मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

राजभाषा ब्लॉगिंग

हिंदी की तमाम विधाओं पर नित नए ब्लॉगर आ रहे हैं तथा इसे सशक्त और प्रभावशाली बनाने में अपना योगदान कर रहे हैं। हिंदी की एक विधा राजभाषा के ब्लॉगरों की और देखें तो ढूंढने पर भी अंगुलियों पर गिनने वाले बहुत कम ब्लॉगर मिलते हैं। यह स्थिति क्यों है यह एक विचारणीय मुद्दा है। यहॉ यह तर्क भी सही नहीं ठहरता है कि राजभाषा से जुड़े लोग ब्लॉगिंग में रूचि नहीं लेते हैं बल्कि राजभाषा से जुड़े अधिकांश लोग ब्लॉग को नियमित रूचिपूर्वक पढ़ते हैं। इनमे से कई ब्लॉगिंग में सक्रिय भी हैं परन्तु राजभाषा जैसे विषय पर नहीं लिखते हैं। राजभाषा के अधिकांश ब्लॉग सिर्फ नाम के लिए हैं। यह स्थिति चिंताजनक है। यदि इस उदासीनता का विश्लेषण किया जाए तो यह संभावना उभरती है कि अधिकांश राजभाषा ब्लॉगर यही नहीं तय कर पाते कि इसमें लिखा क्या जाए। इस सोच का प्रमुख कारण यह है कि अधिकांश कथित राजभाषा ब्लॉगर हिंदी साहित्य की पृष्ठभूमि वाले होते हैं तथा हिंदी साहित्य के तार को राजभाषा से कुशलतापूर्वक जोड़ नहीं पाते हैं। शायद यही कारण है कि यह लोग जितनी सहजता से कविता, कहानी आदि लिख पाते हैं उतनी आसानी से राजभाषा पर नहीं लिख पाते हैं।

राजभाषा ब्लॉगिंग से जुड़े सभी ब्लॉगर राजभाषा कार्यान्वयन से सीधे जुड़े हुए हैं तथा राजभाषा उनके दैनिक कार्य का एक प्रमुख अंग है इसके बाद भी राजभाषा ब्लॉगिंग की वर्तमान दयनीय स्थिति अच्छे भविष्य की और ईशारा नहीं कर कर रही है। राजभाषा ब्लॉगरों में से कोई भी पॉच नाम लेने के लिए यदि आपसे कहा जाए तो शायद आप भी उलझन में पड़ जाएंगे। यदि राजभाषा के बारे में स्वतंत्र चिंतन, समीक्षा आदि नहीं की जाएगी तो कैसे इस विधा को और विकसित किया जा सकेगा . सरकारी कामकाज में हिंदी की उपयोगिता का दायित्व आखिर कार्यालय के राजभाषा या हिंदी विभाग का नहीं है और ना ही इसका विकास कार्यालय की परिधि के अंतर्गत ही किया जा सकता है अतएव यह आवश्यक है कि राजभाषा ब्लॉगर राजभाषा को लेकर खुले में आएं और नई दिशा और दसा से राजभाषा को संपन्न करें। ब्लॉगिंग जगत में राजभाषा अभी भी अपना कोई पहचान नहीं बना सकी है।

राजभाषा से जुड़े लोग हिंदी ब्लॉगिंग की अन्य विधाओं में सक्रिय हैं किंतु राजभाषा विषय पर सक्रिय ना होना एक उदासीनता के अलावा कुछ भी नहीं है। इस उदासीनता का प्रमुख कारण यह हो सकता है कि राजभाषा कार्यान्वयन की व्यस्तताओं से थक कर यह लोग हिंदी की अन्य विधाओं में रूचि लेते हों जिसका प्रभाव राजभाषा ब्लॉगिंग पर पड़ता हो। यह भी कारण हो सकता है कि राजभाषा कार्यान्वयन उनके लिए सिर्फ एक जीवनयापन का ज़रिया हो जिसके साथ उनका एक बेहद औपचारिक रिश्ता हो। अन्यथा 15-20 वर्षों से भी अधिक समय से राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े रहने के बावजूद राजभाषा पर लिखने के लिए कुछ ना हो यह कैसे संभव हो सकता है। राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े लोग विशेषज्ञ के रूप में जाने-माने-पहचाने जाते है और यह कैसी विशेषज्ञता जो कविताएं तो लिख सकती है, कहानियॉ लिख सकती है परन्तु राजभाषा पर कुछ नहीं लिखती अलबत्ता बोलती ज़रूर है राजभाषा की बैठकों में, खालिस दफ्तरी परिवेश में, राजभाषा के सुपरिचित शब्दों से खेलते हुए।

