्यक्रम के अनुसार हिंदी पत्राचार के लक्ष्य प्राप्त करनेवाले कार्यालय की प्रशंसा में तालियाँ बजती है तथा उस कार्यालय के उच्चाधिकारी आश्चर्यचकित होकर सभा को देखते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि कार्यालय के सभी पत्रों पर प्राय: उनका हस्ताक्षर रहता है फिर हिंदी में इतने सारे पत्र कब और कैसे लिखे गए ? उन्हें भी मालूम रहता है कि ऐसे प्रश्नों के उत्तर चौक में नहीं दिए जाते हैं इसलिए जो हो रहा है उसे होने दें, शायद चौक की यही परम्परा भी है। इस सोच के विश्लेषण की आवश्यकता है। यदा-कदा ही उच्चाधिकारियों को चौक में बोलते हुए सुना जाता है अन्यथा उनकी भूमिका एक आवश्यकता पूर्ति की ही होती है।

चौक में एक व्यक्ति हमेशा तनावपूर्ण व्यस्त रहता है तथा जो सदस्य-सचिव के चेहरे पर स्पष्ट झलकते रहता है। बैठक ठीक-ठाक संपन्न होने की चिंता की चादर में लिपटे सदस्य-सचिव की व्यथा को किसी से क्या लेना-देना ? अपने-अपने कार्यालय की सबको पड़ी रहती है तथा सदस्य़ यह भूल जाते हैं कि चौक किसी एक का नहीं है बल्कि यह साझा है। चौक की पत्रिका प्रकाशित की जानी है तो यह सदस्य-सचिव जाने, राजभाषा कार्यान्वयन के विभिन्न आयोजन किए जाने हैं तो सदस्य-सचिव सोचे, हमें क्या ? इस बेरूख़ी से सदस्य-सचिव कभी अपना दुःख प्रकट नहीं करता है इसलिए नहीं कि वह कर नहीं सकता बल्कि इसलिए कि चौक के दायित्वों की समन्वयक की भूमिका का निर्वाह जो करना है। सबको पुष्पों की तरह चौक में पिरोए रखना सदस्य-सचिव का सर्वप्रमुख कार्य जो है। अधिकांश सदस्यों की चौक उत्सवों में सहभागिता अपने कार्यालय को शिकायतमुक्त रखने तथा चौक के पुरस्कार पाने तक ही सीमित है। किसी अन्य दायित्व से जितना बचा जा सके उतना अच्छा है का सिद्धांत अब तक सदस्यों को सफलता देते आया है। इस सोच को परिवर्तित करने का दायित्व भी यदि सदस्य-सचिव पर डाला जाए तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि सदस्य-सचिव का भगवान भला करे।

नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति को नराकास के रूप में संचालित करनेवाली समितियों की संख्या काफी कम है। यदि देश की सभी नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियाँ पूर्णतया सक्रिय होकर तथा सभी सदस्यों के रचनात्मक सहयोग के साथ कार्य करें तो निश्चित ही राजभाषा चौक जैसा विचार लुप्त हो जएगा तथा नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति अपने उद्देश्यों को बखूबी निभा पाएगी। यदि सभी राजभाषा अधिकारी एक साथ मिलकर राजभाषा कार्यान्वयन के लिए कार्य नहीं करेंगें तब तक राजभाषा चौक की सोच समाप्त नहीं हो सकती है। उपलब्धियों का कोई अन्त नहीं है, संभावनाओं की कोई सीमा नहीं है तथा क्षमताओं की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है क्या इन मूलभूत बातों की चर्चा चौक के लिए प्रासंगिक और शोभनीय है ? स्वप्रेरणा और स्वपहल के आकाश तले,
कीर्तिमानों के पताकों के साथ खड़ी है एक निनाद की प्रतीक्षा में, एक हुंकार के आगाज़ में। राजभाषा चौक भौंचक हो दिग्भ्रमित राजभाषा अधिकारियों की गतिविधियों को मूक हो निरख रहा है और वक्त इतिहास में सब यथावत दर्ज़ करते जा रहा है।
धीरेन्द्र सिंह.

