शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

जय हो

जय हो, जय हो, जय हो
प्रतिद्वंदी का पराजय हो
शब्द शिल्पी गढ़ता रहे
धुन धमाका आशय हो

स्वर हाशिए पर टिका, लगे
आवाज़ महज़ जलाशय हो
एक निनाद वर्चस्वता का
चतुर तैराक की जय हो

प्रश्न मुद्रा में श्रवण खंगालता
संगीत से संबंध है साधता
झूमने-थिरकने से मन रहा
सिर्फ पुरस्कार कहे जय हो

बोल ही हैं गीत खोल
स्वर संवेदना हर शब्द तोल
इनका न अलग देवालय हो
समवेत सुर की जय हो

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

हिंदी से हिंदी की प्रतिद्वंदिता.

गंगा की तरह कल-कल, छल-छल बहती हिंदी भाषा के भी अनेकों नयनाभिराम तट हैं, इतिहास को स्वंय में समेटे हुए पुष्पित, पल्लवित होते कई घाट हैं तथा असंख्य मेलों, पर्वों आदि के द्वारा हिंदी अपने प्रवाह को शीतलता, मधुरता और उर्वकता से सजाते-सँवारते अपनी लोकप्रियता का शंखनाद किए जा रही है, कारवाँ दिन प्रति दिन नई मंज़िलें प्राप्त करते हुए निखरते जा रहा है। हिंदी के साज-श्रृंगार में विश्व की सहभागिता और योगदान के निनाद से हिंदी अपनी क्षमताओं के नए आयाम की ओर बढ़ रही है तथा संभावनाओं के नए द्वार को खोल रही है जिसको हम हिंदी फिल्मों, गानों, साहित्य, मिडीय, राजभाषा कार्यान्वयन आदि के द्वारा बखूबी अनुभव कर रहे हैं। इस प्रकार हिंदी की क्षमता अपनी विशेष छवि को एक मुकम्मल रूप देते जा रही है जिसके तहत् यह भी आवाज़ उठने लगी है कि क्या हिंदी महज़ भावनाओं को ही अभिव्यक्ति करने की क्षमता रखती है अथवा इसके और भी कई पाट हैं ? यदि उत्तर यह दिया जाए कि और भी पाट हैं तो इसका एक दिव्य दर्शन भारत में तो अवश्य होना चाहिए। अटपटी लगी यह बात क्योंकि भारत में तो हिंदी सड़क से लेकर संसद तक है फिर यह दिव्य दर्शन की सोच क्यों ऊभर आई है ?

यह सोच निराधार नहीं है। हिंदी का दिव्य पाट कोई और नहीं बल्कि व्यावसायिकता में हिंदी का बढ़ता प्रयोग है, हिंदी को कामकाजी भाषा के रूप में एक व्यापक आधार देने की तलाश है जिसे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मंच की आतुरतापूर्वक तलाश है। भूमंडलीकरण के दौर में विभिन्न दफ्तरों में भी राजभाषा की एक ऐसी पकड़ होनी चाहिए जिससे राजभाषा के विभिन्न तेवरों को हिंदी के विभिन्न घाटों से बखूबी जोड़ा जा सके। गंगा और यमुना का मिलन ऐतिहासिक, धार्मिक और भावनात्मक रागात्मकता का संगम बन इलाहाबाद की एक विशेष छवि निर्मित करने में सहायक हुआ है। कुछ ऐसा ही हो जाए कि कामकाजी हिंदी का भी रूप-रंग-तरंग हिंदी की अन्य विधाओं की भाँति निखर जाए। नि:संदेह हिंदी भाषा के इस संगम के लिए विश्व हिंदी मंच से बेहतर और क्या हो सकता है ? मैं तो यह मान कर चल रहा हूँ कि हिंदी भाषा के संगम की परिकल्पना का शुभारम्भ न्यूयार्क (विश्व हिंदी सम्मेलन) से हो चुका है अतएव संगम शब्द आते ही इलाहाबाद के बाद मेरे मस्तिष्क में जो दूसरा नाम उभरेगा वह न्यूयार्क के सिवा और क्या हो सकता है ? जहाँ संभावना उत्पन्न होती है, मूर्त रूप लेती है वही जन्म स्थली होती है।

राजभाषा हिंदी आज स्वंय को हिंदी की विभिन्न विधाओं के बीच अकेला अनुभव कर रही है जैसे कि मेले में साथ छूट गया हो। आकलन किया जाए तो यह स्पष्ट होगा कि भाषा की सभी खूबियों से राजभाषा हिंदी परिपूर्ण है फिर भी एक दीप्ति का अभाव खटकता है, मानो मध्याह्न में गोधूली बेला का प्रकाश हो। राजभाषा को सरकारी कार्यालयों तक ही सिमटे रूप में देखा जाना इतिहास की बात हो चुकी है, वैश्वीकरण ने कार्यालय से लेकर बाज़ार तक हिंदी के व्यवहार को विस्तारित कर दिया है जिसमें अनवरत विस्तार होते जा रहा है। कार्यालयों में प्रयोजनमूलक हिंदी को जब राजभाषा हिंदी के रूप में अपनाया गया था तो किसी को क्या मालूम था कि हिंदी को ही हिंदी से प्रतियोगिता करनी पड़ेगी ? राजभाषा हिंदी का प्रयोग करते हुए विभिन्न कार्यालयों विशेषकर सरकारी कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों में अक्सर यह बात कही जाती है कि राजभाषा हिंदी को उतना ही सरल, सहज और सर्वमान्य बनाया जाए जितना कि बोलचाल की हिंदी है। इन कार्यालयों में कार्यरत राजभाषा विभाग लगातार स्पष्ट करता आ रहा है कि लिखित और मौखिक भाषा में फर्क होता है परन्तु सरलीकरण की मॉग बदस्तूर जारी है।

राजभाषा हिंदी के सरलीकरण की मॉग को भाषाशास्त्र के नियमों की दुहाई देकर सुलझाया नहीं जा सकता है बल्कि एक स्वाभाविक अभिलाषा को अभिव्यक्ति से रोके जाने का एक बौद्धिक प्रयास अवश्य कहा सकता है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कार्यालय कर्मियों की सहज सरलीकरण की मॉग को देखते हुए भाषाशास्त्र के नियमों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। बैंकिंग, बीमा, आयकर आदि क्षेत्रों के पारिभाषिक, तकनीकी आदि शब्दों के सरलीकरण की राह दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है या यूँ कहा जाए कि वर्तमान में संभावना ही नहीं है तो शायद यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी परिस्थितियों में राजभाषा हिंदी को हिंदी की अन्य विधाओं के साथ जुगलबंदी प्रयोग की आवश्यकता महसूस होती है जिससे कि वह अपने तेवर में आमूल-चूल परिवर्तन कर प्रयोक्ता की कसौटी पर अपना परीक्षण दे सके। यह एक बड़ा प्रयोग है जिसके लिए वृहद मंच, वृहद प्रयोग और वृहद समीक्षा की आवधिक तौर पर आवश्यकता है।

राजभाषा हिंदी की वर्तमान शब्दावलियों के दुरूह लगनेवाले शब्दों के सरलीकरण का भगीरथ प्रयास जारी है। यह हल्का-फुल्का मज़ाक नहीं है बल्कि इस प्रयास में गंभीरता अपने पूर्ण ओजस में है तथा इसके परिणाम भी दृष्टिगोचित हो रहे हैं। यह शब्द तकनीकी, पारिभाषिक, विधिक आदि हैं तथा इन्हीं शब्दों के प्रयोक्ता की तलाश जारी है। साहित्य के रचे-बसे शब्दों के संग कार्यालयीन हिंदी के शब्दों की जुगलबंदी जम नहीं पाई है या यूँ कहें कि बन नहीं पाई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हिंदी की तमाम इ-पत्रिकाएँ तथा ब्लॉग हैं जो साहित्य की क्यारियों को अनवरत सिंचित कर रहे हैं किन्तु कार्यालय से महाविद्यालयों तक प्रयुक्त किए जानेवाले इन नए शब्दों को शब्दकोशों की लक्ष्मण रेखा में बाँध दिया गया है। इसका दायित्व विभिन्न कार्यालयों में कार्यरत कर्मियों पर है।

हिंदी में विभिन्न भाषिक प्रयोग सफलतापूर्वक किए जा रहे हैं। बोलचाल, गीत-संगीत, साहित्य-संवाद आदि विधाओं ने हिंदी को जिस लोकप्रियता की ऊँचाई प्रदान किया है उसी लोकप्रियता की प्राप्ति हेतु राजभाषा संघर्षरत है। हिंदी से हिंदी की यह प्रतिद्वद्विता हिंदी को एक नए अंदाज़ में प्रस्तुत करने की तैयारियॉ कर रही है तथा बाज़ारवाद और भूमंडलीकरण इसके लिए एक सशक्त आधार निर्माण में कार्यरत है।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

राजभाषा हिंदी और मानसिकता

एक सर्वमान्य कहावत है कि जहाँ धुआँ है वहाँ अग्नि भी किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान है। ठीक इसी तरह यह भी मान्यता है कि जहाँ मानव समुदाय है वहाँ अवश्य कोई न कोई भाषा होगी। इस संकल्पना के आधार पर यदि हम अनुमान लगाएँ कि भारत में कुल कितने मानव समुदाय हैं और कुल कितनी भाषाएँ हैं तो मामला उलझनपूर्ण हो जाएगा। भाषा, उप-भाषा और बोलियों के वर्गीकरण से संख्या हजारों तक पहुँच जाएगी। अंतत: संविधान के पन्ने पलट कर राजभाषा नीति को देखा जाएगा और वर्तमान में आठवीं अनुसूची में दर्ज कुल 24 भाषाओं की अधिकृत संख्या को सर्वमान्यता प्राप्त होगी। इस प्रकार मानव मस्तिष्क राष्ट्र की भाषागत उत्कंठा को एक संतोषप्रद विराम देने में सफल होगा।

क्या भारत देश के किसी नागरिक के लिए यह संभव है कि वह आठवीं अनुसूची में दर्ज कुल 24 भाषाओं में कार्य करे। यह प्रश्न प्रथम दृष्टया अपने आप में आधारहीन नजर आता है। मानव मन के व्यावहारिक पक्ष का यदि विश्लेषण करें तो अधिकांश मानसिकता भाषा के मुद्दे में या तो उलझन में हैं अथवा उदासीन हैं। वर्षों से भाषाओं के बारे में चर्चा करते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है कि देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हुए राजभाषा कार्यान्वयन की गति बढ़ानी चाहिए। राजभाषा कार्यान्वयन का यह प्रयास अति व्यापक, सघन और निरंतर गतिमान है। आठवीं अनुसूची में दर्ज़ भाषाएँ अपनी क्षमताओं को स्पष्ट कर चुकी हैं तथा सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में इन भाषाओं की उपयोगिता बखूबी प्रमाणित हो चुकी है। अपने-अपने राज्यों में यह भाषाएँ प्रगति कर रही हैं तथा एक-दूसरे राज्यों से पत्राचार हेतु प्रमुखतया अंग्रेज़ी का सहारा ले रही हैं ऐसी स्थिति में राजभाषा का प्रयोग अपेक्षित गति नहीं पकड़ पा रहा है। इस विषय पर किए गए विभिन्न विश्लषणों के परिणामों का स्पष्ट संकेत राजभाषा कार्यान्वयन की मानसिकता पाई गयी। राजभाषा कार्यान्वयन की सर्वप्रमुख चुनौती हिंदी में कार्य करने की मानसिकता में परिवर्तन लाना है।

मानसिकता में परिवर्तन के लिए अथक प्रयास जारी है। इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों के परिणाम भी मिल रहे हैं। भूमंडलीकरण से एक और दुनिया लगातार सिमट रही है तो दूसरी तरफ संपूर्ण विश्व अपनी-अपनी विशिष्ट पहचान के लिए प्रयत्नशील है। वैश्विक स्तर का यह एक नया द्वंद्व है जिसमें भौगोलिक सीमाओं के विस्तार के बजाए विभिन्न राष्ट्र अपनी सभ्यता और संस्कृति के विस्तार हेतु प्रयत्नशील हैं। ऐसी स्थिति में भाषा स्वंय ऊभरते हुए विश्व में अपनी पहचान बनाने लगी है जिसमें सांस्कृतिक गतिविधियॉ, वाणिज्यिक रिश्ते तथा सम्प्रेषण के विभिन्न साधनों का बखूबी उपयोगी किया जा रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम अपने देश का अवलोकन करें तो अंग्रेज़ी का प्रभुत्व अपनी अभेद्य सी लगनेवाली छवि से दूर जाता नज़र आ रहा है। विश्व में भाषाएँ वर्तमान में जिस तरह अपनी वर्चस्वता हेतु प्रयासरत हैं वह पहले कल्पनातीत थी। हिंदी के प्रति मानसिकता में भी व्यापक परिवर्तन हुआ है। कल तक हिंदी को केवल मनोरंजन की भाषा का दर्ज़ा देनेवाले आज राजभाषा हिंदी को भी खुले मन से स्वीकारने लगे हैं। इस स्वीकारोक्ति में राजभाषा की आवश्यकता सर्वमान्य है किंतु स्वंय राजभाषा में पहल कर कार्य करना अभी भी एक कठिन कार्य है। अंग्रेज़ी में कार्य करने की आदत तथा नीतियों आदि का मूल रूप से अंग्रेज़ी में ही तैयार किया जाना मानसिकता परिवर्तन में महत्वपूर्ण प्रतिकूल भूमिकाएँ निभाते हैं तथा इस परिवेश में राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े कर्मचारियों को इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास करने की आवश्यकता है।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

बैंकिंग का बदलता स्वरूप-प्रशिक्षण और हिंदी

आर्थिक जगत के भूमंडलीय परिवेश में पिछले दो दशक से व्यापक परिवर्तन हो रहा है जिसमें से पिछले दशक में आर्थिक जगत में नित नए परिवर्तनों की ऑधी सी आ गई है. किसी भी समाज या राष्ट्र के आर्थिक जगत की धूरी उस देश की बैंकिंग व्यवस्था होती है. सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ आवश्यकताएँ, आकांक्षाएँ और अभिलाषाएँ भी परिवर्तित होती हैं जिससे नव चेतना, नव उमंग का प्रादुर्भाव होता है. इन सबके परिणामस्वरूप बैंकिंग को भी तदनुसार परिवर्तन करना पड़ता है. भूमंडलीकरण के साथ-साथ देशगत परिस्थितियों ने भी बाजार के स्वरूप में लगातार परिवर्तन करना आरंभ किया. इस परिवर्तन से जनसामान्य के जीवन में भी बदलाव आना शुरू हुआ जिसके परिणामस्वरूप उनके आर्थिक जीवन में भी प्रगति की नई किरणें आनी शुरू हुई और फिर आरंभ हुआ नवधनाड्य¬ वर्ग जिसने उपभोक्तावाद संस्कृति को बढ़ाना शुरू किया. हमारे देश की उदार आर्थिक नीतियों से विश्व बाजार देश के बाजारों में दिखना आरंभ हुआ जिसे बाजार में नए उत्पादों के आगमन के साथ जनसामान्य में एक आकर्षण पैदा होने लगा. देश की आर्थिक स्थिति के सुधार होने की प्रक्रिया से जीवन शैली में वैभव की झलक मिलने लगी तथा बेहतर सुख और सुविधाओं की मांग बढ़ने लगी. इस प्रकार की आर्थिक प्रगति, सामाजिक परिवर्तन आदि ने जनसामान्य के मन में सपने सजाने शुरू किए तथा हैसियत से बढ़कर जीने की ललक ने व्यक्ति को बैंकों की ओर मुड़ने पर विवश किया. बैंकों ने इस स्थिति का भरपूर लाभ उठाया और नई-नई योजनाओं के साथ बेहतर सेवा प्रदान कर ग्राहक आधार बनाने लगा.

