मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

सरल हिन्दी – एक एफर्ट

गवरमेंट ऑफिसों में आफिसियल लंगवेज़ के लिए जो एफर्ट किए जा रहे हैं वह एक्सपेक्टेड रिज़ल्ट नहीं दे रहे हैं। मिनिस्टरी ऑफ होम अफेयर्स, राजभाषा विभाग की सचिव महोदया ने भी अपने लेटर में यह बखूबी बतलाया है कि सरल हिन्दी अब प्रयोग की जानी चाहिए। सरकारी आफ़िसों में लंबे समय से हिन्दी के डिफिकल्ट शब्दों को लेकर चर्चा चल रही थी किन्तु इसका कोई आसान रास्ता नहीं मिल रहा था। विभिन्न मंत्रालयों ने अपने-अपने ग्लासरी भी तैयार कर लिए हैं और उनके हिन्दी डॉक्युमेंट्स में हिन्दी के डिफिकल्ट शब्दों का भी खूब प्रयोग किया गया है। इन हिन्दी डॉक्युमेंट्स को पूरा पढ़ पाना ईज़ी नहीं है। इनको पढ़ते समय एक फ्लो भी नहीं रहता है और प्रनाउन्स करना मतलब लोहे के चने चबाने जैसा है। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग दिनांक 26 सितंबर, 2011 के पत्र संख्या 1/14011/02/2011-रा.भा.( नीति -1) में सरकारी कामकाज में सरल और सहज हिन्दी के प्रयोग के लिए  नीति-निर्देश एक्चुअली आफिसियल लैंगवेज़ इंप्लीमेंटेसन का एक हिस्टोरिकल निर्णय है। इस नीति निर्देश के कंपलायन्स के लिए सभी सरकारी आफ़िसों में गोष्ठियाँ, सेमिनार, वर्कशॉप वगैरह शुरू करना चाहिए।
सरकारी कामकाज की भाषा के इस नए अंदाज़ को एक्सैप्ट करने में कुछ सवाल ज़रूर खड़े होंगे जैसे;  लेकिन क्या सरल हिन्दी के इस नीति-निर्देश को सरलतापूर्वक इम्प्लीमेंट किया जा सकता है? पिछले 30 वर्षों से राजभाषा के जिन शब्दों का विन्यास हुआ है और जो राजभाषा के रूप में मान्य होने लगे हैं उन्हें छोड़कर रोमन शब्दों का उपयोग करना आसान कार्य है ? राजभाषा अधिनियम 351 तो खुद अन्य भारतीय भाषाओं की हिमायती है और यह नीति-निर्देश है इस अधिनियम का एक विस्तृत और सरलीकृत रूप नज़र आता है। प्रौद्योगिकी भाषा और शब्दों की तथाकथित दुर्गम प्रतीत होनेवाले रास्तों को सहज और सरल बना दिया है। टाइप करने के नए और बेहतर विकल्प, समान्य अनुवाद की उपलब्ध सुविधाएं, उच्चारण के लिए आडियो प्रशिक्षण की उपलब्धताएँ विश्व की अनेकों उन्नत भाषाओं को सिखला रही हैं, हिन्दी भी उनमें से एक भाषा है। हिन्दी अपने संग संस्कृत, उर्दू को प्रमुखतया लेकर चल रही है जिसमें अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के शब्द भी प्रयोग हो रहे हैं। हिन्दी भाषा की आधुनिक शैली में देवनागरी में अंग्रेजी मिश्रित शब्दों का स्वतंत्र प्रयोग का नीति-निर्देश कोई नयी बात नहीं है। ग भाषिक क्षेत्रों में यह प्रयोग पिछले कई वर्षों से लागू करने के प्रयास विभिन्न कार्यालयों के राजभाषा विभाग द्वारा किया जा रहा है। जिस स्वतंत्रतापूर्वक इस शैली के प्रयोग की उम्मीद की जा रही थी उसमें उतनी सफलता अभी भी नहीं मिली है।

