शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

बदलती जीवनशैली, ऋण भार और रिटेल उत्पाद.

परिवर्तन एक अनवरत प्रवाह है। बदलाव सृष्टि को गति और नवीनता प्रदान करता है। सृष्टि में आज दिखलाई पड़नेवाला रूप, रंग, गंध कल बदले हुए अंदाज़ में मिलेगा तथा परसों फिर उसमें कुछ नयापन मिलेगा। मानव भी इसी ढंग से जीवनयापन करता है। कृषि प्रधान भारत देश में सत्तर के दशक तक सामान्य जीवन शैली ही समाज पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए थी यहाँ तक कि भारतीय लेखन तथा फिल्मों में भी ग्राम प्रधान परिवेश का ही वर्चस्व था। संयुक्त परिवार अपने पारंपरिक सलीके को अपनाए हुए था। भारतीय अर्थव्यवस्था में अस्सी के आरंभिक दशक में परिवर्तन परिलक्षित होने लगे। शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार से नौकरी-व्यवसाय के लिए भारतीय जनजीवन में विस्थापन आरम्भ हुआ। संयुक्त परिवार में परिस्थितिबाध्य विलगाव आरम्भ हुआ जो कालांतर में एकल परिवार में परिणत हुआ। इस प्रक्रिया में व्यक्ति संयुक्त परिवार से ही दूर नहीं हुआ बल्कि वह अपने पर केंद्रित होना शुरू हुआ और स्वकेंद्रित होकर अपने स्वप्नों की दुनिया का ताजमहल बनाना आरम्भ किया। भूमंडलीकरण, सरकार की खुली आर्थिक नीतियों से व्यक्ति की कल्पनाओं और जीवन स्तर को ऊँचा उठाने का एक नया आयाम मिला।

हमारे देश में अस्सी के दशक में उपभोक्तावाद ने अंगड़ाईयाँ लेना आरम्भ किया तथा निजी और विदेशी बैंक अपनी उपस्थिति दर्ज करने लगे। इस प्रक्रिया में नब्बे के दशक में बैंकेतर वित्तीय संस्थानों की बाढ़ सी आ गई तथा इसके साथ लुभावने शर्तों और आकर्षक ब्याजदर पर ऋण प्रदान करने की संभावाओं की बारिश सी होने लगी। जनमानस में इसका प्रभाव तेजी से हुआ तथा हसरतों की बारातें सजने लगीं तथा बैंक और विभिन्न आर्थिक संस्थाएँ इसका पूरा लाभ उठाते हुए हर वर्ग और हर समुदाय के लिए विभिन्न उत्पादों को प्रस्तुत करने लगे। इस प्रकार भारतीय जीवन शैली में आधारभूत परिवर्तन होने लगा तथा जीवन में सुख-सुविधा के आदर्शों में परिवर्तन होने लगा। जीवन शैली में विलासिता शब्द अपने अर्थ को व्यापकता प्रदान करते हुए जीवन स्तर के विभिन्न आयामों से खुद को जोड़ते हुए विलासिता और आवश्यकता की दूरियाँ को कम करने लगा। इतना ही नहीं इस आर्थिक आजादी ने जीवन दर्शन को भी प्रभावित किया तथा भविष्य के लिए धन संचय करने की प्रवृत्ति ने "वर्तमान ही जीवन है" दर्शन के प्रति लोगों को आकर्षित किया। इस दर्शन को "जब चाहें तब ऋण उपलब्ध है" के रूप में हर जगह प्रदर्शित जादुई वाक्य से भी एक आधार मिला।

यह उल्लेखनीय है कि अस्सी के दशक से भारतीय सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक परिवेश में क्रांतिकारी परिवर्तन स्पष्ट दिखलाई पड़ने लगा। परिवार एक छोटी इकाई बन चुका था जिसकी चाहत आसमान को छू लेने की बनती रही। बात केवल चाहत तक ही सिमटी हुई नहीं थी बल्कि उसको पूर्ण करने के लिए आर्थिक आधार की भी अकुलाहटपूर्ण तलाश जारी थी। एक परिवार के पति-पत्नी दोनों ही नौकरी-व्यवसाय की हिमायत करते हुए घर की आय को बढ़ाने लगे तथा साथ ही साथ अधिक ऋण लेकर उसके चुकौती की क्षमता को भी बढ़ाने लगे। उपभोक्तावाद का तेज दौर आरम्भ हुआ और उपभोक्तावादी संस्कृति देश के दूर-दराज के क्षेत्रों की सोच में भी अपनी पकड़ मजबूत करती गई।