बैंकिंग के इस बदलते स्वरूप को एक प्रतियोगितापूर्ण तेज गति देने में विदेशी बैंकों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया. विदेशी बैंकों की ग्राहक सेवा एक गति और आकर्षण लिए हुए थी. विदेशी बैंकों के परिसरों ने भी राष्ट्रीयकृत बैंकों के परिसर परिकल्पना को एक नई उर्जा प्रदान की. बैंकों के सामने एक तरफ शहरीय तथा महानगरीय जनता की आवश्यकताएँ थीं तो दूसरी ओर ग्रामीण जनता की जरूरतों को पूरा करने का दायित्व भी था. इन दायित्वों के अंतर्गत राष्ट्रीयकृत बैंक अपने बड़े आधार और विस्तृत ग्राहक अपेक्षाओं को दृष्टिगत रखते हुए स्वंय में इतना व्यापक परिवर्तन लाना आरंभ किया कि बैंक के स्टाफ तक हतप्रभ रह गए. बैंकों ने अपनी कार्यशैली में परिवर्तन लाया जिसमें सूचना और प्रौद्योगिकी पर निर्भरता लगातार बढ़ती गई. बैंको की योजनाओं को नए नाम उत्पाद से जाना जाने लगा. बैंक ग्राहकों के पास जाने लगा ता उनके घर तक अपनी सेवाएॅ पहुँचाने लगा. प्रौद्योगिकी ने बैंकिंग के लगभग सभी कार्यकलापों को अपने अंदर समेट लिया जिसे कार्यनिष्पादन की गति में उल्लेखनीय वृद्धि हुई. परिवर्तनों को बैंकिंग के सभी स्तरों पर देखा जाने लगा ता इन परिवर्तनों में बैंकों के बीच बेहतर होने की होड़ सी लग गई. ग्राहक शाहंशाह बन गया. इस प्रकार बैंकिग के नए रूप में आकर्षक सेवाएॅ, बेहतर शाखा परिसर, रोमांचकारी ग्राहक सेवाओं ने बैंकिंग सेवा की वि·ासनीयता में वृद्धि किया तथा 24 घंटे बैंकिंग को साकार किया.
एक अत्यधिक तेज गति के साथ प्रगति करती हुई बैंकिंग दुनिया को बहुत जल्दी समझ में आने लगा कि ग्राहकों के लिए सारी व्यवस्थाएँ और सुविधाएँ एकत्र कर लेने के बावजूद भी ग्राहक के बौद्धिक और भावनात्मक रूप को भी समझना आवश्यक है. इस जरूरत को पूर्ण करने के लिए बैंक को विज्ञापन तथा ग्राहक संपर्क का सहारा लेना पड़ा ता यहॉ पर भाषा का महत्व प्रमुखता से उभरकर आया. बैंकों की आपसी होड़ में उनके उत्पाद, उनकी ब्याज दरें आदि सभी लगभग एकसमान हो गर्इं तब इस स्थिति में स्टाफ की कुशलता में निखार लाने के लिए गहन प्रशिक्षण की आवश्यकता का भी अनुभव किया जाने लगा.
बैंकों के प्रशिक्षण महाविद्यालयों पर एक नया दायित्व आने लगा तथा बेहतर और प्रभावशाली सम्प्रेषण के लिए अधिकांश महाविद्यालयों में प्रशिक्षण मिली-जुली भाषा हिंदी और अंग्रेजी में दिया जाना आरंभ किया गया. इस प्रकार के प्रशिक्षण प्रदान करने से पहली बार बैंकिंग प्रशिक्षण में राजभाषा की उपयोगिता का सफल प्रशिक्षण हो सका तथा साथ ही साथ प्रशिक्षणार्थियों की उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया ने इस दिशा में आगे बढ़ने का प्रोत्साहन दिया. महाविद्यालयों द्वारा केवल हिंदी में भी प्रशिक्षण दिया जाना आरंभ किया गया. केवल हिंदी में दिए गए प्रशिक्षण को प्रशिक्षणार्थियों ने एक प्रयोग के रूप में सराहा किंतु इसमें कुछ कठिनाईयों का भी अनुभव किया गया. इस प्रकार प्रशिक्षण में हिंदी ने अपने महत्व और उपयोगिता को सफलतापूर्वक स्थापित किया तथा संकाय-सदस्यों में भी हिंदी प्रशिक्षण के प्रति आत्मवि·ाास पैदा किया. बैंकिंग और हिंदी के आपसी ताल-मेल में एक स्वाभाविक लयबद्धता भी स्पष्ट हुई. राजभाषा हिंदी के सरलीकरण, हिंदी में तैयार किए गए हैंडआउट, बैंकिंग के विभिन्न विषयों पर हिंदी में लिखी पुस्तकों की मॉग बढ़ने लगी.

बैंकिंग के विभिन्न विषयों पर अंग्रेजी में जितनी पुस्तकें उपलब्ध हैं उसकी तुलना में हिंदी में लिखी पुस्तकें काफी कम है. इस दिशा में भारतीय रिज़र्व बैंक तथा भारतीय बैंक संघ द्वारा उठाए गए कदम उल्लेखनीय है. हिंदी में बैंकिंग की नई विधाओं पर पुस्तकें हिंदी में आनी शुरू हो गई हैं जो अनुदित नहीं हैं बल्कि मूल रूप से हिंदी में लिखी गई हैं. हिंदी की इन पुस्तकों द्वारा यह तथ्य स्पष्टतया उभरा है कि बैंकिंग के गंभीरतर विषयों को हिंदी में अभिव्यक्त किया जा सकता है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि साहित्य, रंगमंच, फिल्मों तथा बोलचाल में अपनी उपयोगिता और धाक जमानेवाली हिंदी के लिए बैंकिंग प्रशिक्षण के लिए साहित्य सरल, सहज और सर्वमान्य भाषा में दे पाना हिंदी भाषा की विशिष्टता का द्योतक है. यदि बैंककर्मियों की हिंदी भाषा के प्रति रूझान का विश्लेषण किया जाए तो अभी भी वह लिखित रूप की तुलना में बोलचाल के रूप में ज्यादा प्रयोग में लाई जाती है. बैंकिंग प्रशिक्षण में उपयोग में लाई जानेवाली मिलीजुली भाषा सर्वाधिक लोकप्रिय है जिसमें यह स्वतंत्रता रहती है कि जब चाहें तब हिंदी और अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करें. भारतीय रिज़र्व बैंक मिली-जुली भाषा के स्थान पर हिंदी भाषा के प्रयोग की सिफारिश करता है तथा रिपोर्ट में भी मिली-जुली भाषा विषयक कोई कॉलम नहीं है. यह संकाय-सदस्यों के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य है क्योंकि यदि अखिल भारतीय स्तर का कार्यक्रम है तो उसमें केवल हिंदी में चर्चा करने पर सम्प्रेषण की समस्या हो सकती है. हिंदी में सहजतापूर्वक कार्य करनेवाले ही हिंदी माध्यम से प्रशिक्षण का लाभ ले सकते हैं.
हिंदी में हैंडआउट तैयार करना प्रशिक्षण में हिंदी की दूसरी चुनौती है. अंग्रेजी के हैंडआउटों का अनुवाद किया जाना इस समस्या का एक अल्पकालिक व आपातकालीन उपाय है. जब तक संबंधित विषय के संकाय द्वारा हिंदी में मूल रूप से हैंडआउट तैयार नहीं किया जाता है तब तक प्रशिक्षण में हिंदी अपनी जड़ें गहरी नहीं जमा सकती हैं. अनुदित हैंडआउट की अपनी सीमाएँ होती हैं जिसमें विषय की सही अभिव्यक्ति, भाषा की सहजता आदि की समस्याएॅ उभर सकती हैं. प्रशिक्षण महाविद्यालयों के लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम वे अपने सभी हैंडआउटों का अनुवाद कर लें जिससे कि मूल रूप में हैंडआउट तैयार करने की एक रूपरेखा संकाय-सदस्यों को मिल सके. इस दिशा में बैंकिंग प्रशिक्षण महाविद्यालयों को एक सार्थक पहल करनी चाहिए. इस दिशा में प्रगति कर चुके महाविद्यालय हिंदी का प्रभावशाली उपयोग सफलतापूर्वक कर रहे हैं. प्रशिक्षणार्थियों की ओर से भी हिंदी के हैंडआउटों की मॉग बढ़ रही है किंतु मूल रूप से हिंदी के अधिकांश हैंडआउट न बन पाने के कारण अंग्रेजी के हैंडआउटों पर निर्भरता अभी भी ज्यादा है. हैंडआउट को अधिकाधिक हिंदी में तैयार किया जाए इसके लिए बैंकों को अपनी योजनाएॅ तैयार करनी चाहिए. इस विषय पर संकाय-सदस्यों की संगोष्ठी एक कारगर उपाय हो सकता है. हैंडआउटों को हार्ड प्रतियों के साथ-साथ सॉफ्ट प्रति जैसे सी.डी. के रूप में भी महाविद्यालयों ने देना आरम्भ किया है जिसमें केवल सी.डी. की मॉग ही होती है. यदि हिंदी हैंडआउटों की भी सी.डी. तैयार करा ली जाए तो प्रशिक्षण में हिंदी की उपयोगिता को गति मिलेगी यद्यपि इस दिशा में अभी पहल करना शेष है.
प्रशिक्षण में हिंदी का प्रयोग बढ़ाने में हिंदी में बनाए गए पॉवर प्वांइट का भी सराहनीय योगदान है. विषय पर चर्चा करनेवाले संकाय को हिंदी के पॉवर प्वांइट से जहॉ एक तरफ हिंदी के शब्द सरलता से मिलते हैं वहीं दूसरी तरफ प्रशिक्षणार्थियों को भी विषय को और गहराई से समझने में सुविधा होती है. बैंकिंग के बदलते स्वरूप में विपणन एक प्रमुख नायक के रूप में उभरा है. प्रत्येक बैंक एक निर्धारित राशि विज्ञापन पर खर्च कर रहा है जिसमें राज्य विशेष की भाषाओं के साथ प्रमुखतया हिंदी और अंग्रेजी को स्थान दिया जा रहा है. बैंककर्मियों को अब शाखा से बाहर निकलकर अपने उत्पादों को बेचने के लिए नए ग्राहकों को तलाशना पड़ता है जिसमें भाषा की प्रमुख भूमिका रहती है. प्रशिक्षण महाविद्यालय भी भविष्य की भाषा आवश्यकता को समझकर अपनी नई-नई भूमिकाएॅ निर्धारित कर रहे हैं. हिंदी अब तक शाखा के फाइलों के बीच घूमती रहती थी जिसमें प्रशासन, बैंकिंग आदि की गंभीर और शुष्क शब्दावलियॉ रहती थीं किंतु बैंकिंग के बदलते प्रवेश ने हिंदी को फाइलों से बाहर खींचकर जनता के बीच खड़ा कर दिया है. ऐसी स्थिति में हिंदी को अपने कार्यालयीन शैली को बरकरार रखते हुए भाषा में भावुकता का भी मिश्रण करना है जिसे कि लोग आकर्षित होकर बैंक के उत्पाद को खरीद सकें.
बैंकिंग के बदलते स्वरूप में प्रशिक्षण में हिंदी के उत्तरोत्तर प्रयोग को बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि भाषा प्रयोगशाला की स्थापना की जाए. विभिन्न भाषा-भाषियों को राजभाषा हिंदी सीखने में क्या-क्या कठिनाईयॉ होती हैं इन मुश्किलों को हल करने के उपाय किए जाए. हिंदी में तैयार प्रशिक्षण सामग्री का समय-समय पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए तथा उसमें आवश्यक सुधार किया जाना चाहिए. हिंदी में मूल रूप से हैंडआउट तैयार करनेवाले संकाय को प्रोत्साहित करना चाहिए जिससे कि वे मूल रूप से हिंदी में अपने विषय की पुस्तक लिख सकें. प्रति तिमाही में आंचलिक स्तर और अखिल भारतीय स्तर पर एक-एक कार्यक्रम प्रत्येक प्रशिक्षण महाविद्यालय द्वारा आयोजित किए जाने चाहिए तथा छमाही में इनकी समीक्षा की जानी चाहिए. इस प्रकार प्रशिक्षण में हिंदी की आकर्षक, आसान और आत्मसक्षम छवि निर्मित हो सकती है

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

विश्व हिंदी सम्मेलन और राजभाषा

गंगा की तरह कल-कल, छल-छल बहती हिंदी भाषा के भी अनेकों नयनाभिराम तट हैं, इतिहास को स्वंय में समेटे हुए पुष्पित, पल्लवित होते कई घाट हैं तथा असंख्य मेलों, पर्वों आदि के द्वारा हिंदी अपने प्रवाह को शीतलता, मधुरता और उर्वकता से सजाते-सँवारते अपनी लोकप्रियता का शंखनाद किए जा रही है, कारवाँ दिन प्रति दिन निखरते जा रहा है। हिंदी के साज-श्रृंगार में विश्व की सहभागिता और योगदान के निनाद के गुंजन से हिंदी अपनी क्षमताओं के नए आयाम की ओर बढ़ रही है तथा संभावनाओं के नए द्वार को खोल रही है जिसको हम हिंदी फिल्मों, गानों, साहित्य, मिडीया आदि के द्वारा बखूबी अनुभव कर रहे हैं। इस प्रकार हिंदी की क्षमता अपनी विशेष छवि को एक मुकम्मल रूप देते जा रही है जिसके तहत् यह भी आवाज़ उठने लगी है कि क्या हिंदी महज़ भावनाओं को ही अभिव्यक्ति करने की क्षमता रखती है अथवा इसके और भी कई पाट हैं ? यदि उत्तर यह दिया जाए कि और भी पाट हैं तो इसका एक दिव्य दर्शन भारत में तो अवश्य होना चाहिए। अटपटी लगी यह बात क्योंकि भारत में तो हिंदी सड़क से लेकर संसद तक है फिर यह दिव्य दर्शन की सोच क्यों ऊभर आई है ?

यह सोच निराधार नहीं है। हिंदी का दिव्य पाट कोई और नहीं बल्कि व्यावसायिकता में हिंदी का बढ़ता प्रयोग है, हिंदी को कामकाजी भाषा के रूप में एक व्यापक आधार देने की तलाश है जिसे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मंच की आतुरतापूर्वक तलाश है। भूमंडलीकरण के दौर में विभिन्न दफ्तरों में भी राजभाषा की एक ऐसी पकड़ होनी चाहिए जिससे राजभाषा के विभिन्न तेवरों को हिंदी के विभिन्न घाटों से बखूबी जोड़ा जा सके। गंगा और यमुना का मिलन ऐतिहासिक, धार्मिक और भावनात्मक रागात्मकता का संगम बन इलाहाबाद की एक विशेष छवि निर्मित करने में सहायक हुआ है। कुछ ऐसा ही हो जाए कि कामकाजी हिंदी का भी रूप-रंग-तरंग हिंदी की अन्य विधाओं की भाँति निखर जाए। नि:संदेह हिंदी भाषा के इस संगम के लिए विश्व हिंदी मंच से बेहतर और क्या हो सकता है ? मैं तो यह मान कर चल रहा हूँ कि हिंदी भाषा के संगम की परिकल्पना का शुभारम्भ न्यूयार्क (विश्व हिंदी सम्मेलन) से हो चुका है अतएव संगम शब्द आते ही इलाहाबाद के बाद मेरे मस्तिष्क में जो दूसरा नाम उभरेगा वह न्यूयार्क के सिवा और क्या हो सकता है ? जहाँ संभावना उत्पन्न होती है, मूर्त रूप लेती है वही जन्म स्थली होती है।

राजभाषा हिंदी आज स्वंय को हिंदी की विभिन्न विधाओं के बीच अकेला अनुभव कर रही है जैसे कि मेले में साथ छूट गया हो। आकलन किया जाए तो यह स्पष्ट होगा कि भाषा की सभी खूबियों से राजभाषा हिंदी परिपूर्ण है फिर भी एक दीप्ति का अभाव खटकता है, जैसे कि गोधूली बेला। राजभाषा को सरकारी कार्यालयों तक ही सिमटे रूप में देखा जाना इतिहास की बात हो चुकी है, वैश्वीकरण ने कार्यालय से लेकर बाज़ार तक हिंदी के व्यवहार को विस्तारित कर दिया है जिसमें अनवरत विस्तार होते जा रहा है। कार्यालयों में प्रयोजनमूलक हिंदी को जब राजभाषा हिंदी के रूप में अपनाया गया था तो किसी को क्या मालूम था कि हिंदी को ही हिंदी से प्रतियोगिता करनी पड़ेगी ? राजभाषा हिंदी का प्रयोग करते हुए विभिन्न कार्यालयों विशेषकर सरकारी कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों में अक्सर यह बात कही जाती है कि राजभाषा हिंदी को उतना ही सरल, सहज और सर्वमान्य बनाया जाए जितना कि बोलचाल की हिंदी है। इन कार्यालयों में कार्यरत राजभाषा विभाग लगातार स्पष्ट करता आ रहा है कि लिखित और मौखिक भाषा में फर्क होता है परन्तु सरलीकरण की मॉग बदस्तूर जारी है।

राजभाषा हिंदी के सरलीकरण की मॉग को भाषाशास्त्र के नियमों की दुहाई देकर सुलझाया नहीं जा सकता है बल्कि एक स्वाभाविक अभिलाषा को अभिव्यक्ति से रोके जाने का एक बौद्धिक प्रयास अवश्य कहा सकता है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कार्यालय कर्मियों की सहज सरलीकरण की मॉग को देखते हुए भाषाशास्त्र के नियमों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। बैंकिंग, बीमा, आयकर आदि क्षेत्रों के पारिभाषिक, तकनीकी आदि शब्दों के सरलीकरण की राह दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है या यूँ कहा जाए कि वर्तमान में संभावना ही नहीं है तो शायद यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी परिस्थितियों में राजभाषा हिंदी को हिंदी की अन्य विधाओं के साथ जुगलबंदी प्रयोग की आवश्यकता महसूस होती है जिससे कि वह अपने तेवर में आमूल-चूल परिवर्तन कर प्रयोक्ता की कसौटी पर अपना परीक्षण दे सके। यह एक बड़ा प्रयोग है जिसके लिए वृहद मंच, वृहद प्रयोग और वृहद समीक्षा की आवधिक तौर पर आवश्यकता है।

राजभाषा हिंदी की वर्तमान शब्दावलियों के दुरूह लगनेवाले शब्दों के सरलीकरण का भगीरथ प्रयास जारी है। यह हल्का-फुल्का मज़ाक नहीं है बल्कि इस प्रयास में गंभीरता अपने पूर्ण ओजस में है तथा इसके परिणाम भी दृष्टिगोचित हो रहे हैं। यह शब्द तकनीकी, पारिभाषिक, विधिक आदि हैं तथा इन्हीं शब्दों के प्रयोक्ता की तलाश जारी है। साहित्य के रचे-बसे शब्दों के संग कार्यालयीन हिंदी के शब्दों की जुगलबंदी जम नहीं पाई है या यूँ कहें कि बन नहीं पाई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हिंदी की तमाम ई-पत्रिकाएँ तथा ब्लॉग हैं जो साहित्य की क्यारियों को अनवरत सिंचित कर रहे हैं किन्तु राजभाषा को कार्यालय से महाविद्यालयों तक प्रयुक्त किए जानेवाले इन नए शब्दों को शब्दकोशों की लक्ष्मण रेखा में बाँध दिया गया है। इसका दायित्व विभिन्न कार्यालयों में कार्यरत कर्मियों पर है। एक अथक प्रयास संग सरकारी कामकाज में हिन्दी के प्रयोग को बढ़ाया जा रहा है किंतु राजभाषा कार्यान्वयन का एक राष्ट्रीय सशक्त स्तंभ निर्मित होना शेष है। विश्व हिंदी सम्मेलनों में यदि एक खंड राजभाषा का रखा जाए तो यह एक अभूतपूर्व उपलब्धि होगी।

यार मिला

रश्मियों सी गति मिली
सूरज जैसा आब मिला
झिलमिल सांझ अंधेरे में
एक लुढ़कता ख़्वाब मिला

डाली लचक झूमकर गाए
विहंग वृंद भी चहचहाए
पुष्प गंध-रंग बिखराए
गालों पर लट पेंग लगाए

हरी घास की कोमलता में
धड़कन का अहसास मिला
नयनों की राहों को
राही का विश्वास मिला

और उतरते सूरज से
धरती को अपना प्यार मिला
खुशकिस्मत मिल बातें करें
किस्मत से अपना यार मिला।

धीरेन्द्र सिंह.

