बुधवार, 25 अगस्त 2010

देवनागरी लिपि विरूद्ध रोमन लिपि हिन्दी

हिंदी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता ने तथा इंटरनेट तथा एसएमएस के बढ़ते जाल ने हिंदी की देवनागरी लिपि को चुनौती देना आरम्भ कर दिया है। यह चुनौती है रोमन लिपि में हिंदी लिखने की प्रक्रिया की शुरूआत। प्राय: इंटरनेट और मोबाइल द्वारा रोमन लिपि में हिंदी लिखने का चलन दिखलाई पड़ने लगा है। लिखित हिंदी की यह समस्या यद्यपि अभी अपने आरम्भिक चरण में है किन्तु चिंताजनक बात यह है कि रोमन लिपि का उपयोग हिंदी लिखने की शैली युवा पीढ़ी में तेज़ी के साथ प्रसारित हो रही है। यदि इस दिशा में सामाजिक, व्यापारिक तथा प्रौद्यौगिकी स्तर पर पहल नहीं की गई तो यह संभावना प्रतीत हो रही है कि भविष्य में देवनागरी लिपि के संग रोमन लिपि की हिंदी अपनी जड़ें जमाना शुरू कर दे। आखिरकार भाषा की जीवंतता उसकी उपयोगिता पर भी निर्भर करती है।

सामाजिक स्तर पर पहल के लिए देवनागरी लिपि के प्रयोग, प्रचार तथा प्रसार के लिए समाज के प्रत्येक स्तर पर जागरूकता लाई जाए। प्रसंगवश उल्लेख कर रहा हूं कि हिंदी के एक प्राध्यापक रोज सुबह 7 बजे के लगभग मुझे सूक्तियॉ एसएमएस करते हैं जो केवल अंग्रेजी में होती हैं। मैंने अब तक किसी भी रूप में अपनी आपत्ति नहीं दर्शाई है क्योंकि वह मूलत: अंग्रेजी में होती है परन्तु मेरे मन में यह विचार ज़रूर आता है कि प्राध्यापक कभी हिंदी में सूक्तियॉ क्यों नहीं प्रेषित करते हैं। यह लिखते समय यह विचार ऊभरा है कि यदि मैं उन्हें 2-4 सूक्तियॉ देवनागरी लिपि में प्रेषित कर दूँ तो शायद इससे लाभ हो। इस तरह के लेख लिखने और सोचने से तो अच्छा है हिंदी में एसएमएस कर देना। यद्यपि इस प्रकार की पहल से एक साथ व्यापक परिवर्तन नहीं नज़र आता है किन्तु परिवर्तन होता ज़रूर है। रोमन लिपि में हिंदी का लेखन प्रमुखतया एसएमएस तथा ई-मेल पर ही दिखलाई पड़ती है। य़दि इस क्षेत्र में देवनागरी लिपि का उपयोग सतत बढ़ाया जाए तो उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त होंगे।

व्यापारिक स्तर पर देवनागरी लिपि का प्रयोग एसएमएस तथा ई-मेल में लगातार बढ़ रहा है। भले ही इस वृद्धि का प्रमुख कारण व्यापारिक लाभ हो किन्तु यह उल्लेखनीय है कि व्यापारिक स्तर पर देवनागरी लिपि का प्रयोग यह प्रमाणित करता है कि अपनी बात को देवनागरी लिपि का प्रयोग कर व्यापकता से पहुंचाया जा सकता है। व्यापारिक प्रतिष्ठानों का बोर्ड अंग्रेजी में लगाना एक आवश्यकता है, एक फैशन है अथवा एक आदत है यह एक विवाद का विषय हो सकता है किन्तु अंग्रेजी में बोर्ड लगता जरूर है। जिस स्थान पर अंग्रेजी का संबंध नहीं है उसके बोर्ड भी जब अंग्रेजी में दिखते हैं तब आश्चर्यय होता है जैसे कि कबाड़ी की दुकान, जहॉ पर अंग्रेजी में न कुछ लिखा जाता है और न ही अंग्रेजी बोलनेवाले ही वहॉ रहते हैं। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि अंग्रेजी में बोर्ड प्रदर्शन आवश्यकता से कहीं अधिक चलन से प्रभावित है। चलन में परिवर्तन किया जा सकता है जबकि आवश्यकता बनी रहती है।

प्रौद्योगिकी के बारे में ना तो कुछ कहा जा सकता है और ना ही उसकी गति को पकड़ी जा सकती है। पल-पल में परिवर्तन होते रहता है। इस प्रौद्योगिकी की दुनिया में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं भी अपना स्थान बनाए हुए हैं और उनमें भी निरन्तर प्रगति हो रही है किन्तु ब्लैकबेरी द्वारा अपने मोबाइल में हिंदी की सुविधा न दिया जाना कभी-कभी प्रतिकूल परिस्तितियॉ निर्मित कर देती हैं। यद्यपि देवनागरी लिपि का प्रयोग कर अपने कार्य करनेवाले अधिकांश लोग सीमित रूप में ही प्रौद्योगिकी का प्रयोग करते हैं इसलिए फिलहाल देवनागरी लिपि में प्रौद्योगिकी का भरपूर सहयोग है।

उक्त कथ्यों तथा तथ्यों के बावजूद भूमंडलीकरण के दौर में एक भाषा दूसरी भाषा पर आक्रमण कर रही है तथा विकास की तेज गति भाषाओं के रूप-रंग में परिवर्तन भी कर रही है। भाषा वैज्ञानिकों की राय है कि इस परिवर्तन से बचा नहीं जा सकता है यद्यपि इसके व्यापक प्रतिकूल प्रभाव से बचा जा सकता है। देवनागरी लिपि के बजाए रोमन लिपि में हिंदी को लिखा जाना एक व्यापक परिवर्तन की ही आहट है। हिंदी के लिए रोमन लिपि कहीं आवश्यकता भी प्रतीत होती है जैसे पाकिस्तान के किसी व्यक्ति से बातें करना। उस स्थिति में व्यक्ति क्या करे जब एक को देवनागरी लिपि न आती हो और दूसरे को उर्दू के शब्दों का ज्ञान ना हो। हिंदी फिल्मों का व्यापक प्रचार-प्रसार बोलचाल की हिन्दी को विश्व के कई देशों में प्रचारित-प्रसारित कर रही है किन्तु इसके साथ देवनागरी लिपि का प्रचार-प्रसार नहीं हो रहा है परिणामस्वरूप सहज राह रोमन लिपि में हिंदी ही मिलती है। प्रौद्योगिकी के युग में राष्ट्र की सीमाएं नहीं रह गई है सूचनाओं आदि की सम्प्रेषण तेज गति से हो रहा है और सम्पूर्ण विश्व की भाषाओं में परिवर्तन दिखलाई पड़ रहा है। इसके बावजूद भी देवनागरी लिपि के संग हिंदी से जुड़े सभी लोगों को यह चाहिए कि यह सुनिश्चित किया जाए कि देवनागरी लिपि का ही प्रयोग हो। इससे देवनागरी लिपि का प्रचार-प्रसार होगा। यह इसलिए कहा जा रहा है कि अधिकांश स्थितियॉ तो आदत से जुड़ी होती है। यह भी एक अजीब स्थिति है कि इस ब्लॉग का नाम राजभाषा देवनागरी और रोमन लिपि दोनों में है, ऐसा क्यों? यहॉ पर तो देवनागरी लिपि से भी काम चल सकता था। इसका उत्तर है कि पहले इस ब्लॉग का नाम केवल देवनागरी लिपि में था किन्तु राजभाषा से जुड़ी द्विभाषिकता की आदत ने मुझे राजभाषा रोमन लिखने के लिए विवश किया, वरना मुझे यह नाम अधूरा प्रतीत हो रहा था।