ऋण भार - मजबूत बनता गणतंत्र
स्वतंत्रापूर्व हमारे देश की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ स्वतंत्रता के बाद भी काफी समय तक जनमानस को प्रभावित करती रही। औसत व्यक्ति की आय कम थी तथा व्यक्ति की मानसिकता ऋण लेने की नहीं थी संभवत: इसका यह भी एक कारण रहा होगा कि उस समय न तो ऋण के इतने अवसर थे और न ही उपभोक्तावाद संस्कृति अस्तित्व में थी । बैंक के बारे में सामान्य लोगों की धारणा थी कि इसमें पैसा जमा किया जाता है तथा जरूरत पड़ने पर निकाला जाता है जो ब्याज मिलाकर अधिक राशि के रूप में प्राप्त होता है। साहूकार-महाजन से कर्ज लेकर ब्याज देने की अस्पष्ट प्रणाली ने सामान्य जन-जीवन में ऋण के प्रति एक स्वाभाविक नीरसता ला दी थी। भूमंडलीकरण के आवेग ने सामान्य जनजीवन में ऋण के प्रति सम्मोहनपूर्ण आकर्षण उत्पन्न किया। प्रति व्यक्ति औसत आय में वृद्धि ने ऋण के नए-नए उत्पादों में से बेहतर के चयन की शक्ति प्रदान किया। देश की राजनैतिक और आर्थिक स्थिति में मजबूती की निरंतरता ने वि•ा के सबसे बड़े गणतंत्र के आम जनजीवन को मजबूती प्रदान किया।

बैंकिंग क्षेत्र के बदलाव ने बदल दी ज़िंदगानी
भारत सरकार की आर्थिक नीतियों से तथा भूमंडलीकरण के प्रभाव से बंद दरवाजे खुल गए जिससे विदेशों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बैंकों, कंपनियों आदि को देश में आने का रास्ता खुल गया । वर्ष 1988 से बैंकिंग की नई क्रांति शुरू हुई एवं बैसल-2 का प्रादुर्भाव हुआ। अमेरिका के "लोन एण्ड सेविंग्स" ने बैंकिंग जगत को एक नई सोच और समझदारी से कार्य करने की नवीन प्रणालियों पर चिंतन का आधार प्रदान किया। पहले ऋण लेने से बचनेवाले भारतीय अब बैंकों से बेहिचक ऋण लेते हैं तथा क्रॉस सेलिंग के द्वारा वे एक से अधिक ऋण लेने का मौका नहं चूकते हैं। वित्त मंत्रालय, भारत सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों के ब्याज दर में कमी लाकर ऋण लेना आसान कर दिया है। आर्थिक क्रांति की वजह से उद्योग जगत की गतिशीलता में उछाल की गति बरकरार है। आर्थिक प्रगति और उद्योग जगत की बहुविधा तेज गति ने प्रति व्यक्ति आय में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की है जिससे उनमें ऋण भार उठाने की अदम्य क्षमता उत्पन्न हुई है। देश में कल तक महिलाएँ चौका-बरतन में ही अपने दायित्वों को पूरा कर खुश हुआ करती थीं अब वे परिवार के आर्थिक सहयोग में भी अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए नौकरी-व्यवसाय उन्मुख हो गई हैं। इससे परिवार की आर्थिक स्थिति में गौरवपूर्ण निखार आने लगा है तथा ऋणभार को उठाने की शक्ति में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।

