मंगलवार, 26 मार्च 2024

RACHANA – HINDI POETRY GROUP - हिंदी भाषा पर चर्चा

RACHANA – HINDI POETRY GROUP - हिंदी भाषा पर चर्चा


यह एक हिंदी समूह है जिसका उद्देश्य सार्थक और सही हिंदी को प्रचारित और प्रसारित करना है। आश्चर्य होता है इस समूह के उद्देश्य और नियमावली को पढ़कर। यहां प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अपना नाम अंग्रेजी में रखनेवाला समूह भला हिंदी विषयक बड़ी-बड़ी बातें कैसे कर लिया है। क्या यह समूह अपना नाम हिंदी में नहीं रख सकता ? हिंदी भाषा के प्रति दो अलग-अलग चेहरा दिखलानेवाला समूह ने मुझे आकर्षित किया और इस समूह का सदस्य बन गया। 


एक दिन में एक पोस्ट -  इस टिप्पणी के साथ एडमिन ने मेरी दो प्रेषित कविताओं में से एक को अस्वीकृत कर दिया। हिंदी के किसी अन्य समूह में इस प्रकार की कार्रवाई न दिखी। हिंदी के सजग प्रहरी के रूप में स्वयं को दर्शानेवाले इस समूह की दूसरी त्रुटि नजर आयी अतएव प्रश्न किया कि किस आधार पर रचना अस्वीकृत की गई तो इस समूह के एडमिन का उत्तर था – एक दिन में एक पोस्ट।


“धन्यवाद आपके सवाल हेतु, दरअसल दूसरे दिन तक पोस्ट रखने से पैनल के लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता है बार बार एक दूसरे को बताते रहना पड़ता है फिर कि ये अप्रूव कल करें इत्यादि। क्योंकि एक ही व्यक्ति पोस्ट अप्रूवल का काम नहीं देख रहा होता। धन्यवाद”

 उक्त उत्तर समूह के एडमिन द्वारा दिया गया जब मैंने प्रश्न किया कि रचना तो दूसरे दिन भी अनुमोदित की जा सकती थी। इस प्रकार का उत्तर किसी अन्य समूह से प्राप्त नहीं हुआ।


“नियमानुसार ये इमेज मान्य नहीं स्केच/पेंटिंग चल सकती है एक दो जगह त्रुटि ठीक कर पोस्ट भेजे”

“सीखाने की चाह नहीं रही कभी इस समूह की हम सभी एक दूसरे से सीख ही रहे चंद्र बिंदु नदारद * गगन हो सघन हो* रचना स्वीकृत है कल की रचना में फेस दिखाई दे रहा था इस कारण अस्वीकृत हुई”

उक्त की आरंभिक दो पंक्तियों में किस तरह समूह के एक सदस्य से एडमिन ने बात की इससे अलग कोई प्रत्यक्ष और दस्तावेजी नमूना क्या हो सकता है।


“आदरणीय आप को टाइप करने में चंद्र बिंदी की समस्या नहीं क्योंकि आप ने कई जगह उनका उपयोग किया, जैसे 'हूँ' शब्द में चंद्र बिंदी लगाई आपने। हमारा उद्देश्य लोगों तक जितना हो सही रूप में हिंदी जाए और उसमें आप सब के सहयोग की अपेक्षा।“

उक्त सम्प्रेषण से एडमिन की भाषा और अभिव्यक्ति संभली क्योंकि इस अवधि में मेरी ओर से ऐसे प्रश्न किए जा रहे थे जिनका उत्तर इस समूह से मांगा जाएगा समूह ने इसकी कल्पना तक न की होगी। मेरा उद्देश्य विवाद का नहीं था बल्कि लक्ष्य था इस समूह के एडमिन को हिंदी भाषा और गूगल इमेज के बारे में स्पष्टता का क्योंकि अस्पष्ट आधार पर मेरी रचना अस्वीकृत कर दूसरे दिन कतिपय संशोधन सहित पोस्ट करने की हिदायत दी गयी थी।


‘किसी भी व्यक्ति का चित्र लगाना नियमों के खिलाफ़ क्योंकि ये कॉपीराइट का उल्लंघन होता है कारण स्पष्ट शब्दों में नियमों में लिखा गया है। इन शब्दों को सुधारें चाँद, आँगन, साँकल, नीतियाँ नीदिया शब्द का अर्थ कृप्या बताएं मुझे उसका अर्थ नहीं पता। धन्यवाद’


कुछ हिंदी समूह के एडमिन स्वयं को हिंदी का सर्वज्ञाता मानकर रचनाओं पर अपनी बौद्धिकता दर्शाते हैं। इमेज साहित्य के बारे में अधूरी जानकारी के आधार पर समूह के सदस्य को अपूर्ण सलाह बेधड़क देते हैं। उक्त परिच्छेद में एडमिन की बौखलाहट स्पष्ट ज्ञात हो रही  परिणामस्वरूप अर्धचंद्रबिन्दु लगाकर कुछ शब्दों को सुधारने के साथ-साथ एक शब्द के अर्थ के बारे में पूछा जा रहा है। इस समूह के एडमिन का यह एक आक्रामक हिंदी ज्ञान प्रहार है जिससे यह प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है कि रचनाकार को हिंदी नहीं आती है इस प्रकार प्राथमिक स्तर का हिंदी ज्ञान परोसा गया है।


“आदरणीय आप को टाइप करने में चंद्र बिंदी की समस्या नहीं क्योंकि आप ने कई जगह उनका उपयोग किया, जैसे 'हूँ' शब्द में चंद्र बिंदी लगाई आपने। हमारा उद्देश्य लोगों तक जितना हो सही रूप में हिंदी जाए और उसमें आप सब के सहयोग की अपेक्षा।“

एक तथ्य अब तक स्पष्ट हुआ कि एडमिन में एक या अधिक एडमिन हिंदी की अपनी बौद्धिकता समूह के सदस्य पर थोपना चाहते थे। एक प्रकार की हठवादिता इनमें स्पष्ट है। इसी समूह में एक या अधिक एडमिन ऐसे भी हैं जिन्हें हिंदी भाषा और हिंदी लेखन की समझ है और ऐसे एडमिन अपने सम्प्रेषण में पद की गरिमा अनुरूप सदस्य से सम्प्रेषण करते हैं। एक ही समूह में ऐसा विरोधाभास क्यों ?