रविवार, 15 मार्च 2009

तरन्नुम-ए-कपास

कपास के विभिन्न रूपों को लोग बखूबी जानते हैं पर बहुत कम लोगों को जानकारी है कि कपास के विभिन्न गुणों में एक गुण इसके तरन्नुम का है। कपास और तरन्नुम ? कृपया चौंकिए मत। आज जबकि देश में विभिन्न नई योजनाओं, नवोन्मेषी कल्पनाओं का दौर चल रहा है तब ऐसी स्थिति में कपास में नवोन्मेषी गुण न निकले, भला यह कैसे संभव हो सकता है ? इस सोच को अभी मूर्त रूप दिए देता हूँ फिर आप ही बोल पड़ेंगे कि "अरे हॉ, यह तो सब जानते हैं"। रूई को धुनते समय धुन्न,धुन्न,धुन्न की आवाज़ से कौन अपरिचित हो सकता है ? कपास की सफाई करते समय तार से टकरानेवाली अंगुलियॉ इस धुन के सिवा कोई और धुन निकाल ही नहीं सकती। रूई की धुनाई के समय तार से टकरा-टकराकर अंगुलिया कौन सी धुन निकालती हैं इस पर संगीत ज्ञाता शोध कर सकते हैं, सितार, वायलिन, गिटार आदि बजाते समय चलनेवली अंगुली तथा कपास की सफाई के समय तार से सपर्क करनेवाली अंगुलियों में तारसप्तक के कौन से सुर समान हैं, यह संगीतशास्त्री ही बखूबी समझा सकते हैं।


ना, ना ऐसा बिलकुल मत सोचिए कि रूई धुनक्कड़ से मिलकर ही कपास का सुर सुनाई पड़ता है। सच्चाई तो यह है कि कपास धुन देश, काल, समय, आदि से परे है। व्यक्ति चाहे जागता रहे अथवा सोता रहे तरन्नुम-ए-कपास बदस्तूर जारी रहता है। यह अपने वजूद को कभी तकिए में दिखाता है, कभी गद्दे में तो कभी तेल के रूप में तो कभी मंदिर के दिए की बाती के रूप में, कभी शारीरिक जख्म पर अपनी कोमलता का स्पर्श देते हुए, कभी भावनात्मक आंधियों में इत्र के फाहे के रूप में सुगंध बिखेरते हुए आदि अनेक रूप और अंदाज़ में कपास जिंदगी के प्रत्येक पहलू की 'तपास' (जॉच) करते रहता है। कहा जाता है कि सफेद रंग सभी रंगों का सरताज़ है ठीक उसी तरह कपास भी जीवन के ऊँचे तख़्त का बेताज बादशाह है। एक ऐसा बादशाह जिसके अहसास से इंसानों की सॉस-सॉस जुड़ी है पर उसमें खामोशी है। एक ऐसी खामोशी जिसे सब कुछ मालूम है, एक ऐसी शांति जो जीवन हर ढंग में हमेशा शांति ही लाती है। इसे यदि कपास की महानता न कहें तो और कौन सा नाम देंगे ?

कपास की शक्ति को हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी पहचाना और चरखे के साथ जोड़कर कपास को देश के सुदूर गॉवों में पहुँचाकर एक ·ोत आर्थिक शांति का सूत्रपात किया। महिलाओं को आर्थिक आज़ादी का सुख प्रदान किया। कपास का यह तरन्नुम महिलाओं विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के होंठों पर गीत बनकर उमड़ा जिसकी धुनें आज भी गॉवों में बदस्तूर जारी हैं। कपासीय परिधान वर्तमान आधुनिकता की दौड़ में भी अपनी विशेष पहचान बनाए हुए है। प्राय: जीवन में यही होता है कि सर्वव्यापी की आम चटपटी चर्चाएॅ नहीं होतीं, उसका आकर्षक चित्तमोहक चतुरदर्शनी प्रदर्शन नहीं होता बल्कि वह एक तरंग, उमंग के साथ जीवन के प्रवाह में समरस हो जाती है, जैसे कि मानव जीवन में कपास। यह सर्वविदित है कि कपास कृषि ने किसानों के जीवन में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।

