बुधवार, 28 मार्च 2012

वरिष्ठ बनाम नए राजभाषा अधिकारी

1980 के दशक में हिन्दी विषय से स्नातकोत्तर विद्यार्थी के लिए हिन्दी अध्यापन, रेडियो, राजभाषा अधिकारी सेवाओं के ही प्रमुख अवसर थे। इन तीन प्रमुख अवसरों में रेडियो में अवसर सीमित था अतएव अधिकांश विद्यार्थी हिन्दी अध्यापन की ओर मुड़ते थे। राजभाषा अधिकारी की सेवा प्राप्त करना अपेक्षाकृत कठिन था क्योंकि इस सेवा के लिए अनुभव की आवश्यकता थी और हिन्दी के अतिरिक्त अँग्रेजी के भी ज्ञान की आवश्यकता थी जिससे अनुवाद कार्य सम्पन्न करने में नियुक्त राजभाषा अधिकारी को कठिनाई ना हो। अनुवादक का पद भी था। इस दशक में राजभाषा अधिकारी के पद को प्राप्त करना एक विशेष उपलब्धि मानी जाती थी। इसके अतिरिक्त राजभाषा अधिकारी का वेतन भी अपेक्षाकृत अधिक था इसलिए अधिकांश हिन्दी सेवी का लक्ष्य राजभाषा अधिकारी का पद प्राप्त करना था। हिन्दी अनुवादक के पद पर कार्यरत अधिकांश अनुवादक राजभाषा अधिकारी बन गए। हिन्दी अध्यापन से जुड़े शिक्षक भी राजभाषा अधिकारी बन गए। इस प्रकार 1980 का दशक राजभाषा अधिकारी सेवा का स्वर्णकाल था। यह सर्वविदित है कि 80 के दशक में राजभाषा अधिकारी के रूप में हिन्दी जगत के श्रेष्ठ व्यक्तित्वों का हुजूम प्राप्त हुआ था जो अब क्रमशः सेवानिवृत्ति हो रहा है और एक अनुमान के अनुसार 2018 तक राजभाषा के लगभग 98 प्रतिशत राजभाषा अधिकारी सेवानिवृत्त हो चुके होंगे। इसलिए नए राजभाषा अधिकारियों के भर्ती का दौर आजकल ज़ोरों पर है ठीक 1980 के आरंभिक दशक की तरह।
1980 के दशक के राजभाषा अधिकारियों में अपनी संस्था के प्रति प्रतिबद्धता थी क्योंकि उस समय हिन्दी के क्षेत्र में गिने-चुने अवसर थे। आजकल हिन्दी के क्षेत्र में अवसरों का अंबार है जिसमें मीडिया क्षेत्र  एक प्रमुख आकर्षण है। चूंकि 1980 के दशक के राजभाषा अधिकारियों के सेवानिवृत्ति का सिलसिला आरंभ हो चुका है इसलिए राजभाषा अधिकारी पद की रिक्तियों पर नए राजभाषा अधिकारी की नियुक्ति का दौर चल पड़ा है किन्तु विडम्बना यह है कि अब बहुत कम संख्या में अभ्यर्थी साक्षात्कार समिति को अपनी ओर आकर्षित कर पाते हैं। यह राजभाषा के क्षेत्र में एक नयी चुनौती है, राजभाषा अधिकारी मिल ही नहीं रहे हैं। राजभाषा अधिकारी के रूप में नियुक्त नए राजभाषा अधिकारियों का ध्यान राजभाषा की नयी नौकरियों पर ज्यादा होता है और अवसर मिलते ही त्यागपत्र देकर नए सेवा की ओर लपक जाना अब आम बात हो चुकी है। पिछले 2-3 वर्षों में एक संस्थान से दूसरे संस्थान में उछल-कूद खूब हुयी है। नए राजभाषा अधिकारियों को आकर्षित करने के लिए राजभाषा अधिकारी के आरंभिक पद के बजाए उससे बड़े पद पर नियुक्त किया जा रहा है और इसके बावजूद भी यह कहना कठिन होता है कि यह नए राजभाषा अधिकारी संस्था में कब तक रहेंगे। राष्ट्रीयकृत बैकों में यह चलन ज़ोरों पर है।