हिन्दी और राजभाषा

भारतीय संविधान ने 14 सितंबर, 1949 को हिन्दी का राजभाषा का दर्जा दिया। हिंदी को संघ के सरकारी कामकाज की भाषा बनाने के लिए राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया। आम बोलचाला की भाषा, गीत-संगीत की भाषा, मीडिया की भाषा, साहित्य की भाषा के रूप में हिंदी अपनी विशिष्टता सहित जन-जन तक पहुँचने में समय नहीं लेती इसलिए इसकी लोकप्रियता अत्यधिक है। राजभाषा हिन्दी के मामले में ऐसी स्थिति नज़र नहीं आती है। वर्तमान में विभिन्न कार्यालयों में राजभाषा राजभाषा कार्यान्वयन की गति धीमी है तथा इस धीमी गति का नियमित विश्लेषण विभिन्न मंचों पर किया जाता है किंतु अपेक्षित प्रगति नहीं हो पा रही है। वस्तुत: राजभाषा और हिंदी में संघर्ष जारी है तथा हिंदी की लोकप्रियता के साये तले राजभाषा अपनी एक सशक्त छवि निर्मित करने में संघर्षरत है। यहॉ यह विचारणीय है कि यह संघर्ष क्यों? क्या राजभाषा को अपनी विशेष छवि निर्मित करने के लिए हिन्दी के साये तले ही रहना पडेगा? क्या राजभाषा खुले आसमान में नहीं पनप सकती है? कौन देगा इन सब प्रश्नों का उत्तर? जब भी हिंदी और राजभाषा का सवाल उठता है तब इस प्रकार के अनेकों अनेकों प्रश्न ऊभरते हैं।

राजभाषा और हिंदी का संघर्ष एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे क्रमश: कम किया जा सकता है किंतु इस संघर्ष को कम करने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया जा रहा है। सामान्यतया यह भी प्रश्न किया जाता है कि राजभाषा हिन्दी और हिन्दी तो एक ही है फिर कैसा फर्क और कैसा संदेश? एक स्थूल अंतर तो यही है कि राजभाषा शुद्धत: कामकाजी भाषा है तथा इसमें सामान्यतया वह शब्दावलियॉ होती हैं जिनका सामान्य शब्दावली में प्रयोग कम होता है जबकि हिन्दी की शब्दावलियॉ बहुप्रचलित होती हैं। कार्यालयों के कर्मचारियों को हिन्दी की शब्दावली काफी प्रचलित लगती हैं जबकि राजभाषा के शब्दों के लिए उन्हें शब्दकोशों का सहारा लेना पड़ता है। राजभाषा में विभिन्न शब्दावलियॉ हैं जिनका धीरे-धीरे उपयोग हो रहा है इसलिए उनकी लोकप्रियता कीभी गति धीमी है। कर्मचारी प्राय: हिन्दी की शब्दावली को राजभाषा की शब्दावली से काफी करीब और सुपरिचित पाता है परिणामस्वरूप जब कर्मचारी राजभाषा में कुछ लिखना आरम्भ करता है तो उसे इन शब्दावली संघर्ष से गुजरना पड़ता है। राजभाषा में शब्दावली प्रयोग का द्वन्द्व ही राजभाषा और हिन्दी का स्वाभाविक द्वन्द् है।

यह तथ्य है कि अभी कुछ और वर्ष राजभाषा को अपनी विशेष छवि बनाने के लिए हिन्दी के साये तले रहना पड़ेगा। राजभाषा कार्यान्वयन के तमाम प्रयासों के बावजूद व्यावहारिक तौर पर कार्यालयों में राजभाषा उतनी लोकप्रिय नहीं हो पायी है जितनी उसे अब तक होना चाहिए था। राजभाषा को लोकप्रिय बनाना एक प्रमुख दायित्व है जिसमें केवल ऊर्जा की ही आवश्यकता नहीं है बल्कि एक विशेष उल्लास की भी आवश्यकता है। वर्तमान में राजभाषा के पास वह सारी विशेषताएं हैं जो इसे एक अभूतपूर्व ऊँचाई प्रदान कर सके। विभिन्न कार्यालयों के कर्मचारी अब भी राजभाषा में कार्य करना कठिन समझते हैं जो एक काल्पनिक कठिनाई है। इस कठिनाई को दूर करने लिए कार्यालयीन परिवेश में हीं को उसके विभिन्न रूपों में समय-समय पर प्रस्तुत करते रहना समय की मांग है।


राजभाषा खुले आसमान के नीचे पनप रही है। राजभाषा कार्यान्वयन में असंख्य उल्लेखनीय कार्यों का अनवरत सिलसिला जारी है। एक सकारात्मक परिवेश निर्मित हो रहा है तथा राजभाषा का विपुल साहित्य निर्मित किया जा चुका है। कर्मचारियों द्वारा राजभाषा के प्रयोग में हिचकिचाहट समाप्त हो गई है तथा राजभाषा को अपने कार्य में सम्मिलित करने का प्रयास जारी है। राजभाषा कार्यान्वयन एक उड़ान की तैयारी में है जिसमें एक पहचान बनाने की अभिलाषा है। हिन्दी और राजभाषा का संघर्ष कामकाजी हिंदी को एक नया रूप दे रहा है जिसमें भारत की सभी भाषाएँ भी सम्मिलित हैं। आलोचना के द्वारा इस विषय की गहराई को नहीं समझा जा सकता है, इसे समझने के लिए किसी कार्यालय में राजभाषा कार्यान्वयन का जायजा लेना ही सर्वोत्तम तरीका है।

धीरेन्द्र सिंह.

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

होली,कृष्ण और मानव संसाधन.

होली एक पर्व है, होली एक उल्लास है, होली एक सांस्कृतिक धरोहर है, होली बहुरंगी फुहारों का मौसम है, होली-होली-होली न जाने कितने भावों को प्रदर्शित करने की क्षमता रखती है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि होली एक सांस्कृतिक उल्लासपूर्ण पर्व है जिसमें कृष्ण और गोपिकाएँ प्रमुख हैं। समय में अनेकों बदलाव आए किंतु होली की लोकप्रियता अपने पायदान पर बरकरार है। कृष्ण और गोपिकाओं की होली को समय ने कई परिवर्तनों से सँवारने का प्रयास किया है जिसके परिणामस्वरूप होली न केवल विविध रंगों में नज़र आती है बल्कि अनेकों अभिनव अंदाज़ में भी दिखलाई पड़ती है। यूँ तो होली रंगों का पर्व है। होली मौसम के बदलते खूबसूरत अंदाज़ का एक तराना है तथा परिचितों-अपरिचितों को रंग देने का एक सर्वमान्य बहाना है। होली त्योहार के आते ही मौसम का मिज़ाज बहकने लगता है जिसके प्रभाव को उस समय की बौरायी हवाओं मं अनुभव किया जा सकता है। हर गली, हर मुहल्ले के लोग होली के दिन रंग खेलने की योजनाएँ अपने व्यक्तिगत निवेश की तरह गंभीरतापूर्वक नियोजित करने लगते हैं। होली के अवसर पर हर उम्र के लोग रंगदेने और रंगजाने की हसरतें लिए रहते हैं और होली के दिन हर पुरूष कृष्ण और हर नारी गोपिका की भूमिका को बखूबी निभाने का प्रयास करते हैं। अनिवासी भारतीयों के संग विदेशों तक पहुँच कर होली अपनी विशेष छाप छोड़ चुकी है।

होली और कृष्ण के विस्तृत आयामों की समीक्षा करने पर मानव संसाधन की एक नायाब अनुभूति होती है। होली का असर विभिन्न कार्यालयों में भी रहता है, जी नहीं, मैं कार्यालय कर्मियों की होली की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि मेरा ईशारा कार्यालय के मानव संसाधन विभाग की ओर है। मानव संसाधन विभाग एक ओर व्यक्ति के बौद्धिक प्रगति के दायित्व को संभालता है तो दूसरी तरफ वह कर्मियों के भावनात्मक लहरों पर भी अपनी दृष्टि लगाए रहता है। प्रत्येक संस्था में नया जोश, नई शैली और नया अंदाज़ उत्पन्न करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है। लगभग फागुन के महीने से ही प्रत्येक कार्यालय का मानव संसाधन विभाग विभागीय पदोन्नति तथा स्थानान्तरण का कार्य आरम्भ कर देता है और अधिकांश कर्मचारी संशय में रहते हैं, न जाने कौन सी पुड़िया उनके हिस्से में आ जाए। होली में जैसे पिचकारी के या मुट्ठी के रंग का अंदाजा नहीं रहता है उसी तरह मानव संसाधन विभाग की पदोन्नति या स्थानांतरण की पूर्व जानकारी नहीं रहती है। यदि इस पर गहन दृष्टि डाली जाए तो यह संकेत मिलता है कि कार्यालयों में प्रबंधन का एक अंग-मानव संसाधन विकास विभाग कृष्ण की भूमिका निभा रहा है अथवा इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि कर्मचारियों ने मानव संसाधन के इस रूप को स्वीकार कना आरम्भ कर दिया है। कृष्णलीला की भॉति मानव संसाधन विकास विभाग की लीला भी कर्मचारियों में अत्यधिक लोकप्रिय है तथा इसकी हर गतिविधियों में कर्मचारियों की आस्था और लगन है।

मानव संसाधन का कोई रूप नहीं है, न तो इसका बाल्यकाल होता है और न ही युवाकाल बल्कि यह हमेशा अपनी धुन में खोया रहनेवाला रूपहीन, गंधहीन और स्पर्शहीन एक जीवंत संवेदना है जो कर्मचारियों की सांसों की लय पर कान्हा की बांसुरी की नए सुर और ताल को सजाते रहता है। कृष्णकाल में अपनी किसी भी समस्या के समाधान के लिए गोप-गोपियॉ कृष्ण को पुकारते हुए दौड़ पड़ते थे, वर्तमान के कार्यालयीन परिवेश में मानव संसाधन कृष्ण के चुनौतीपूर्ण कार्य को निभा रहा है। होली का मौसम आते ही जहॉ देश के गली-कूचों में रंगों की बारात सजने लगती है वहीं कार्यालयों में भी मानव संसाधन की और से रंगों की बौछारें शुरू हो जाती हैं, किसी को स्थानांतरण के रंगों से भिगोया जाता है, किसी के माथे पर पदोन्नति का गुलाल लगता है, किसी को लक्ष्य प्राप्ति की ठंढई मिलती है तो कोई शुभ्र धवल बेदाग वस्त्रों को पहने अगली होली की प्रतीक्षा करने लगता है। हॉ, कर्मचारियों में यह मलाल रह जाता है कि मानव संसाधन कहीं मिलता तो जम कर उसके साथ होली खेलते।

श्याम हो कि राधा हो या कि मानव संसाधन हो, मौसम जब होली का होता हो तो रंग अपना स्थान ले लेता है। होली के मौसम में किसने किस रंग में स्वंय को रंगा पाया यह रंग से कहीं अधिक भावनाओं से जुड़ा है। भावनाएँ जब होली से जुड़ती हैं तो कृष्ण की अनुभूति स्वत: उत्पन्न हो जाती है और इस भावनात्मक प्रवाह में यदि मानव संसाधन अपने महत्व को सहज दर्शाता है तो इससे ऊपजी शब्द रूपी अभिव्यक्ति कुछ और नहीं बल्कि होरी होती है। मानव संसाधन विकास विभाग कृष्ण जैसा व्यक्तित्व लेकर मनमोहक, खुशियों से पूर्ण रंगों की फुहार से सब कर्मियों को गुदगुदाहट भरी शीतलता देता रहे।

धीरेन्द्र सिंह.

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

प्रशिक्षण

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई से हार्बर लाईन द्वारा शाम के समय पनवेल की ओर जानेवाली लोकल ट्रेन के डिब्बे सामान्यतया मानखुर्द स्टेशन के बाद आसानी से सॉस लेने लगते हैं और इसी स्टेशन से ट्रेन में मौसमी फल, अगरबत्ती, रूमाल, दॉत मज़बूत करने के पावडर और ना जाने क्या-क्या चीजें बिकती रहती हैं। विभिन्न वस्तुओं को बेचने वालों के आने का सिलसिला शुरू हो जता है तथा इन बहुरंगी विक्रेताओं के संग विभिन्न शैली थथा मुद्रा में भिक्षा मांगनेवाले भी आते रहते हैं। इस प्रकार ट्रेन में आर्थिक और सामाजिक स्थितियों के बहुआयामी अऩुभवों के साथ यात्रा जारी रहती है। यात्री भी इसके अभ्यस्त रहते हैं इसलिए आवाज़ कर्कश हो या मीठी उसमें निर्लिप्त हुए बिना स्थितिप्रज्ञ शैली में यात्रा जारी रहती है। यह लोकल ट्रेन का स्वाभाविक दैनिक दृश्य है। इसमें कभी-कभी कुछ नयापन भी दिखलाई पड़ता है जैसे पिछले कुछ दिनों से कुछ बालिकाओं का 3-4 समूह बेसुरा हारमानियम की सहायता से हिंदी फिल्मों के गीतों को अपने सुर में ढालकर भिक्षा मांग रही हैं। यह समूह सामान्यतया दो बालिकाओं का है यदा-कदा तीन बालिकाएँ दिख जाती हैं। इनके हारमोनियम के सुर तथा इनके गीतों के सुर में दूर-दूर तक कोई तालमेल नज़र नहीं होता है फिर भी इन बालिकाओं का संगीत प्रेम यात्रियों के श्रवण क्षमता की परीक्षा ले रहा है। इस प्रकार सामान्य तौर पर उपयोग में लायी जानेवाली वस्तुओं के सस्ते दामों की हलचलों, नए-पुराने हिंदी फिल्मा गीतों के बेसुरे नए-नए तर्ज़ तथा भक्तिभाव में डूबे निर्धारित यात्री समूहों की भजन मंडली के संग यात्रियों की बातचीत, ठहाकों, झगड़ों आदि के बीच प्रतिदिन एक चुनौतीपूर्ण यात्रा पूरी होती है। यह सब नियमित, निर्विघ्न चलते रहता है, मुंबई की लोकल ट्रेन की भॉति।