बैंकिंग क्षेत्र की तरलता में गंगा स्नान का सुख बैंकिंग क्षेत्र की तरलता बढ़ जाने से बैंकों को मजबूर होकर ब्याज दर को कम करना पड़ा तथा ऋण को और आकर्षक बनाना पड़ा। इस प्रक्रिया में नए उत्पादों की प्रतियोगितापूर्ण बाढ़ सी आ गई तथा सूचना और प्रौद्योगिकी इसमें काफी सहायक हुई। आवास ऋण आदि की चुकौती अवधि में वृद्धि कर बैंकों ने ग्राहकों को पूरी तरह से आकर्षित करने में प्राप्त किया तथा ग्राहक 15, 20 तथा यहॉ तक कि 25 वर्षों की आवास ऋण की चुकौती अवधि पाकर अपने नीड़ को महल में सहजतापूर्वक सजग देने लगा। आवास ऋण में आयकर की छूट की सुविधा ने "सोने पे सुहागा" कहावत को बखूबी चरितार्थ किया है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ शुरू हुई तथा बाजार की खूबसूरती ऋण की नैया द्वारा घर के संगीत से जुगलबंदी करने लगी। ऋण की चुकौती में समयावधि में ही इज़ाफा नहीं हुआ बल्कि किश्तों में अदायगी को भी लचीला बनाया गया। कई बैंकों ने गारंटी को निकाल दिया जिससे ऋण प्राप्त करने के लिए ग्राहक बेहिचक बैंक से संपर्क करने लगे।

युवा जनसंख्या - आवेगपूर्ण जिंदगी
भारत देश की वर्ष 2003 की जनगणना से यह स्पष्ट होता है कि भविष्य का भारत युवाओं का भारत है। जनगणना के आंकड़े निम्नानुसार हैं :-

60 वर्ष और अधिक 07
35 से 59 वर्ष तक 23
15 से 34 वर्ष तक 35
0 से 14 वर्ष तक 35

उक्त आंकडों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि भारत की 70ऽ जनसंख्या 35 वर्ष से कम उम्र की है। यह जनसंख्या देश के विभिन्न क्षेत्रों में गतिशीलता में वृद्धि ला रही है। विशेषकर जनसंख्या का यही भाग जीवन की भी सुविधाओं को यथाशीघ्र प्राप्त करने की कामना रखता है जिससे कि ऋण लेने की प्रवृत्ति को बढावा मिला है। कथित युवा पीढ़ी ने परंपागत शिक्षा में परिवर्तन लाई है तथा विभिन्न व्यासायिक पाठ¬क्रमों से शिक्षा प्राप्त कर ऊँचे वेतन अथवा आय
प्राप्त कर रही है। इसी पीढ़ी को दृष्टिगत रख "कर लो दुनिया मुठ्ठी में" और "हम हैं ना" जैसे सूक्ति वाक्य प्रतिष्ठानों ने अपनाया है। बैंकों ने अपनी कार्यप्रणाली में समयानुसार परिवर्तन किया तथा अत्यधिक प्रतियोगितापूर्ण परिवेश में भावी कार्यनीतियों के निर्धारण के लिए दूरदर्शी और दूरगामी योजनाओं पर भी लक्ष्य देना आरम्भ किया। इसी क्रम में वर्ष 2003 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2009 की अनुमानित जनसंख्या के आंकड़े उम्र के आधार पर निकाले गए जो निम्नलिखित हैं :-

2003 2009 अनुमानित
0-14 365 281
15-35 365 448
35-59 240 286
60-ऊपर
75 37
कुल जनसंख्या लाख में

उक्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009 में 130 लाख से अधिक श्रमजीवी 35 वर्ष की उम्र के होंगे। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपनी तेज गति के साथ ऋण से जुड़ेगा जिसके ऊँचे स्वप्नों के साथ आर्थिक प्रगति के मजबूत हौसले भी होंगे। ऋण प्राप्त करना और उसकी अदायगी करना इनके जीवन का एक अभिन्न अंग होगा। बैंकिंग जगत के कारोबार का यह वर्ग प्रमुख अंग होगा। इस अवसर को भुनाने के लिए बैंकों ने अने स्तर पर तैयारियाँ शुरू कर दी है।

धीरेन्द्र सिंह.

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