जीवन में सुख-दुख आते-जाते रहते हैं परन्तु यह आवश्यक है कि दुखों को सहने की शक्ति मिले। कपास की दुख भंजन क्षमताओं से व्यक्ति बखूबी परिचित है। सोचिए कि यदि खेलते समय लगी खरोंच पर कोई दवा लगानी होती है तो कपास की खोज शुरू हो जाती है और प्रत्येक घर में यह बहुत संभाल कर रखा जाता है। जैसा कि आप सब लोग जानते हैं कि संभाल कर रखी गई वस्तु ढूँढते समय जल्दी नहीं मिलती तो प्राय: घरों में कपास शोधन में भी ऐसा ही होता है और अंतत: उपलब्धि मिलती है। इसके अतिरिक्त खूबसूरती को निखारने के लिए, रूप को सॅवारने के लिए भी कपास अपनी अहम भूमिका निभाता है जिससे सौंदर्य गुनगुनाता है और व्यक्तित्व निखर जाता है। गौरतलब है कपास की सादगी। वस्तुत: यदि रगों की दुनिया पर शोध किया जाए तो संपूर्ण वि·ा में प्रसारित ·ोत, धवल सी सौम्य-शांति का उद्भव, उद्गम और उत्कर्ष केवल कपास के द्वारा ही हुआ है। अतएव, इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वि·ा शांति का अग्रदूत कपास है, चूँकि अपनी कोमलता के कारण यह उड़ नहीं सकता इसलिए परिस्थितिजन्य व्यवहारिक कठिनाईयों को देखते हुए यह स्थान कबूतर को प्रदान कर दिया गया।
इश्क की दुनिया में कपास का एकछत्र राज्य है जिसके कारण शायरी, गज़ल, नज्म, गीत आदि में मदहोश कर देनेवाली खुश्बू छा गई। साठ के दशक में कपास को इत्र में डूबोकर कान में फिट कर महक का मौज बिखेरता आशिक जब अपने दिल पर अपनी हथेली रख कर अपनी माशूका से बातें करता था तब फिज़ाओं में भी खलबली मच जाती थी। उद्यान के रंग-बिरंगे पुष्पों ने विरोध में अपनी एक यूनियन तक बना डाली तथा निर्णय लिया कि इत्र के विरूद्ध लड़ाई शुरू की जाए। यह लड़ाई का सिलसिला कुछ दिनों तक चला, फूलों ने अपने रंगों को और चमकीला बनाया, अपनी खुश्बू को और मादकता में डूबोया किंतु सफलता न मिली और फिर कहीं से उनके सूचना तंत्र ने खबर दी कि इत्र से कहीं ज्यादा भूमिका तो कपास की है जो इत्र को अपने में इस तरह छुपा लेता है कि उसकी महक दिनभर फैलती रहती है और हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। पुष्प यूनियन के पास इसका उत्तर नहीं था अतएव उनकी यूनियन टूट गई और कपास के कारण इत्र इश्क की दुनिया में बरकरार रहा।

जन्म से लेकर मृत्यु तक कपास की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कपास और जिंदगी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शिशु कोमल, सुंदर, मासूम होता है उसी तरह खेत में उपजी कपास फसल भी कोमल, मासूम और शुभ्र होती है। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होते जाता है वैसे-वैसे ज़िंदगी उसे अपने रंग में रंगते जाती है और अंतत: वृद्धावस्था आता है जहॉ पर शिशु का रूप-रंग-ढंग सब बदल जाता है इसी तर्ज़ पर कपास भी अपना रंग-रूप बदलता है खेत का शुभ्र, कोमल कपास जब व्यवहार में उपयोग लाया जाता है तो उसके रंग और कोमलता में परिवर्तन हो जाता है तथा ऐसा लगता है कि कपास एक लंबी संघर्षपूर्ण और महत्वपूर्ण जीवन यात्रा कर के आया है। एक संदेश, एक दर्शन के साथ कपास यह संकेत देता है कि जीवन की यात्रा में जुगलबंदी की महत्वपूर्ण भूमिका है तथा बगैर तरन्नुम के जीवन में कोई भी बड़ा काम नहीं हो सकता है। कपास यह भी बतलाता है कि जिंदगी में जहॉ कहीं भी तरन्नुम मिल जाता है वहीं पूर्णता आ जाती है। कपास का यह संदेश लगातार संसार को मिल रहा है, कपास बेधड़क अपनी मखमली यात्रा कर रहा है। आईए, हम सब भी कपासमय हो जाएॅ और शुभ्र-धवल परिवेश में एकाग्रचित्त होकर अपनी अंतर्यात्रा करें।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 9 मार्च 2009

