शब्द चल रहे थे, सामान्य थी बात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय में रात
निःशब्द था परिवेश पर रात्रि में चमक धूम
मन बह गया क्या-क्या कह गया जज्बात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय में रात
सुनती और प्रश्न करती चर्चित थी प्रशंसा
एक बहाव का निभाव थी कहीं न आशंका
बोलीं अचानक इतनी तारीफ क्या है नात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय से रात
रात्रि ढल चुकी थी नई तिथि का था आरम्भ
प्रयास यही था करें क्या कहां से मन प्रारंभ
पूछी इतनी रात बात लेखन कब नहीं ज्ञात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय से रात
सुबह नींद से उठे नयन में लिए वह स्पंदन
अधरों पर दौड़ी मुस्कान किया हृदय वंदन
चैट भी भरते हैं खुमारी, नशा कई उत्पात
पिघलती रही कहती बहती, हृदय से रात।
धीरेन्द्र सिंह
28.06.2025
08.05
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