शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

राजभाषा विभाग की हिंदी पत्रिकाएं

प्रत्येक सरकारी कार्यालय, बैंक, उपक्रम में सामान्यतया दो पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं जिसमें से एक गृह पत्रिका होती है तथा दूसरी राजभाषा विभाग की पत्रिका होती है। गृह पत्रिका द्विभाषिक होती है जबकि राजभाषा विभाग की पत्रिका केवल हिंदी में होती है। यदि राजभाषा विभाग की पत्रिका और गृह पत्रिका दोनों का अवलोकन किया जाए तो यह ज्ञात होता है कि सामग्री की दृष्टि से दोनों में समानता है और गृह पत्रिका केवल अंग्रेजी सामग्रियों के कारण राजभाषा विभाग की पत्रिका से भिन्न हैं अन्यथा दोनों पत्रिकाओं में बात एक ही है। ऐसी स्थिति में दोनों पत्रिकाओं की सामग्री में फर्क कर पाना मुश्किल होता है परिणामस्वरूप पाठक स्टाफ में एक उलझन की स्थिति निर्मित होती है। यहां यह कह देना आवश्यक है कि कुछ राजभाषा विभाग की पत्रिकाएं अपनी विशेष पहचान बनाए हुए हैं जिनकी संख्या काफी कम है। एक ही प्रकार की सामग्री सहित एक ही कार्यालय से दो पत्रिकाओं के प्रकाशन के औचित्य पर विचार कर आवश्यक परिवर्तन करने के बारे में सोचा क्यों नहीं गया यह एक आश्चर्यचकित करनेवाली स्थिति है।

यदि राजभाषा विभाग की पत्रिका पर गौर किया जाए तो यह प्रतीत होता है कि अधिकांश पत्रिकाएं – "छाप दिया जाए, प्रकाशित कर दिया" जाए शैली में कार्यरत हैं। सर्वविदित है कि राजभाषा विभाग की पत्रिकाओं का एकमात्र उद्देश्य राजभाषा कार्यान्वयन के विविध पक्षों में गतिशीलता लानी है। अपने-अपने क्षेत्रों से प्रकाशित यह पत्रिकाएं अपने क्षेत्र के कर्मियों के लिए कितनी सामग्री, संदर्भ साहित्य आदि प्रस्तुत करती हैं यदि इसका विश्लेषण किया जाए तो उत्साहजनक स्थिति नहीं होगी। इस पत्रिका में प्राय: हिंदी के किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार की रचना होती है और स्टाफ-सदस्यों की कहानी, कविता, व्यंग्य, पाककला, चुटकुले, हिंदी के विभिन्न प्रतियोगिताओं के पुरस्कार विजेताओं की सूची, विभिन्न आयोजनों के फोटो आदि के अतिरिक्त संदेश एवं संपादकीय होता है। पत्रिका का यह कलेवर अपने मूल उद्देश्य से हटकर कहीं व्यावसायिक पत्रिकाओं का अनुसरण करते हुए प्रतीत होता है। क्या यह कलेवर पत्रिका को राजभाषा कार्यान्वयन के लिए प्रेरक या मार्गदर्शक की भूमिका में प्रस्तुत करने में सहायक होगा यह एक विचारणीय मुद्दा है।

राजभाषा विभाग की पत्रिका को अपने आप में अति विशिष्ट और अपने क्षेत्र की कर्मियों की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। भारत सरकार की राजभाषा नीति को क्रमश: और निरन्तर प्रकाशित करते रहना चाहिए। प्रौद्योगिकी के माध्यम से भारतीय भाषाई सामंजस्यता के विभिन्न रूपों को सोदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। क्षेत्र विशेष की भाषाओं सहित उसका हिंदी पाठ से इतर राज्यों से आए स्टाफ को सहज ही भाषा परिचय हो सकेगा। स्टाफ सदस्यों को हिंदी में मौलिक लेखन के लिए प्रोत्साहन के साथ-साथ प्रत्येक अंक में नए स्टाफ के योगदान का समावेश सुनिश्चित करना चाहिए। इस प्रकार अनेकों ऐसे माध्यम हैं जिसके द्वारा पत्रिका स्टाफ तक और स्टाफ पत्रिका तक पूर्णतया पहुंच सकते हैं। सामन्यतया यह पाया गया है कि पत्रिका पूर्णतया स्टाफ केन्द्रित नहीं रहती है बल्कि उसका झुकाव साहित्य की तरफ अधिक होता है। प्रसंगवश यहॉ भारतीय रिज़र्व बैंक की पत्रिका बैंकिंग चिंतन-अनुचिंतन का उल्लेख करने से रूक पाना कठिन है क्योंकि यह पत्रिका अपने आप में एक आदर्श रूप है। राजभाषा विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका में बैंकिंग साहित्य के अलावा इतर साहित्य का समावेश विशेष अवसरों पर अधिकतम दो पन्नों का किया जाए तो पत्रिका का उद्देश्य बरकरार रहता है। ज्ञातव्य है कि इस प्रकार की पत्रिकाएं आंतरिक परिचालन के लिए होती हैं इसलिए इनका लक्ष्य भी आंतरिक परिवेश के अनुरूप होना चाहिए।