एक दिन यात्रा के दौरान एक असामान्य और अपरिचित अनुभव से गुजरना पड़ा। ट्रेन के डिब्बे में एक बालिका का सिसकियों भरा रूदन सुनाई दे रहा था। उस रूलाई में भयपूर्ण दर्द छुपा हुआ था जिसमें कड़े से कड़े दिलवाले व्यक्ति को हला देने की क्षमता थी। उस रूलाई में छिपे दर्द के भाव मुझे भी पीछे मुड़कर देखने पर विवश कर दिया। पछे मुड़कर डिब्बे में दूर-दूर देखने पर भी मुझे कोई नज़र नहीं आया किंतु सिसकयॉ लगातार सुनाई पड़ रही थी। अचानक एक सात-आठ वर्षीय बालिका मेरे आगेवाली सीट पर आकर बैठ गयी तथा तथा पीछे की ओर बड़े गुस्से से देखने लगी। धूलधूसरित बाल, मैली-कुचैली जीर्ण फ्राक, धूल भरे चेहरेवाली बालिका के मनोभावों को मैं पढ़ने की कोशिश कर रहा था कि एकाएक नन्हीं अंगुलियों के स्पर्श से मैं चौंक पड़ा, देखा तो मेरे सामने एक पॉच-छह वर्षीय बालिका भय से कांपते हुए भिक्षा मांग रही थी। ऑसुओं की सूखी लकीरों ने उसके धूल भरे गालों पर एक स्पष्ट रेखा बना दिया था मानो वह उसके भाग्य की लकीरें हों। उसके चेहरे पर केवल भय था तथा बीच-बीच में वह बैठी हुई लड़की को भयभीत निगाहों से देख लिया करती थी। मैंने देखा कि मेरे सामनेवाली सीट पर बैठी हुई बालिका भिक्षा मांगती हुई बालिका को ईशारे से दिशानिर्देश दे रही थी। उसके दिशानिर्देशों पर ध्यान देने से पता चला कि वह अपनी ऑखों के ईशारे से भिक्षा मांगती बालिका को संकेत दे रही है कि किस यात्री के पास अधिक देर तक रूक कर भिक्षा मांगनी चाहिए, किस यात्री के समक्ष गिड़गिड़ाना चाहिए, कब डिब् की दूसरी ओर की पंक्ति की ओर जाना चाहिए आदि।

अधिकांश यात्री रोती हुई बालिका को पैसे देकर उसकी पीड़ा के सहभागी बन रहे थे। बैठी हुई बालिका लगातार भिक्षा मांगती हुई लड़की को धमका रही थी। काफी देर से रोती हुई बालिका की शक्ति क्षीण होती जा रही थी जिससे उसका रूदन का स्वर धीरे-धीरे कम होते जा रहा था जिससे सिसकियॉ यात्रियों को स्पष्ट सुनाई नहीं दे रही थी परिणामस्वरूप वह यात्रियों की दयापात्र नहीं बन पा रही थी। अचानक बैठी हुई लड़की उठी और अपने हॉथ की लुटिया से भिक्षा मांगती लड़की के सिर पर तेज़ गति से प्रहार कर यथास्थान बैठ गई और मार खाकर बालिका ऊँचे सुर में रोती-बिलखती हुई भिक्षा मांगने लगी। मार खाकर बालिका के भिक्षा मांगने में करूणा ज्यादा दिखने लगी। थोड़ी देर बाद बालिका बालिका की रूलाई में फिर थोड़ी कमी आई तो बैठी हुई लड़की भिक्षा मांगती बालिका पर झपट पड़ी और रोती हुई बालिका भयाक्रांत हो चीख पड़ी,एक यात्री ने रोती हुई बालिका का बचाव करते हुए दूसरी बालिका को बुरी तरह डॉटा तो अगले स्टेशन पर दोनों बालिकाएँ उतर गईं।

कुछ दिनों बाद फिर दोनों बालिकाएँ ट्रेन में मिलीं। इस बार बैठी हुई बालिका तनावरहित थी तथा उसके हॉथ में लुटिया भी नहीं थी। भिक्षा मांगनेवाली बालिका की रूदन में एक स्वाभाविक दर्द था तथा वह तेज़ गति से भिक्षा मांग रही थी थथा बीच-बीच में उड़ती हुई निगाहों से बैठी हुई बालिका को देख लेती थी। भिक्षा मांगनेवाली बालिका ने पूरे डिब्बे में हृदय दहलानेवाली लाचार, दर्दभरी आवाज़ के साथ भिक्षा मांगते हुए डिब्बे में चर्चा का विषय बन चुकी थी। अगले स्टेशन पर वह कब ऊतर गई पता ही नहीं चला। मुंबई महानगर के पल-प्रतिपल दौड़ती-भागती हादसों भरी ज़िंदगी में बालिका का रोता हुआ असहाय दर्दभरा चेहरा मुझे याद आते रहा। लगभग एक सप्ताह बाद फिर भिक्षा मांगनेवाली बालिका ट्रेन में मिली, धूल भरे कपोलों पर सूखे आंसुओं की पंक्ति थी, रूलाई में एक ऐसा दर्द था जो सहज ही यात्रियों के मन को प्रभावित कर रहा था। इस बार वह अकेली थी तथा उसके गले में एक छोटी थैली लटक रही थी।
धीरेन्द्र सिंह.

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

राजभाषा अधिकारियों की चुनौतीपूर्ण भूमिका

राजभाषा कार्यान्वन की गूँज ने 1980 के दशक से कार्यालयों में सजगता लाना आरम्भ की इसलिए मेरी दृष्टि से व्यापक तौर पर राजभाषा कार्यान्वयन का यह प्रथम दशक था। यह आरम्भिक चरण राजभाषा कार्यान्वयन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूर्ण करने का समय था। इस दशक में निम्नलिखित मदों में विशेष तौर पर कार्य हुआ -


1. द्विभाषिक/त्रिभाषिक नाम बोर्ड, द्विभाषिक रबड़ की मुहरें, धारा 3(3) के दस्तावेजों का अनुवाद आदि;
2. हिंदी टाइपिंग,आशुलिपि,हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्रदान करने का दायित्व पूर्ण करना था;
3. बैंकों/उपक्रमों/ सरकारी कार्यालयों  में राजभाषा कार्यान्वयन के लिए अनुकूल और प्रेरणापूर्ण राजभाषा कार्यान्वयन का माहौल निर्मित करना था;
4. गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग,नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियों में सार्थक एवं प्रभावी उपस्थिति दर्ज कर कार्यालय की एक बेहतर छवि निर्मित करना था;
5. कर्मचारियों में राजभाषा कार्यान्वयन के प्रति सकारात्मक रूझान उत्पन्न करना था;
6. भारत सरकार की राजभाषा नीति - प्रेरणा, प्रोत्साहन और सद्भावना के अनुरूप राजभाषा कार्यान्वयन का अनुपालन करने के दिशानिर्देश के अनुरूप कार्यालयो,बैंकों,उपक्रमों को प्रगति दर्शाना था ;

विभिन्न कार्यालयों में सफलतापूर्वक उक्त कार्य पूर्ण हो चुके है तथा राजभाषा की कई उपलब्धियॉ उनको प्राप्त हो चुकी हैं किंतु प्रथम शताब्दी के समापन के अंतिम कुछ वर्षों में राजभाषा के सुर-ताल में कुछ बेसुरेपन का आभास होना आरम्भ हुआ जिसका प्रभाव विभिन्न कार्यालयों में द्वितीय शताब्दी में भी दिखलाई पड़ रहा है इसलिए यह आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि द्वितीय शताब्दी के शुभारम्भ के अवसर पर राजभाषा अधिकारियों की भूमिका पर एक बार फिर गहन विचार किया जाए।
केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों ने राजभाषा कार्यान्यवन विषयक   अनेकों कीर्तिमान, सम्मान पाये और अपनी विशिष्ट पहचान प्राप्त की, अतएव 90 के दशक का आगमन पूरे जोश, उल्लास और एक अति नवीन दृष्टि से हुआ जिसके अंतर्गत देश के विभिन्न कार्यालय ही नहीं प्रभावित हुए बल्कि राष्ट्र का सम्पूर्ण कामकाजी परिवेश भी प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप जनमानस पर भी इसका अनुकूल प्रभाव हुआ तथा समय के अनुसार राजभाषा कार्यान्वयन और राजभाषा अधिकारियों की चुनौतीपूर्ण भूमिकाएँ भी समयानुसार परिवर्तित हुईं

कालान्तर में राजभाषाई परिवर्तन अत्यधिक व्यापक हो गया जिसके अंतर्गत आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों में परिवर्तन दिखना आम्भ हो गया है। राजभाषा अधिकारियों के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वे भारत सरकार की राजभाषा नीति के दायरे में राजभाषा कार्यान्वयन को एक नई शैली प्रदान करें और स्वंय की उपयोगिता को नए परिवेश में सार्थक, सुफलदायक और सहज बनाएँ। यह कार्य स्वंय राजभाषा अधिकारियों को ही करना पड़ेगा क्योंकि विशेषज्ञता के क्षेत्र में समय संग बनती-मुड़ती राहों की नब्ज़ पर राजभाषा अधिकारी की विशेषज्ञतापूर्ण पकड़ है अतएव वे समयानुसार पहल, परिवर्तन और प्रगति दर्शा सकते हैं जिसमें हमेशा की तरह प्रबंधन का विवेकपूर्ण सहयोग मिलता रहेगा। अतएव राजभाषा अधिकारी की चुनौतीपूर्ण भूमिका में किसी प्रकार की नीतिगत एवं प्रशासनिक स्तर की कठिनाईयॉ नज़र नहीं आ रही हैं। इसके अतिरिक्त परिवर्तन का तेज और प्रगतिपूर्ण अंदाज़ यह स्पष्ट संकेत दे रहा है कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए राजभाषा अधिकारियों को अपनी भूमिका में भी आवश्यक परिवर्तन लाना होगा। यही समय की मांग है। द्वितीय शताब्दी में राजभाषा अधिकारियों की कुछ प्रमुख भूमिकाएँ होंगी :-

1. राजभाषा कार्यान्वयन के प्रति नई दृष्टि अपनाई जानी चाहिए ।


क्या है यह नई दृष्टि -

क. देश में बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद के बढ़ते-बदलते चलन और उसके अनुकूल निखरती-बदलती हिंदी भाषा ;
जिसके परिणामस्वरूप ग्राहकों से सामान्य पत्राचार व लेखन में वर्तमान चलन के अनुरूप राजभाषा में परिवर्तन की आवश्यकता है। इस दिशा में क्षेत्रीय आवश्यकता के अनुसार राजभाषा अधिकारियों को ग्राहकों को भेजे जानेवाले पत्रों में यथानुसार भाषागत परिवर्तन-परिवर्धन कर ग्राहकों के संग सशक्त और संगत सम्प्रेषण निर्मित करना होगा ताकि रिश्तों की बुनियाद और मजबूत हो।

ख. हिंदी सॉफ्टवेयर से चोली-दामन का संबंध निर्मित किया जाए। इससे सभी प्रकार के लिखित सम्प्रेषण आकर्षक, प्रभावी और तेज़ गति के होंगे जिससे राजभाषा कार्यान्वयन में और तेज़ी आएगी।

ग. अपने उत्पादों के बारे में पूर्ण जानकारी रखना जिससे कि राजभाषा को कार्यालयीन परिवेश के साथ बेहतर ढंग से जोड़ा जा सके। यह एक कड़वी सच्चाई है कि राजभाषा के एक विशाल शब्द भंडार के बावजूद भी राजभाषा, टेबल पर कार्य कर रहे स्टाफ के लेखनी की धड़कन नहीं बन सकी है। विभिन्न उत्पादों की जितनी ज्यादा जानकारी होगी, राजभाषा के विभिन्न साहित्य का प्रभाव उतना ही व्यापक होगा।

घ. समर्पित आत्मीयतापूर्ण राजभाषा कार्यान्वयन के बल पर ही राजभाषा की लोकप्रियता में सतत् वृद्धि की जा सकती है। राजभाषा अधिकारियों को कुशलतापूर्वक स्टाफ-सदस्यों को राजभाषा में अधिकाधिक कार्य करने के लिए तैयार करना है। इसके लिए सर्वप्रथम राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा के प्रति प्रतिबद्ध और कटिबद्ध होना चाहिए।

ङ. नवीनता के संग राजभाषा कार्यान्वयन किया जाए। वर्तमान अति तेज़,अति नवीन और अति परिवर्तनीय है इसलिए 80 के दशक के अनुरूप यदि वर्तमान में भी राजभाषा कार्यान्वयन किया जाएगा तो ऐसा प्रतीत होगा जैसे नई साज-सज्जा वाले टेबल पर बासी भोजन प्रदान किया जा रहा है।

च. प्रदर्शन पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। अधिकांश कार्यालयों के राजभाषा कार्यान्वयन की संभवत: यह सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि वह किए गए बेहतरीन कार्यों का समयानुसार कुशलतापूर्वक प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं।

छ. नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति में अपनी नेतृत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करना। केवल औपचारिक उपस्थिति मात्र से इस बैठक में हम अपने बैंक की बेहतर छवि निर्मित नहीं कर सकते हैं बल्कि राजभाषा अधिकारी को चाहिए कि अपने उच्चाधिकारी से चर्चा कर, एक कार्यनीति बनाकर नराकास समिति में पूर्ण सक्रिय और सार्थक चर्चा करें तथा प्रत्येक पल को अपने बैंक के हित के लिए मोड़ने की सफल क्षमताओं का प्रदर्शन करें।

ज. गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय के उप-निदेशक से लगातार संपर्क बनाए रखना तथा अपने महत्वपूर्ण राजभाषा के आयोजनों में उन्हें आमंत्रित करना जिससे कि कार्यालय की छवि में निखार आए और हमारे कार्यों को करीब से देखने का उन्हें अवसर प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार तत्काल इनके यथोचित दिशानिर्देश भी प्राप्त हो सकते हैं।

झ. नेतृत्व की कुशलता में प्रभावशाली विकास लाना जिससे कि न केवल अपने कार्यालय के विभिन्न मंचों बल्कि अन्य आमंत्रित मंचों पर भी एक प्रभावशाली नेतृत्व करनेवाले की पहचान बने।

ञ. बेहतर आदर्श प्रस्तुत करना। राजभाषा अधिकारी को हिंदी के लेखन, संबोधन, आयोजन आदि में एक बेहतर नमूना अथवा आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए जिससे राजभाषा कार्यान्वयन को एक गति मिलेगी तथा राजभाषा अघिकारी अपने विषय का वस्तुत: विशेषज्ञ के रूप में स्वीकार किया जाएगा जो राजभाषा कार्यान्वयन के लिए अत्यधिक आवश्यक है।

ट. अपने उच्चाधिकारी तथा कर्मचारियों से समय-समय पर राजभाषा कार्यान्वयन की चर्चा कर उन्हें की राजभाषा नीति की नवीनतम जानकारियॉ प्रदान करना जिससे कार्यान्वयन में कहीं अटकना या रूकना न पड़े।

राजभाषा अधिकारियों / हिन्दी अधिकारियों को अब राजभाषा कार्यान्वयन के सबस चुनौतीपूर्ण समय से गुजरना है जिसमें एक तरफ प्रौद्योगिकी है जिससे रिश्ता बनाने के प्रयास में अभी भी बहुसंख्यक व्यस्त हैं, दूसरी और परिपक्व कर्मचारी हैं जिन्हें हिंदी में कार्य करने के लिए प्रेरित करना है और इसके अलावा राजभाषा अधिकारी पर कृत्रिम कार्यालयीन भाषा, कठिन हिन्दी आदि का परम्परागत आरोप भी लगते रहते हैं। यदि राजभाषा अधिकारी समय के संग खुद को मांजता हुआ अपनी चमक से प्रभावित नहीं कर पाएगा तो वह प्रभावशाली राजभाषा कार्यान्यवन कर पाएगा इसमें संदेह है।








शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

बदलती जीवनशैली, ऋण भार और रिटेल उत्पाद.