अलसाया मौसम

मौसम के अलसाया होने से अनेकों प्रभाव होते हैं तथा एक खामोश उदासी लिपटी रहती है। मौसम के मिज़ाज को दो लोग बखूबी पढ़ते रहते हैं या यूँ कहें कि मौसम से दो लोग बहुत जल्दी प्रभावित होते हैं एक तो मौसम विभाग तथा दूसरे कवि। मौसम में जो उतार-चढ़ाव आते रहता है उनमें इन दोनों की उल्लेखनीय भूमिका होती है। प्राय: लोग कहते हैं कि जब मौसम विभाग बारिश की चेतावनी देता है उस दिन धूप खिली हुई रहती है तथा जब दिन के खुले मौसम की घोषणा होती है तब बदरिया अटरिया पर आकर बूँद नर्तन कर नेह संदेसा देते रहती है। बात यहीं तक रूक जाती तब भी मौसम के लिए ठीक था, उसमें अलसायेपन की उतनी तासीर नहीं आती जितनी कवियों के मौसम संबंधी कविताओं में झलकती है। सुबह की खिली धूप को नायिका के भोर की निगाहों की चमक बतलाना इन कवियों की ही आदत है। दुपहरिया कवियों के लिए तेज धूप की चिलचिलाती गर्मी नहीं रहती है बल्कि वह नायिका के यौवन का तेज होता है। शाम उनके लिए नायिका की झुकी पलकें लगती है तो रात्रि नायिका के खुले केश नज़र आती है। इसके बावजूद भी यह कहना कि मौसम अलसाया है, कितना यथार्थपरक है इसको सहज समझा जा सकता है।
सिंह

मौसम ! जो केवल जलवायु के स्पंदनों को दर्शाने तक सीमित नहीं रह गया बल्कि मौसम ज़िंदगी के हर गलियारे में पहुँच गया है जैसे गाड़ी मौसम में है, ऑफिस का मौसम गड़बड़ है आदि। बात यदि ऑफिस के मौसम का करें तो थोड़ी दिलचस्पी बढ़ेगी क्योंकि हम सब किसी न किसी कार्यालय से संबद्ध है। कार्यालय के मौसमी मिज़ाज को अंदाजनेवाले तथा कार्यालयीन लय पर गुनगुनानेवाले प्रत्येक कार्यालय में अच्छी संख्या में मिल जाएंगे किन्तु इनमें यदि सर्वश्रेष्ठ की तलाश की जाए तो खोज राजभाषा अधिकारी पर जाकर समाप्त होती है। एक सम्पूर्ण खोज, एक मुकम्मल मुकाम। राजभाषा अधिकारी उर्फ हिंदी अधिकारी उर्फ हरफनमौला वगैरह-वगैरह कई नाम हैं। नहीं-नहीं यह सिर्फ नाम नहीं है बल्कि एक संभावना है, एक मंज़िल है, जंगल में गुजरती एक राह है, हसरतों का कारवॉ है, उपलब्धियों की छॉह है। यह चाहे तो कार्यालय में उत्सवमय वातावरण बना दे, यह चाहे तो कार्यालय में निरीक्षणमय वातावरण बना दे अर्थात यह जब चाहे तब कार्यालय के मौसम को प्रभावित करने के मौसम की रचना रच सकता है। कार्यालय के अधीनस्थ से लेकर उच्चतम अधिकारी तक अपनी व्यापकता रखनेवाला कार्यालय के गिने-चुने लोगों में से एक है। राजभाषा अधिकारी कार्यालय में पॉकेट साइज पॉवर हाऊस है। अजी नहीं, यह अतिशयोक्ति क़तई नहीं है।