हिन्दी भाषा की यह आधुनिक शैली किसके लिए है। क्या क क्षेत्र के लिए है? क्षेत्र को इसको एक्सैप्ट करने में प्रोब्लेम हो सकती है। ख भी शायद इसे आसानी से अपना न पाये। रही ग क्षेत्र की बात तो यदि ग क्षेत्र देवनागरी लिपि में लिखना या टाइप करना शुरू कर दे तो यह राजभाषा का एक ग्रेट आचीवमेंट होगा। शायद हिन्दी भाषा की आधुनिक शैली को राजभाषा की आधुनिक शैली नाम दिया जाये तो प्रभाव और ज्यादा होगा। विशेषकर ग क्षेत्र में देवनागरी में लिखने का हेजिटेसन है। क और ख क्षेत्र की भाषाएँ हिन्दी के शब्दों को अपनाने के लिए विशेष प्रयास नहीं करती हैं। हिन्दी शब्द उनकी भाषा में घुल जाता है इसलिए इन क्षेत्रों में इस आधुनिक शैली का प्रयोग व्यापकतापूर्वक हो पाएगा इसमें संदेश है। शायद फिलहाल क और ख क्षेत्र को इसको अपनाने में कठिनाई हो। हाँ ग क्षेत्र यदि इस आधुनिक राजभाषा के बल पर देवनागरी की डगर पर निकाल पड़े तो यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि होगी।
मैंने यह भी पाया कि कुछ लोग इस पत्र का विरोध भी कर रहे हैं। मैंने भी अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर इन तथाकथित विरोधियों के तरफ बढ़ाने का प्रयास किया परंतु सफल नहीं हो सका। क्या लिखा है नया इस पत्र में कि उसका विरोध किया जाये। कहाँ पर राजभाषा के लिए यह प्रॉबलम खड़ी कर रही है। कहीं तो नहीं, कुछ भी तो नहीं बस पुरानी बातों को अत्यधिक स्पष्ट और सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है। वर्तमान में यह सरल हिन्दी का नीति निर्देश शायद कुछ लोगों के गले नहीं उतरे परंतु कालांतर में यह विरोध स्वतः संतुष्ट हो शांत हो जाएगा, ऐसी मेरी धारणा है। यह पत्र अक्चूयली एक फ़्यूचरिस्टिक विज़न का कमाल है। आफ़िस में अब एक जनरेसन रिटायर हो रहा है और न्यू जनरेसन की एंट्री हो रही है। क्या नया लुक मिल रहा है आफ़िसों को भई वाह ! हर तरफ यंग फ़ेस और यंग माइंड बिलकुल फ्रेश स्टाफ । यह स्टाफ फ़ेसबुक और ट्विटर के सहारे चलनेवाला है जहां अपनी बात शॉर्ट कट में और आसान वर्ड्स के साथ कहनी होती है। जब यह यंग स्टाफ ड्राफ्टिंग करने बैठेगा तो भाषा की शुद्धता के झमेले में नहीं उलझना चाहेगा बल्कि कम्प्युटर से अपने कम्यूनिकेशन को स्पीड देगा और एक्सपेक्टेड रिज़ल्ट लाकर बिज़नस को आगे बढ़ाएगा। ऐसे सिचुएशन में यह नयी नीति इफेक्टिव होगी।
यूं भी देखा जाये तो राजभाषा अब तक अपना कोई एक मुकम्मल तस्वीर नहीं बना पायी है। तमाम कोशिशें जाया होती जा रही हैं लेकिन जिस बुलंदी भरे हौसले को लेकर राजभाषा चल रही है उसको टेबलों  पर, कागजों में तब्दील होते हुये कहाँ देख पा रहे हैं। अगर कहीं कुछ कामयाबी का परचम दिख भी जाता है तो फौरीया यह महसूस होने लगता है कि हो ना हो इसमें जुड़े आफ़िस के राजभाषा विभाग की मदद हो। राजभाषा किस तरह की होनी चाहिए, कैसे लिखी जानी चाहिए, इसका मिजाज कैसा होना चाहिए इसकी मिसाल तो कहीं मिलती नहीं है अलबत्ता शोर बहुत है जहां पर राजभाषा की डफलियाँ बज रहीं हैं और दूसरी ओर सन्नाटा है जहां आफ़िस का राजभाषा विभाग तिमाही रिपोर्ट भेजकर आराम फरमा रहा है। ऐसे वक़्त में सचिव महोदया द्वारा साफ-साफ लफ्जों में सरल हिन्दी की ओर चलने का जो ईशारा किया गया है शायद यही राजभाषा का असली चेहरा हो। बहरहाल इस पर और भी बातें होनी चाहिए ताकि जिसे जो कहना हो बोलकर तसल्ली कर ले यूं भी जुबानें कब कहाँ किसी के पकड़ में आई हैं जो आवाम चाहेगी वैसी ही राजभाषा, हिंदी के तख्त पर बैठेगी। सचिव महोदया का यह नीतिपरक पत्र वक़्त के नब्ज़ की पकड़ है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा को एक नयी दिशा देने में प्रौद्योगिकी की महत्वपूर्ण भूमिका है और प्रौद्योगिकी एक आम पढे-लिखे की जुबान है तब ऐसे में देश से विदेश तक यदि राजभाषा को यात्रा करनी है तो भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं को अपनाना ही पड़ेगा। हमें भाषाओं के बदलते रूप-रंग, चाल-चलन को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए वरना भाषा हमें छोड़ आगे निकाल जाएगी और यह हालात ना हो जाये कि बियाबान में हम खुद को कहीं अकेले ना पाएँ।               
     