Subscribe to राजभाषा

शनिवार, 21 अगस्त 2010

राजभाषा,यूनिकोड तथा इनस्क्रिप्ट - शक्ति भी, शौर्य भी

वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हैं. पिछले दो दशक के बाद अब राजभाषा अपनी उड़ान के लिए तैयार है. यहाँ पर एक प्रश्न उभरता है कि जब राजभाषा उड़ान के लिए तैयार है तब उड़ क्यों नहीं रही है और यह कैसी बात कि जब देखिये तब कहा जाता है कि राजभाषा इसके लिए तैयार है राजभाषा उसके लिए तैयार है, आखिर कब तक यह तैयारियां चलती रहेंगी ? यह प्रश्न राजभाषा से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के मन में उभरता है पर जवाब आधा-अधूरा ही मिलता है और उसी से मन मारकर संतोष कर लेने पड़ता है.  राजभाषा की विभिन्न समस्याओं का हल किसी कि ओर उंगली उठा कर कभी नहीं मिल सकता इसके लिए चाहिए कार्यवाई जिसकी काफी कमी है.यह कमियां प्रत्येक कार्यालय कि अपनी-अपनी परिस्थिति विशेष से निर्मित होती है जिसका समाधान प्रत्येक कार्यालय ढूंढ सकता है विशेषकर कार्यालय का शीर्ष प्रबन्धन. वर्तमान में राजभाषा कि सबसे बड़ी समस्या क्या है यदि इसका आकलन किया जाए तो ज्ञात होगा कि जिस रफ़्तार के साथ कार्यालय के सभी विभागों द्वारा राजभाषा में कार्य होना चाहिए वोह नहीं हो रहा है जिसका प्रमुख कारण है प्रौद्योगिकी कि कठिनाईयां. क्या हैं यह कठिनाईयां तो इसका सरल उत्तर यह है कि किसी भी कार्यालय के कर्मचारी को देवनागरी लिपि में टाइप करने में असुविधा होती है . यह असुविधा की  बोर्ड से लेकर हिंदी फॉण्ट तक की है जबकि इसका समाधान काफी पहले किया जा चुका है फिर भी कर्मचारी इससे पूरी तरह से परिचित  नहीं हैं परिणामस्वरूप राजभाषा अपनी गति नहीं पकड़ पा रही है. दोषी कौन है ? यह प्रश्न राजभाषा कार्यान्वयन में ना किया जाये तो बेहतर है क्योंकि यहाँ दोष परिचय का है, अभ्यास का है, प्रोत्साहन का है यदि यह सब दोष निकल जायेगा तो समस्या काफी हद तक कम हो जाएगी.


एक समय था जब टाइप करने के लिए टंकक के पास पेपर जाता था परन्तु अब लगभग सभी टेबल पर कंप्यूटर कि सुविधा है और यह अपेक्षा कि जाती है कि हर टेबल खुद अपना टाइप कर ले और टाइप कि निर्भरता कम करे. इसकी वजह कंप्यूटर मात्र ही नहीं है बल्कि ई -मेल मेल के चलन ने कर्मचारियों को की-बोर्ड कि ओर जाने को मजबूर कर दिया है. यह भी एक प्रमुख कारण है टाइप के लिए कार्यालय के प्रत्येक टेबल को आत्मनिर्भर होने के लिए जिससे कर्मचारी सम्प्रेषण की आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठा कर अपना और कार्यालय के कामकाज को एक नयी ऊँचाई दे. कल तक टाइप केवल टंकक का कार्य मन जाता था परन्तु आज टंकण  प्रत्येक टेबल का अभिन्न हिस्सा बन चूका है चाहे वोह अल्प मात्रा में ही क्यों ना हो पर सभी टेबल पर विद्यमान है. इतनी अधिक आवश्यकता होने के बावजूद भी राजभाषा की गति में तेज़ी क्यों नहीं आ रही है यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है. इसके पीछे की सच्चाई है हिंदी के अनेकों फॉण्ट तथा उनका दूसरे कंप्यूटर पर सही ढंग से खुलना. भारत में जीतनी भाषाएँ हैं उससे भी ज्यादा हिंदी के फॉण्ट हैं तथा सब अपने-अपने प्लेटफ़ॉर्म पर ही खुलते हैं मानों सबकी अपनी-अपनी सल्तनत हो अपना-अपना सूबा हो . ऐसी हालत में यदि एक कंप्यूटर से लिखा गया मेल यदि दूसरे कंप्यूटर पर नहीं पढ़ा जा सकता हो और शब्द की जगह पर डब्बा दीखता हो तो कौन कर्मचारी राजभाषा में कार्य करने की जहमत उठाएगा पल भर में वोह अपना कार्य अंग्रेजी में कर देगा आखिर अंग्रेजी में कार्य करने का वर्षों से अभ्यस्त जो है. हिंदी में फॉण्ट समस्या का अंत यूनिकोड आने के बाद ही पूरी तरह से समाप्त हो गयी अब बेधड़क यूनिकोड में काम होता है और किसी भी कंप्यूटर पर इसे पढ़ा जा सकता है . फॉण्ट की इस सफलता के बावजूद भी इसमें एक पेंच है. वह पेंच यह है की जब भी किसी कंप्यूटर में विंडोस लोड किया जाता है तो अक्सर लैंग्वेज भाग को लोड नहीं किया जाता जिससे कंप्यूटर में यूनिकोड की सुविधा का उपयोग करने में कठिनाई होती है इसके लिए प्रत्येक कंप्यूटर पर यह सुनिश्चित  किया जाना चाहिए की यूनिकोड सक्रिय है या नहीं. एक बार कंप्यूटर में यूनिकोड सक्रिय हो जाने पर यह सुविधा बनी जब रहती है. यूनिकोड को विश्व स्तर पर मान्यता है.