कार्यालयीन इतिहास में 1970 और 80 का दशक राजभाषा अधिकारियों का स्वर्णिम युग था। इन दो दशकों में राजभाषा को एक व्यापक आयाम मिला, राजभाषा के पुष्पन तथा पल्लवन के लिए उपजाऊ ज़मीन मिली, लोकप्रियता के शीर्ष पर राजभाषा आसीन हुई और राजभाषा अधिकारी एक नायक के रूप में अपनी छवि निर्मित करने में कामयाब रहा। यह राजभाषा का एक खुशनुमा मौसम था। राजभाषा अधिकारी के अथक प्रयासों का अनमोल परिणाम मिल रहा था तथा कार्यालय में राजभाषा मन्दाकिनी की तरह अपनी तासीर में कर्मियों को सराबोर कर अपनी क्षमताओं और संभावनाओं से बखूबी परिचित करा रहा था। राजभाषा अधिकारी की अपने कार्यों के प्रति लगन, उत्साह और उल्लास से कार्यालय का मौसम प्रभावित होते रहता था तथा राजभाषा अधिकारी अपने समर्पित कार्य प्रतिबद्धता के बल पर सबका चहेता बन गया था। जी नहीं, अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझकर यहाँ 'था' शब्द का प्रयोग किया जा रहा है क्योंकि अब वह मौसम ढूँढे बमुश्किल मिल रहा है। ऐसा क्यों हुआ के कारण अनेक हैं जिसके केन्द्रबिन्दु में राजभाषा अधिकारी है परन्तु सत्यता यही है कि कार्यालयों में अब राजभाषा का पुराना खुशनुमा मौसम नहीं रह गया है।

मौसम कभी भी अचानक अपना रंग नहीं बदलता, समर्पण कभी भी अपना ढंग नहीं बदलता तथा विशेषज्ञ कभी भी अपना तरंग नहीं बदलता तो फिर यह राजभाषा का खुशनुमा मौसम कैसे बदल गया मतलब ऐसा बदल गया कि वर्षों से वापस आया ही नही। शरबती वाक्य रचनाओं से श्रोताओं की दृष्टि में प्रशंसात्मक भाव उत्पन्न करनेवाला राजभाषा अधिकारी 70 और 80 के दशक के मौसम को निर्मित करने में कामयाब नहीं हो पा रहा है, यह सर्वविदिति गोपनीय तथ्य है। राजभाषा नीति और राजभाषा कार्यान्वयन का कुशलतापूर्वक ताना-बाना बुननेवाला राजभाषा अधिकारी आज वह प्रदर्शन क्यों नहीं कर पा रहा है ? एक बार फिर वही उत्तर कि, यह सर्वविदित तथ्य है। चिर-परिचित कहावत है कि शोहरत और कामयाबी के नशे से खुद को बचाकर निकाल ले जाना संयत, सुलझे तथा समन्वयशील व्यक्तित्व का कार्य है। यदि इस कहावत की कसौटी पर राजभाषा अधिकारियों को कसा जाए त अधिकांश राजभाषा अधिकारी अपने खरेपन को साबित करने में काफी कठिनाईयों का अनुभव करेंगे। बदलते समय के साथ राजभाषा अधिकारियों ने भी अपनी कार्यशैली में निखार लाने का प्रयास किया। चूँकि प्रत्येक परिवर्तन के लिए किसी न किसी आधार की आवश्यकता होती है अतएव राजभाषा ने आधार की जब तलाश शुरू की तोकार्यालय से बेहतर आधार कोई न मिला और परिवर्तन के दौर में कब कार्यालय और राजभाषा रसमय हो गए पता ही नहीं चला। इसका परिणाम यह हुआ कि नए रस के पाग में पकते हुए राजभाषा अधिकारी आहिस्ते-आहिस्ते राजभाषा के केन्द्र बिन्दु से खिसकते गए तथा अपने-अपने कार्यालय के दूसरे कार्यों को सीने से लगा बैठे। यह सिलसला अब भी जारी है और राजभाषा अपने ही के हॉथों की बनी लाचारी है।