"अर्धचंद्रबिन्दु" पर समूह की नवीनतम टिप्पणीने विराम तो दिया किन्तु संलग्नक में उल्लिखितकुछ शब्दों का अर्थ भी मुझसे पूछा गया है। यहप्रश्न उस समय रचनाकार की अभिव्यक्तिअवधारण, रचना में संलिप्त भावनाओं कीप्रभावशाली उड़ान के लिए लेखकीय छूट कोभी ध्यान में रखा गया है। हिंदी भाषा के प्रतिमेरी प्रतिबद्धता मुझे कहती है कि उठाए गएशब्द संबंधित प्रश्न हिंदी जगत के लिए एक अतिमहत्वपूर्ण बिंदु होगा जिसके आधार पर विभिन्न विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग तथा मास मीडिया के लिए एक उपयोगी दस्तावेज होगा।


क्या मैं संलग्नक संग आपके समूह के नाम का उल्लेख करते हुए सार्वजनिक मंचों पर अपना लेख पोस्ट नहीं कर सकता।“

उक्त सम्प्रेषण मेरे द्वारा द्वारा किया गया। यहां पर अपने सभी सम्प्रेषण को मैंने इसलिए नहीं दर्शाया है कि उससे यह प्रस्तुति बहुत लंबी हो जाती। उक्त प्रस्तुतियां स्पष्ट एक पूर्ण और स्पष्ट संवाद को प्रदर्शित कर रही हैं।


यह प्रस्तुति का मूल उद्देश्य हिंदी समूहों के एडमिन द्वारा समूह संचालन में हिंदी भाषा की दबंगता और अधूरे ज्ञान की ओर भी संकेत करती है। प्रायः इस पक्ष पर नहीं लिखा जाता है। सर्वप्रथम कनाडा नाम से एक हिंदी समूह के एडमिन से पोस्ट अनुमोदन पर प्रश्न किया तत्काल मुझे ब्लॉक कर दिया गया। दूसरी बार हंस पत्रिका समूह के एडमिन से पूछा कि हंस नाम अंग्रेजी में क्यों है। यह हिंदी में हो सकता है। यह संदेश मैंने अंग्रेजी में लिखा था तत्काल मुझे ब्लॉक कर दिया गया। यह दर्शाने का उद्देश्य यह है कि समूह के एडमिन के आगे सदस्य कमजोर हैं अतएव प्रश्न पूछने पर ब्लॉक करना एडनिन के ज्ञान का परिचायक है। रचना समूह की एक अच्छी बात यह है कि यहां लगातार संवाद होता रहा। संवाद आवश्यक है तर्क-कुतर्क, ज्ञान-अघ्ययन तो  समय संग विकसित होती रहती हैं।


इस प्रस्तुति का मुख्य उद्देश्य "रचना" हिंदी समूह नहीं है बल्कि "रचना" तो एक नमूना है। "रचना" एडमिन टीम के प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि यदि "रचना" समूह के एडमिन चर्चा न करते तो एडमिन कार्यप्रणाली और हिंदी भाषा विषयक सोच कैसे उभर कर आता? उल्लिखित है कि दो हिंदी समूह ने मेरे द्वारा किए गए प्रश्न पर मुझे तत्काल ब्लॉक कर दिया। सोशल मीडिया पर एडमिन की कुछ अनगढ़ बयार है जिसपर आवाज उठानी चाहिए जिससे इनमें गुणात्मक सुधार हो और हिंदी की सार्थक और प्रभावशाली प्रगति हो।


प्रसंगवश चलते-चलते एक वेब पोर्टल "अश्रुतपूर्वा" की याद आयी जिसके आरंभिक निर्माण में मेरा प्रमुख सहयोग था। इस वेब पोर्टल की अत्यधिक सक्रिय एडमिन, मॉडरेटर या वर्तमान में सह-संस्थापिका लिली मित्रा के द्वारा चयनित पोस्ट पर मैंने टिप्पणी की। वह पोस्ट बिहार राज्य के किसी महाविद्यालय के हिंदी प्राध्यापक का था शायद। लिली मित्रा ने न मुझे पोर्टल से ब्लॉक किया बल्कि मेरी समस्त रचनाओं को भी पोर्टल से हटा दिया। एक हिंदी पोर्टल को खड़ा करने के मेरे कई प्रकार के सहयोग को भुलाते हुए मुझे पोर्टल से निष्कासित किया गया। वर्तमान में मेरा मात्र एक ही वीडियो इस वेब पटल पर है जिसमें मैंने आरंभ में आयोजित ऑनलाइन कवि सम्मेलन का संचालन किया था वह भी इसलिए कि सम्मिलित लोग लिली मित्रा के आदरणीय हैं अन्यथा मेरे अन्य वीडियो की तरह इसे भी पोर्टल से हटाया जा सकता था।


धीरेन्द्र सिंह

25.03.2024

22.26


इसे सार्वजनिक करने से पहले इस पटल को दिखाना आवश्यक है। प्रतिक्रिया अपेक्षित है। (नोट :-"रचना" ने बिना किसी प्रतिक्रिया के इस पोस्ट को अस्वीकृत कर दिया।)

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रविवार, 11 फ़रवरी 2024

सर्वभाषा की अतृप्ता

सर्वभाषा की अतृप्ता



नई दिल्ली में आयोजित वर्ष 2024 का विश्व पुस्तक मेला की थीम है “बहुभाषी भारत” – एक जीवंत परम्परा” इसलिए सर्वभाषा समभाव का वक्तव्य उद्घाटन अवसर पर शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान द्वारा दिया गया। इस मेला के उद्घाटन अवसर पर प्रधान ने “ई पुस्तकालय” और “जादुई पिटारा” का उल्लेख कर यह दर्शाया की भविष्य में डिजिटल प्लेटफॉर्म का ही वर्चस्व रहेगा। सऊदी अरब को इस आयोजन का मुख्य अतिथि बनाया हाना और हाल 4 एच में 400 वर्गमीटर का पुस्तक स्थल प्रदान किया गया । धर्मेंद्र प्रधान का ही संबोधन अंग्रेजी में हुआ अन्यथा शेष संबोधन हिंदी में रहा। एक बार पुनः सभी संविधान सम्मत भारतीय भाषाओं को एकसमान मानते हुए सबको राजभाषा के रूप में ही प्रस्तुत किया गया।


सर्वभाषा का घोष तो थीम में किया गया है किंतु क्या सभी भाषाएं इस पुस्तक मेला में गरिमा सहित उपस्थित हैं। सभी पांचों हाल में आप घूम आईए सूचनाएं केवल अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास इन सूचनाओं आदि को द्विभाषिक रूप में भी प्रस्तुत कर सकता था पर ऐसा प्रथम दिवस अर्थात 10 फरवरी 2024 को देखने को नहीं मिला। सम्पूर्ण मंडप में अंग्रेजी का दबदबा दिखा और भारतीय भाषाओं को “इंडियन लैंग्वेजेस” में समेट दिया गया । हिंदी तो कसमसाती अपनी स्थिति को हाल नंबर 1 में प्रदर्शित कर रही थी। केंद्रीय कामकाज के राजभाषा की दयनीय स्थिति इस पुस्तक मेला में देखा जा सकता है।