फॉण्ट के संग एक और समस्या है जिससे कर्मचारियों में काल्पनिक उलझन उत्पन्न होती है कि यदि यूनिकोड  को अपनाएं तो क्या की-बोर्ड भी बदलना होगा. यह सोच महज काल्पनिक नहीं कही जा सकती क्योंकि जिस तरह यूनिकोड को विश्वस्तरीय मान्यता मिली है वैसे ही इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड को भी विश्वस्तरीय मान्यता मिली है अतएव जब यूनिकोड कि बात होती है तब इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड कि भी चर्चा होती है उअर दूसरे की-बोर्ड के अभ्यस्त कर्मचारी की-बोर्ड परिवर्तन मात्र से परेशान हो जाते हैं जिससे वह यूनिकोड में कार्य करने से बचते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यदि यूनिकोड अपनायेंगे तो इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड भी अपनाना होगा. यूनिकोड और इनस्क्रिप्ट को एक एक दूसरे का अभिन्न अंग मान लेना सही सूचना के अभाव का परिणाम है सत्य तो यह है कि यूनिकोड का उपयोग किसी भी की-बोर्ड से किया जा सकता है परन्तु यदि इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड का उपयोग किया जाए तो टाइप के अलावा अन्य कार्यों जैसे ब्लॉग लिखना आदि में इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड ही कारगर है. भविष्य के राजभाषा कार्यान्वयन के लिए इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड को ही  अपनाना चाहिए. कार्यालय में इन बातों को यदि और अधिक विस्तार से तथा कुछ उदहारण देकर समझाया जाये तो बेहद प्रभावशाली परिणाम होता है. प्रत्येक कार्यालय इस प्रकार कि सूचना, प्रशिक्षण के लिए पूरी तरह से सक्षम है और इस सम्बंधित अद्यतन सूचनाओं से परिपूर्ण है आवश्यकता है तो सिर्फ इसके प्रचार-प्रसार-सहयोग की. कई लोगों ने कहा है की इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड सीखना आसान है और उन्होंने स्वयं को पुराने की-बोर्ड से हटा कर इनस्क्रिप्ट से जोड़ लिया . यह परिवर्तन अचानक नहीं हुआ बल्कि उन्हें इसकी उपयोगिता और अनिवार्यता को बतलाना पड़ा सोदाहरण. यह कार्य प्रत्येक राजभाषा विभाग बखूबी कर सकता है.


भविष्य के राजभाषा कर्न्यावन में यूनिकोड और इनस्क्रिप्ट की ही आवश्यकता रह जाएगी. राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े लोगों की यह चतुराई होगी की वह भविष्य की भाषाई चुनौतियों से सामना करने के लिए यूनिकोड और इनस्क्रिप्ट की पूरी तरह से अपने-अपने कार्यालय  में लागू करने की कोशिश करें. यूनिकोड और इनस्क्रिप्ट का सफलतापूर्वक कार्यान्वन राजभाषा कार्यान्वन की शक्ति भी है और शौर्य भी.
 


गुरुवार, 19 अगस्त 2010

हिंदी दिवस 14 सितम्बर के नाम


14 सितम्बर,1949 में निर्मित राजभाषा का एक रूप ने सम्पूर्ण राष्ट्र को अपनी ओर बखूबी आकर्षित किया। यह नया रूप अपनी चकाचौंध से विशेष तौर पर सरकारी कर्मचारियों को और समान्यतया आम जनता को आकर्षित करता रहा। हिंदी तेरे रूप तो अनेक हैं पर वर्तमान में  सबसे चर्चित रूप है तेरा राजभाषा का रूप। आज तेरा जन्मदिन है और मेरी धड़कनें तुझे वैसे ही बधाई दे रही हैं जैसे एक पुत्र अपनी माँ को बधाई देता है, आर्शीवाद लेता है। आज बहुत खुश होगी तू तो, हो भी क्यों नहीं, साहित्य, मीडिया, फिल्म, मंच से लेकर राजभाषा तक तेरा ही तो साम्राज्य है। अब तो प्रौद्योगिकी से भी तेरा गहरा रिश्ता हो गया है। आज केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे संसार में तेरे राजभाषा रूप का जन्मदिवस  मनाया जायेगा, मैं भी मानाऊँगा खूब धूम-धाम से। तूने कितनों को मान दिया है, सम्मान दिया है, रोजी दी है, रोटी दी है, एक माँ की तरह तुझसे जो भी जुड़ा तूने बड़े जतन से उसे सहेजा है,संवारा है। मैं भी तो उनमें से एक हूँ। पत्रकारिता, अध्यापन, मंच से लेकर कार्यालय तक तेरे हर रूप को जिया हूँ, सच तुझसे बहुत सीखा हूँ। मेरी हार्दिक बधाई और नमन।

जानती है तू, कि कुछ लोग तेरे जन्मदिवस को लेकर नाराज़ भी होते हैं। ना-ना वो तुझे दुत्कारते नहीं हैं बल्कि वे सब तुझसे बेहद गहरा प्यार करते हैं शायद मुझसे भी ज्यादा क्योंकि वो तुझे ज़रा सा भी कमज़ोर नहीं देख सकते। तेरे राजभाषा के रूप ने ही ऐसी हलचल मचा दी है कि न चाहते हुए भी तुझे चाहने पर लोग मजबूर हो जाते हैं।

आज सैकड़ों विचार तुझ पर चिंतन मनन करेंगे और राजभाषा और राजभाषा अधिकारियों पर अपना दुःख बयां करेंगे। मुझे भी नहीं मालूम कि यह लोग कार्यालय में होनेवाले कार्यक्रमों में तुझे देख सकते हैं अथवा नहीं, यदि देख सकते तो यथार्थ से उनका परिचय भी हो जाता। कितनी चतुराई और श्रम से तुझे राजभाषा के रूप के प्रतिष्ठित करने में कार्यालय के लोग लगे हैं। चतुराई शब्द से लोग कहीं दूसरा अर्थ न लगा लें इसलिए मैं यहॉ यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि राजभाषा कार्यान्वयन में कर्मचारी  के भावों,विचारों को दृष्टिगत रखकर राजभाषा में कार्य करने के लिए प्रेरित,प्रोत्साहित करना पड़ता है जिसको मैंने चतुराई शब्द के रूप में प्रस्तुत किया है। तू भी तो बड़ी सीधी है, देश की आज़ादी से पहले कभी सरकारी कामकाज की भाषा बनी ही नहीं और देख न अंग्रेजी कितनी सशक्त हो गयी है सरकारी कामकाज में। तू तो अपनी शुद्धता के दायरे में बंधी रही या बाँधी गयी उधर अंग्रेजी दूसरी भाषाओँ से लपक-लपक कर शब्द लेकर खुद को बड़ा ज्ञानी बना बैठी। बता तू, पहले से सोचती तो आज सरकारी कामकाज मैं तेरी भी बुलंदी रहती और फिर इतने अति संवेदनशील और तेरे राजभाषा के रूप को पूरी तरह से न समझ पानेवाले  दुखी लोग हिंदी दिवस पर अपने दुःख आक्रामकता के संग प्रकट नहीं करते।