राष्ट्रीयकृत बैकों की बात चली तो यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि बैंक में सेवा प्राप्त करने के बाद एक निर्धारित अवधि के बाद विशेषज्ञ अधिकारियों को सामान्य बैंकिंग अधिकारी के रूप में पद परिवर्तन करने की सुविधा है। राजभाषा अधिकारी एक विशेषज्ञ अधिकारी होता है। विशेषज्ञ अधिकारियों की तुलना में सामान्य बैंकिंग अधिकारी को पदोन्नति आदि के अवसर अधिक आसानी से उपलब्ध होते हैं। नए राजभाषा अधिकारी ऊंचे पद आदि की ओर वरिष्ठ राजभाषा अधिकारियों की यूलना में अधिक सचेत और सजग है इसलिए उनकी दृष्टि उस निर्धारित अवधि पर होती है जिसे पूरा करते ही उन्हें सामान्य बैंकिंग अधिकारी का पदनाम प्राप्त हो जाएगा और वे विशेषज्ञ अधिकारी से सामान्य बैंकिंग अधिकारी के रूप में जाने जाएंगे। नए राजभाषा अधिकारी के पास सेवा के अधिक वर्ष हैं और उन्हें लगता है कि यदि वे राजभाषा से जुड़े रहें तो पदोन्नति की केवल कुछ सीढ़ियाँ ही चढ़ पायेंगें और यदि वे सामान्य बैंकिंग अधिकारी बन जाते हैं तो पदोन्नति के सारे रास्ते खुल जाएंगे। वर्तमान परिस्थिति में अपने कैरियर के वर्तमान और भविष्य का विश्लेषण करते हुये नए राजभाषा अधिकारी कार्यरत है। कहीं कोई नौकरी बदल रहा है, कहीं कोई विशेषज्ञता छोड़ संस्था के सामान्य चैनल से जुड़ रहा है आदि। राजभाषा जगत में आजकल यही दौर चल रहा है, एक द्वंद चल रहा है।  
वरिष्ठ सेवानिवृत्त हो रहे हैं, नए राजभाषा अधिकारी अपने कैरियर के प्रति अत्यधिक गंभीर, सजग हैं और चपलतापूर्वक कार्य कर निजी प्रगति की राह निर्मित कर रहे हैं परिणामस्वरूप राजभाषा की राह सुनी होती जा रही है। वरिष्ठों को सेवानिवृत्ति से रोका नहीं जा सकता है, नए राजभाषा अधिकारी यदि राजभाषा को छोड़ रहे हैं तो उन्हें टोका नहीं जा सकता तो फिर राजभाषा का क्या होगा? यही स्थिति रही तो अगले 5 वर्षों में राजभाषा के अधिकांश पद रिक्त नज़र आएंगे। राजभाषा जगत की वर्तमान परिस्थितियों को सुधारने के लिए यदि यदि गंभीर प्रयास नहीं किए गए तो अचानक आई शून्यता को तत्काल भरने का कोई जादुई कमाल भी काम नहीं आएगा। आखिर बात राजभाषा की है, राजभाषा के भविष्य की है इसलिए चिंतन के बजाए प्रभावशाली कार्रवाई की आवश्यकता है। अभी भी समय है बहुत कुछ किया जा सकता है।       