राजभाषा को कार्यालयीन परिवेश से बाहर लाने के लिए विभिन्न कार्यालयों की गृह पत्रिकाओं में लिखा अवश्य जाता है परन्तु उस पर ना तो चर्चा होती है और ना ही सामान्य जनों की उन्मुक्त समीक्षा प्राप्त होती है। ऐसी स्थिति में राजभाषा से जुड़े लोगों को चाहिए कि ब्लॉग पर राजभाषा के बारे में लिखें तथा पाप्त विचारों के अनुसार यथायोग्य राजभाषा कार्यान्वयन की शैली में परिवर्तन-परिवर्धन करें। हिंदी ब्लॉगिंग में समाज के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिभाएं हैं जिनकी राजभाषा विषयक सोच केवल कार्यालय के राजभाषा कार्यान्वयन के लिए ही नहीं सहायक होगी बल्कि जनसामान्य में भी राजभाषा की नव चेतना जागृत करने में भी प्रमुख भूमिका निभाएगी। राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े ब्लॉगरों से अनुरोध है कि इस दिशा में अत्यधिक सक्रिय हो जाएं क्यॆकि इस समय राजभाषा की यह भी एक मांग है।

धीरेन्द्र सिंह 





शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

हिंदी प्रशिक्षण को मोहताज राजभाषा अधिकारी

भारत सरकार की राजभाषा नीति के अंतर्गत सभी केन्द्रीय कार्यालयों, उपक्रमों, बैंकों में राजभाषा विभाग की स्थापना की गई है तथा इस विभाग के कार्यों के लिए राजभाषा अधिकारी की नियुक्ति की गई है। विगत 25-30 वर्षों से राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े इन राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा कार्यान्वयन विषयक सार्थक और व्यापक प्रशिक्षण प्रदान नहीं किया गया है। सार्थक प्रशिक्षण अर्थात वह प्रशिक्षण जिससे राजभाषा अधिकार को राजभाषा कार्यान्वयन के लिए आधुनिकतम जानकारियॉ तथा ज्ञान प्राप्त हो जाए। व्यापक प्रशिक्षण का मतलब वह व्यापकता प्राप्त हो जिसकी सहायता से सुगमतापूर्वक राजभाषा कार्यान्वयन किया जा सके। इस प्रकार सार्थक और व्यापक प्रशिक्षण द्वारा राजभाषा अधिकारी को आत्मबल प्राप्त हो, आत्मविश्वास प्राप्त हो, स्पष्ट लक्ष्य हों, लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आवश्यक कौशल हो, समय-समय पर स्वाभाविक रूप से उठने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की क्षमता हो। इस तरह का प्रशिक्षण राजभाषा अधिकारियों को नहीं मिल पाता है परिणामस्वरूप अपेक्षित प्रभावशाली परिणाम नहीं मिल पाता है। राजभाषा कार्यान्वयन की यह एक प्रमुख समस्या है।