परिवर्तन एक अनवरत प्रवाह है। बदलाव सृष्टि को गति और नवीनता प्रदान करता है। सृष्टि में आज दिखलाई पड़नेवाला रूप, रंग, गंध कल बदले हुए अंदाज़ में मिलेगा तथा परसों फिर उसमें कुछ नयापन मिलेगा। मानव भी इसी ढंग से जीवनयापन करता है। कृषि प्रधान भारत देश में सत्तर के दशक तक सामान्य जीवन शैली ही समाज पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए थी यहाँ तक कि भारतीय लेखन तथा फिल्मों में भी ग्राम प्रधान परिवेश का ही वर्चस्व था। संयुक्त परिवार अपने पारंपरिक सलीके को अपनाए हुए था। भारतीय अर्थव्यवस्था में अस्सी के आरंभिक दशक में परिवर्तन परिलक्षित होने लगे। शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार से नौकरी-व्यवसाय के लिए भारतीय जनजीवन में विस्थापन आरम्भ हुआ। संयुक्त परिवार में परिस्थितिबाध्य विलगाव आरम्भ हुआ जो कालांतर में एकल परिवार में परिणत हुआ। इस प्रक्रिया में व्यक्ति संयुक्त परिवार से ही दूर नहीं हुआ बल्कि वह अपने पर केंद्रित होना शुरू हुआ और स्वकेंद्रित होकर अपने स्वप्नों की दुनिया का ताजमहल बनाना आरम्भ किया। भूमंडलीकरण, सरकार की खुली आर्थिक नीतियों से व्यक्ति की कल्पनाओं और जीवन स्तर को ऊँचा उठाने का एक नया आयाम मिला।

हमारे देश में अस्सी के दशक में उपभोक्तावाद ने अंगड़ाईयाँ लेना आरम्भ किया तथा निजी और विदेशी बैंक अपनी उपस्थिति दर्ज करने लगे। इस प्रक्रिया में नब्बे के दशक में बैंकेतर वित्तीय संस्थानों की बाढ़ सी आ गई तथा इसके साथ लुभावने शर्तों और आकर्षक ब्याजदर पर ऋण प्रदान करने की संभावाओं की बारिश सी होने लगी। जनमानस में इसका प्रभाव तेजी से हुआ तथा हसरतों की बारातें सजने लगीं तथा बैंक और विभिन्न आर्थिक संस्थाएँ इसका पूरा लाभ उठाते हुए हर वर्ग और हर समुदाय के लिए विभिन्न उत्पादों को प्रस्तुत करने लगे। इस प्रकार भारतीय जीवन शैली में आधारभूत परिवर्तन होने लगा तथा जीवन में सुख-सुविधा के आदर्शों में परिवर्तन होने लगा। जीवन शैली में विलासिता शब्द अपने अर्थ को व्यापकता प्रदान करते हुए जीवन स्तर के विभिन्न आयामों से खुद को जोड़ते हुए विलासिता और आवश्यकता की दूरियाँ को कम करने लगा। इतना ही नहीं इस आर्थिक आजादी ने जीवन दर्शन को भी प्रभावित किया तथा भविष्य के लिए धन संचय करने की प्रवृत्ति ने "वर्तमान ही जीवन है" दर्शन के प्रति लोगों को आकर्षित किया। इस दर्शन को "जब चाहें तब ऋण उपलब्ध है" के रूप में हर जगह प्रदर्शित जादुई वाक्य से भी एक आधार मिला।

यह उल्लेखनीय है कि अस्सी के दशक से भारतीय सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक परिवेश में क्रांतिकारी परिवर्तन स्पष्ट दिखलाई पड़ने लगा। परिवार एक छोटी इकाई बन चुका था जिसकी चाहत आसमान को छू लेने की बनती रही। बात केवल चाहत तक ही सिमटी हुई नहीं थी बल्कि उसको पूर्ण करने के लिए आर्थिक आधार की भी अकुलाहटपूर्ण तलाश जारी थी। एक परिवार के पति-पत्नी दोनों ही नौकरी-व्यवसाय की हिमायत करते हुए घर की आय को बढ़ाने लगे तथा साथ ही साथ अधिक ऋण लेकर उसके चुकौती की क्षमता को भी बढ़ाने लगे। उपभोक्तावाद का तेज दौर आरम्भ हुआ और उपभोक्तावादी संस्कृति देश के दूर-दराज के क्षेत्रों की सोच में भी अपनी पकड़ मजबूत करती गई।

ऋण भार - मजबूत बनता गणतंत्र
स्वतंत्रापूर्व हमारे देश की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ स्वतंत्रता के बाद भी काफी समय तक जनमानस को प्रभावित करती रही। औसत व्यक्ति की आय कम थी तथा व्यक्ति की मानसिकता ऋण लेने की नहीं थी संभवत: इसका यह भी एक कारण रहा होगा कि उस समय न तो ऋण के इतने अवसर थे और न ही उपभोक्तावाद संस्कृति अस्तित्व में थी । बैंक के बारे में सामान्य लोगों की धारणा थी कि इसमें पैसा जमा किया जाता है तथा जरूरत पड़ने पर निकाला जाता है जो ब्याज मिलाकर अधिक राशि के रूप में प्राप्त होता है। साहूकार-महाजन से कर्ज लेकर ब्याज देने की अस्पष्ट प्रणाली ने सामान्य जन-जीवन में ऋण के प्रति एक स्वाभाविक नीरसता ला दी थी। भूमंडलीकरण के आवेग ने सामान्य जनजीवन में ऋण के प्रति सम्मोहनपूर्ण आकर्षण उत्पन्न किया। प्रति व्यक्ति औसत आय में वृद्धि ने ऋण के नए-नए उत्पादों में से बेहतर के चयन की शक्ति प्रदान किया। देश की राजनैतिक और आर्थिक स्थिति में मजबूती की निरंतरता ने वि•ा के सबसे बड़े गणतंत्र के आम जनजीवन को मजबूती प्रदान किया।

बैंकिंग क्षेत्र के बदलाव ने बदल दी ज़िंदगानी
भारत सरकार की आर्थिक नीतियों से तथा भूमंडलीकरण के प्रभाव से बंद दरवाजे खुल गए जिससे विदेशों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बैंकों, कंपनियों आदि को देश में आने का रास्ता खुल गया । वर्ष 1988 से बैंकिंग की नई क्रांति शुरू हुई एवं बैसल-2 का प्रादुर्भाव हुआ। अमेरिका के "लोन एण्ड सेविंग्स" ने बैंकिंग जगत को एक नई सोच और समझदारी से कार्य करने की नवीन प्रणालियों पर चिंतन का आधार प्रदान किया। पहले ऋण लेने से बचनेवाले भारतीय अब बैंकों से बेहिचक ऋण लेते हैं तथा क्रॉस सेलिंग के द्वारा वे एक से अधिक ऋण लेने का मौका नहं चूकते हैं। वित्त मंत्रालय, भारत सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों के ब्याज दर में कमी लाकर ऋण लेना आसान कर दिया है। आर्थिक क्रांति की वजह से उद्योग जगत की गतिशीलता में उछाल की गति बरकरार है। आर्थिक प्रगति और उद्योग जगत की बहुविधा तेज गति ने प्रति व्यक्ति आय में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की है जिससे उनमें ऋण भार उठाने की अदम्य क्षमता उत्पन्न हुई है। देश में कल तक महिलाएँ चौका-बरतन में ही अपने दायित्वों को पूरा कर खुश हुआ करती थीं अब वे परिवार के आर्थिक सहयोग में भी अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए नौकरी-व्यवसाय उन्मुख हो गई हैं। इससे परिवार की आर्थिक स्थिति में गौरवपूर्ण निखार आने लगा है तथा ऋणभार को उठाने की शक्ति में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।

बैंकिंग क्षेत्र की तरलता में गंगा स्नान का सुख बैंकिंग क्षेत्र की तरलता बढ़ जाने से बैंकों को मजबूर होकर ब्याज दर को कम करना पड़ा तथा ऋण को और आकर्षक बनाना पड़ा। इस प्रक्रिया में नए उत्पादों की प्रतियोगितापूर्ण बाढ़ सी आ गई तथा सूचना और प्रौद्योगिकी इसमें काफी सहायक हुई। आवास ऋण आदि की चुकौती अवधि में वृद्धि कर बैंकों ने ग्राहकों को पूरी तरह से आकर्षित करने में प्राप्त किया तथा ग्राहक 15, 20 तथा यहॉ तक कि 25 वर्षों की आवास ऋण की चुकौती अवधि पाकर अपने नीड़ को महल में सहजतापूर्वक सजग देने लगा। आवास ऋण में आयकर की छूट की सुविधा ने "सोने पे सुहागा" कहावत को बखूबी चरितार्थ किया है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ शुरू हुई तथा बाजार की खूबसूरती ऋण की नैया द्वारा घर के संगीत से जुगलबंदी करने लगी। ऋण की चुकौती में समयावधि में ही इज़ाफा नहीं हुआ बल्कि किश्तों में अदायगी को भी लचीला बनाया गया। कई बैंकों ने गारंटी को निकाल दिया जिससे ऋण प्राप्त करने के लिए ग्राहक बेहिचक बैंक से संपर्क करने लगे।

युवा जनसंख्या - आवेगपूर्ण जिंदगी
भारत देश की वर्ष 2003 की जनगणना से यह स्पष्ट होता है कि भविष्य का भारत युवाओं का भारत है। जनगणना के आंकड़े निम्नानुसार हैं :-

60 वर्ष और अधिक 07
35 से 59 वर्ष तक 23
15 से 34 वर्ष तक 35
0 से 14 वर्ष तक 35

उक्त आंकडों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि भारत की 70ऽ जनसंख्या 35 वर्ष से कम उम्र की है। यह जनसंख्या देश के विभिन्न क्षेत्रों में गतिशीलता में वृद्धि ला रही है। विशेषकर जनसंख्या का यही भाग जीवन की भी सुविधाओं को यथाशीघ्र प्राप्त करने की कामना रखता है जिससे कि ऋण लेने की प्रवृत्ति को बढावा मिला है। कथित युवा पीढ़ी ने परंपागत शिक्षा में परिवर्तन लाई है तथा विभिन्न व्यासायिक पाठ¬क्रमों से शिक्षा प्राप्त कर ऊँचे वेतन अथवा आय
प्राप्त कर रही है। इसी पीढ़ी को दृष्टिगत रख "कर लो दुनिया मुठ्ठी में" और "हम हैं ना" जैसे सूक्ति वाक्य प्रतिष्ठानों ने अपनाया है। बैंकों ने अपनी कार्यप्रणाली में समयानुसार परिवर्तन किया तथा अत्यधिक प्रतियोगितापूर्ण परिवेश में भावी कार्यनीतियों के निर्धारण के लिए दूरदर्शी और दूरगामी योजनाओं पर भी लक्ष्य देना आरम्भ किया। इसी क्रम में वर्ष 2003 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2009 की अनुमानित जनसंख्या के आंकड़े उम्र के आधार पर निकाले गए जो निम्नलिखित हैं :-

2003 2009 अनुमानित
0-14 365 281
15-35 365 448
35-59 240 286
60-ऊपर
75 37
कुल जनसंख्या लाख में

उक्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009 में 130 लाख से अधिक श्रमजीवी 35 वर्ष की उम्र के होंगे। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपनी तेज गति के साथ ऋण से जुड़ेगा जिसके ऊँचे स्वप्नों के साथ आर्थिक प्रगति के मजबूत हौसले भी होंगे। ऋण प्राप्त करना और उसकी अदायगी करना इनके जीवन का एक अभिन्न अंग होगा। बैंकिंग जगत के कारोबार का यह वर्ग प्रमुख अंग होगा। इस अवसर को भुनाने के लिए बैंकों ने अने स्तर पर तैयारियाँ शुरू कर दी है।

धीरेन्द्र सिंह.

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

जिंदगी

अपने आपको तथा अपने बैग को संभालती वह प्रचंड वेग का कब एक हिस्सा बन गई और खुद को 8.12 के लोकल ट्रेन की महिला डिब्बे में खड़ा पाई , रोज की तरह वह आज भी नहीं समझ पाई। हर दिन की तरह आज भी उसकी सांसे तेज से सामान्य गति की ओर क्रमिक रूप से बढ़ रही थी और वह हररोज की तरह अपनी उस सीट की ओर बढ़ रही थी जो उसे अगले कुछ स्टेशनों के बाद मिलनेवाली थी। सीट के पास पहुँचकर उसने अपने बैग को सावधानीपूर्वक ऊपर पहले से पसरे बैगों के बीच स्थापित किया। पास की सीट पर बैठी महिलाओं ने अलसाई मुस्कराहट से उसके परिचित होने का प्रमाण दिया। उसने भी सामान्य होती सांसों के बीच अपनी फूलती मुस्कराहट के साथ उस ग्रुप का एक हिस्सा होने की परिचिताना रज़ामंदी दी। उसने स्वंय को सीट के सहारे टिका दिया और उसे लगा कि भोर से अब तक की उसकी थकान उतर गई है। आज सुबह से ही वह झुंझलाई हुई थी। उसकी लड़की सबेरे से ही टिफिन में सैंडविच ले जाने की जिद कर रही थी। समय ज्यादा लगने से उसका सुबह का क्रम गड़बड़ा गया था। "होते रहता है यह सब घर-गृहस्थी में" उसने मन ही मन सोचा मानो एक झटके में वह इस सोच से निकलना चाहती हो। अब उसकी सांसे सामान्य हो चुकी थी। भीड़ का एक रेला आया। उसने हैंडलपर अपनी पकड़ मजबूत कर खुद को लड़खड़ाने से बचाया।

उसने अपने पास की सीटवाली महिला को देखा। उसका पाठ खतम हो चुका था तथा वह अपनी आँखें बंद कर आरती बुदबुदा रही थी। अगले स्टेशन पर वह उतर जाएगी तथा बैठने के लिए चौथी सीट मिल जाएगी। बगल में महिलाएँ झगड़ रही थीं तथा इस शोर-शराबे से बेखबर कई महिलाएँ एक-दूसरे से दबी हुई सो रहीं थी। आखिरकार वह बैठ गई। उसके बगल की महिला रोज की तरह ट्रेन में अपने गीले बालों को सुखाकर उन्हें सँवार रही थी। उसने एक गहरा नि:श्वास लिया तथा खुद को ढीला छोड़कर काया को विश्रांति देने लगी। उसने देखा कि खिड़की के पास वाली सीट पर वह साँवली युवती रोज की तरह अपने चेहरे को मेकअप से सँवारने में लगी थी। इस सॉवली युवती की वह मन ही मन प्रशंसा करती थी। मेकअप के बाद उसके चेहरे पर न जाने कैसे एकाएक एक दीप्ती सी फैल जाती थी तथा उसकी बड़ी-बड़ी कजरारी ऑखें उत्सुकतापूर्ण बोलती नजर आती थीं। न जाने वह पुरूष कौन है जिसके लिए यह श्रृंगारबदनी युवती ऑफिस जाते समय ट्रेन में स्वंय को सुगंधमय, रंगमय पुष्पगुच्छ बना लेती है। एक ईष्र्या की तरंग का उसने अनुभव किया। तेज भागती लोकल के इस डिब्बे में युवतियॉ, महिलाएॅ, घर-गृहस्थी, महँगाई, फैशन आदि की चर्चा करती रहती हैं किंतु यह अपने आप में डूबी रहती है। उसके सहयात्री उसकी आदत से परिचित हैं इसलिए उसे अपनी बातों में नहीं खींचते हैं।

उसकी सीट की एक महिला उठ गई तथा वह खिसक गई तथा चौथी सीट की जगह छोड़ दी। एक युवती बैठ गई किन्तु एक अधेड़ महिला ने अस्वस्थतावश चौथी सीट के लिए अनुरोध किया और उस लड़की ने सीट छोड़ दी। आस-पास के यात्रियों ने अपनी निगाहों और धूमिल स्मिति से उस लड़की के सीट त्याग की सराहना की। वह अधेड़ महिला ने बैठते ही एक दबावपूर्ण धक्का देते हुए चौथी सीट पर भी अच्छी जगह बनाने में सफल रही। उस अस्वस्थ महिला के कपड़ों से फिनायल गोलियों की गंध आ रही थी तथा केशों से उभरती नारियल तेल की अजीब सी महक ने उसको विचलित कर दिया। उसने देखा कि सॉवली युवती आईने में अपने मेकअप की जॉच कर रही है। उसकी निगाहें खिड़की पर टिक गई किंतु सामने खड़ी लड़की का दुपट्टा बाधक बन रहा था उसने अपनी गर्दन को बांयी ओर झुका दिया अब वह खिड़की से आराम से देख पा रही थी। उसकी निगाहें प्लेटफार्म के फ्रेंच कट दाढ़ी वाले गठीले पुरूष को तलाश रही थी जो अपने कंधे पर बैग लटकाए स्वागतपूर्ण दृष्टि से उस महिला डिब्बे की अगवानी करता है। वह सोचने लगी कि कितनी उमंगपूर्ण आतुरता है इनमें और वह रात की बात सोचने लगी जब उसने अपने पति से प्रणय पहल की कोशिश की तो उसने अनजान बनते हुए म्युचूअल फंड की चर्चा शुरू कर दी थी। आजकल प्राय: उसके पति अर्थ को लेकर चर्चाएँ करते हैं तथा भविष्य का गुणा-भाग करते रहते हैं। वह अपने आपको वित्तीय पक्षों में भटकाई गई पाती है जिसमें उसकी नारीसुलभ सदाएॅ और मधुमाससरीखी अदाएँ उसके पति की वित्तीय मेघ को भेदने में असफल रहती है। उसके बगल की महिला ने उससे उतरने को कहा और उसने देखा कि उसका स्टेशन आ गया है। आनन-फानन में अपना बैग उठा, साड़ी संभालती वह दरवाजे की तरफ बढ़ गई।
स्टेशन पर उतरते ही वह अपने कार्यालय की महिलाओं की तलाश करने लगी जिससे कि शेयर ऑटो रिक्शा द्वारा वह समय पर दफ्तर पहुँच जाए। उसे विश्वास था कि उसकी तरह तलाशती निगाहें और भी होंगी जो बस की लंबी कतार में लग कर लेट होने के जोखिम से बचना चाहती हैं। समय से मस्टर में सही करना भी एक सुखदायी क्षण होता है तथा अच्छे स्टाफ के गुणों में एक माना जाता है। सुबह के अभिवादन को निभाते हुए वह कार्यालय के टेबलों से गुजरने लगी। उसे अहसास हो रहा था कि एक-दो टेबलों से निगाहें भावमय हो उससे चिपकी हुई हैं। वह प्रत्यक्षत: स्वंय को इससे बेखबर दर्शाती थी किंतु भीतर वह विजयी भाव से ओतप्रोत रहती थी। इस समय उसे लगता था कि वह सॉवली लड़की को चुनौती दे रही है तथा वह चाहे तो फ्रेंचकट दाढ़ी जैसा पुरूष उसके लिए भी प्रतीक्षारत रह सकता है। चिपकी निगाहें भी तो प्रतीक्षा की अकुलाहट का अनुभव कराती रहती हैं। प्रसाधन के दर्पण में भरपूर निगाहों से खुद को निहारकर तथा खुद को पूरी तरह व्यवस्थित कर वह अपने टेबल में डूब गई।