अतृप्ता की तरह अपने वजूद और अपने अस्तित्व के लिए सर्वभाषा में अथक प्रयास करते हिंदी प्रतीत हो रही है। अतृप्ता अपनी विशिष्ट पहचान के लिए सर्वभाषा में अपना भविष्य देखती है और सर्वभाषा अतृप्ता में अपना लाभ देखता है। इन दोनों का गठजोड़ हिंदी लेखन के लिए कितना अहितकारी है दोनों नहीं समझ पा रहे। समझें भी कैसे ? लाभ अर्जन जब प्रचुर होता है तो अतृप्ता उभरती है और सर्वभाषा मुग्धित होकर अतृप्ता की चाकरी में लिप्त। सर्वभाषा की इस स्थिति का जायजा इस पुस्तक मेले में ही जाकर लिया जा सकता है। 


हॉल नंबर 5 और 4 में पुस्तकों के साथ रागात्मक संबंध स्थापित होता है और पुस्तक शीर्षक से ही एक संवाद स्थापित हो जाता है। यदि हॉल नंबर 1 में जाएं तो विपरीत अनुभव होता है। अव्यवस्थित पुस्तकों की वेदना हॉल की भीड़ और शोरगुल में दबी कराहती रहती है। विशेष तौर पर हिंदी पुस्तकों की बात करें तो इनके तेवर और अंदाज में कोई फर्क नजर नहीं आया। वही पुरानी चाल-ढाल है। हाल नंबर 4 एक में सऊदी अरब, श्री लंका, आदि विदेशों के स्टॉल हैं जो अनुवाद की संभावनाओं को नई दिशा दे रहे हैं। उद्घाटन अवसर पर शिक्षा मंत्री ने ए आई टूल्स से अनुवाद प्रक्रिया पर बल दिया। हिंदी का अस्तित्व पुस्तक मेले में “इंडियन लैंग्वेजेस” में सिमट गया है। न तो सूचना में हिंदी न तो तो हॉल में हिंदी खंड को प्रमुखता से दर्शाया गया है। मात्र इंडियन लैंग्वेजेस में सिमटी हिंदी सोच रही है कि कहां है उसके सरकारी कामकाज की भाषा का अस्तित्व ?


क्या सर्वभाषा ने अतृप्ता को मार डाला ?