तू तो जानती ही है कि प्रत्येक कार्यालय में राजभाषा विभाग होता है और उस विभाग में हिंदी या राजभाषा अधिकारी होता है। राजभाषा या हिंदी विभाग को कार्यालय के सारे विभागों के परिपत्र आदि का अनुवाद करना होता है। तू तो समझ सकती है न कि सरकारी कामकाज की भाषा ना रहने से तेरे पास कार्यालयीन कार्यों की शब्दावली पहले काफी कम थी। राजभाषा विभाग अकेले कैसे सारे विभागों के विषयों पर पकड़ बनाये रख सकता है? विभिन्न विषयों की शब्दावलियों के सहज रूप को ढाले रह सकता है? इसलिए विषय को पूरी तरह समझे बिना भी हिंदी अनुवाद कर देता है जिससे अस्वाभाविक शब्द आ जाते हैं और तू कठिन लगने लगती है। यद्यपि अब स्थितियां बदल रही हैं और कार्यालयीन कामकाज में मूल रूप से तेरा भी प्रयोग होने लगा है पर अब भी कुछ कर्मचारियों को अंग्रेजी बड़े सम्मान की भाषा लगती है, लगने दे! भूमंडलीकरण ही एक दिन सिखला देगी प्रत्येक देश के अपनी भाषा के महत्व को, और हम सब राजभाषा वाले भी तो हैं इस प्रयास में। तुझे तो मालूम है न कि राजभाषा विभाग को कार्यान्वयन भी करना पड़ता है और अनुवाद भी, प्रशिक्षण भी और तुझे सरल बनाने के लिए भी कर्मी राजभाषा विभाग से ही अपेक्षा रखते हैं। ना जाने कब, कैसे और क्यों कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन की सारी जिम्मेदारी केवल राजभाषा विभाग पर ही डाल दी गयी है बाकी विभाग तुझसे बचे रहते है या बचने की कोशिश करते हैं लेकिन कब तक?

आज अपने जन्मदिन पर बता ना क्यों करते हैं ऐसा व्यवहार अन्य विभाग? पर तू ना घबड़ा सब ठीक हो रहा है और ठीक हो जायेगा। अब कार्यालय में तेरे राजभाषा रूप को सब जानने-पहचानने और अपनाने लगे हैं और तुझे आसान करने का दौर शुरू हो गया है। लगभग 5 वर्षों में तेरा राजभाषा रूप अति लोकप्रिय हो जायेगा तथा कर्मचारी तेरे अभ्यस्त हो जाएंगे तब तक शिकवे-शिकायत को सुनती जा। देख मैंने यह वाक्य जो लिखा है ना उसपर कई प्रतिक्रियाएं उठेंगी, शायद लोग समझें की मैं ज्योतिष की बात कहाँ ले आया। पर तुझसे तो मेरी धडकनें जुड़ी हैं और धड़कनों को तर्क की कसौटी पर कैसे कसा जा सकता है? इसलिए अपनी इस बात को मैं अभी प्रमाणित नहीं कर सकता। ठीक कहा न मैंने, मुझे तो विश्वास है। कार्यालयों में जिस तेजी से तुझे स्वप्रेरित होकर अपनाया जा रहा है उससे निकट भविष्य में यह वर्तमान तेरे एक नए और सरल रूप को जन्म देगा। हिंदी दिवस का आयोजन वर्तमान कामकाजी हिंदी की आवश्यकता है और भविष्य का संकेत भी। आती रह ऐसे ही वर्ष दर वर्ष और राजभाषा के रथ को प्रगति पथ पर लिए जा निरंतर। मेरे जैसे लाखों लोग समर्पित भावना से तेरे साथ हैं। हिंदी दिवस राजभाषा का एक नया मंगलमय आरम्भ ले कर आये, आज मैं तुझसे यही आशीष चाह रहा हूँ। मेरा प्रणाम स्वीकार कर।








मंगलवार, 17 अगस्त 2010

हिंदी दिवस- अनजानी सी, अनचीन्ही सी

हिंदी दिवस, 2010 की दस्तक आने लगी है तथा एक बार फिर राजभाषा अधिकारी के रूप में मैं अनेकों सार्थक, अनर्थक, सुघड़ और अनगढ़ टिप्पणियों से रू--रू होने के लिए तैयार होने लगा हूँ। केवल मैं ही नहीं बल्कि राजभाषा से जुड़े सभी लोग इसके लिए तैयार हैं। वर्षों से हिंदी दिवस विशेषकर राजभाषा अधिकारियों के लिए प्रश्नों की बारिश लेकर आती है। इन प्रश्नों की बारिश में हिंदी भाषा से जुड़े सभी लोग भींगते हैं परन्तु केंद्र में रहता है राजभाषा अधिकारी। रहना भी चाहिए अन्यथा वर्ष भर ना तो राजभाषा अधिकारी की चर्चा होती है और ना ही राजभाषा की। मैं चर्चा का उल्लेख लोकप्रियता को दृष्टिगत रखकर नहीं कर रहा हूँ मेरा आशय तो राजभाषा और राजभाषा अधिकारी से लोगों का परिचय का है। हिंदी दिवस पर लिखे तमाम लेख, कविताओं आदि में या तो हिंदी की क्षमताओं, विशिष्टताओं की गाथा रहती है अथवा राजभाषा और अधिकारी पर प्रतिकूल टिप्पणियॉ रहती हैं। हिंदी दिवस का यह सिलसिला अनवरत चलते आ रहा है, किसी भी प्रकार का फेर-बदल नहीं हुआ है जिससे प्रमाणित होता है कि राजभाषा और राजभाषा अधिकारी अभी भी लोगों के लिए अनजाने और अनचीन्हें हैं।

हिंदी दिवस को यह माना जाना कि यह एक सरकारी आयोजन है जो हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के बजाए उसकी लोकप्रियता को कम करने में अधिक कारगर रही है, एक भ्रामक मानसिक स्थिति का द्योतक है, अपरिचय का द्योतक है। इस प्रकार की सोच रखनेवाले यदि अस्सी के दशक के कार्यालयों में राजभाषा की स्थिति से वर्तमान में कार्यालयों के राजभाषा कार्यान्वयन की तुलना करें तो उन्हें अति व्यापक परिवर्तन नज़र आएगा। यदि हिंदी दिवस का समर्थन राजभाषा को न प्राप्त होता तो वर्तमान की राजभाषा तक पहुंच पाना असम्भव होता। अंग्रेजी के कार्यालयीन साहित्य को राजभाषा में परिवर्तित करते समय साहित्यिक हिंदी का अत्यधिक कम भूमिका होती है और बोलचाल की हिंदी के उपयोग की तो संभावना ही नहीं ऊभरती है तब ऐसी स्थिति में कौन सी शब्दावली दी जाए का भाव लिए प्रश्न उभरता है। इस प्रकार की स्थिति में आडमान, दृष्टिबंधक, पावती आदि जैसे शब्द निकलते हैं। सभी भारतीय भाषाओं को तलाशना पड़ता है अंग्रेजी शब्दों के भावों को बखूबी दर्शाते हुए हिंदी के या भारतीय भाषाओं के सटीक अर्थी शब्दों के लिए। कामकाजी भाषा की इस आरम्भिक क्रिया को अनगढ़, अप्राकृतिक, दुरूह, उबाऊ आदि नाम देकर नकारने की कोशिश करना आसान है परन्तु अंग्रेजी के उस पाठ का सटीक अर्थ अभिव्यक्त करते हुए शब्द देना कठिन है। इसलिए हिंदी दिवस पर जब राजभाषा की आधारहीन आलोचना होती है तो राजभाषा चुप रहती है। वह निरंतर अपने विकास की प्रक्रिया में संलग्न रहती है।