कम्प्यूटर, पेपर, चर्चाओं आदि के कार्यालयीन भगदड़ में वह उस समय खुद को डूबी हुई पायी जब उसके सहकर्मियों ने भोजन का संकेत दे भोजन कक्ष की ओर चल दीं। यहाँ भी लोकल के डिब्बे की तरह चर्चाओं में घर-द्वार, पसंद-नापसंद आदि टिफिन की तरह बिखरा हुआ था। एक ने कहा कि यहॉ एक-दूसरे के टिफिन के संगत-रंगत और उन्मुक्त बातचीत का सुख और कहॉ मिल पाएगा। दूसरे ने चुटकी लेते हुए कहा कि रात की बनी सब्जी भी यहॉ कितना ताजापन लिए रहती है। इस हंसी-ठिठोली के बीच वह संशयमन से सोच रही थी कि उसकी बिटिया समय से यदि लौटी नहीं होगी तो परसों की तरह आज भी कहीं कामवाली दरवाजा बंद देख लौट न जाए। इस चिंता में उसे घर फोन करने की जरूरत महसूस हुई और वह अपना खाला टिफिन ले तत्परता से प्रसाधन में चली गई।

एक बार फिर वह कार्यालय के भगदड़ में घिर गई किंतु यह सुबह की अपेक्षा संतुलित था इसलिए कार्यालय के दरो-दीवार को देखने की फुरसत निकाल सकी। उसने अपना पास-बुक निकाला और दर्ज आंकड़ों को देखकर अपने पति के वित्तीय अरमानों की चादर को बुनने लगी। वह जानती थी कि उसके प्रणय मनुहार को या तो वित्तीय व्यवहार से ढँका जाएगा अथवा पति की पदोन्नति गाथा और उसकी रणनीति की उबाऊ बातों में डूबते हुए निद्रागोश में जाना होगा। भावनामयी निगाहोंवाले उसके टेबल पर आए और बातों, इशारों और प्रस्तावों की चाशनी, सहमते हुए उसके टेबल पर ढरका गए। वह मन ही मन हँस पड़ी तथा सोचने लगी कि कुछ पुरूष कितने भीरू प्रकार से प्रणय निवेदन करते हैं, रीढ़विहीन कापुरूष। उसके मन में घृणा का एक द्रुत संचार हुआ और वह इस भाव को पटककर अपने टेबल में रम गई।
"चल, बंद कर" की उसके सहेली की आवाज ने उसे घड़ी की ओर मोड़ा और ट्रेन मिस न हो जाए के भय ने उसे टेबल समेटने की प्रेरणा दी। स्टेशन पर भीड़ में ट्रेन पकड़ने की जद्दोजहद से पार पाकर वह सीट पर बैठ गई। सुबह के कुछ ही चेहरे शाम को रहते हैं, थके-मांदे घर की देहरी छूने की उतावली में व्यग्र मानो समय को पकड़े हुई हों। कुछ महिलाएँ सब्जियॉ काटने में व्यस्त थीं, उसने भी एक सब्जी खरीदकर अपने बैग में रख दिया। उसके जेहन में उसका घर पूरी तरह से छाया था। ट्रेन अपनी तेज गति से दौड़ रही थी और उतनी ही रफ्तार से वह रात्रि के अपने कार्यों के ताने-बाने बुन रही थी। सफलताओं के इस दौर में अपने खानदान में वह एक दौड़ने वाली सफल महिला के रूप में गिनी जाती थी। एक दिन निशा के आगोश में सिमटते जा रहा था, वह बहुत संतुष्ट अनुभव कर रही थी, नए दिवस की चुनौतियों से सामना करने का विजयी भाव लिए। अब वह घर पहुँचने वाली थी, अपने घर।

धीरेन्द्र सिंह

भूमंडलीकरण के युग में हिंदी की भूमिका.

यूँ तो हमारी संस्कृति में "वसुधैव कुटुंबकम" वर्षों से रचा-बसा है पर जिस साज-सज्जा से वै·ाीकरण या भूमंडलीकरण ने खुद को प्रस्तुत किया है, उससे ही प्रभावित होकर भारतीय विज्ञापन मुखर हो बोल पड़ा-'कर लो दुनिया, मुट्ठी में'। कथा साहित्य, यात्रा वित्रांत, फिल्मों, विदेशी वस्तुओं से चलते-मचलते, विदेश कब देश जैसा लगने लगा पता ही नहीं चला। कल तक नौकरी के लिए की जानेवाली विदेश यात्रा कब शापिंग और भ्रमण के रूप में ज़िंदगी की आम चर्चा का विषय हो गई, यह विभिन्न देशों के जनमानस को भी ज्ञात नहीं। तकनीकी क्रांति ने तो वर्षों से लोकप्रिय गीत-'मेरे पिया गए रंगून, किया है वहॉ से टेलीफून, कि तेरी याद सताती है' को जनसामान्य के जीवन में विभिन्न राग-रागिनियों के साथ उतार दिया और इस प्रकार हर प्रकार की दूरियॉ नजदीकियों में परिवर्तित हो गई और साथ ही बदलने लगी अपनी-अपनी कहानी संग लोगों की जिंदगानी, पर क्या जिंदगानियों में परिवर्तन सचमुच में आ गया है अथवा परिवर्तन बाधित सा लगता है? नहीं, ऐसा कैसे संभव हो सकता है भला, कि एक तरफ हम भूमंडलीकरण के निनाद के नित-प्रतिदिन नए रंग-ओ-अंदाज़ से रू-ब-रू हो रहे हैं तथा दूसरी ओर विभिन्न बाधाओ की भी अनवरत चर्चाएॅ जारी हैं। शायद द्वंद्व ही विकास की सीढ़ी है और इसी दौर से भूमंडलीकरण का प्राथमिक चरण गुज़र रहा है।

विकासशील युग में समतल होती दुनिया में भौगोलिक सीमाएँ नि:संदेह टूट रही हैं किन्तु सांस्कृतिक मूल्यों के साथ अभिव्यक्ति में किसी प्रकार की टूट-फूट और समामेलन नहीं दिखलाई पड़ रहा है बल्कि सांस्कृतिक मूल्य और नीजि अभिव्यक्ति शैली ने विश्व में भाषा की अस्मिता को जिस प्रखर अंदाज़ में पिछले कुछ वर्षों से एक सामयिक व महत्वपूर्ण विषय बनाया है उससे वि·ा पटल पर भाषाएॅ एक नई दीप्ति और महत्व के संग अपनी उमंग, तरंग की लय में अपने अस्तित्व आरोहण का मृदंग बजा रही हैं। यह सब पूर्वनियोजित कार्यप्रणाली का परिणाम नहीं है और वैसे भी अखिल विश्व स्तर पर अपनी-अपनी भाषा की साधना, आराधना और विश्व विजय कामना की उर्जापूर्ण हलचलें गणेश जी को दूध पिलाने जैसी रहस्यमयी लोकचेतना नहीं हो सकती है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि भूमंडलीकरण के परलीकरण में अपनी शरण में किन भावी आवरणों को छुपाए भाषाएॅ अपने-अपने तीर द्वारा अश्वमेध यज्ञ में निमग्न हैं। पिछले दो दशकों से भाषाई संघर्ष चल रहा है तथा जैसे-जैसे वैश्वीकरण अपने प्रभाव को बढ़ाते जा रहा है वैसे-वैसे भाषा का मसला अपनी गहराईयों का विश्लेषण करते हुए अपने निखार को और सँवार रहा है। हिंदी तो अपनी संघर्ष यात्रा अनवरत जारी रखे हुए है तथा इस संघर्ष के दौरान हिंदी की अनेकों छटाएँ बरबस अपनी ओर खींच लेने की कूवत पा बैठी है।

भूमंडलीकरण को, समतल दुनिया का नाम भी दिया गया है जिससे एक देश से दूसरे देश में आवागमन, संपर्क, व्यापार आदि सहज और सामान्य होता जाएगा। भूमंडलीकरण के समतल होने से देशों के बीच की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि दीवारें टूट रही हैं, हर प्रकार के वाद का विश्वस्तरीय मानकीकरण का एक तेज़ दौर चल रहा है, प्रतियोगिताओं और उपलब्धियों का दायरा अपनी सीमाओं को तोड़ते हुए पूरी धरती तक पसर रहा हैं जिसमें हर तरफ सरल, सहज, सर्वमान्य और सारगर्भित विभिन्न तत्वों व पक्षों की माँग हो रही है। इस प्रकार अति विस्तृत कार्यक्षेत्र मिल जाने से प्रत्येक राष्ट्र अपनी मौलिक सभ्यता, संस्कृति को लेकर उभर रहा है तथा इस सभ्यता और संस्कृति के साथ अपने राष्ट्र की भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बना, अपनी एक मुकम्मल पहचान की फिराक़ में लगा है। वैश्वीकरण का यह दौर प्रत्येक राष्ट्र के शक्ति परीक्षण का है जिसमें अभिव्यक्तियाँ अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाएँगी तथा जिस राष्ट्र का सम्प्रेषण जितना प्रखर और परिस्थितिजन्य होगा वह बाजी उतनी ही सुगम तौर पर उस देश के हाँथ होगी। अतएव भूमंडलीकरण में भाषाओं की वर्चस्वता का अघोषित व अप्रत्यक्ष लड़ाई जारी है।

भूमंडलीकरण के इस आरम्भिक दौर में हिंदी ने स्वंय को राष्ट्र की बिंदी प्रमाणित करते हुए अपने डैने को हनुमान की तरह विशाल रूप देने में सफलतापूर्वक प्रयत्नशील है। हिंदी की जब भी बात हो तब उर्दू भाषा का जिक्ऱ न हो यह हो नहीं सकता, अतएव भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के नागरिकों आदि द्वारा हिंदी भाषा को निरन्तर व्यापक और सक्षम आधार दिया जा रहा है। हिंदी की सीमाएँ यहीं आकर ख़तम नहीं हो जाती हैं बल्कि इसके विकास में द्रविड़ीयन, तुर्की, फारसी, अरबी, पुर्तगाली और अंग्रेजी भाषाओं का उल्लेखनीय योगदान है। भारत देश की सभ्यता और संस्कृति को इसी प्रकार की भाषा संचेतना सहित आठ सौ वर्षों से कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त किया जा रहा है। वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में डिजीटल मिडीया द्वारा हिंदी को अफ्रीका, मध्य-पूर्व, यूरोप और उत्तरी अमेरीका में एक चित्ताकर्षक ढंग से लगातार पहुँचाया जा रहा है। दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियॉ दक्षिण एशिया के बाज़ार में पैठ लगाने हेतु हिंदी की उपयोगिता में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी करते जा रही हैं। इन सबके साथ कुशल मानव श्रम, विशेषज्ञों की ज़रूरतों आदि के लिए भी दक्षिण एशिया विश्व को अपनी ओर खींच रहा है। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि विश्व में अन्य भाषाएँ अलसाई सी हैं बल्कि विश्व में अपने परचम को लेकर हिंदी के साथ अग्रणी कतार में दौड़ लगानेवाली जर्मन, फ्रेंच, जापानी, स्पैनिश और चीनी जैसी प्रमुख भाषाएँ भी कदम से कदम मिलाकर एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में दौड़ रही हैं। एक ताज़ा भाषाई अनुमान के अनुसार विश्व में कुल छह हज़ार आठ सौ नौ भाषाएँ बोली जा रही हैं जिसमें से 90ऽ भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या एक लाख से कम है। इन सभी भाषाओं में हिंदी को सीधे चुनौती देनेवाली भाषा चीन में बोली जानवाली मैंड्रीन भाषा है। ज्ञातव्य है कि जनसंख्या की दृष्टि से चीन और भारत को चुनौती दे पाना अन्य देशों के लिए कठिन कार्य है।

भूमंडलीकरण 21 वीं शताब्दी में वैश्विक गॉव बनते जा रहा है। एक अरब से भी अधिक नागरिकों के भारत देश ने, तेज गति से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था ने, वि·ा को अपनी ओर देखने के लिए विवश कर दिया है। हाल ही में जब यह तथ्य उभरा कि दुनिया की 3 हज़ार भाषाओं और बोलियों का अस्तित्व वर्ष 2050 तक समाप्त हो जाएगा, जिसे सुनकर विश्व की भाषाएँ चौंक उठीं तथा भारत देश में दबे शब्दों में एक सुगबुगाहट सी चली कि कहीं हिंदी भी तो इन तीन हज़ार भाषाओं में एक नहीं है। यह एक काल्पनिक भय मात्र है किंतु इससे एक संकेत यह भी मिलता है कि देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें हिंदी भाषा की समाप्ति की शंका भी है। जबकि अमेरीका के सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेन्सी की 2005 की सी.आई.ए. वर्ल्र्ड फैक्ट बुक के अनुसार धरती पर बोले जानेवाली भाषाओं में से हिंदी विश्व की सबसे प्रभावशाली चतुर्थ भाषा है। यहॉ पर मेरा प्रयास हिंदी भाषा के व्यक्तव्यों का प्रस्तुतीकरण नहीं है बल्कि कोशिश है हिंदी भाषा की इन दो विरोधी मानसिकता के विश्लेषण का, जिसमें एक ओर भारत देश के कुछ लोगों का भय है तो दूसरी ओर भूमंडलीय स्तर पर उस भय का निराकरण भी उपलब्ध है। यदि हम पहले भारत की इस मानसिकता का विश्लेषण करें तो नतीजा यही होगा कि बहुत कम लोग हैं जो हिंदी की वर्तमान गति और प्रगति की स्पंदनों का अद्यतन अनुभव कर रहे हों वरना अधिकांशत: लोगों की भाषागत धारणाएँ यत्र-तत्र, पठन-श्रवण के आधार पर वेताल कथा सरीखी हैं। हमारे देश में हिंदी निरंतर विभिन्न स्तरों पर स्वीकारी जा रही है इसके बावजूद भी यह धारणा मानस में घर कर गई है कि - लोग क्या कहेंगे। हमारा देश हिंदी की मानसिकता से अभी भी जूझ रहा है, जबकि विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार और लोकप्रियता का विश्लेषण परिणाम, हिंदी को एक उर्जापूर्ण भविष्य की ओर ले जा रहा है।