इस विषय पर चर्चा करते हुए प्रमुख प्रश्न यह है कि किन आधारों पर यह कहा जा सकता है कि राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा का उचित प्रशिक्षण नहीं मिल रहा है ? इसके लिए बहुत गहराई में उतरने की आवश्यकता नहीं है बल्कि यहॉ वह कहावत चरितार्थ होती है कि-हॉथ कंगन को आरसी क्या। यदि राजभाषा अधिकारियों को उचित प्रशिक्षण प्राप्त होता तो राजभाषा कार्यान्वयन अपनी प्रगति की गवाही कागजी आंकड़ों के बजाए व्यवहार में निरंतर प्रगति करते राजभाषा के जीवंत साक्ष्य द्वारा स्पष्ट करती। आज किसी भी कार्यालय में जाने पर कुछ विभागों या टेबलों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उस कार्यालय में राजभाषा कार्यान्वयन अपेक्षित स्तर पर है। इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए दिए जानेवाले आंकड़ों के आधार पर राजभाषा दौड़ रही है और राजभाषा अधिकारी नेपथ्य में गुमशुदा सा प्रतीत हो रहा है। वर्तमान में राजभाषा अधिकारियों को यह ज्ञात ही नहीं है कि वह अपने कार्यों को कहॉ से और कैसे आरंभ करें। विभिन्न सरकारी कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन अपने कठिनतम दौर से गुजर रही है। इस चुनौतीपूर्ण समय में राजभाषा अधिकारियों को एक सार्थक और व्यापक प्रशिक्षण की अत्यधिक आवश्यकता है।

मोहताज शब्द का प्रयोग करना आवश्यक था इसलिए यहॉ इस शब्द को वाक्य नें गूंथा गया है जबकि एक पक्ष यह भी कहनेवाला है कि राजभाषा अधिकारियों को तो प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इस प्रकार के प्रदान किए जानेवाले प्रशिक्षण कितने उपयोगी होते हैं इसकी यदि समीक्षा की जाए तो दूघ का दूध पानी का पानी साफ नज़र आएगा। मोहताज केवल इसलिए ही नहीं कि इन्हें प्रशिक्षण नहीं मिलता है बल्कि मोहताज इसलिए भी हैं कि राजभाषा अधिकारियों के प्रशिक्षण की एक आदर्श रूप-रेखा तथा सक्षम संकाय की भी कमी है। इसके लिए सभी कार्यालयों को एक निर्धारित कार्यक्रम बनाकर अपने प्रशिक्षण कार्यक्रम में एक स्लॉट के रूप में इसे जोड़ना होगा, तब कहीं जाकर इस दिशा में एक परिणामदाई पहल होगी। राजभाषा अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए अभी तक किसी भी कार्यालय द्वारा एक ठोस रूप-रेखा नहीं बनाई गई है अतएव इस दिशा में पहल करने की आवश्यकता है। जब तक यह अभाव समाप्त नहीं होगा तब तक मोहताज शब्द एक पहल की आवश्यकता का संकेत देते रहेगा।

राजभाषा अधिकारियों को हिंदी का विशेषज्ञ माना जाता है तथा सामान्यतया यह सोचा जाता है कि जो विशेषज्ञ है उसको उसकी विशिष्टता के क्षेत्र में क्या प्रशिक्षण दिया जाए। यह सोच इस तथ्य को अनदेखा कर देती है कि हिंदी और राजभाषा हिंदी में कुछ फर्क भी है। राजभाषा कार्यान्वयन के लिए सरकारी नीतियों के अतिरिक्त राजभाषा अधिकारी को राजभाषा के क्षेत्र में अन्य विधाओं में भी पारंगत होना पड़ता है जिसमें है अनुवाद, सम्प्रेषण, अभिव्यक्ति, लेखन, भाषण कौशल, आयोजन, कर्मचारियों की मानसिकता के अनुरूप कार्यान्वयन की शैलियों में बदलाव आदि। इन सबका सीधा संबंध राजभाषा कार्यान्वयन से होना चाहिए। प्रशिक्षण सामग्री भी अत्यावश्यक है। यद्यपि राजभाषा अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण सामग्री तैयार करना एक शोध करने जैसा कार्य है फिर भी यह है तो बहुत ज़रूरी। यह सामग्री भी विभिन्न कार्यालय अपने प्रशिक्षण महाविद्यालय में तैयार करा सकते हैं। विशेषज्ञों को भी प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है अन्यथा उनके कौशल में ठहराव आ जाने का भय रहता है।