संपादन किसी भी पत्रिका का मेरूदंड होता है। यद्यपि यह भी एक कटु सत्य है कि संपादक की भूमिका निभानेवाले राजभाषा अधिकारियों में से अत्यधिक अल्प लोगों को संपादन का सामान्य ज्ञान और रूझान होता है इसलिए इन पत्रिकाओं का अवलोकन करते समय एक अलग नज़रिया की आवश्यकता होती है। अधिकांशत: राजभाषा अधिकारियों की पृष्टभूमि साहित्य की होती है इसलिए उनके लिए हिंदी साहित्य और कार्यालयीन साहित्य में अन्तर कर पाना कठिन हो जाता है और इसीलिए पत्रिका में इन दोनों साहित्य का न तो बेहतरीन तालमेल दिखलाई पड़ता है और ना ही पत्रिका अपनी विशेष छवि ही बना पाती है। यहॉ पर संपादक पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। संपादक ही सामग्री को संपादक मंडल के समक्ष रखता है इसलिए सामग्री का प्रथम चयन संपादक ही करते हैं। संपादक ही पत्रिका को रूप और दिशा देता है इसलिए पत्रिका की सफलता का दारोमदार प्रमुखतया पत्रिका के संपादक पर ही होता है। कार्यालयीन पत्रिका के प्रकाशन के लिए संस्था विशेष की जानकारी तथा राजभाषा नीतियों के ज्ञान के साथ-साथ इस विषयक अनोखी परिकल्पनाएं अत्यावश्यक है। राजभाषा कार्यान्यन का स्वप्न देखनेवाला ही राजभाषा विभाग से स्तरीय पत्रिका का प्रकाशन कर सकता है।

वर्तमान में निकलनेवाली राजभाषा विभाग की पत्रिकाओं के संपादकों का प्रत्येक छमाही में बैठक आवश्यक है जहॉं पर पत्रिका के माध्यम से राजभाषा कार्यान्वयन के लिए नए कदमों पर चर्चा हो तथा तदनुसार कार्यान्वयन हो। एक पत्रिका प्रकाशन आवश्यक है इसलिए पत्रिका प्रकाशित की जानी चाहिए जैसी सोच से इन पत्रिकाओं की गुणवत्ता में सुधार नहीं होगा। संपादक मंडल में संस्था विशेष के उच्चाधिकारी रहते हैं जो समय-समय पर मार्गदर्शन देते रहते हैं किंतु सामग्री एकत्र करना आदि संपादक मंडल का नहीं बल्कि संपादक, सह-सम्पादक आदि का कार्य है। प्रत्येक कार्यालय राजभाषा विभाग की पत्रिका के लिए लगातार सहयोग प्रदान करते रहता है तथा पत्रिका को राजभाषा कार्यान्वयन में उल्लेखनीय कार्य करने के लिए ऊँचाई प्रदान करना संपादक और कार्यालय विशेष के राजभाषा विभाग का कार्य है।


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2 टिप्‍पणियां:

  1. aadrniy dhirendra kumarji,
    saadar namaskar,aapne rajbhasha se sambandhit patrikaon ke sambandhmen thik hi likha he ki sampadakonki har chhah mahine men baithak honi chahiye.dhanyavad.Dr.Madhukar Padvi,Surat

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  2. agar apki ijajat ho to sadinama patrika ke liye lekh lena chahoonga .plz confirm. jjitanshu@yahoo.com, or just give me a miss call 09231845289 jitendra

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