विश्व स्तर पर हिंदी के विस्तार में हिंदी साहित्य की उल्लेखनीय भूमिका है और अभी भी हिंदी साहित्य अपनी इस भूमिका को बखूबी निभा रहा है। समय के संग भूमिका के तरीके में बदलाव आते जा रहा है। हिंदी साहित्य अब तकनीकी से भी जुड़ रहा है तथा कंप्यूटर की विभिन्न विधाओं में हिंदी अपनी उपस्थिति को दर्ज़ कराते बढ़ रही है। हिंदी गद्य विधा में अभिव्यक्ति, गर्भनाल आदि जैसी वेब पत्रिकाएँ हैं तथा काव्य में अनुभुति आदि जैसी वेब पत्रिकाएँ हिंदी साहित्य के बेहतर छवि को निरंतर निखार रही हैं तथा ऐसी कई पत्रिकाओं को विदेशों से एक बड़ा पाठक वर्ग मिला है। जालघर पर अनेकों हिंदी पत्रिकाएँ और ब्लॉग हिंदी के महत्व को दर्शाते हुए प्रभावशाली ढंग से प्रचार-प्रसार में लगी हैं। भूमंडलीकरण के युग में सूचना और प्रौद्योगिकी के ताल-मेल के बिना हिंदी के विस्तार की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। अपनी तमाम कठिनाईयों के बावजूद भी हिंदी ने जिस तरह प्रौद्योगिकी जगत में अपना पैर जमाया है उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा मुक्त कंठ से जितनी ज्यादा की जाए उतना ही कम है। कौन लोग हैं जो हिंदी और प्रौद्योगिकी के संगम के लिए उल्लेखनीय भूमिकाएॅ निभा रहे हैं? नि:संदेह भूमंडल के विभिन्न देशों में बसे भारतीय और हिंदी प्रेमी, भारत सरकार तथा देश में मुट्ठी भर प्रौद्योगिकी से नाता रखनेवाले हिंदी प्रेमीजन। आज व्यक्ति का मोबाईल नंबर जितना जरूरी हो गया है उतना ही महत्वपूर्ण हो गया इंटरनेट का उसका आई.डी.। कंप्यूटर से जुड़े रहने से इंटरनेट की दुनिया में हिंदी के फैलते साम्राज्य की नवीनतम जानकारियॉ मिलती रहती हैं। प्रसिद्ध सर्च इंजन गूगल के प्रमुख एरिक श्मिट का मानना है कि अगले पांच से दस सालों में हिंदी इंटरनेट पर छा जाएगी और अंग्रेजी और चीनी के साथ हिंदी इंटरनेट की दुनिया की प्रमुख भाषा होगी।
इंटरनेट पर हिंदी के प्रयोग में सबसे बड़ी कठिनाई हिंदी फॉन्ट की है। हिंदी के फॉन्ट में एकरूपता के अथक प्रयासों से यूनिकोड की उपलब्धि ने हिंदी फॉन्ट को एकरूपता देने का प्रयास किया है किंतु अभी भी मंज़िल काफी दूर है। जालघर की कुछ प्रमुख पत्रिकाओं ने यूनिकोड को अपना लिया है किंतु विभिन्न बैंकों, कार्यालयों आदि में अभी भी इसे पूरी तरह अपनाया जाना बाकी है। हिंदी की विभिन्न सॉफ्टवेयर कंपनियों को भी चाहिए कि वे इस दिशा में कुछ कारगर कदम उठाएँ किंतु उन्हें व्यावसायिक खतरों का अंदेशा है अतएव एक सार्थक पहल नहीं हो पा रही है। इंटरनेट जगत में हिंदी लिखने के लिए रोमन लिपि का सहारा लिया जा रहा है किंतु इसका आशय यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि देवनागरी लिपि छूट रही है बल्कि याहू जेसे नेट प्रदान करनेवाली कंपनी देवनागरी लिपि को लेकर गंभीर नहीं हुई है जबकि गूगल द्वारा सराहनीय प्रयास हो रहे हैं। नेट पर देवनागरी लिपि की वर्चस्वता के पीछे व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी कहीं अधिक रूकावट दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव है। क्या आप लोगों को नहीं लगता कि भाषा की तमाम खूबियों के बावजूद भी हिंदी दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी का शिकार है। मानव शरीर में रक्त की कमी से प्रचलित शब्द एनिमिक का उपयोग किया जाता है जबकि दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी से हिंदी एनिमिक हो गई है।
हिंदी की एक विचित्र स्थिति नज़र आ रही है जिसके तहत् कुछ लोग हिंदी के वर्तमान गति, प्रगति और नीति को सहज, सामान्य और सुबद्ध नामकरण से विभूषित कर रहे हैं तो कुछ लोग इसे अशुद्ध, अनर्गल और अभद्र विशेषणों से नवाज़ने में नहीं हिचक रहे हैं, इस प्रकार हिंदी चर्चा-परिचर्चा के अनेकों दौर से गुजर रही है तथा समय-समय पर अग्नि परीक्षाओं से गुजरते हुए अपनी कुंदनीय आभा सहित जनमानस के ह्मदय में वंदनीय भाषा बनती जा रही है। यह तो स्पष्ट है कि भूमंडल में हिंदी की एक बयार चल पड़ी है, कहीं तेज है, कहीं मंथर है तो कहीं उनींदी सी कसमसा रही है। यह प्रगति पथ यक़बयक़ कैसे उभर पड़ा कोई करिश्मा कहा जाए या कि अलादीनी ताक़त ? स्थूल तौर पर देखा जाए तो यह हमारे देश के बाज़ार का असर है जिसमें आर्थिक विकास, जनसंख्या आदि ने भूमंडल को अपनी ओर मोड़ लिया है। वरना किसने सोचा था कि अमेरिकन प्रशासन एक दिन बोल उठेगा कि 21वीं शताब्दी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिकी नागरिकों को हिंदी सीखनी चाहिए। बात यहीं तक नहीं है बल्कि अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने अपने अहम् राष्ट्रीय भाषण में कहा कि 'हम हॉथ पर हॉथ घर कर नहीं बैठ सकते। दुनिया की अर्थव्यवस्था में हम भारत और चीन जैसे नए प्रतियोगी देख रहे हैं।" हमें दुनिया बड़ी उत्सकुतापूर्ण नज़रों से देख रही है जिसका एक उदाहरण हमें मार्च, 2006 का आम बजट पेश करते हुए ब्रिातानी वित्त मंत्री के वक्तव्य में भी मिलता है जिसमें उन्होंने कहा है कि " भारत और चीन से मिलने वाली कड़ी प्रतिस्पर्धा का मतलब है कि हम हॉथ पर हॉथ धर कर नहीं बैठे रह सकते।" इसके अतिरिक्त बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा हिंदी को गले से लगाना तो सर्वविदित है तथा हमारे समाज के चर्चित तथा मनोरंजन हेतु जनित सास-बहू के झगड़े को भी शीत पेय की बहुराष्ट्रीय कंपनियॉ कोका कोला और पेप्सी के हिंदी विज्ञापन महासमर ने मात कर दिया है। वस्तुत: हिंदी अब केवल जनसामान्य की भाषा ही नहीं रह गई है बल्कि बाज़ार की एक मज़बूरी भी बन गई है। चैनलों पर रिमोटीय उड़ान भर कर देखिए तो हर ठहराव पर विज्ञापन हिंदी ही बोलते मिलेगा।

हिंदी चाहे विज्ञापन की भाषा के रूप में हो या किसी अन्य विधा में उसका प्रभाव किसी सीमा तक ही नहीं रहता बल्कि विभिन्न प्रचार-प्रसार माध्यमों से भूमंडल में विस्तृत हो जाता है। संसार के लगभग 120 देशों में भारतीय मूल के लोग रहते हैं। इनमें से बहुत बड़ी संख्या अपनी भाषा भूल चुकी है पर इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि वे हिंदी सीख नहीं रहे हैं। भूमंडलीय आकाश पर पैर पसारती हिंदी अपने कई रूप दिखला रही है तथा यह कहना कठिन है कि किस देश में हिंदी किस अंदाज़ में होगी ठीक वैसे ही जैसे बंबईया हिंदी, मद्रासी हिंदी, लखनवी हिंदी, हैदराबादी हिंदी आदि। ज्ञातव्य है कि प्राय: परिवर्तन प्रगति का परिचायक होता है। परिवर्तन और प्रगति के एक उदाहरणस्वरूप सिंगापुर का उदाहरण लेते हैं जहॉ की जनसंख्या में भारतीयों का प्रतिशत मात्र छह फीसदी है। 1990 में जब सिंगापुर में हिंदी सोसायटी की स्थापना हुई तो सिंगापुर सरकार ने हिंदी को दूसरी ऐसी भाषा घोषित कर दिया जिसे विद्यार्थी सबसे ज्यादा सीखना चाहते हैं। सिंगापुर की हिंदी ज़रूर हमारे देश में प्रयुक्त हिंदी से थोड़ी भिन्न होगी। ब्रिटेन में तो धड़ल्ले से 'हिंगलिश' चल पड़ी है। इतना ही नहीं उपन्यासकार और शिक्षक बलजिंदर महल ने हिंगलिश जैसी मज़ेदार भाषा के संसार को व्यापक बनाने के लिए इसकी एक गाइड, शब्दकोष के रूप पेश की है जिसका नाम है-"द क्वीन्स हिंगलिश हाऊ टू स्पीक पक्का।" अंग्रेजी अख़बार के स्तंभकार श्री जग सुरैया ने हिंगलिश पर अपने एक लेख में लिखा है – you are not believing on me? Just you go to Bilayat or amerika and finding out you will be.Peoples there are using many-many ajib words we desi Angreziwallas are bilkul not understanding, no matter how much koshish karo we do. शायद कुछ लोगों की भृकुटियॉ ऐसी भाषा सुनकर तन जाए और श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी या डॉ. रघुवीर की आत्मा भाषा शुद्धता की मुनादी फिर से शुरू कर दें पर सच तो यह है कि हिंदी बिगड़ नहीं रही है बल्कि भूमंडलीय स्तर पर अपने को विभिन्न रूपों में सजा-सँवार रही है। हॉ, यह कटु यथार्थ है कि हिंदी के वर्तमान मौलिक रूप को बनाए रखने का दायित्व हम सब पर है तथा इन भाषाई झोकों और अंधड़ों से गुजरते हुए हिंदी को हम जिस कलेवर में ढाल पाएँगे हिंदी का वही रूप होगा। वैसे इस हिंगलिश से बच पाना भी कठिन कार्य है।

यहॉ यह सोच भी प्रासंगिक है कि जब वैश्विक स्तर पर हिंदी प्रगति दर्शा रही है तो अब तक संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा क्यों नहीं बन पाई ? सर्वविदित है कि इस समय संसार की छह भाषाएँ - अंग्रेज़ी, फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, चीनी तथा अरबी भाषाएँ संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ हैं, तो क्या कमी है हिंदी में ? इसका केवल यही उत्तर हो सकता है कि हमने अब तक निरंतर गंभीरता से इसपर कार्रवाई नहीं की है परंतु भूमंडलीकरण ने हिंदी को पहचाना है तथा हिंदी का भूमंडल पर गाना-बजाना, साहित्य का रंग-बिरंगा तराना आदि, इसे विश्व भाषाओं में एक सयाना का दर्ज़ा दिए जा रहा है अतएव संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुँचना कठिन नहीं रह गया है। वैसे अनेकों स्वंयसेवी संस्थाएँ भी इस दिशा में अपने-अपने ढंग से प्रयासरत हैं तथा हमें भी अपने-अपने स्तर पर प्रयासरत रहना चाहिए, आशावादी रहना चाहिए। चूँकि अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी अपनी छाप छोड़ रही है तथा आर्थिक रूप से हमारा देश सतत् समृद्ध और सक्षम होते जा रहा है इसलिए लोग अब भारत की ओर मुड़ रहे हैं। हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या 40 करोड़ के आसपास होने का अनुमान है। इसका एक प्रमुख कारण है रोजगार के अवसर में लगातार वृद्धि। हिंदी की लोकप्रियता में हिंदी फिल्मों या बॉलीवुड के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

भूमंडलीकरण के युग में हिंदी की भूमिका संपर्क, सम्प्रेषण और सानिध्य की है तथा जिसे हिंदी बखूबी निभा रही है, हॉ आप चाहें तो बॉलीवुड को अग्रणी स्थान दे सकते है आखिरकार हिंदी फिल्में केवल गीत-नृत्य-संवाद का रंगीन पिटारा ही लेकर भूमंडल में नहीं घूमती हैं बल्कि इसके साथ हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति भी पायल की रून-झुन की तरह विश्व से एक रागात्मकता स्थापित कर रही है। इस विषय पर यदि हम दूसरे पक्ष बैंक, कार्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि की ओर भेदक दृष्टि से देखें तो मन अचानक पूछ उठेगा कहॉ है हिंदी, कहॉ है राजभाषा, कैसे उठती है भूमंडलीकरण में हिंदी दीप्ति की आशा ? यहॉ आकर हिंदी भाषा की मनभावनी विहंगीय उड़ान को एक मचान मिल जाता है तथा मेरे जैसा बोलनेवाला पल भर के लिए सोच में पड़ जाता है। सोच अनुत्तरित होने का नहीं, क्योंकि बौद्धिकता, यक्ष प्रश्नों का जवाब तो ढूँढ ही लेती है, बल्कि सोच उस दिशा की तलाश करती है जहॉ पर समाधान तो है पर उस समाधान का संज्ञान, दिशा को भी नहीं। हिंदी के प्रति एक आरोप हमेशा लगाया जाता है कि यह केवल भावनाओं और संवेदनाओं की भाषा है तथा विचारों की भाषा बनने में असफल रही है। इस आरोप को निराधार साबित करने का दायित्व हम सबका है। हिंदी विचारों की भाषा है इसका प्रचार-प्रसार नहीं हुआ है। संगोष्ठी, परिसंवाद आदि का आयोजन एक दायरे में सिमट कर रह जाता है जबकि आज के युग में प्रत्येक कार्य के लिए प्रचार-प्रसार आवश्यक हो गया है। राजभाषा के रूप में हिंदी की क्षमताओं को देखकर एक सुखद आश्चर्य का होना आवश्यक है किंतु वैचारिक हिंदी को लोकप्रिय बनाने के प्रयासों में वस्तुत: कमी है। वैचारिक हिंदी के विभिन्न रूपों के विकास, प्रचार-प्रसार के लिए किसी भी स्तर पर कोई कमी नहीं है, कमी है तो प्रतिबद्धता की। यदि साहसपूर्ण शब्दों में कहने की हिमाकत करूँ तो हिंदी से जुड़े अधिकांश लोग ही हिंदी के वैचारिक लोकप्रियता में बाधक हैं। यह तो हमारे देश की बात है परन्तु भूमंडल में इस दिशा में भी प्रयास जारी हैं, कहीं पर पत्रिकाओं के माध्यम से तो कहीं पर गोष्ठी आदि के द्वारा तथा इसका व्यापक प्रचार-प्रसार भी हो रहा है।

भारत देश की विभिन्न स्तर की प्रतिभाएँ नौकरी, व्यवसाय के कारण भूमंडल के कोने-कोने में अपने नीड़ का निर्माण कर रही हैं। जो भारतीय विदेशों में जा रहे हैं वे हिंदी को भी अपने साथ ले जा रहे हैं तथा जो काफी पहले से विदेशों में बस कर विदेशी हो गए हैं वे चमकते भारत में हिंदी सीखते हुए आ-जा रहे हैं तथा इस प्रकार भूमंडल में कल-कल, छल-छल हिंदी सरणी प्रवाहित हो रही है। धरती से 35,000 फीट से भी अधिक ऊँचाई पर हिंदी की कमी का अनुभव होने लगा है तथा विदेशी वायुसेवा कंपनियॉ, विशेषकर यूरोप की कंपनियॉ हिंदी को अपनी आवश्यकता बतला रही हैं।आस्ट्रियन एयरलाइन्स, स्विस एयरलाइन्स, एयर फ्रान्स और अलीटॉलिया ने कहा है कि भारतीय यात्रियों की लगातार हो रही वृद्धि को दृष्टिगत रखते हुए वे भारत की अपनी प्रत्येक उड़ान में कम से कम ऐसे दो क्रू को रखेंगे जो हिंदी बोलना जानते हों। भूमंडल पर हिंदी दौड़ रही है तथा वायुमंडल में उड़ रही है तथा राष्ट्रीय अस्मिता और अस्तित्व को पारदर्शी तौर पर वि·ा के समक्ष सफलतापूर्वक रख रही है। हिंदी अकेले नहीं है बल्कि उसके साथ अन्य भारतीय भाषाएँ भी हैं। भारत देश की उभरती आर्थिक शक्तियॉ हिंदी भाषा के द्वारा भी मुखरित हो रही है। हम सबके लिए भविष्य में और भी नई चुनौतियॉ हैं जिसके समाधान के लिए हमें अपनी जुगलबंदी को नया आयाम देना होगा। आईए, हम सब मिलकर अपनी हिंदी लय को और मधुरता दें और प्रखरता प्रदान करें।


धीरेन्द्र सिंह

सलाहकार

सलाहकार शब्द पहले उत्पन्न हुआ अथवा सलाहकार का पहले अवतरण हुआ यह एक पहेली बना हुआ है। पहले मुर्गी या अंडा का समाधानकारक हल मिल जाता है पर वह पल नहीं मिल पा रहा है जब वायुमंडल पहली बार सलाहकार के अस्तित्व से रूबरू हुआ। ज्योतिषाचार्य से लेकर विज्ञानाचार्य, प्रवचनाचार्य से लेकर स्वांगाचार्य, भाषणाचार्य से लेकर साहित्याचार्य, कार्यालयाचार्य से लेकर नारदाचार्य तक इस सर्वव्यापी, सर्वग्राही और सर्वविवादित व्यक्तित्व की गहराई तक नहीं पहुँच पाए हैं। विभिन्न विधाओं के विद्वानों की यह आम राय है कि भ्रष्टाचार तथा सलाहकार के डी.एन.ए. काफी मिलते-जुलते हैं अतएव जैसे ही भ्रष्टाचार की गहराई का पता छालेगा वैसे ही सलाहकार की भी पूरी जानकारी मिलने की संभावना बढ़ जाएगी। इसमें शीघ्र सफलता मिल सके इसलिए विभिन्न निजी चैनलों के रात्रि दस बजे के बाद धमकने वाले कई खूँखाराचार्यों से भी सहायता करने की पहल की जा रही है।

सलाहकार के दो प्रवर्ग हैं - पहला असली तथा दूसरा नकली। प्रगतिशील भारत 21वीं शताब्दी में यदि विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति कर रहा है। बाजार में तरह-तरह के उत्पादों के यदि असली उत्पाद है तो हूबहू दिखनेवाला नकली उत्पाद भी है। इसी तरह यदि आवश्यकतानुसार वास्तविक सलाहकार समितियाँ हैं तो उनकी तर्ज पर असंगठित सलाहकार भी अनेकों हैं जो अपनी प्रतिभाओं के बल पर अपनी सलाहकार क्षमता का प्रदर्शन करने से बाज नहीं आते हैं। इन असंगठित सलाहकारों की विलक्षण प्रतिभाएँ ही मेरी लेखनी की प्रेरणा हैं। मेरे इस संपूर्ण लेखन में उपयोग किया गया शब्द 'सलाहकार' इन्हीं महानुभावों के व्यक्तित्व और कृतित्व को नवाजिश करने की एक दुस्साहसपूर्ण कोशिश मात्र है।