धीरेन्द्र सिंह

11.02.2024

14.15


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शनिवार, 27 जनवरी 2024

अरुण योगीराज - मूर्तिकार

अरुण योगिराज – मूर्तिकार विश्वकर्मा काराम के प्रतिबदफ़ह अनुयायी मूर्तिकार अरुण योगिराज ही नहीं हैं बल्कि उनकी पीढियां प्रतिबद्धतस के साथ मूर्तिकार कौशल को सहेजते आ रही हैं। कौन हैं यह अरुण योगीराज ? कर्नाटक के मूर्तिकार वंशज का एक युवा मूर्तिकार हैं जिन्होंने अयोध्या राममंदिर के रामलला की मूर्ति को गढ़ा है। जिन लोगों ने रामलला का दर्शन नहीं किया है उनके लिए अरुण योगीराज नाम एक मूर्तिकार का लगेगा किन्तु जिन्होंने रामलला का दर्शन किया है उनके लिए अरुण योगिराज एक विलक्षण प्रतिभा हैं। सत्तर के दशक में एक हिंदी फिल्म का नाम था “गीत गाया पत्थरों ने” तबके दर्शक इस नामको मात्र नाम तक ही सीमित रखे होंगे जबकि कुछ लोग भारतीय विरासत की मूर्तियों में सप्तक को तलाशे होंगे, पाए होंगे। एक मूर्तिकार के रूप में क्या अरुण अपनी मूर्तियों में संगीत प्रवाहित करते हैं। रामलला की मूर्ति बनाने की प्रक्रिया का वर्णन स्वयं अरुण योगिराज ने किया। उन्होंने कहा कि मूर्ति के निर्माण के लिए उनका चयन होना उनके लिए परम सौभाग्य है। चयन होने के बीस दिन तक अरुण कुछ भी कार्य नहीं कर पाए। उनकी मनोदशा भारत के रामभक्तों के लिए स्वीकार्य योग्य मूर्ती बनाने की थी। रामलला की मूर्ती पांच वर्ष के बालक की तरह निर्मित करनी थी। योगीराज बच्चों के अनेक फोटो देखे पर उन्हें उनके मन को छू लेनेवाला चेहरा नहीं मिल पा रहा था। मूर्ति निर्माण के लिए चयनित पत्थर संग बैठकर अरुण अपनी कल्पनाओं को उस पत्थर में प्रसारित कर रहे थे। निश्चित ही वह चयनित पत्थर भी अरुण योगीराज से कुछ न कुछ अवश्य बोल रहा होगा अन्यथा दोनों का प्रतिदिन घंटों संग बैठे रहने का उद्देश्य क्या रहा होगा। यहां पर हिंदी फिल्म “गीत गाया पत्थरों ने” याद आयी और लगा कि हो सकता है पत्थर गा रहा हो बिना परस्पर समुचित अनुराग के भला किसी रचना का रचा जाना संभव है क्या? वह चयनित पत्थर और अरुण एक-दूजे को पढ़ रहे थे, अंतस में गढ़ रहे थे। समरसता और सामंजस्यता तैयार कर वह चयनित पत्थर और अरुण दोनों एक दूसरे के लिए तैयार हो चुके थे जैसे गर्भ में भ्रूण आकार ले रहा हो। प्रत्येक बड़े और विशिष्ट कार्य को बिना ईश्वरीय कृपा के पूर्ण नहीं किया जा सकता है। क्या मूर्तिकार के रूप में चयनित हो जाना ही अरुण के ऊपर ईश्वरीय कृपा मानी जाए। यदि उत्तर हां है तो बीस दिन से सिर्फ पत्थर के पास बैठकर अपनी रचना क्यों नहीं आरंभ कर सके। रामलला को गढ़ने की बात है जिनके समक्ष आस्था और निष्ठा के संग असंख्य सिर झुकेंगे यह भाव निरंतर योगीराज के मन में स्पंदित होते रहता था। कार्य की विशालता और मूर्ति भाव की व्यापकता अरुण योगीराज को बांधे हुई थी। चारों प्रहर रानलला की मूर्ति की कल्पनाएं, भावनाएं उमड़ती-घुमड़ती रहती थी और मूर्ति का कार्य नहीं हो पा रहा था। सर्जना जब तक मन के तंतुओं को झंकृत नहीं करती तब तक अभिव्यक्तियां मुखरित नहीं होती। इसी विचार क्रम में अरुण अयोध्या के दीपावली उत्सव में सम्मिलित हुए। आतिशबाजी के संग राम की विभिन्न झांकियां भी अयोध्या को आकर्षित कर रही थीं। इन झांकियों में तीन-चार झांकियों में रामलला का चेहरा अरुण योगीराज को मिल गया। अचानक प्राप्त इस उपलब्धि से अरुण के मन में रामलला की मूर्ति का अरुणोदय हुआ। इस घटना को एक सहज प्रक्रिया भी माना जा सकता है और राम का एक सांकेतिक आशीष भी कहा जा सकता है।अब अरुण की सर्जनात्मक प्रतिभा आस्था और निष्ठा की आंच पर रामलला मुखमंडल के नाक-नक्श को संवारने लगी। बीस दिनों तक उस चयनित पत्थर संग बैठ निर्मित परस्पर रागात्मकता को एक स्वर मिला और अरुण का मूर्ति कौशन उस पत्थर पर विश्वकर्मा ऋचाएं गढ़ने लगा। अद्भुत अनुभूति में सर्जना जब अपना अंकुरण करती है तो अचेतन मन का नेपथ्य आलोकित होकर अपनी ऊर्जाओं को उस सर्जन में समाहित करता रहा। अब वह पत्थर अरुण के लिए मात्र पत्थर नहीं था बल्कि करोड़ों सनातनियों का आस्था केंद्र था। अवचेतन मन की ऊर्जा, करोड़ो सनातनियों की आस्था, प्रभु राम का विराट और मर्यादित स्वरूप ने अरुण योगीराज को एक नई दुनिया प्रदान की जिसमें रामलला की मूर्ति के एक-एक बारीक कौशन को प्रतिभा से उकेरना था और यह कार्य अरुण ने लगभग पूर्ण कर लिया। लगभग पूर्ण कर लिया से क्या तात्पर्य है? लगभग इसलिए कि मूर्ति का अति सूक्ष्म और अति प्रभावशाली कार्य शेष था जो रामलला का चेहरा था। अरुण योगीराज के शब्दों में “पांच वर्ष के बालक की मूर्ति तो बन गयी पर अब इस बालक में राम को ढूंढना था।“ पत्थर पर भाव उकेरना सर्जना का सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। अरुण की कल्पनाएं पुनः अयोध्या की दीपावली की झांकी की ओर गयी और चेहरे का भाव तलाशने लगी। एक प्रेरणा ने बल दिया और अरुण के हांथों की सधी जादूगरी ने मूर्ति पर वह भाव ला दिया जिस भाव की कल्पना योगीराज के मन में जन्म ली थी। इस प्रक्रिया में अरुण अपनी सात वर्षीय बेटी से बार-बार पूछते रहे कि मूर्ति का चेहरा क्या बच्चे जैसा दिख रहा है और हर सर्जना के प्रयास को उनकी बेटी यही कहती थी “हां, चेहरा बच्चे जैसा ही है।“ यह वाक्य क्या एक बालिका के सहज उद्गार थे या नारी निहित वात्सल्य का दुलार। कौन जाने उस समय अरुण की बिटिया बोल रही थी या बिटिया के माध्यम से माँ कौशल्या। रामलला की मूर्ती के निर्माण काल में प्रतिदिन शाम 4 और 5 के बीच एक बंदर आता था और मूर्ती को देखकर चला जाता था। अरुण योगीराज के अनुसार “मैंने दरवाजा बंद कर दिया था फिर भी वह बंदर आकर धड़-धड़ दरवाजे पर चोट कर दरवाजा खोलने का आग्रह करता था।“ उन्होंने आगे यह भी कहा कि “यह कहना कठिन है कि एक ही बंदर प्रतिदिन निर्धारित समयावधि में आता था।“ यह एक सामान्य घटना तो नहीं कही जा सकती है। राम और हनुमान का अन्योन्याश्रित संबंध है। हनुमान रामभक्ति के अप्रतिम उदाहरण है। क्या वानर कोई और नहीं हनुमान ही थे? अरुण योगीराज का यह कहना है कि जब कभी भी रामलला की मूर्ति निर्माण में किसी भी प्रकार की कठिनाई आयी उन्हें किसी न किसी रूप में सहायता प्राप्त हुई। रामलला के नयनों को लेकर भी उलझन में पड़ गए थे उनके मित्रों ने नयन की प्रशंसा की। यही नहीं उनके मित्रों ने यह भी कहा कि मूर्ति निर्माण में उन्हें दक्षता प्राप्त है इसलिए निर्बाध गति से रामलला मूर्ति निर्माण में जुट जाएं। इनके परिवार का योगदान तो अवर्णनीय है। अरुण योगीराज में किसी भी प्रकार का न तो गर्व है और न तो इस उपलब्धि का जुनून। इनका कहना है कि मूर्ति तो राम ने बनाई वह तो निमित्त मात्र थे। रामलला की मूर्ति बन जाने के बाद अरुण स्वयं हतप्रभ थे कि यह मूर्ति बन कैसे गयी। रामलला की मूर्ति को लेकर अनेक प्रश्न भी उठ रहे हैं जिनमें यह सरोपरि है कि क्या मृत व्यक्ति के देह मेन प्राण प्रतिष्ठा की जा सकती है ? यदि नहीं तो पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा कैसे संभव हैं ? इस प्रश्न को करनेवाले यह नहीं सोचते कि देह कर्म आधारित एक यात्रा का भाग है जिसमें उन्नयन के लिए प्राण त्यजन अनिवार्यता है। ईश्वर अमर हैं जिनकी ऊर्जा कण-कण में व्याप्त है यह वाक्य वही लोग कहते हैं जो प्राण प्रतिष्ठा के विरोधी हैं। सम्पूर्ण जीवन ऊर्जा संचालित है तथा पत्थर ऊर्जा सुचालक नहीं अतएव मंत्रों और विधि-विधान से मूर्तियों में ऊर्जा संचारित कर प्राण प्रतिष्ठा की जाती है जो स्थायी रहती है। ज्ञातव्य है कि प्राण प्रतिष्ठा दिवस से ग्यारह दिन पूर्व से श्री नरेन्द्र मोदी ने अन्न त्याग दिया था तथा भूमि शयन करते थे। इस दौरान राम और शंकर के मंदिरों का दर्शन कर स्वयं को शुद्धतम रूप में रामलला के समक्ष प्रस्तुत किए। सांकेतिक उदाहरण से प्राण प्रतिष्ठा विधि-विधान की गहनता और आध्यात्मिक चेतना को दर्शाने का प्रयास है यद्यपि यह अति गूढ़ क्रिया है। अरुण योगीराज ने एक बहुत आश्चर्यजनक बात कही कि “ राममंदिर के गर्भगृह का विग्रह उनके द्वारा बनाई गई मूर्ति नहीं है।“ यह एक चौंकानेवाला कथ्य है कि प्राण प्रतिष्ठा के बाद अरुण द्वारा निर्मित रामलला की मूर्ति वह मूर्ति नहीं रही जिसे उन्होंने गढ़ा था। एक साक्षात्कार में उनसे प्रश्न किया गया कि क्या स्वप्न में किसी ने दर्शन दिया था तो उत्तर में अरुण ने कहा कि उन सात महीनों में वह सोए ही कहाँ थे। धीरेन्द्र सिंह 27.01.2024