Subscribe to राजभाषा/Rajbhasha

मंगलवार, 27 मार्च 2012

राजभाषा और प्रौद्योगिकी का क्षितिज

प्रौद्योगिकी का विकास भूमंडलीकरण का एक प्रभाव है। भारत देश भी प्रौद्योगिकी को उतनी ही तेजी और तन्मयता से अपना रहा है जिस तरह विश्व के अन्य उन्नत देश इसे स्वीकार कर रहे हैं। महज एक कंप्यूटर के द्वारा एक व्यक्ति अपनी लगभग सारी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकता है। वर्तमान में कंप्यूटर कथाओं में मशहूर अलादीन का चिराग हो गया है। यह स्थिति विश्व की एक समान्य प्रचलित स्थिति कही जा सकती है। इस उत्साहवर्धक स्थिति में दो स्थितियाँ कार्यरत हैं जिसमें प्रथम है उन्नत शहर और द्वितीय हैं विकास की ओर बढ़ाने को प्रयासरत कस्बे और गाँव। इन दो स्थितियों का यदि विश्लेषण किया जाये तो यह तथ्य स्पष्ट होगा कि भारत के अधिकांश कस्बों और गाँव में प्रौद्योगिकी के लिए आवश्यक विद्युत आपूर्ति प्रायः बाधित रहती है परिणामस्वरूप प्रौद्योगिकी की उपयोगितामूलक प्रगति बाधित होती है। इसके अतिरिक्त कंप्यूटर के द्वारा अपने आवश्यक कार्यों के निपटान वर्तमान में राजभाषा प्रौद्योगिकी में ना तो पूरी तरह प्रचलित है और ना ही पूर्णतया अप्रचलित है अतएव यह कह पाना कि विशेषकर राजभाषा कार्यान्यवन में प्रौद्योगिकी बाधक है, पूर्वाग्रह के सिवाय कुछ नहीं है। राजभाषा और प्रौद्योगिकी के क्षितिज निर्माण में सर्वप्रथम राजभाषा अधिकारियों और राजभाषा कार्यान्यवन से जुड़े कर्मियों में प्रौद्योगिकी की कम जानकारी बाधक है। प्रौद्योगिकी के द्वारा राजभाषा के कार्यों को संपादित करने की धीमी गति और अंग्रेजी के बिना कम्प्युटर पर कार्य करना कठिन है जैसी धारणाएँ कहीं न कहीं राजभाषा की गति को प्रभावित करती हैं। ऐसी सोचवाले अधिकांश राजभाषा कार्यान्यवन से जुड़े लोगों को इस तथ्य से भी अवगत होना चाहिए कि भाषा प्रौद्योगिकी में बाधक नहीं है बल्कि बाधक अपूर्ण सोच है। अपूर्ण सोच से सिंचित मानसिकता को स्वाभाविक मानसिकता में परिवर्तित करने के लिए हिन्दी, राजभाषा और प्रौद्योगिकी की अद्यतन प्रगति और उपलब्धियों कि जानकारी अत्यावश्यक है। इस प्रकार की जानकारियों के लिए महज अध्ययन पर ही निर्भर रहना परिणामदायी नहीं माना जाना चाहिए बल्कि इसके लिए स्वयं कार्य करना भी जरूरी है। राजभाषा कार्यान्यवन से जुड़े कितने प्रतिशत लोग राजभाषा का अपना सम्पूर्ण कार्य प्रौद्योगिकी की सहायता से करते हैं यह एक शोध का विषय है।
  
एशिया के देशों से यदि राजभाषा हिन्दी की तुलना करें तो यह स्थिति स्पष्ट होती है की चीनी, जापानी, कोरियन आदि राजभाषाएँ हिन्दी की तुलना में प्रयोग में कहीं आगे हैं। प्रौद्योगिकी में राजभाषा हिन्दी का अन्य विकसित और कतिपय विकासशील देशों से पीछे होने का प्रमुख कारण है राजभाषा में प्रौद्योगिकी का अधिक प्रयोग ना होना। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि प्रौद्योगिकी में राजभाषा के अधिकतम प्रयोग के लिए क्या करना चाहिए। प्रयोग एवं प्रयास की कोई सीमा नहीं होती है तथापि निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देकर प्रगति की जा सकती है :-

1 राजभाषा विभाग को स्पष्ट दिशानिर्देश दिये जाएँ कि विभिन्न प्रकार की रिपोर्टें, राजभाषा प्रशिक्षण की सामग्री, विभिन्न बैठकों के कार्यवृत्त, सामान्य पत्राचार आदि को पूर्णतया प्रौद्योगिकी की सहायता से पूर्ण किया जाय। आवधिक अंतराल पर इसकी जांच की जाय और समीक्षा की जाय।

2 यूनिकोड प्रत्येक कम्प्युटर में सक्रिय किया जाय और देवनागरी लिपि में टंकण हेतु कर्मियों को प्रशिक्षित किया जाय और आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाय।

3 देवनागरी टायपिंग न जाननेवाले कर्मियों को उपलब्ध विभिन्न सुविधाओं में से यथोचित सुविधा प्रदान कर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि देवनागरी टायपिंग में उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो अन्यथा इसका दूरगामी विपरीत परिणाम हो सकता है।

4 नवीन अथवा नवीनतम हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर सुविधाओं का उपयोग किया जाय।

5 मंगल फॉन्ट के अतिरिक्त उपलब्ध अन्य यूनिकोड फॉन्ट का भी प्रयोग किया जाय जिससे देवनागरी टाईपिंग और आकर्षक बन सके।