हिंदी दिवस पर सरकारी कार्यालयों में कई आयोजन होते हैं जो समय और धन की बर्बादी करते हैं जैसे अनेकों वाक्य संजाल में घूम रहे हैं जैसे अश्वमेध का घोड़ा दौड़ रहा हो यह चुनौती देते हुए कि पकड़ सकते हो पकड़ कर दिखाओ वरना मान लो कि सत्य यही है। अंग्रेजी के कामकाजी साम्राज्य में राजभाषा का महल खड़ा करना उतना ही कठिन हाँ जितना सागर की तूफानी लहरों के बीच नौका के मस्तूल को बनाए रखना। वर्षों से कार्यालय की आबोहवा में घुली अंग्रेजी को हिंदी दिवस धूप की तरह राजभाषा को प्रसारित कर राजभाषा को स्थापित करती है। जिन कर्मचारियों को आदतन अंग्रेजी में काम करने की आदत पड़ चुकी है उन्हीं कर्मचारियों को हिंदी दिवस की विभिन्न प्रतियोगिताओं,आयोजनों आदि में सम्मिलित कर लेने पर राजभाषा के प्रति उनकी झुकाव बढ़ता है,कार्य की गति बढ़ती है,राजभाषा कार्यान्वयन के प्रभाव की समीक्षा होती है। वर्षों से हिंदी दिवस अपनी उल्लेखनीय भूमिका निभा रही है और स्वंय को अति उपयोगी साबित कर रही है। लोग हिंदी दिवस पर प्रतिकूल टिप्पणियॉ देते रहे हैं परन्तु हिंदी दिवस वर्ष दर वर्ष राजभाषा की उपलब्धियों के नए मुकाम हासिल करती रही है।

हिंदी दिवस का अभिन्न हिस्सा राजभाषा अधिकारी तो इतना अपरिचित है जितना कि दूसरे ग्रह का प्राणी एलियन। अंग्रेजी के कार्यालयीन साहित्य से लेकर अंग्रेजी मानसिकता से जूझता राजभाषा अधिकारी कभी राजभाषा के सरल शब्दों की तलाश में रहता है तो कभी अनुवाद की जटिलता को कम करने में प्रयासरत रहता है। कभी वह हिंदी की कसौटी पर कसा जाता है तो कभी लक्ष्य के अनुसार परिणाम न दे पाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। हिंदी कार्यशालाओं के आयोजन तथा प्रशिक्षण का दायित्व निर्वहन करते हुए कभी वह प्रशिक्षक की भूमिका निभाता है तो कभी कार्यालयीन आयोजनों के मंच पर संचालन की चुनौतीपूर्ण कार्य को सम्पादित करता है। कार्यालय की पत्रिका के सम्पादन से लेकर प्रौद्योगिकी में हिंदी की उपयोगिता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राजभाषा अधिकारी की होती है। अधीनस्थ कार्यालयों में राजभाषा निरीक्षण से लेकर राजभाषा की विभिन्न बैठकों में राजभाषा अधिकारी अपनी संस्था की राजभाषा उपलब्धियों की कुशलतापूर्वक प्रस्तुति करता है। इस तरह के और भी कई राजभाषा के कार्य हैं जो राजभाषा अधिकारी करता है जिसकी जानकारी अन्य लोगों को नहीं होती परिणामस्वरूप इनके विरूद्ध आधारहीन टिप्पणियॉ कर विशिष्ट विशेषणों से इन्हें नवाज़ा जाता है। राजभाषा अधिकारी अपने विभिन्न लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु जूझता रहता है इसलिए अपनी बातें कहने के लिए समय नहीं निकाल पाता जिससे प्रतिकूल टिप्पणी करनेवाले इस भ्रम में रहते हैं कि वह जो बोल रहे हैं वह सच है।

हिंदी दिवस के बल पर तथा राजभाषा अधिकारियों की पहल से राजभाषा की प्रगति तेज़ गति से हो रही है। हिंदी दिवस पर किसी भी प्रकार की प्रतिकूल टिप्पणी राजभाषा से न जुड़े लोगों की सोच को प्रभावित करते हैं जबकि राजभाषा से जुड़े लोग ऐसी टिप्पणियों से यही अर्थ लगाते हैं कि अभी भी राजभाषा अनजानी सी, अनचीन्ही सी है जिसके लिए और अथक सार्थक प्रयास करने हैं, हिंदी दिवस की व्यापकता और प्रभाव में और वृद्धि करनी है। यह सच है कि हिंदी दिवस पर की गई सभी प्रतिकूल टिप्पणियॉ राजभाषा से जुड़े लोगों को और प्रभावी राजभाषा कार्यान्वयन के लिए ही प्रेरित करती हैं किन्तु राजभाषा, को यह दुःख अब भी है कि इतने वर्षों के बाद हिंदी दिवस अब भी अनजानी सी, अनचीन्ही सी है, आखिर क्यों ?



मंगलवार, 10 अगस्त 2010

हिंदी विरूद्ध क्षेत्रीय भाषाएं


भारतीय भाषाओं की एक विचित्र स्थिति देखने को मिल रही है, हिंदी के विरूद्ध क्षेत्रीय भाषाएं खड़ी हो रही हैं। इस तथ्य को विभिन्न कार्यालयों के निमंत्रण की भाषा को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। राजभाषा नीति के मुताबिक इस प्रकार के निमंत्रण पत्र आदि त्रिभाषा में जारी होने चाहिए जिसका क्रम क्रमश: क्षेत्रीय भाषा, हिंदी तथा अंग्रेजी होना चाहिए। प्राय: त्रिभाषा रूप की अनदेखी कर केवल क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता है। इस पर न तो व्यापक चर्चा होती है और ना ही इस त्रुटि को सुधारने का कोई सार्थक प्रयास किया जाता है। यहॉ यह भी प्रश्न ऊभरता है कि राजभाषा निरीक्षण के विभिन्न चरण भी इस पर कोई कारगर कदम नहीं उठा रहे हैं। कभी स्थान की कमी, कभी अतिशीघ्रता की वजह से तो कभी अनजाने में निमंत्रण आदि में हिंदी का प्रयोग नहीं हो पाता है। कुछ समय तक यही चलता रहा तो इन निमंत्रण पत्रों में विशेषकर ग क्षेत्रों में हिंदी की उपयोगिता ना के बराबर होने लगेगी तथा भविष्य में इन निमंत्रण आदि को दिखलाकर यह भी कहा जा सकता है कि हिंदी का उपयोग तो पहले से नहीं हो रहा है अतएव बिना हिंदी के भी काम चल सकता है। ऐसा प्रश्न होगा तो क्या होगा जवाब ?