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

कनाडा में हिंदी फिल्म प्रदर्शन विरोध

कनाडा में हिंदी फिल्म प्रदर्शन विरोध अंग्रेजी दैनिक “द टाइम्स ऑफ इंडिया” के 8 दिसंबर 23 के समाचार की झलक संलग्न है। इस समाचार में यह दर्शाया गया है कि कनाडा के तीन थियेटर में न केवल हिंदी फिल्म प्रदर्शन को रोका गया बल्कि फ़िल्म दर्शकों पर हानिकारक स्प्रे भी किया। इसे एक राजनैतिक या आतंकवादी घटना आदि भज कहा जा सकता है। कुछ भी हो पर हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति पर यह आक्रमण अच्छा भावी संकेत नहीं कहा जा सकता है। विघटनकारी सिख समुदाय की करतूत कहकर दबाया भी नहीं जा सकता। क्यों ? यह स्वतः उभरा क्यों ? बहुत सार्थक प्रश्न है।

 कनाडा से हिंदी समूह, हिंदी पत्रिका आदि की गूंज से प्रभावित होकर भारत में कई समूह सक्रिय हो गए हैं जो वैश्विक हिंदी।अलंकरण से अपनी-अपनी संस्था और समूह का नाम रख प्रायः यह दर्शाते रहते हैं कि हिंदी यथार्थ में विश्व चर्चित भाषा हो चुकी है। कनाडा की यह घटना तो अलग स्थिति दर्शाती है ? कहां है लोकप्रियता ? हिंदी फिल्म न चलने देने का उद्देश्य कहीं न कहीं भारत की छवि धूमिल करने का प्रयास है। 

यहां विदेशों में सक्रिय और भारत में सक्रिय हिंदी संस्थाओं और समूहों से बड़ी अपेक्षाएं हैं। हिंदी की विदेशी धरा पर पनपती और उभरती संस्थाएं व समूह संयुक्त रूप से या पृथक रूप से कनाडा की संलग्न घटना पर किसी प्रतिक्रिया दर्शाते हैं और कैसे प्रतिरोध करते हैं यह एक उत्कंठापूर्ण भावी भाषिक गतिविधि होगी। दुष्यंत कुमार की पंक्ति का उल्लेख करते हुए “सिर्फ हंगामा...हिंदी विदेशी बयार का प्रहार अपेक्षित है। 

 धीरेन्द्र सिंह
 08.12.2023 

15.51

शनिवार, 25 नवंबर 2023

हंस पत्रिका समूह - अव्यवस्था की भरमार

हंस पत्रिका समूह – अव्यवस्था की भरमार हिन्दी के कई अच्छे समूह हिन्दी लेखन के विकास और हिन्दी भाषा की सुदृढ़ता पर कार्य कर रहे हैं। चयनित हिन्दी समूहों की सूची में एक नाम हंस पत्रिका भी थी। “थी” शब्द इसलिए कि वर्तमान में हंस पत्रिका समूह ने मुझे ब्लॉक कर दिया है। बिना कारण तो कोई किसी को ब्लॉक करता नहीं। मेरे द्वारा कुछ ऐसा अशोभनीय कार्य अवश्य किया होगा जिससे हंस पत्रिका समूह के लिए खतरा रहा होगा ही बौद्धिकता और स्पष्टता की बयार चलाते हैं शेष समूह एकतरफा निर्णय लेते हैं जिसमें हंस पत्रिका समूह भी एक हिन्दी समूह है और जिस प्रश्न का उत्तर हंस पत्रिका समूह के पास नहीं रहा होगा। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि हंस पत्रिका समूह ने अपने निर्णय और सोच के बारे में कुछ भी नहीं कहा है। हिन्दी जगत में कार्य करनेवालों में गिने-चुने समूह ही हिन्दी की पारदर्शी बयार को संचालित कर पाते हैं अन्यथा अधिकांश हिन्दी समूह एकतरफा निर्णय लेते हैं जिसमें हंस पत्रिका समूह भी है। निम्नलिखित मुद्दे स्पष्ट कर रहे हैं कि हंस पत्रिका समूह में अव्यवस्था की भरमार है := 1 स्तरहीन रचना का प्रकाशन :- हंस पत्रिका समूह में स्तरहीन रचनाएँ खूब प्रकाशित कि जाती हैं। ऐसी ही एक अति बिखरी प्रकाशित रचना पर मैंने जब आलोचनात्मक टिप्पणी की तो खन्ना नाम की एक महिला ने मेरी टिप्पणी पर कहा की यहाँ नए रचनाकार आते हैं जिन्हें हतोत्साहित नहीं करना चाहिए। 2 रचनाएँ लंबित रहती हैं :- हंस पत्रिका समूह में रचनातें लंबी अवधि तक लंबित रहती है जिससे रचनाकार हतोत्साहित होता है। उक्त मद संख्या 1 में महिला खन्ना की बात यहाँ विरोधी हो जाती है। महिला रचनाकार दारुण शब्दों में मेरे पोस्ट पर टिप्पणी करते हुये बोलीं कि रचनाएँ प्रकाशित क्यों नहीं होती हैं? भला मेरे पास क्या उत्तर हो सकता है। 3 देवनागरी लिपि में बोली लेखन :- एक रचनाकार लगातार अपनी बोली में देवनागरी लेखन प्रस्तुत कर रहा था जिसे पढ़कर कुछ भी समझ में नहीं आता था। मैंने समूह के व्यवस्थापकों का ध्यानाकर्शण किया तब जाकर समूह ने इस बोली देवनागरी लेखन पर कार्रवाई की। 4 लगभग सौ लोग ही सक्रिय := हजारों की संख्या में समूह सदस्य दर्शानेवाले हंस पत्रिका समूह में रचना और टिप्पणी मिलाकर लगभग सौ सक्रिय सदस्य हैं जो यह दर्शाते हैं कि हिन्दी लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए इस समूह द्वारा कोई पहल नहीं कि जाती है। इस विषयक भी समूह में उल्लेख किया गया है। 5 पत्रिका को सदस्यता :- हंस पत्रिका समूह किसी भी नाम पर सदस्यता दे देता है। एक सदस्य की पहचान हरित पत्रिका है। यद्यपि हरित पत्रिका में हरित नाम वास्तविक नाम को छुपाने के लिए लिखा गया है। हरित पत्रिका नाम पर कई लोग मेरे लेख पर तर्क-वितर्क-कुतर्क करते हैं और समूह व्यवस्थापक मौन रहते हैं या बेखबर नजर आते हैं। यद्यपि मुझे हिन्दी पर चर्चा करना न उबाऊ लगता है न अपमानजनक पर यहाँ प्रवृत्ति और समूह प्रबंधन की ओर ध्यानाकर्षण करना है। अपना निजी अनुभव ही दर्शाना श्रेयस्कर है। 5 अँग्रेजी में नाम क्यों :- हंस पत्रिका समूह के पृष्ठ पर रोमन लिपि में Hans Patrika लिखा गया है। अबकी बार अपने विचारों को क्षुब्धभाव प्रदर्शन करते हुए अँग्रेजी में लिखकर कहा कि जब सभी रचनाएँ हिन्दी में प्रकाशित हो रही हैं तब रोमन लिपि में नाम लिखने की क्या आवश्यकता है? इस विषय पर समूह के प्रबंधन को ध्यान देना चाहिए। त्योहारों के बाद आज जब मैं अपने समूहों कि यात्रा कर रहा था तो स्पष्ट हुआ कि समूह सूची में हंस पत्रिका समूह नहीं है जिसका यही अर्थ लगाया कि मेरी हिन्दी आधारित बातों से न जुड़ पाने के कारण हंस पत्रिका समूह को यही उचित लगा होगा कि सीधे ब्लॉक कर हिन्दी के यक्ष प्रश्नों से मुक्ति पायी जाए। धीरेंद्र सिंह 25.11.2023 #hindi group#hans patrika