6 राजभाषा के कामकाज से सीधे जुड़े अधिकारियों और कर्मचारियों को हिन्दी के विभिन्न सॉफ्टवेयर की न केवल जानकारियाँ प्रदान की जाय बल्कि उन सॉफ्टवेयर आदि का गहन प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाय।

7 राजभाषा विभाग प्रौद्योगिकी का उपयोग निरंतर कर रहा है यह सुनिश्चित करने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ संबन्धित कार्यालय के आइ टी विभाग को निगरानी का दायित्व सौंपा जाय।

इस प्रकार के अन्य कई उपाय हैं जिनके प्रयोग से राजभाषा की प्रौद्योगिकी के संग एक बेहतरीन जुगलबंदी हो सकती है किन्तु इसके लिए सघन कार्रवाई और गहन अनुवर्ती कार्रवाई की आवश्यकता है अन्यथा यह केवल आंकड़ों तक ही सीमित रह जाएगा। यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी आवश्यक है कि समान्यतया यह धारणा है कि कार्यालय में नव नियुक्त युवाकर्मी प्रौद्योगिकी से अत्यधिक जुड़े हुये हैं। यह सत्य है किन्तु यह नव युवाकर्मी राजभाषा को प्रौद्योगिकी से कितना जोड़ रहे हैं यह एक निगरानी और समीक्षा का विषय है। प्रौद्योगिकी में हिन्दी की उपलब्धियों और नए उत्पादों की चर्चा मात्र से राजभाषा की प्रगति नहीं हो सकती है बल्कि प्रत्येक कार्यालय का राजभाषा विभाग जब तक स्वयं अपना सम्पूर्ण कार्य प्रौद्योगिकी की सहायता से सम्पन्न नहीं करता है तब तक राजभाषा और प्रौद्योगिकी का क्षितिज एक भ्रम को यथार्थ का अमलीजामा पहनाता रहेगा।

राजभाषा और प्रौद्योगिकी के मध्य देवनागरी और रोमन एवं देवनागरी लिपि को लेकर एक जंग छिड़ी है। इंटरनेट, मोबाइल आदि उपकरणों के प्रयोक्ता तेज गति की और आसानीपूर्वक टाइप करनेवाले की बोर्ड की चाहत में निम्नलिखित उपायों को अपनाते हैं :-

(1)      रोमन लिपि का की बोर्ड का उपयोग करते हुये हिन्दी को रोमन लिपि में लिखते हैं। इस प्रकार के उपयोगकर्ता यह मानते हैं कि इससे संवाद और सम्प्रेषण तेज़ गति से होता है और रोमन लिपि में हिन्दी लिखना आसान भी है।
(2)     रोमन की बोर्ड का उपयोग करते हुये हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखते हैं। इस प्रकार के उपयोगकर्ता यह मानते हैं कि इससे देवनागरी लिपि में स्पष्ट, सटीक और शुद्ध रूप से संवाद और सम्प्रेषण होता है। देवनागरी लिपि में हिन्दी लिखना वस्तुतः एक सुखद प्रक्रिया भी मानते हैं।
(3)     देवनागरी की बोर्ड का उपयोग करते हुये देवनागरी लिपि में हिन्दी लिखते हैं। इस प्रकार के उपयोगकर्ता यह मानते हैं कि अपनी भाषा का शुद्ध रूप में उपयोग करना चाहिए और भूमंडलीकरण के दौर में नित सिमटती दुनिया में अपनी भाषा को प्रखर बनाए रखने के लिए सजग और सतर्क रहना चाहिए।

की बोर्ड देवनागरी का हो या रोमन का हो यह प्रश्न ही आधारहीन है। देवनागरी लिखने के लिए हिन्दी की बोर्ड का ही प्रचलन होना चाहिए परंतु यहाँ यह ध्यान देने कि बात है कि राजभाषा से जुड़े कितने लोग देवनागरी की बोर्ड के समर्थन में प्रयासरत रहते हैं? बैकों, कार्यालयों आदि में  राजभाषा में कार्य करने के लिए विभिन्न उपलब्ध प्रणालियों द्वारा राजभाषा के कामकाज को