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रविवार, 4 दिसंबर 2011

राजभाषा का वाणप्रस्थान

राजभाषा को जो देते हैं सम्मान उन्हें यह सुनकर आश्चर्य नहीं होगा कि राजभाषा वाणप्रस्थान की ओर बढ़ रही है। जिस राजभाषा को संसद से लेकर सड़क तक अपने प्रभाव और उपयोगिता को विस्तृत  करना था अब वही राजभाषा वाणप्रस्थान से जोड़ी जाने लगी है। ऐसे कैसे हो सकता है? कहीं लेखक अपनी खीज तो नहीं उतार रहा है? अब तो ब्लॉग का खुला मंच है जब चाहो तब लिख डालो सार्थक, निरर्थक की तो पाठक सोचेंगे, लेखक को क्या, जो जी में आया लिख डाला। कृपया इस तरह की भावना रखते हुये इसे ना पढ़ें। यह ब्लॉग कभी भी किसी विवाद को उत्पन्न करने की कोशिश नहीं करता है, बल्कि हमेशा राजभाषा के यथार्थ को सँजोने, प्रस्तुत करने का प्रयास करता है।
आप चाहे राजभाषा से सीधे जुड़े हुये हों अथवा राजभाषा से दूर हों, एक सवाल खुद से पूछिये कि क्या आप अपने दैनिक कार्यों में राजभाषा का उपयोग करते हैं? यदि आप राजभाषा से सीधे जुड़े हों ( राजभाषा अधिकारी, अनुवादक आदि) तो क्या आप अपना सम्पूर्ण कार्य राजभाषा में करते हैं? अधिकतम उत्तर होगा नहीं। व्यक्तिगत स्तर से उठकर थोड़ा आगे चलें तो प्रश्न उभरता है कि क्या आपके कार्यालय और आपके विभाग में (राजभाषा विभाग को छोडकर) राजभाषा में कार्य होता है? इसका भी उत्तर होगा नहीं। यदि किसी ने कहा कि हाँ कार्य खूब होता है तो वह व्यक्ति उन उपायों का जिक्र करता है जिनको अपनाकर अधिकांश विभाग और कार्यालय राजभाषा के लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। जिसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है पिछले 25 वर्षों से इसी तरह से राजभाषा के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा रहा है। इनमें कुछ नाम हैं, हिन्दी में मुद्रित अग्रेषण पत्र जिसे अंग्रेजी में लिखे पत्रों पर लगा दिया जाता है, वर्षों से तैयार रबर को मोहरें, भित्ति पर प्रदर्शित विभिन्न बोर्ड आदि, बस हो गयी राजभाषा।
प्रत्येक कार्यालय राजभाषा कार्यान्यवन की औपचारिकता निभा रहा है। कार्यालयों में गठित राजभाषा विभाग दिग्भ्रमित है क्योंकि उसे तिमाही रिपोर्ट के प्रेषण, राजभाषा कार्यान्यवन समिति की बैठक, अनुवाद, निरीक्षण के सिवा कुछ और सूझ नहीं रहा है। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग का वार्षिक कार्यक्रम विभिन्न लक्ष्यों का निर्धारण तो कर देता है पर उसके प्राप्ति के उपायों की चर्चा नहीं करता है जिससे विभिन्न कार्यालयों के राजभाषा विभाग को अपनी अगली राह चयनित करने में असुविधा होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि कार्यालयों में राजभाषा का सबल नेतृत्व का अभाव है यद्यपि राजभाषा के बड़े पदों का यत्र-तत्र मिल जाना अब नयी बात नहीं रह गयी है। राजभाषा के प्रगति की गूंज तो सुनाई देती है परंतु कार्यालयों के कामकाज में राजभाषा का एकमय हो जाने की स्थिति 10 वर्ष पहले जैसी ही है। गाहे-बगाहे राजभाषा के प्रगति की दुदुंभी बज उठती है परंतु यह ऐसा ही लगता है जैसे एक स्थान पर बैठा व्यक्ति बोले जा रहा हो भागो, दौड़ो, भागो, दौड़ो जबकि यथार्थ में कोई धावक या धाविका नहीं है। ऐसी भी स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं जब इस भागो, दौड़ो पर यकीन कर लिया जाता है।
क्या यह एक नकारात्मक सोच है? क्या यह पूर्वाग्रह का प्रभाव है? क्या यह यथार्थ की धरातल से कटा एक काल्पनिक लोक विचरण है? वस्तुतः ऐसा नहीं है। तीन दशक से राजभाषा निरख रही है कि उसके साथ अपेक्षित न्याय नहीं किया जा रहा है। कार्यान्यवन स्तर पर राजभाषा को बहलाया जाता है, भटकाया जाता है। राजभाषा को आवरणों में लपेट दिया जाता है, मुखौटे को रंग दिया जाता है जिससे राजभाषा व्यथित हो चुकी है। राजभाषा की वेदनाओं को कार्यान्यवन स्तर पर ना देखा जा रहा है, ना सोचा जा रहा और ना समझा जा रहा है बल्कि इसे पुरस्कारों की सीमाओं में बांध दिया गया है। राजभाषा व्यथित होकर वाणप्रस्थान कर रही है। किसी को भी इस बात की चिंता नहीं है। कोई रोकने की कोशिश भी नहीं कर रहा है। सरकार को यह रिपोर्टिंग की जा रही है कि राजभाषा कार्यान्यवन में ठोस कार्य हो रहा है और निरंतर प्रगति हो रही है। राजभाषा को सबसे अधिक पीड़ा इसी बात की है कि सरकार को भी किस तरह यथार्थ से दूर रखने की कोशिश की जा रही है। क्या करे राजभाषा ऐसी स्थिति में? कहाँ जाये, किसे अपना दुखड़ा सुनाये इसलिए राजभाषा ने तय कर लिया कि वाणप्रस्थान ही एक सही कदम होगा जहां कम से कम आत्मचिंतन और आत्ममनन के लिए समय तो मिल पाएगा, हो सकता है कोई नयी राह निकल जाये, और तो सोच नहीं रहे अब राजभाषा को ही खुद के कार्यान्यवन के बारे मैं सोचना पड़ेगा इसलिए वह वाणप्रस्थान की ओर चल पड़ी है।

              


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