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शुक्रवार, 17 मार्च 2023

शिक्षा, रेटिंग और रिश्वत

शिक्षा, रेटिंग और रिश्वत


भारतीय जीवन में प्राथमिक स्तर से ही विद्यालय ज्ञान का मंदिर जाना जाता है। पिछले कुछ दशक से नर्सरी में प्रवेश के लिए अभिभावकों को कठिन श्रम करना पड़ता है। एक नियम यह कि विद्यालय के करीब रहनेवाले बच्चों को प्राथमिकता के आधार पर प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में प्रवेश मिलेगा। यह सब उल्लिखित करने का आशय सिर्फ यही है कि शिक्षा का स्तर बहुत कुछ विद्यालय की समाज द्वारा निर्धारित गुणवत्ता पर निर्भर करती है। किसी भी क्षेत्र में कुछ गिने-चुने विद्यालय ही प्रवेश आकर्षण और प्रवेश चुनौतियाँ लिए रहते हैं। इस प्रकार निरंतर शिक्षा महंगी और प्रवेश की चुनौतियाँ लिए रहती है। यह कहा जाता है कि भारत शिक्षा का केंद्र है और उच्च स्तरीय शिक्षा की गुणवत्ता विश्व स्तरीय है।


राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का स्वायत्त संस्थान जिसे NAAC के रूप में भी जाना जाता है। संक्षेपाक्षर में अंग्रेजी भाप्रभुत्व के कारण ‘नैक’ शब्द चलन में आ गया है इसलिए आगे ‘नैक’ शब्द का ही प्रयोग किया जाएगा। शिक्षा संस्थानों कि गुणवत्ता की जांच ‘नैक’ के निर्धारित मानकों और प्रक्रियाओं के द्वारा किया जाता है तथा तदनुरूप  विभिन्न शिक्षा संस्थानों का निर्धारण अर्थात रेटिंग निर्धारित किया जाता है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि ‘नैक’ का निर्धारण अर्थात रेटिंग शिक्षा संस्थानों के लिए क्यों आवश्यक है? इस रेटिंग के द्वारा पिछले दो या  तीन साइकल में 3.26 अंक प्राप्त करती हैं या प्रथम 100 विश्वविद्यालयों की सूची में आती हैं तो ऐसी शिक्षण संस्था के दरवाजे अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए खुल जाते हैं। इस प्रकार यह रेटिंग अपना विशिष्ट महत्व रखती है।


रेटिंग प्राप्ति के लिए उच्च शिक्षण संस्थाएं या विश्वविद्यालय निर्धारित मानकों का अनुकरण करें यह आवश्यक नहीं। कुछ संस्थाएं प्रलोभन या रिश्वत के आधार पर अपनी रेटिंग में गलत तरीके से वृद्धि  करती हैं। इस विषयक एक घटना प्रकाश में आई है कि वर्ष 2015 की कार्यपालक समिति की बैठक में यह खुलासा किया गया कि निरीक्षण टीम के एक सदस्य के उपहार बैग में एक लिफाफा रख दिया था जिसमें रूपए एक लाख नकद थे। उच्च रेटिंग प्राप्ति के लिए अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पाया जाना रेटिंग प्रणाली पर सवालिया निशान लगाते हैं। एनएएसी ने वर्ष 2022 में बड़ोदा एम एस विश्वविद्यालय के ग्रेडिंग परिणाम को रोक दिया क्योंकि गुमनाम सूचना प्राप्त हुयी थी कि विश्वविद्यालय प्राधिकारियों ने समीक्षा समिति को स्वर्ण, नकदी और अन्य प्रलोभन द्वारा प्रभावित करने का प्रयास किया था। यद्यपि बाद में एनएएसी ने ग्रेडिंग बढ़ाने की घटना को असत्य कहा। शोध और नवोन्मेषी आधारित प्रकाशित पेपर की दिशा में अधिक संख्या में पीएचडी विद्यार्थियों का नामांकन विशेषतया डीम्ड विश्वविद्यालयों द्वारा किया जाता है और प्रत्येक विद्यार्थी से कहा जाता है कि कम से कम दो पेपर प्रकाशित करें। परिणामस्वरूप एक वर्ष में 5000 से 6000 तक शोध पत्र प्रस्तुत किए जाते हैं पर उनकी प्रासंगिकता और गुणवत्ता बहस का मुद्दा बन जाती हैं। यह महज एक बड़ा मुद्रण प्रेस बन जाता है।