बढ़ाने के लिए स्वयं राजभाषा अधिकारी सुझाव देते हैं। यद्यपि थोड़े अभ्यास से देवनागरी की बोर्ड से आसानी से सफल संवाद और सम्प्रेषण किया जा सकता है किन्तु यह भी आवश्यक है कि देवनागरी की बोर्ड को और अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए प्रयास अनवरत जारी रहे।       



Subscribe to राजभाषा/Rajbhasha

सोमवार, 26 मार्च 2012

एक राजभाषा अधिकारी से मुलाक़ात

पटना में आयोजित क्षेत्रीय राजभाषा सम्मेलन से लौट रहा था। पटना एयरपोर्ट पर समय से पहले पहुँच गया था इसलिए चेक इन काउंटर पर जाने से रोक दिया गया इसलिए खुद को करीब पड़े सोफ़े को सौंप कर परिवेश में भटकने लगा। इस दौरान सम्मेलन के कुछ अविस्मरणीय पल रह-रह कर कौंध रहे थे और परिचय में मिले नए चेहरे स्मृति में अपनी मुकम्मल जगह बनाने के लिए प्रयासरत थे। इन सबके बीच निगाह घड़ी की ओर भी दौड़ पड़ती थी कि कब समय हो और चेक इन कर तसल्ली पाएँ। इस क्रम के दौरान सोफ़े पर एक व्यक्ति को खुद को फिट करते हुये और मुझे संबोधित करते हुये पाया। मुझे ध्यान आया कि यह महाशय एक प्रमुख राष्ट्रीयकृत बैंक के प्रतिनिधि थे, राजभाषा अधिकारी थे। उन्होने कहा कि कब से दूर से वह मुझे अभिवादन कर रहे हैं किन्तु मेरी दृष्टि उन्हें पकड़ नहीं पायी। बातचीत के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि हम दोनों की फ्लाइट एक है जो समय से छूटेगी । यह सूचना मिलते ही हम दोनों चेक इन काउंटर पर गए। मित्र राजभाषा अधिकारी ने मेरा टिकट भी मुझसे ले लिया और सीट अगल-बगल की ले ली जिससे हमारी बातों का सिलसिला अटूट रहा।
वायु में यात्रा करते हुये जब मैं यत्र-तत्र-अन्यत्र की बातों को खूब समेट लिया तब प्रतीत हुआ कि अब  विषयांतर आवश्यक है लिहाजा मैंने भी अपनी तान छेड़ने को सोची। मैंने कहा मित्र आपको राजभाषा का पुरस्कार किस वर्ष में मिला है? मेरे इस सवाल को सुनकर उनके चेहरे पर ऐसी विद्युतीय मुस्कान दौड़ी कि मैं हतप्रभ रह गया और सोचने लगा कि राजभाषा के पुरस्कार के प्रश्न पर इस तरह गूढ मुस्कराने वाली बात क्या है? मैं प्रश्नवाचक दृष्टि से उन्हें देखने लगा। मेरे मित्र ने मुझसे कहा कि इन राजभाषा पुरस्कारों से होता क्या है। बस पल भर की खुशी होती है, चंद दिनों के चर्चे होते हैं और बात वहीं की वहीं रह जाती है। मैंने कहा बात वहीं की वहीं नहीं रहती बल्कि उसके चर्चे दूर-दूर तक होते हैं, किताबों और अभिलेख में पुरस्कार दर्ज़ हो जाता है, संस्था और संबन्धित राजभाषा अधिकारी की चर्चा होती है, छवि बनती है। उन्होने कहा कि इससे क्या होता है? क्या वेतनवृद्धि होती है? क्या पदोन्नति होती है? नहीं ना, तो क्यों इसके पीछे पड़ें और अधिक श्रम और भाग-दौड़ करें। यह बोलकर मुझे ऐसे देखने लगे जैसे मैं अत्यधिक अपरिपक्व और राजभाषा कि दुनिया से अर्धपरिचित व्यक्ति हूँ। मुझे व्यक्तित्व बेहद रोचक लगा।