हवा और खुश्बू की मानिंद इनका व्यक्तित्व अदृश्य सा रहता है या यूँ कहा जा सकता है कि सामान्यतया लुप्त रहता है। अपनी सुविधाओं पर केंद्रित रहनेवाला यह एक लक्ष्यपूर्ण व्यक्तित्व रहता है जिसके आवरणपूर्ण चेहरे पर प्रथम दृष्टया लोमड़ी समान नम्रता जलती-बुझती रहती है। यह हर जगह पाया जाता है चाहे कार्यालय हो या खानदान इनकी उपस्थिति की कमी कहीं नहीं अखरती है। जिस प्रकार रात्रि बेला में झिंगुर गुंजन अनवरत अपनी रागिनी पर निशा को थिरकाने में प्रयासरत रहता है, जिस अंदाज़ में तिमिर बेला में जूगनू अपनी दीप्ति से अमावसीय परिवेश को रोशनमय करने पर आमादा रहता है उसी तरह सलाहकार भी अपने परिवेशगत सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराते हुए सत्ताधारी के करीब पहुँचने के लिए अपनी 'विलक्षण प्रतिभा' की छटाएँ बिखरने के लिए हर अवसर पर 'बकुल ध्यानं' लगाए प्रयासरत रहता है। चूँकि इस व्यक्तित्व का बुनियादी ढाँचा 'मुरादाबादी लोटे' की तरह रहता है इसलिए इनकी उलूल-जुलूल हरकतों पर प्राय: सत्ताधारी से मिलने वाली झिड़कियाँ उन्हें हमेशा रसीली लगती हैं मानों यशोदा ने कान्हा को झिड़क दिया हो। इस प्रकार का व्यक्तित्व भावनाओं के सर्द-गर्म से परे अलमस्त स्वमोहित रहते हुए तथा निर्विकल्प, निर्विकार भाव का परिहासपूर्ण प्रदर्शन करते हुए, सलाहकार धुन में रमे हुए, स्वप्रेरित हो, बेहिचक, बेबुनियाद और बेलाग सलाह सत्ताधारी को देते रहता है। ऐसा कर वह स्वंय को धन्य पाता है।

'सलाहकार' प्राय: वही लोग होते हैं जो अपने दायित्वों को निभाने की योग्यता नहीं रखते हैं तथा योग्य व्यक्ति की उपलब्धियों से जलते हैं। यह एक निचले दर्जे का बौद्धिक गुरिल्ला युद्ध है जो प्राय: सत्ताधारी की आड़ में लड़ा जाता है इसलिए यह निरोधक दस्ते के दायरे में नहीं आता है। सलाहकार नकारात्मक उर्जा से भरा होता है इसलिए उसे दूसरों की बुराईयों में विशेष रूचि रहती है जिसे वह सत्ताधारी को नमक-मिर्च लगाकर सुनाता है तथा अपना उल्लू सीधा करता है। ना-ना, कृपया ऐसा मत सोचिए कि इस प्रवर्ग के लोग मंदबुद्धि के होते हैं बल्कि यह लोग सफलता और लोकप्रियता के शार्ट-कट रास्ते की खोज में रहते हैं तथा योग्य व्यक्ति को अयोग्य साबित करने में अपनी पूरी प्रतिभा का उपयोग करते रहते हैं। इनके कार्य करने का ढंग चारणों और भांटों जैसा रहता है इसलिए यह लोग सत्ताधारी को आरंभ में प्राय: आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं। एक 'लाइव केस' प्रस्तुत कर रहा हूँ। आखिरकार किस्मत ने साथ दिया और रामदीन सरपंच बन गए। बस फिर क्या था लोकल सलाहकारों में सरपंच को प्रभावित करने की प्रतियोगिता आरंभ हो गई। चूँकि रामदीन के लिए सरपंच पद का पहला अनुभव था इसलिए वे सलाहकारों के चारणी भाषा की चाशनी में जलेबी की तरह डूबने लगे। उनके एक शुभचिंतक ने कहा कि रामदीन गलत लोगों में फंस गए आप, तो उनका उत्तर था कि सलाहकारों की मीठी बातें उन्हें लुभाती हैं। उनका कहना था कि विचार में यदि मिठास हो तब कहीं जुबां के मीठे शब्द फूटते हैं। शुभचिंतक खामोश लौट पड़ा। गाँवों के विभिन्न विकास फंड पर सलाहकारों की गिद्ध दृष्टि थी। रामदीन की शाम सलाहकारों की चाटुकारिता भरी बातों में बीतती थी तथा सोते समय रामदीन को शाम की बातें लोरी की तरह लगती थीं। रामदीन का स्वभाव बदले लगा और यह स्पष्ट होने लगा कि सलाहकार उनके निर्णयों को पूरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं। रामदीन खुद को बादशाह अकबर समझने लगे तथा सलाहकारों को नवरत्न मानने लगे। इस अभिव्यक्ति को और स्पष्टता से देखने के लिए फिल्म राजा बाबू के नायक की जगह कुछ हद तक रामदीन को रखा जा सकता है। रामदीन के कुल सलाहकारों की संख्या 4-5 थी तथा सबको वे एक नवरत्न कहते थे लेकिन बीरबल किसी को नहीं कहते थे। बीरबल बनने तथा अधिक राशि डकारने के चक्कर में सलाहकारों के बीच बीरबल के पदनाम पाने की होड़ में एक से बढ़कर एक गलत पहल और रामदीन को सुखकर सलाहें प्रस्तुत की जाती रहीं। इन सलाहकारों में रायबहादुर बनने की होड़ मची हुई थी। रामदीन द्वारा चतुराई में उपयोग किए जानेवाले नवरत्न शब्द को बखूबी भुनाने के लिए सलाहकार रामदीन को शाहंशाह अकबर के रौब-दाब का आडंबरपूर्ण अहसास दिलाते रहे। अचानक एक दिन पुलिस रामदीन को सरकारी धन के दुरूपयोग में गिरफ्तार कर थाने ले गई। उस दिन सलाहकारों ने 'आपरेशन उल्लू बनाया' की सफलता का जश्न मनाया।

मैंने अपने एक अनुभवी मित्र से पूछा कि रामदीन जैसे समझदार व्यक्ति सलाहकारों के चंगुल में फंस कैसे जाते हैं ? उनका बहुत सहज उत्तर था कि प्रशंसा सबको अच्छी लगती है तथा इसी भावनात्मक कमजोरी का लाभ सलाहकार उठाते हैं। सलाहकार प्रजाति के फलने-फूलने में कुछ सत्ताधारियों की भी भूमिका है। वैसे भी यदि देखा जाए तो व्यक्ति वही सफल माना जाता है जो हमेशा व्यक्तियों से घिरा रहे। सत्ताधारियों को यह भी मालूम है कि सलाहकारों के इस प्रवर्ग से यथासंभव बचना हितकारी है किंतु जबसे इन सलाहकारों ने चाटुकारिता के शब्द और चारणों की शैली को अपनाया है तब से अच्छे-अच्छे सत्ताधारी इनसे बचने की असफल कोशिश में रहते हैं। मैं भी अपने आप पर हतप्रभ था कि आखिर मुझे क्या सूझी कि मैं इतने संवेदनशील और खतरनाक विषय से जूझ पड़ा। खैर, मित्रो ऐसी ही दीवानगी तो रचना को जन्म देती है। इसी उधेड़बुन में चलते-चलते एक ऐसे सख्श से टकरा गया जो इन सलाहकारों का मुक्तभोगी है तथा इस प्रवर्ग को जड़ से समाप्त करने की परशुराम की मुद्रा में रहता है किंतु कब, कहॉ, कैसे में उलझ शाब्दिक गोलाबारी कर शान्त हो जाता है। मैंने सलाहकार का तराना उसके सामने शरारतवश छेड़ दिया बस क्या था हमेशा की तरह शाब्दिक गोलाबारी शुरू हो गयी। अंत में उसने कहा कि इस प्रकार के सलाहकार सफेदपोश के रूप में हर जगह मिल सकते हैं जो किसी 'भाई' से कम नहीं है और उसने मुझे सलाह दी कि इस प्रवर्ग से बच कर रहूँ क्योंकि बाजार में आजकल यह चर्चा जोरों पर है कि कार्यालय तक में कार्यरत इस तरह के लोगों के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ है और अब ये लोग 'सुपारी' तक लेने लगे हैं। इतना सुनने के बाद इंसान तो क्या लेखनी तक बिदक जाती है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ और आप तो जानते ही हैं कि लेखन क्रमबद्धता का तार एक बार छूटा कि रचना वहीं थम जाती है, अड़ियल भैंस की तरह।

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

मृग मरीचिका

सत्य
हमेशा होठों से नहीं बोलता
अक्सर वह
चेहरे पर डोलता है,
नज़रों से बोलता है.

क्या बतला सकती हो
कि तुम क्या हो ?

यथार्थ -
नहीं.
प्रेरणा -
गलत,
एक व्यक्तित्व
वह तो सबका है.

अच्छा बस करो
बहुत बोल चुकी.

तुम्हें ही देखकर
प्रकृति ने
बिखेर दी
रंग-गंध की छटा,
तुम्हें ही पाकर
मानव में
जन्म हुआ
मनुष्यता का,
तुमसे ही उभरा
मैं-मेरा का बोल,
छुपने लगे सब
ले निज़ता की खोल.
तुम क्या हो...
सृष्टि की अद्भुत गीतिका हो
तुम मृग मरीचिका हो, तुम मृग मरीचिका हो.

दुहाई है

पलकों में अगन जो समाई है
बलमा लगे बड़ा हरजाई है,
खाट का ठाठ अधूरा रह गया
बैरी बन गई यह कमाई है.

सूरज ना अच्छा, चॉद ना अच्छा
तारों की चादर खिलखिलाई है,
सूखे पत्तों को हवा खड़खड़ाए
लगे कदमों की वही अंगनाई है.

हवाओं का है कैसा यह ईशारा
बदली क्यों आज लड़खड़ाई है,
रोम-रोम सिसक-सिसक सहमे
धड़कनों का धड़कनों से लड़ाई है.

प्यार के संसार में है पुकार
चाहत बनी चुलबुली चतुराई है,
अंगडाई निमंत्रण को आगे बढ़ाए
आहत न करो और, दुहाई है.

स्वावलंबी.

अपने स्वंय के विवेक से व्योम में रंगोली सजाना कल्पनाशीलता का द्योतक माना जाता है। अपने समर्पण और हठधर्मिता से राजभाषा अधिकारी बन जाने का वह एक निर्णय भीष्मप्रतिज्ञा की आधुनिक युग की जीवंतता को दर्शाता है। सृष्टि के निर्माण से लेकर स्वावलंबन अपने विभिन्न रूप-रंगों को दर्शाता रहा है। कभी विवशताऍ व्यक्ति को स्वावलंबी बनाती हैं, कभी चुनौतियॉ स्वावलंबन का दामन थामती हैं तो कभी काल के बवाल से उत्पन्न मलाल स्वावलंबन का इंद्रजालिक जाल पसार देता है। इन सबसे भिन्न एक जाल और है जो अपनी विशिष्टाओं के कारण मूक शोध का विषय बना हुआ है। यह एक ऐसा जाल जिसमें न तो इंद्रजाल जैसा हतप्रभ कर देनेवाला चमत्कार है और न ही बहेलिए की आखेट की धूर्ततापूर्ण शैली बल्कि इस जाल में मोहपाश है। एक ऐसा मोहपाश जिसमें भव्यता है, लक्ष्य संधान की चुनौतियॉ हैं और जिसमें जाल का एक मुख्य कार्यकर्ता स्वंय उलझा हुआ है, जिसे राजभाषा अधिकारी के रूप में जाना - पहचाना जाता है।

परिवर्तनशील जगत में गति की तीव्रता का साम्राज्य है। गति ने समय के महत्व को जिस उर्जा से वर्तमान में प्रतिपादित किया है इसकी मिसाल सालों-साल के इतिहास में ढूँढ पाना कठिन है। आज यह कहा जा सकता है कि मति से गति को प्रभावित नहीं किया जा सकता बल्कि गति अब मति पर अपनी वर्चस्वता बनाते जा रही है। गति-मति की इस सम्मति से स्वावलंबन की धुरी को बनाए रखना एक बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य हो चला है। इसी चुनौती को वर्तमान के लोग अपने-अपने ढंग से निभाए जा रहे हैं जिसमें से कुछ लोग ज़िंदगी के गीत गाए जा रहे हैं तो कुछ लोग ज़िंदगी द्वारा छकाए जा रहे हैं। अतएव, इन परिस्थितियों में राजभाषा अधिकारियों को स्टाफ,राजभाषा नीति और वार्षिक कार्यक्रम के कार्यान्वयन की बदलती बैंकिंग विधाओं संग तालमेल का संतुलन बनाए रखने की चुनौती है। इस चुनौती के लिए राजभाषा अधिकारियों को एक बार फिर 80 के आरंभिक दशक का राजभाषा का दौर याद आ रहा है जब विभिन्न कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों आदि के राजभाषा अधिकारी एक-दूसरे को सराहते और स्वीकारते थे। अब ऐसी प्रशंसाऍ करनेवाले गिने-चुने रह गए हैं तथा अधिकांश राजभाषा अधिकारी न जाने क्यों सिमटे या समेटे हुए हैं। इसे ऐसे भी तो कहा जा सकता है कि वे स्वावलंबी बन गए हैं।

यह स्वावलंबन राजभाषा अधिकारियों के कार्य के दायरे को बाँध रहा है। यह प्रश्न यहॉ उठना स्वाभाविक है कि क्या है यह स्वावलंबन, ? ख़ुद पर निर्भरता या कि स्वंय पर टिके रहना ? ख़ुद पर निर्भरता तो एक मानवीय गुण है पर यहॉ हम व्यक्ति की चर्चा नहीं कर रहे हैं बल्कि राजभाषा अधिकारी की बात कर रहे हैं और राजभाषा अधिकारी की ख़ुद पर निर्भरता एक विशेषता नहीं बल्कि एक समस्या है। राजभाषा कार्यान्वयन तो समूह को साथ लेकर चलने पर प्रभावी होती है, समूह की निर्भरता पर व्यक्तिगत निर्भरता की धूरी रहती है इसलिए राजभाषा अधिकारी की ख़ुद पर निर्भरता एक मिथक भी है और यथार्थ भी। राजभाषा कार्यान्वयन को दृष्टिगत रखते हुए राजभाषा अधिकारी की यदि स्वंय पर टिके रहने की चर्चा करें तो यह एक असहायता वाली स्थिति है जिसमें अस्तित्व संकट का आभास होता है। वर्तमान समय में निर्भरता और टिके रहना राजभाषा अधिकारी का एक यक्ष प्रश्न है जिसका समाधान तलाशने के लिए भगीरथ प्रयास किए जा रहे हैं।

कौन कर रहा है यह भगीरथ प्रयास ? यह प्रयास करनेवाला व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि राजभाषा अधिकारी है। लेकिन इस प्रयास को भगीरथ प्रयास क्यों कहा जा रहा है ? इसका कारण यह है कि राजभाषा कार्यान्वयन के पथ पर चलते-चलते राजभाषा अधिकारी डगरभ्रमित होकर ऐसे स्थान पर पहुँच गया है जहॉ पर खुले आसमान के नीचे निर्जन विस्तृत पसरे वृहद मैदान में अंधियारे में एक मुकम्मल दिशा की तलाश कर रहा है। ऐसी स्थिति में निपट अकेले का अहसास हिंदी अधिकारी के विश्वास को शंसय का आकाश प्रदान कर रहा है। इस एकाकीपन में स्वावलंबन एकमात्र आधार भी है, एकमात्र विकल्प भी है और एकमात्र विवशता भी जिसके बल पर एक राह की चाह में राजभाषा अधिकारी स्वावलंबी बनते जा रहा है। उल्लेखनीय है कि कमोबेश राजभाषा अधिकारी इसी अवस्था में स्वावलंबी संघर्ष में उलझे हुए हैं किंतु एक-दूसरे की और न तो सहायतापूर्ण दृष्टिपात कर रहे हैं और न ही सहयोगपूर्ण अभिलाषा अभिव्यक्त कर रहे है। सब के सब एक ही दिशा की और दौड़ रहे हैं पर जीत की आकांक्षा लिए हुए, एक व्यक्तिगत जीत की, एक निजी उपलब्धि की जिसमें राजभाषा कार्यान्वयन दब गया है। स्वावलंबन की यह कैसी चाह है ?

स्वावलंबन अर्थात अकेले चलने की चाह, एक नई राह निर्माण करने की सपनीली कोशिशें तेज़ी से चल रही हैं। लक्ष्य केवल रिपोर्टों की चौहद्दी की एक पारंपरिक रंगोली रह गया है तथा राजभाषा कार्यान्वयन संविधान के आधार पर राजभाषा का आकर्षक बुर्ज़। कहे तो कौन कहे, सुने तो कौन सुने, स्वावलंबन की दौड़ जो आरंभ हो चुकी है। स्वंय को पूर्ण, स्वंय को राजभाषा ज्ञानी मानने का एक स्वविचारित मुगालता तथा इन सबके बीच मुझसे बेहतर न का एक आधारहीन दंभ। कैसे इस प्रकार के चिंतन का उद्भव हुआ ? इसलिए, मात्र इसलिए कि एक पदनाम जुड़ा है नाम के साथ, राजभाषा अधिकारी या हिंदी अधिकारी। राजभाषा कार्यान्वयन का यथार्थ कार्यालयीन कामकाज की भट्टी में दहक रहा है और स्वावंबन के तूफान में राजभाषा अधिकारियों की एक पीढ़ी बही चली जा रही है, अशक्त, असहाय और अलक्ष्यी सा। स्वावलंबन इतने आसानी से नहीं मिलता उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। कीमत में क्या चुकाना होगा, यह स्वावलंबन को भी नहीं मालूम, कितना भयावह है इस प्रकार का स्वावलंबन।


धीरेन्द्र सिंह.