इस परिप्रेक्ष्य में यदि हिन्दी से पीएचडी किए विद्यार्थियों के पेपर का मूल्यांकन किया जाये तो अधिकांश शोध पेपर मुद्रण का जखीरा ही कहे जाएंगे क्योंकि इनकी प्रासंगिकता और गुणवत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अपने शोध विषय पर दस मिनट बोल पाना भी इनके लिए चुनौतीपूर्ण होता है। हिन्दी में पीएचडी कर नाम के आगे डॉ लिख देने से शिक्षा के उच्च गुणवत्ता की अनुभूति होती है। हिन्दी की यह रुग्ण मानसिकता किसी साहित्यिक आयोजन में देखने को मिलती है जहां मंच पर बैठा प्रत्येक व्यक्तियों को डॉ पदनाम से पुकारा जाता है। कितनी हास्यास्पद स्थिति है। कहीं पढ़ा था कि हिन्दी में पीएचडी की बैठक में भी ‘लिफाफा’ परंपरा अघोषित रूप से चलन में है। यह कहना गलत होगा कि केवल हिन्दी में ही पीएचडी ज्ञानखोखली टोली को भी उपजाती है अन्य विषयों में भी पीएचडी की ज्ञानखोखली टोलियाँ उत्पादित की जाती हैं। यह जानकारी मिलने के बाद हिन्दी के प्रत्येक पीएचडी धारी आदरणीय हो गए हैं।


 

सरगम के इसी सुर में यदि हिन्दी में तैयार विभिन्न विषयों की पुस्तकों की बात की जाय तो यहाँ भी कुछ कम अड़चनें नहीं हैं। भाषा के किस स्तर तक विषयों को समेटा गया है इसका यथार्थ हिन्दी माध्यम की पुस्तकों को पढ़कर ज्ञात नहीं होगा बल्कि इसके लिए कक्षा में जाकर शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य स्थापित भावों के आकलन पर ही सत्यता उभरेगी।   शिक्षा, रेटिंग और रिश्वत की त्रिवेणी भारतीय ज्ञान और बौद्धिकता को किस ऊंचाई पर पहुंचाएगी यह एक यक्ष प्रश्न है। शिक्षा के क्षेत्र में फैला यह भ्रष्टाचार कब भयमुक्त सकारात्मक शैक्षणिक परिवेश निर्मित करेगा इसे कौन जान पाएगा ? एक व्यवस्था का विवश होकर सहभागी  बनना क्या प्रत्येक विद्यार्थी की विवशता कही जाय या नियति?


धीरेंद्र सिंह


17.03.2023


15.19


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रविवार, 8 जनवरी 2023

विश्व हिंदी दिवस की प्रासंगिकता

विश्व हिंदी दिवस की प्रासंगिकता


ज्ञातव्य है कि 10 जनवरी का दिन प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के वार्षिक कार्यक्रम में विश्व हिंदी दिवस आयोजन का दिशानिर्देश नहीं है। इस दिवस को मनाने में केंद्रीय कार्यालय, सरकारी बैंक और उपक्रम उत्साह नहीं दिखलाते हैं। हिंदी दिवस 14 सितंबर का आयोजन जिस उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है वह बात विश्व हिंदी दिवस में क्यों नहीं झलकती। इसके निम्नलिखित कारण हैं :-


1. वर्तमान में हिंदी भारत देश मे केंद्रीय कार्यालय, बैंक, उपक्रम आदि के समस्त कर्मचारियों को पूर्णतया कार्यसाधक ज्ञान तक शिक्षित करने के लिए संघर्षरत है। हिंदी दिवस का पूरे देश में उत्साह के साथ आयोजन बाद ही विश्व हिंदी दिवस का उत्साही और परिणामदायी आयोजन संभव है।


2. भारत देश की संपर्क भाषा के रूप में स्थापित होने के लिए हिंदी प्रयासरत है।

ऊक्त दो प्रमुख कारणों से विश्व में निर्मित करने में हिंदी पूर्णतया सफल नहीं हो पाई है। विश्व में हिंदी को एक पहचान देने के लिए विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है। भारत में प्रवासी भारतीयों की आयोजित वार्षिक बैठक और विश्व हिंदी दिवस का अन्योन्याश्रित संबंध है। क्या प्रवासी भारतीयों पर ही हिंदी की वैश्विक पहचान की पूरी निर्भरता है? यदि नहीं तो क्या विश्व हिंदी दिवस का कोई निर्धारित योजना है या मार्गदर्शी बिंदु हैं? यदि उत्तर हां है तो कहां उपलब्ध हैं यह और यदि नहीं तो किस आधार पर इस दिवस का आयोजन किया जाता है।


हमारा देश उत्सव का देश है इसलिए उत्सव मना लेने भर से हिंदी को विश्व में अपनी पहचान बनाने के लिए आश्वासन न खुद को दे सकते हैं न हिंदी को इसलिए निम्नलिखित मदों को दृष्टिगत रखते हुए कार्रवाई अपेक्षित है :-


1. हिंदी का प्रौद्योगिकी से पूर्ण, विश्वसनीय और सहज समामेलन की आवश्यकता है। 


2. विदेशों से प्रकाशित विभिन्न हिंदी पत्रिकाओं में विदेशियों की रचनाओं को प्रकाशित करने पर बल दिया जाना चाहिए।


3. दूतावास में विश्व हिंदी दिवस का आयोजन कर उस देश के गैर भारतीय नागरिकों को सम्मानित करना चाहिए।


4. हिंदी की कविता, कहानी को कम महत्व देते हुए विदेशी हिंदी जानकारों द्वारा लिखित संस्मरण आदि विषयों को प्रकाशित किया जाए। हिंदी के जानकार गैर भारतीय विडिशी नागरिक द्वारा उनकी अपनी भाषा में लिखी रचना का हिंदी में अनुवाद कर पत्रिकाओं आदि में प्रकाशित किया जाए।


5. हिंदी ज्ञाता विदेशियों का हिंदी में संबोधन को हिंदी के विभिन्न समूह परिचारित करें।


6. वैश्विक स्तर का स्वयं को दर्शानेवाली पंजीकृत संस्थाएं अपने वेब पृष्ठ, समूह, फेसबुक आदि पर गैर भारतीय विदेशियों को सम्मिलित कर उनके विचारों आदि को लोगों के लिए प्रस्तुत करें।


विश्व हिंदी दिवस की सार्थकता भारत में इस दिवस को मनाने से नहीं होगी बल्कि विदेशी हिंदी ज्ञाताओं को हिंदी जगत द्वारा गर्मजोशी से अपनाने से सार्थकता सिद्ध होगी। इस विषय पर बहुत कुछ लिखा और बोला जा रहा है जो विभिन्न सार्वजनिक पटल पर उपलब्ध है अतएव विश्व हिंदी दिवस की शुभकामनाएं।