यह विचार मुझे अत्यधिक कुरूप और दुखदाई लगा। एक वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी राजभाषा के पुरस्कारों को इतने हल्के अंदाज़ में ले रहा है जबकि इसी राजभाषा ने व्यक्ति को एक पहचान दी है। छुब्ध होकर मैं खिड़की से बाहर बादलों में खो गया। बादलों के बनाते-बिगड़ते दृश्य और सूर्य किरणों से निर्मित छटाओं और विभिन्न रंगप्रभाव ने मुझमें एक नयी ताज़गी और ऊर्जा का संचार कर दिया। मुझे लगा कि महाशय अपनी बात प्रश्न पर ही नहीं समाप्त करेंगे बल्कि उसके आगे भी कुछ बोलेंगे परंतु वह खामोश बैठे थे मानों मेरी प्रतिक्रिया कि प्रतीक्षा में हों। खामोशी को तोड़ते हुये मैंने कहा कि क्या आपको पुरस्कारों में विश्वास नहीं है? उन्होने कहा कि उन्हें इसका एहसास नहीं है। अपनी गर्दन के संग अपने कंधे को मोड़ते हुये वह पूरी प्रज्ञा के साथ मेरी ओर मुखातिब हो बोले आपको सौ बात की एक बात कहूँ। मैं उनके इस रहस्यपूर्ण वाक्य से मेरी उत्सुकता और बढ़ी और मैंने कहा बोलिए। उन्होने कहा कि यदि प्रगति और पदोन्नति बिना विशेष प्रयास और श्रम को चाहते हैं तो उत्तर राजभाषा के पुरस्कारों में नहीं है बल्कि इसका पूर्ण समाधान आपके तत्काल उच्चाधिकारी के पास है। पदोन्नति पुरस्कारों से नहीं होती बल्कि आपके तत्काल उच्चाधिकारी द्वारा आपको दिये गए अंकों पर होती है, इसलिए आपके तत्काल अधिकारी जो कहें बस उतना ही कीजिये और कैरियर का मज़ा लीजिये। उन्होने कहा कि वह राजभाषा के अतिरिक्त कार्यालय का अन्य कार्य भी करते हैं जो तत्काल उच्चाधिकारी द्वारा सौंपा जाता है। तत्काल उच्चाधिकारी कि प्रसन्नता किसी पुरस्कार से कम नहीं, यदि वह खुश हैं तो कोई गम नहीं। एक लक्ष्य और एक ध्यान, कैरियर के प्रश्नों का मिले समाधान। मेरी शिराओं में विद्युत दौड़ गयी। मेरे कान अब सुनने में अक्षम हो गए थे जबकि महाशय अनवरत बोले जा रहे थे। जहाज में हलचल होने लगी जहाज लैंड कर चुका था।
एयरपोर्ट पर पहुँचकर उन्होने गर्मजोशी से हांथ मिलाया और बाहर निकल गए चूंकि मुझे अगली फ्लाईट पकड़नी थी इसलिए मैं एयरपोर्ट पर ही रुक गया। अगली यात्रा आरंभ करने में काफी समय था, मैं मित्र राजभाषा अधिकारी की बातों में लिपटा एक कुर्सी पर बैठ गया और मन ही मन विश्लेषण आरंभ कर दिया। प्रेरणा और प्रोत्साहन के आधार पर चलनेवाले राजभाषा कार्यान्यवन को गति, दिशा और प्रगति प्रदान करने के लिए सामान्यतया राजभाषा अधिकारी की नियुक्ति होती है और यदि राजभाषा अधिकारी ही उदासीन हो जाये तो क्या होगा? क्या पुरस्कार केवल राजभाषा कार्यान्यवन के लिए है अथवा अन्य विभागों और कार्यों में भी है? पदोन्नति और प्रगति की चाह में यदि राजभाषा को हाशिये पर रखने की कोशिश स्वयं राजभाषा अधिकारी सोचेगा तो राजभाषा को गतिशील कौन बनाएगा? राजभाषा अधिकारी एक विशेषज्ञ अधिकारी होता है और यदि विशेषज्ञता में प्रतिबद्धता नहीं होती है तब ऐसी विशेषज्ञता की सार्थकता क्या है? राजभाषा को अपेक्षित गति प्राप्त न हो पाने के पीछे कहीं ऐसी सोचवाले राजभाषा अधिकारियों की तो भूमिका नहीं है? कितने राजभाषा अधिकारी हैं जो ऐसी सोच रखते हैं? क्या कभी राजभाषा अधिकारियों की सोच, संयोजन और संकल्पना की समीक्षा होती है? क्या राजभाषा का यह एक चिंतनीय और विचारणीय प्रश्न नहीं है? आखिर कौन सोचेगा ऐसे प्रश्नों पर? आखिर कौन करेगा स्थायी समाधान ऐसी सोच का?