कठिन नहीं है यह कार्य आवश्यकता बस निर्णय लेने की है। यहॉ प्रश्न उठता है कि कौन लेगा यह निर्णय ? यह निर्णय विभिन्न कार्यालयों के प्रधान कार्यालय / मुख्यालय के राजभाषा विभाग को लेना होगा। इस कार्यक्रम के विषय, समय-सारिणी, प्रशिक्षण सामग्री, संकाय आदि की व्यवस्था राजभाषा विभाग ही सहजतापूर्वक कर सकता है। राजभाषा अधिकारियों की सहायता राजभाषा अधिकारी ही कर सकता है। विभिन्न कार्यालय के शीर्ष प्रबंधन का राजभाषा कार्यान्वयन के लिए सहयोग, दिशानिर्देश आदि हमेशा से मिलते आ रहा है इसलिए यहॉ किसी प्रकार की कठिनाई नहीं है। राजभाषा अधिकारियों को प्रशिक्षण वर्तमान की आवश्यकता है किन्तु आरम्भ में चुनौतीपूर्ण है। इस दिशा में पहल राजभाषा कार्यान्वयन के एक नए सोपान की रचना करेगी जिसकी प्रतीक्षा वर्तमान भी कर रहा है।

धीरेन्द्र सिंह.



मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

महिला दिवस और राजभाषा

मेरे मन में भी महिला दिवस और राजभाषा विचार कौंधा था तब मैं भी आपकी ही तरह आश्चर्यचकित हुआ था। आख़िरकार इस महिला दिवस पर मैं क्या लिखूँ यह सवाल तो मेरे सामने खड़ा ही था। ना जाने क्यों यह विषय मुझे नया, आकर्षक और चुनौतीपूर्ण लगा। अब आप यह मत कहिएगा कि महिला शब्द ही चुनौतीपूर्ण है इसलिए मैंने कौन सी नई बात कह दी। बात जब कहनी होती है तो एक अंदाज़ में कह दी जाती है। आख़िर अंदाज़ ही तो है जो भावों और विचारों के हिचकोलों से बात की रक्षा करता है, उसकी गरिमा को बनाए रखता है। वरना आज की दुनिया में गरिमा बनाए रखने की बात तो दूर गरिमा शब्द से परिचित होना ही मुश्किल है। गरिमा का किसी व्यक्ति विशेष या महज़ एक नाम से जुड़ जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। वैसे महिला का राजभाषा से जुड़ जाने का खतरा भी खतरा कम नहीं है। कहॉ सीधी, सरल, निर्मल मना महिला और कहॉ पहाड़ी नदी की तरह अनजानी डगर पर भी अपनी गति को बनाए रखनेवाली राजभाषा। कहीं ताल-मेल नहीं दिखता है। पर आधुनिक महिला तो विषम परिस्थितियों से दो-दो हॉथ करने में कहॉ पीछे हैं तो मैंने भी सोचा कि क्यों न महिलाओं से राजभाषा के बारे में थोड़ी चर्चा कर उनके मिज़ाज का ज़ायजा लिया जाए।


अपनी मंज़िल पर लिफ्ट की प्रतीक्षा में खड़ी एक महिला से मैं जा टकराया। मुसकराहट के आदान-प्रदान के बाद मैंने कुछ औपचारिक बातों के बाद अपना सवाल पूछ ही बैठा-मैडम आप केन्द्र की राजभाषा के बारे में क्या जानती हैं ? उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने नासमझी भरा सवाल कर दिया हो। पल भर में ही यह प्रमाणित भी हो गया कि अपने बारे में उस समय की मेरी सोच सही थी। उन्होंने कहा कि राजभाषा के बारे में तो बच्चा-बच्चा जानता है। श्री राज ठाकरे की पार्टी द्वारा मराठी भाषा का मुंबई में हर जगह प्रयोग ही राजभाषा है। मैं हतप्रभ रह गया और घबराहट से घिर गया। राजभाषा में राजनीति कैसी ? यह सोचते हुए मैं अपने भावों पर नियंत्रण ना रख सका और अगला प्रश्न पूछ दिया कि राजभाषा और राजनीति से क्या लेना-देना ? उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि राजनीति और राजभाषा एक ही सिक्के के दो महत्वपूर्ण पक्ष है। एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं। मैं आगे कुछ बोल पाता उससे पहले लिफ्ट तल मंज़िल पर रूकी और वो चली गईं। मैंने केन्द्र की राजभाषा के बारे में पूछा और वे राज्य के दायरे में लाकर मेरे प्रश्न को छोड़ गईँ। राजभाषा को किसी व्यक्ति और किसी पार्टी से क्यों जोड़ गईं ? मैं सोचता ही रह गया। अब किसी महिला से प्रश्न पूछने की स्थिति में नहीं था अतएव कल पर छोड़ अपनी सोच में डूबा मैं चलता गया।