मौसम अचानक नहीं बदलता है। तो क्या राजभाषा अधिकारी अचानक बदल गए हैं ? यदि नहीं तो कार्यालयों में राजभाषाई मौसम अलसाया सा क्यों नज़र आ रहा है ? ऐसा क्यों हल्का-हल्का महसूस होने लगा है कि राजभाषा हाशिए पर जा रही है। क्यों हो रही है ऐसी अनुभूति ? कौन हो सकता है जिम्मेदार ? किन कारणों से 70 और 80 के दशक के राजभाषा गुंजन के सुर-लय-ताल भूली-बिसरी सी कहानी लग रही है ? यदि देखा जाए तो इस तरह प्रश्नों का एक विशाल ज़खीरा खड़ा हो जाएगा जो भूल-भुलैया की तरह उलझाते रहेगा किंतु संतोषप्रद जवाब नहीं दे पाएगा। तो फिर इस तरह के प्रश्नों को उठाना बंद कर दिया जाना चाहिए ? नहीं, हर्गिज नहीं, बल्कि इस तरह के प्रश्नों की जड़ तक पहुँचना चाहिए। इस तरह की उलझनों को दूर करने की कोशिश की जानी चाहिए। कौन है इन प्रश्नों के जड़ में ? व्यक्ति या परिस्थितियाँ ? नि:संदेह इसके जड़ में व्यक्ति है और वह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि राजभाषा अधिकारी हैं।

विश्व के बदलते मौसमों के बीच राजभाषा कार्यान्वयन के मौसम के नब्ज पर से राजभाषा अधिकारियों की पकड़ या तो छूट गई है अथवा पकड़ ढीली होती जा रही है। संविधान से निकलती राजभाषा कार्यान्वयन की अनुगूँज प्रेरणा और प्रोत्साहन के आधार पर राजभाषा अधिकारियों को निरंतर प्रयास और प्रगति का स्पष्ट संकेत देते जा रही है किन्तु राजभाषा के सिपाही अलसाए हुए से लगने लगे हैं। इन प्रतिबद्ध सिपाहियों की क्षमताएॅ कभी भी प्रश्न चिन्ह के दायरे में नहीं आई किन्तु सिपाही जरूर आए। राजभाषा अधिकारी आज कुछ थके-थके, कुछ परेशान-हैरान से लगने लगे हैं। अपनी राजभाषा की प्रतिबद्धताओं से विचलित नज़र आ रहे हैं। कहावत है कि जब जागो तभी सवेरा, इसलिए क्षमतावान, प्रतिभावान तथा हरफनमौला राजभाषा अधिकारियों उर्फ हिंदी अधिकारियों को राजभाषा के परिप्रेक्ष्य मेंस्वंय के गहन समीक्षा की आवश्यकता है। राजभाषा के इस अलसाए मौसम में भी राजभाषा की वसंत ऋतु समर्पित राजभाषा अधिकारियों की वही पुरानी क्षमताओं में स्वंय को रंगने की राह देख रही है। वक्त का तकाज़ा भी यही है और निर्णय - सिर्फ और सिर्फ राजभाषा अधिकारी उर्फ हिंदी अधिकारी पर ही निर्भर है।