जवाब की जब कभी भी आवश्यकता होती है तब एक ही उत्तर तैयार रहता है और वह उत्तर है त्रिभाषा फार्मूला का पूरी तरह से अनुपालन। यह भी एक कटु सत्य है कि तथा क्षेत्रों में त्रिभाषा फार्मूला पर बल नहीं दिया जाता है बल्कि इसका अनुपालन ना कर पाने के विभिन्न कारणों का उल्लेख अवश्य किया जाता है। यद्यपि प्रशासनिक कार्यालयों में राजभाषा विभाग कार्यरत है तथापि विशेषकर निमंत्रण कार्डों पर भाषागत मुद्रण को व्यवस्थित नहीं किया जा रहा है। कुछ वर्ष पहले तक भारतीय भाषाओं ने अपने विकास की प्रक्रिया तेज कर दी थी जिसमें राजकीय कार्यों में अंग्रेजी के समकक्ष होने की कोशिश थी वह प्रक्रिया अब भी जारी है परन्तु इसमें हिन्दी को अनदेखा करने की झलक दिखलाई पड़ने लगी है जो समग्र रूप से भारतीय भाषाओं के लिए हितकारी नहीं है। यदि भारतीय भाषाएं एक-दूसरी भाषाओं का सार्वजनिक रूप से सम्मान नहीं करेंगी तो राष्ट्रीय स्तर पर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय भाषाओं को अपनी पहचान बनाए रखने में कठिनाई होगी। वैश्विक भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं का अपना एक विशेष महत्व है जिसे प्रत्येक राष्ट्र समझ रहा है।

भारतीय भाषाओं की इस स्थिति पर मार्च 2010 में भाषा शोध तथा प्रकाशन केन्द्र द्वारा आयोजित दो दिवसीय भारत भाषा संगम के उद्घाटन अवसर पर भारतीय भाषा केंद्रीय संस्थान के संस्थापक निदेशक तथा प्रतिष्ठित भाषाविद् श्री डी पी पट्टनायक ने कहा कि सभी भारतीय भाषाओं को खतरा है। उन्होंने कहा कि अब यह स्थिति निर्मित हो गई है कि अंग्रेजी शीर्ष पर है जबकि 35 भारतीय भाषाएं तलहटी पर हैं। भारतीय भाषाओं, बोलियों पर बोलते हुए प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्री शिव विश्वनाथन ने कहा कि " यह मृत भाषाओं का संगम नहीं है। हम यहॉ भाषाओं का उत्सव मनाने के लिए एकत्र हुए हैं।" उन्होंने कहा कि आधुनिक प्रजातंत्र अंग्रेजी पर निर्मित नहीं हो सकती है, वास्तविक प्रजातंत्र को बहुभाषी होना ही पड़ेगा। इस संगम में 320 भाषाओं के प्रतिनिधित्व उपस्थित थे। इस भाषा संगम में अंग्रेजी एक तरफ थी तथा भारतीय भाषाएं दूसरी और थीं। यहॉ हिन्दी पर ना तो कोई विशेष चर्चा हुई और ना ही इसे राजभाषा के रूप में विशेष दर्जा देकर जॉचा-परखा गया। यह संगम तो भाषाओं के अस्तित्व को लेकर चिंतित था। यही चिंता मुझे राजभाषा कार्यान्वयन में मिल रह् कुछ संकेतों को लेकर है। भविष्य में राजभाषा हिंदी के रूप को दृष्टिगत रखते हुए वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन को गति और दिशा देनी होगी अन्यथा राजभाषा के साथ अन्याय होगा।

भाषा से विमुखता के कई कारण होते हैं किंतु यदि योजनाबद्ध तरीके से प्रयास किए जाएं तो भाषा की लोकप्रियता और उपयोगिता को प्राप्त किया जा सकता है अथवा उसे बरकरार रखा जा सकता है। विकास की गति ने भारतीय भाषाओं में एक नई सोच ला दी है जिससे वह अपनी विकास योजनाओं पर कार्यरत हैं साथ ही उनमें अपने अस्तित्व को लेकर भय भी है। इतिहासकार श्री ओ सी हॉंडा का कहना है कि भाषा मरती है अथवा जीवित रहती है महत्वपूर्ण नहीं है। भाषा का जन्म तथा मृत्यु तो सामाजिक प्रक्रिया है। भाषा से सामान्य व्यक्ति लाभान्वित होता है अथवा नहीं यह महत्वपूर्ण है। यह सोच कहीं न कहीं भाषा को बाजारवाद से जोड़ती है और यही व्यवहारिक सोच वर्तमान में भाषा की कसौटी बनी हुई है। यद्यपि भारतीय भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या लिखनेवालों की संख्या से अधिक है। भारतीय भाषाओं का यह ऊभरता अंतरद्वंद्व एक मानसिक भय का प्रतीक है। राजभाषा से न तो भारतीय भाषाओं की प्रतिद्वद्विता की जानी चाहिए और ना ही राजभाषा को किसी रूप में बाधक मानना चाहिए। राजभाषा का प्रयास सभी भारतीय भाषाओं से यथासंभव तालमेल बनाकर चलना है। राजभाषा तो इस दिशा में पहले से ही अग्रसर है। अनेकों कठिनाईयों के बावजूद हिंदी राजभाषा के रूप में विकसित होकर क्षेत्रीय भाषाओं से जुड़ रही है। राजभाषा के इस तालमेल के बावजूद भी राजभाषा को मुद्रण में अनदेखा करना राजभाषा विभागों, राजभाषा अधिकारियों और कर्मियों के लिए चुनौती है।





रफ़्तार www.hamarivani.com

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

राजभाषा का वर्तमान

भारत के संविधान से लेकर भारत के आम नागरिक की राजकाज की भाषा के रूप में राजभाषा हिंदी ने जितना निखार प्राप्त किया है वह सहज ही लोगों को आकर्षित कर देता है। सभी सरकारी कार्यालयों के स्थाई प्रकार के कागज़ात, प्रलेख, मैनुअल आदि बिना चुके हिंदी और अंग्रेजी में ही मिलेंगे। इतना ही नहीं बल्कि विभिन्न बैठकों में हिंदी मिलती है, वार्षिक आम सभा में हिंदी मिलती है और यहॉ तक कि बोर्ड रूम भी हिंदी की पहुंच से बाहर नहीं है। राजभाषा का यह सशक्त और सक्षम रूप राजभाषा को एक सशक्त आधार देता,है और यह प्रमाणित करता है कि किसी भी उन्नत भाषा के समकक्ष राजभाषा को स्वीकारा जा सकता है। स्वीकारा जा सकता है शब्द लिखने की विवशता है क्योंकि तमाम गुणों के बावजूद भी राजभाषा को स्वीकारा जा रहा है अभी तक पूर्णतया स्वीकारा नहीं गया है। पूर्ण स्वीकृति उस समय होगी जब कार्यालयों में अधिकांश मूल कार्य राजभाषा में ही किया जाएगा। इसके बावजूद भी राजभाषा की प्रगति निरंतर जारी है तथा इसमें विभिन्न स्तरों पर विकास की प्रक्रिया जारी है।