सुबह घर से ही तय करके निकला था किसी ऐसी महिला से प्रश्न करूँगा जिसे बहुत जल्दी ना हो और जो मुझे थोड़ा समय दे सके। विश्वविद्यालय की कैंटीन में जब मैं चाय पीने गया था तो कैंटीन के कोने में एक महिला चाय पीते दिखी और मैं बेधड़क जाकर औपचारिकताऍ निभाते हुए बैठ गया। बिना कोई अन्य वार्ता किए मैं पूछ बैठा कि – मैडम केन्द्र की राजभाषा से आप क्या समझती हैं ? प्रश्न समाप्त होते ही उन्होंने तपाक से उत्तर दिया – इंग्लिश। आश्चर्य से मैंने पूछा-वह कैसे ? उनका उत्तर था कि प्रत्येक सरकारी कार्यक्रमों में अंग्रेज़ी में बातचीत, वित्तीय मंच पर अंग्रेज़ी, विदेशों में जाकर अंग्रेज़ी का ही प्रयोग, हिंदी की रोटी खानेवाले बॉलीवुड के कार्यक्रमों में निमंत्रण से लेकर समापन तक अंग्रेज़ी ही अंग्रेजी। चारों तरफ अंग्रेजी ही दिखती है इसलिए जनता अंग्रेजी को ही राजभाषा कहती है। मैं लाजवाब हो गया। अबकी बार महिला नहीं उठी, मैं ही उठ कर चल दिया।


मेरे मन की न तो जिज्ञासा शांत हुई और न उत्सुकता। मैं तो अपने ढंग से महिला दिवस मनाने पर आमादा जो था। एक गम्भीर सी दिखनेवाली महिला से मैंने जब यही प्रश्न पूछा तो उत्तर तपाक से मिला – टाईम पास। अच्छे से अच्छे चिंतन-मनन वाला मस्तिष्क भी इस उत्तर से लड़खड़ा जाएगा यही सोचकर मैं भी हतप्रभ रह गया। मैडम आपने तो अजीब सा उत्तर दे दिया, मैं तो इसका ओर-छोर ही नहीं पकड़ पा रहा, कृपया कुछ स्पष्ट कीजिए। उन्होंने कहा कि राजभाषा कार्यालयों से जुड़ी है, कार्यालयों में राजभाषा विभाग पर राजभाषा कार्यान्वयन की जिम्मेदारी है, राजभाषा विभाग में राजभाषा अधिकारी रहते हैं और राजभाषा अधिकारी टाइम पास करते हैं इसलिए राजभाषा टाइम पास है। मैंने कहा मैडम यह तो विचार कम और आरोप अधिक लग रहा है। उन्होंने ने कहा कि आप के मन में यदि ऐसे विचार उत्पन्न हो रहे हैं तो पहले आप किसी कार्यालय के राजभाषा विभाग की गतिविधियों को गौर से देखिए फिर इस विषय पर मुझसे चर्चा कीजिए। राजभाषा के इस नए अंदाज को समझते हुए मैंने यह तय कर लिया कि अब बस मना लिया मैंने महिला दिवस को, इससे अधिक की क्षमता मुझमें नहीं रह गई थी। महिला दिवस और राजभाषा यह संगम एक ऐसे भँवर की और ले गया जिसमें मंथन की कभी न रूकने वाली प्रक्रिया थी और परिणाम की संभावना नज़र नहीं आ रही थी।


धीरेन्द्र सिंह.