धीरेन्द्र

रविवार, 1 मार्च 2009

हिंदी कार्यशाला - आयोजन एवं संयोजन

विभिन्न केन्द्रीय कार्यालयों, उपक्रमों, सरकारी बैंकों में राजभाषा कार्यान्वयन की एक चुनौती हिंदी में कामकाज करने का प्रशिक्षण प्रदान करना है। सामान्यतया अधिकांश कर्मचारी अपने टेबल का कार्य अंग्रेजी में ही करना पसन्द करते हैं। अंग्रेजी में कार्य करने के दो प्रमुख कारण है – पहला कारण अंग्रेज़ी भाषा में कार्य करने की आदत है तथा दूसरा कारण अंग्रेज़ी भाषा को एक बेहतर भाषा मानने की मानसिकता है। हिंदी कार्यशाला प्रमुखतया इन्हीं दो पक्षों पर केन्द्रित रहती है। यह प्रशिक्षण न्यूनतम एक दिवस से लेकर अधिकतम सात दिनों का रहता है। यद्यपि वर्तमान में सामान्यतया यह 2 अथवा 3 दिवसीय होती है। विशेष परिस्थितियों में एक दिवसीय कार्यशालाएँ आयोजित की जाती है।

हिंदी कार्यशाला अधिकारियों तथा लिपिकों के लिए अलग-अलग आयोजित की जाती है। अलग-अलग आयोजन का उद्देश्य इन प्रवर्गों के अलग-अलग कार्यप्रणाली के कारण है। कहीं-कहीं अधिकारियों तथा लिपिकों की संयुक्त कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं जिसे व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता है। इस कार्यशाला का प्रथम चरण नामांकन का होता है जिसमें हिंदी के कार्यसाधक ज्ञान कर्मचारियों को ही नामित किया जाता है। मैट्रिक स्तर तक एक विषय के रूप में हिंदी का अध्ययन अथवा प्राज्ञ परीक्षा उत्तीर्ण या लिखित घोषणा को हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान माना जाता है। इस नामांकन में यह भी ध्यान रखना होता है कि नामित कर्मचारी को पिछले 5 वर्षों तक हिंदी कार्य़शाला में प्रशिक्षण हेतु नामित नहीं किया गया हो। प्रत्येक वर्ष हिंदी कार्यशालाओं के लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं तथा तदनुसार कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं अतएव यह प्रतिवर्ष जारी रहनेवाला कार्यक्रम है।

विषयों का चयन कार्यशाला में नामित कर्मचारियों के अनुरूप होता है। कार्यशाला का पहला सत्र भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के वार्षिक तथा राजभाषा नीति का होता है। यह अत्यधिक महत्वपूर्ण सत्र है तथा इसमें काफी चर्चाएँ होती हैं। कार्यशाला की सफलता बहुत कुछ इस सत्र की सफलता पर निर्भर करती है। राजभाषा संबंधी स्पष्टता, राजभाषा नीति को व्यापकता से समझना तथा भाषा संबंधी सकारात्मक मानसिकता को यह सत्र बखूबी पूर्ण करता है। इसके बाद शब्दावली, हिंदी पत्राचार, प्रोत्साहन योजनाएँ. आंतरिक कामकाज में हिंदी का प्रयोग, प्रौद्योगिकी में हिंदी आदि विषयों का समावेश किया जाता है। इस प्रकार नामित कर्मचारियों को हिंदी में चर्चा करने, हिंदी में लिखने तथा कम्प्यूटर पर हिंदी में कार्य करने आदि का पूर्ण और उपयोगी अवसर मिलता है।

हिंदी कार्यशाला के प्रशिक्षकों पर कार्यशाला का पूरा दारोमदार रहता है। हिंदी कार्यशालाओं के प्रशिक्षक राजभाषा अधिकारी या हिन्दी अधिकारी होते हैं। राजभाषा अधिकारी के ज्ञान, अभिव्यक्ति कौशल, विषय प्रतिपादन, प्रश्नों के सार्थक समाधान करने की क्षमता से ही कार्यशाला की सफलता जुड़ी होती है। कार्यशाला में जागरूक, प्रतिभाशाली और कार्यालयीन कामकाज में कुशल कर्मचारी होते हैं ऐसी स्थिति में यदि राजभाषा अधिकारी स्वंय को एक प्रभावशाली प्राध्यापक जैसा प्रस्तुत करता है तो उससे न केवल वह कार्यशाला सफल होती है बल्कि राजभाषा कार्यान्वयन को परिणामदाई गति भी मिलती है।