वर्तमान में कार्यालयों के प्रत्येक टेबल पर राजभाषा के न केवल कागजात मिलेंगे बल्कि हिंदी के कुछ हद तक जानकार भी मिलेंगे। अब राजभाषा को लेकर कर्मचारियों में विरोध नहीं होता है बल्कि राजभाषा को सीखने की ललक दिखलाई पड़ती है जो राजभाषा के बढ़ते कदमों का एक सशक्त प्रतीक है। आज यदि पीछे मुड़कर देखें तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि राजभाषा ने अपने विकास की एक कीर्तिपूर्ण ऐतिहासिक यात्रा पूरी की है। एक वह भी समय था जब कार्यालयों में हिंदी के कागजात मुश्किल से दिखलाई पड़ते थे तथा यह माना जाता था कि कामकाज की भाषा के रूप में राजभाषा सफल नहीं हो पाएगी तथा एक सरकारी अभियान के रूप में यूं ही चलती रहेगी। वर्तमान में राजभाषा नित नए शब्दों से सजती जा रही है तथा कामकाज में इसका प्रयोग लगातार बढ़ते जा रहा है। यह कहना कि राजभाषा की प्रगति सौ दिन चले अढ़ाई कोस है तो यही कहा जा सकता है कि इस प्रकार की सोच रखनेवाले राजभाषा कार्यान्वयन की चुनौतियों तथा कठिनाईयों से पूरी तरह से परिचित नहीं हैं।

कार्यालय की एक पीढ़ी जिसकी शुरूआत 70 के दशक में हुई थी अब वह सेवानिवृत्ति के दायरे में है। यही वह पीढ़ी है जिसे यह बतलाया गया था कि अंग्रेजी के बिना जीवन की प्रगति कठिन है तथा इसके बिना नौकरी की सोच मात्र शेखचिल्ली का ख्वाब ही रह जाएगा। अस्सी की दशक में आई पीढ़ी को ज्ञात हो गया था कि हिंदी को अनदेखा करना कठिन है इसलिए इस पीढ़ी ने राजभाषा से खुद को जोड़ लिया तथा उसके बाद राजभाषा की कठिनाईयॉ बहुत कम हो गई। हिंदी भी कार्यालयों के काम में उपयोग में लाई जाती है यह अब सर्वसामान्य का स्वीकार्य तथ्य है। इसका तात्पर्य यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वर्तमान में राजभाषा समस्यामुक्त है। विकास की गति के संग चलने के लिए प्रत्येक भाषा को लगातार संवरते और निखरते रहना पड़ता है, राजभाषा भी इससे अछूती नहीं है। सत्तर और अस्सी के दशक की चुनौतियॉ लगभग समाप्त हो गई हैं किंतु नई चुनौतियॉ निरन्तर ऊभर रही हैं। द्वन्द्व और चुनौतियॉ विकास प्रक्रिया का एक स्वाभाविक अंग हैं और राजभाषा भी स्वंय के विकास संग इस दौर से गुजर रही है।

वर्तमान की राजभाषा प्रौद्योगिकी की कसौटी पर कसी जा रही है। नित नए सॉफ्टवेयरों के बावजूद भी प्रयोक्ता को प्रौद्योगिकी उन्मुख बनाना प्रत्येक कार्यालय का लक्ष्य है। देवनागरी की की बोर्ड से लेकर ट्रांसलिटरेशन तक के विस्तार में कहीं न कहीं कर्मचारी के पसन्दनुसार फिट करना आसान कार्य नहीं है। इसके अतिरिक्त विभिन्न कार्यालयों के कामकाज भी प्रौद्योगिकी के दायरे में है जिसमें हिंदी की सुविधा जोड़ना और उसमें कार्य करने के लिए प्रशिक्षित करना एक प्रमुख लक्ष्य है। प्रौद्योगिकी से वर्तमान नई पीढ़ी जुड़ी हुई है जबकि पुरानी पीढ़ी विशेषकर सत्तर और कुछ हद तक अस्सी के दशक की पीढ़ी स्वंय को प्रौद्योगिकी के अनुकूल ढालने में काफी कठिनाईयों का अनुभव कर रही है जिसमें परिवर्तन करना राजभाषा कार्यान्वयन की एक प्रमुख चुनौती है। यहॉ इस तथ्य का उल्लेख करना भी प्रासंगिक है कि एक समय माऊस ठीक से न पकड़ सकनेवाला कर्मचारी अब बेहिचक अपना काम उसी माऊस से सहजतापूर्वक और सरलतापूर्वक कर लेता है। यह कर्मचारी सत्तर के दशक का ही है। प्रौद्योगिकी से जुड़ने की प्रक्रिया में काफी हैरानी वाली बातें हुई जिसमें सर्वप्रमुख यह है कि जितनी तेजी से प्रौद्योगिकी को कर्मचारियों ने अपनाया वह कल्पना से परे है। राजभाषा इन्हीं झंझावातों में सफलतापूर्वक कार्यनिष्पादन दर्शा रही है।

राजभाषा में सुलभ कार्यालयीन साहित्य भी राजभाषा के उपयोग में अनवरत वृद्धि कर रहा है। कार्यालय के किसी भी विभाग के किसी भी विषय पर राजभाषा में साहित्य है जिससे कर्मचारी आसानी से तथा विश्वासपूर्वक राजभाषा में कार्य कर रहे हैं। इस कार्य को और सरल बनाने में संबंधित कार्यालयों की वेबसाइटों ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। इन वेबसाइटों पर कार्यालयीन साहित्य भी हिंदी में उपलब्ध है सिर्फ एक क्लिक की दूरी पर। आंतरिक कामकाज हो अथवा जनता के साथ सम्पर्क हो हर जगह राजभाषा का उपयोग हो रहा है। विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अधिकांशत: हिंदी का प्रयोग कर राजभाषा के महत्व को प्रतिपादित किया जा रहा है। अब विभिन्न कार्यालयों के उच्चाधिकारी भी जिस उत्साह और प्रेरणा से राजभाषा कार्यान्वयन में संलग्न हैं वह वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन के लिए उर्जा का कार्य कर रहा है। इस तरह प्रगति की अनेकों गाथाएं हैं किंतु मेरा उद्देश्य तो मात्र यह दर्शाना था कि वर्तमान में राजभाषा अत्यधिक सकारात्मक दौर से गुजर रही है और नित ने आब के साथ अपनी सार्थकता प्रमाणित कर रही है। राजभाषा अपने स्वर्णिम काल की और बढ़ रही है।

Subscribe to राजभाषा

रविवार, 1 अगस्त 2010

राजभाषा अनुराग का मिथक

हिंदी जब से सरकारी कामकाज की भाषा के लिए राजभाषा के रूप में सजने-संवरने लगी है तब से राजभाषा अनुरागियों की सतत वृद्धि हो रही है और राजभाषा कार्यान्वयन भी प्रगति दर्शा रही है। इस अनुराग को बहुत करीब से और बहुत वर्षों से देखते- निरखते मुझे राजभाषा अनुरागियों में विशेष आकर्षण दिखलाई देने लगा जिससे इसकी टोह लेने की एक समर्पित भावना मुझमें पनपने लगी। अकसर यह पाया जाता है कि राजभाषा जब किसी कर्मचारी के टेबल पर रबती है तो उसकी स्थिति अधिकांश टेबलों पर शरणार्थी की रहती है। सरकारी कर्मचारी के टेबल पर चूंकि अंग्रेजी का काम अधिक होता है और उसमॆ कार्य करने के अभ्यस्त होते हैं इसलिए हिंदी का जब भी कोई कागज कर्मचारियों के टेबल पर पहुंचता है तब उसकी स्थिति शरणार्थियों जैसी ही होती है। इसमें ना तो कर्मचारी को दोष है और ना उस हिंदी के कागज का यदि दोष है तो रोमन लिपि में लिखने के अभ्यस्त हॉथो को देवनागरी लिपि में लिखने की ज़हमत उठाने की। इस काल्पनिक ज़हमत को उठाने से मुक्ति मिलना संभव नहीं होता इसलिए उसपर कोई तीखी प्रतिक्रिया भी संभव नहीं होती। इन बंधनों की विवशता में एकाएक अनुराग उत्पन्न हो जाता है जिसमें भावनाओं से अधिक विवशताओं का बोलबाला रहता है।

विवशता मिश्रित यह अनुराग राजभाषा को गति प्रदान कर रहा है। यदि विवशता (जो काल्पनिक होती है) ना होती तो ? तो कर्मचारी बिना समय गंवाए बोल उठता कि हिंदी में काम करने नहीं आता है कृपया हिंदी विभाग में यह कागज भेजें। यदि राजभाषा विभाग भी नहीं होता तो ? तो सरकारी कार्यालयों में राजभाषा का कार्यान्वयन नहीं हो पाता। क्या यह सच है ? या फिर यह सच है कि गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग है इसलिए कार्यालयों को लक्ष्य के अनुसार राजभाषा में अपना कार्यनिष्पादन दर्शाना पड़ता है। हॉ, यही सच है कि यदि गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग ना होता तो राजभाषा का वर्तमान निखरा रूप अपने अस्तित्व में नहीं आता। इससे यह प्रमाणित होता है कि जैसे गंगा को गंगोत्री से जोड़कर ही गंगा के उद्गम तक पहुंचा जा सकता है वैसे ही राजभाषा को गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग से जोड़कर ही राजभाषा अनुराग को समझा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि राजभाषा कार्यान्वयन की धूरी गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग है किन्तु क्या भारतीय संविधान राजभाषा कार्यान्वयन के इसी रूप की और इंगित करता है ? इस प्रश्न का सटीक जवाब विभिन्न कार्यालयों के पास है जिसपर ना तो अधिकांश कार्यालयों के विभाग चिंतन करना चाहते हैं और ना चर्चा। ध्येय यही है कि राजभाषा का अनुराग ऐसा ही बना रहे।

राजभाषा के अनुराग को ऐसे ही बनाए रखने में विभिन्न कार्यालयों के राजभाषा विभागों के एक उद्देश्य की पूर्ति अवश्य होती है कि राजभाषा दिनोंदिन कर्मचारियों के बीच अपनी लोकप्रियता में वृद्धि कर रही है। इस लोकप्रियता के आकर्षक चादर तले उपयोगिता को खूबसूरती से छिपाया जाता है। कौन छिपाता है इसे यह प्रश्न उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है इस अनुरागी प्रवृत्ति का विश्लेषण। किसी भी कार्यालय में आप जाईए दीवारों से लेकर कम्प्यूटरों तक में हिंदी के विभिन्न घोष वाक्यों आदि से राजभाषा के अनुराग का जोरदार प्रदर्शन किया जाता है। कार्यालय द्वारा हिंदी में किए गए कार्यों की इस तरह तलाश की जाती है जैसे भूसे के ढेर में सूई ढूंढी जा रही हो। यह प्रवृत्ति जहॉ एक तरफ हिंदी के अनुराग को प्रदर्शित करती है वहीं दूसरी और यह भी दर्शाती है कि संसदीय समिति आदि द्वारा यदि निरीक्षण ना किया जाता तो शायद राजभाषा के कार्यनिष्पादनों का ना तो समुचित रिकॉर्ड रखने की कोशिश की जाती और ना ही उसे सहेजने का प्रयास किया जाता। क्या इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजभाषा अनुराग में कहीं कोई दबाव कार्य करता है ? यदि ऐसा कहीं है तो वह राजभाषा नीति के विपरीत है तथा इस अनुरागी प्रवृत्ति की विभिन्न स्तरों पर निवारक उपाय किए जाने चाहिए।

राजभाषा की कोई बैठक हो अथवा राजभाषा पर बोलने पर जब कोई अवसर मिले तब कई प्रेरणापूर्ण बातें होती हैं, कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं और उर्जापूर्ण संचार तथा स्प्न के साथ राजाभाषामयी भविष्य दिखता है किन्तु समय के साथ-साथ प्रेरणापूर्ण बातें तथा लिए गए महत्वपूर्ण निर्णय हाशिए पर चले जाते हैं जिसकी कौई विश्ष खोज-कबर नहीं ली जाती है। इसके अतिरिक्त इनका समुचित रिकॉर्ड होता है तथा इनको बार-बार प्रदर्शित कर राजभाषा अनुराग को जतलाया जाता है। राजभाषा कार्यान्वयन जगत में लिए गए निर्णयों पर कृत कार्रवाई की गहन समीक्षा नहीं की जाती हाँ जिसकी वजह से अधिकांश कार्यालय राजभाषा का उपयोग राजभाषा अनुराग प्रदर्शन के लिए करते हैं। राजभाषा कार्यान्वयन के हित में वर्तमान राजभाषा अनुराग की प्रवृत्ति घातक है। इससे सहज और स्वाभाविक राजभाषा कार्यान्वयन की गति में बाधा पहुंचती है। राजभाषा अनुराग का प्रदर्शन वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन का एख प्रमुख बाधक है। साहस के संग राजभाषा कार्यान्वयन करने से राजभाषा कार्यालय के प्रत्येक टेबल पर लेकप्रिय और उपयोगी हो जाएगी। राजभाषा अनुराग को मंचों, निरीक्षणों, प्रदर्शनियों आदि के अतिरिक्त टेबलों, कार्य की आदतॆ, फाईलों आदि में भी पहुंचने की आवश्यकता है।