धीरेन्द्र सिंह


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गुरुवार, 8 दिसंबर 2022

हिंदी के विवादास्पद दायरे

हिंदी के विवादास्पद दायरे


हिंदी भाषा को लेकर कई भ्रांतियां हैं जिसमें से एक यह है कि हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा की ओर अग्रसर है। भारत देश का विशेषकर हिंदी क्षेत्र की यह स्थापित धारणा है कि हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है। इस प्रकार के हिंदी के प्रचलित भ्रामक दायरे युवा मस्तिष्क को भाषागत गलत राह पर ले जाते हैं। सब कुछ जानने के बावजूद भी यह भ्रांतियां मैदानी घास की तरह पनपती जा रही हैं। हिंदी के दायरे को भ्रमित करनेवाले प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं :-


1. अंतर्रराष्ट्रीय पटल पर बढ़ती हिंदी :- इस भ्रामक तथ्य के लिए यह कहा जाता है कि:


कथन :- विदेश के विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग भी कार्यरत हैं जिनमें इतनी संख्या में विद्यार्थी हिंदी का अध्ययन करते हैं।


नहीं बताया जाता :- यह नहीं बतलाया जाता है कि हिंदी विषय का अध्ययन राजनीतिक कूटनीतिक, व्यापार के लिए, अपने साहित्य का अनुवाद हिंदी में करने के लिए ही विदेशी हिंदी का अध्ययन करते हैं। यह उनका हिंदी प्रेम नहीं है बल्कि आर्थिक, राजनैतिक और अपने साहित्य प्रसारण का उद्देश्य है। 

इस सत्य को भी नहीं बतलाया जाता है कि बौद्धिक पलायन के कारण भारत के नागरिक विश्व के देशों में वितरित हो चुके हैं तथा कुछ संख्या उन देशों के नागरिक भी हो गए हैं जिनके माध्यम से हिंदी फुदकती महकती दृष्टिगोचित होती है।


2. हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा :-  प्रस्तुत आंकड़े विदेशों में बसे भारत के मूल निवासियों की संख्या भी जोड़ते हैं जिसमें परिवार के युवा सदस्य भी आ जाते हैं जिनका जन्म विदेश में हुआ है और वे वहां के नागरिक हैं। यदि हिंदी सच में विश्व मे सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा है तो कम्प्यूटर की भाषा भारत ने अंग्रेजी क्यों रखा गया है ?


3. हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है :- भारत के संविधान में कहीं भी उल्लेख नहीं है कि हिंदी भारत गणराज्य की राष्ट्रभाषा है। इस तथ्य के बावजूद भी राष्ट्रभाषा कथन विभिन्न मंचों और समारोहों में प्रायः उल्लिखित किया जाता है।


4. इंडिया शब्द को हटाने की मांग :- भारतीय शहरों और रेल्वे स्टेशनों के नाम परिवर्तन से प्रोत्साहित कुछ लोग देश की पहचान इंडिया नाम को हटाने का कवायद कर रहे हैं और मात्र भारत नाम से देश की पहचान को बनाए रखना चाहते हैं।

     भारत के संविधान में हिंदी राजभाषा और अंग्रेजी सह-राजभाषा के रूप में निर्धारित है और अंग्रेजी में इंडिया नाम से असंख्य दस्तावेज, शिल्प आदि निर्मित हैं। यदि भारत के संविधान से अंग्रेजी सह-राजभाषा के रूप से निकाल दी जाए तो देश की इंडिया नाम से पहचान भी अवरोधित कर समाप्त की जा सकती है। 


5. निर्धारित क्षेत्रों में ही हिंदी गूंज:-

कथन : विभिन्न हिंदी आयोजन दिल्ली, मुम्बई, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार तक ही सीमित हैं। 


इसका यथार्थ : हिंदी की विभिन्न संस्थाएं जिनका उद्देश्य हिंदी का विकास होता है वह सिर्फ कागज पर पंजीकरण कराने के लिए होता है। यह संस्थाएं महाराष्ट्र में मुम्बई के सिवा किसी अन्य जिले में नहीं जाती। गुजरात तक में आयोजन करने में हिचकते प्रतीत होते हैं। पंजाब का कहीं उल्लेख तक नहीं ऐसे आयोजनों में। दक्षिण के राज्यों में शायद कदम ही नहीं उठते हैं। इस प्रकार हिंदी प्रसार के गीत वहीं गाए जाते हैं जहां हिंदी गीतों की रचनाएं होती हैं दूसरे शब्दों में नानी के सामने ननिहाल का बखान कर क्या मिलेगा।


हिंदी के विवादास्पद दायरे सिर्फ ऊक्त मदों तक ही सीमित नहीं हैं। पक्ष कई हैं जिनका लक्ष्य एक है। जब पक्ष भ्रमित या निजी स्वार्थों की पूर्ति का हिमायती हो तब लक्ष्य मात्र एक खुद के बहकावे के सिवा कुछ भी नहीं।


धीरेन्द्र सिंह




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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2022

राजभाषा अधिकारी व उच्चाधिकारी

राजभाषा अधिकारी बनाम उच्चाधिकारी सामान्य जीवन में जिस तरह सास-बहू के आपसी झगड़े को प्रायः आम बोलचाल में एक हास्य निर्मित के लिए किया जाता है वैसा ही कुछ राजभाषा अधिकारी और उच्चाधिकारी के बीच है। यूं तो कार्यालय में प्रत्यक्ष झगड़ा तो नहीं होता है किंतु मानसिक तनाव देखने को मिलते रहता है। यह झगड़ा क्यों होता है इसका सामान्य अवलोकन निम्नानुसार किया जा सकता है :- 1. राजभाषा अधिकारी की कमजोरी : अधिकांश राजभाषा अधिकारियों की राजभाषा कार्यान्वयन कौशल की अज्ञानता कार्यालय में राजभाषा अधिकारी को बेकार में टाइम पास करनेवाला स्थापित करना आरंभ करता है। कार्यालय के अन्य विभाग की उपलब्धियां, चुनौतियां, चपलताएं नित या आवधिक तौर पर प्रस्तुत करते रहते हैं वहीं राजभाषा या हिंदी विभाग यदा-कदा ही अपना उल्लेखनीय प्रदर्शन कर पाते हैं इसलिए यह भ्रम एक विश्वास के रूप में निर्मित होता है कि राजभाषा अधिकारी के पास पूरे दिन का कार्य नहीं रहता है। यही भाव निर्मित होने पर उच्चाधिकारी उस राजभाषा अधिकारी को एक कामचोर अधिकारी के रूप में देखने लगता है। इस प्रक्रिया पर चर्चाओं के कई पक्ष हैं। 2. उच्चाधिकारी की सीमाएं :- उच्चाधिकारी राजभाषा की गहनता से अनभिज्ञ होता है। वह केवल प्रशासनिक निर्णय के लिए होता है। राजभाषा अधिकारी का दायित्व है कि राजभाषा के प्रचार-प्रसार की अपनी योजनाओं को।उच्चाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत कर प्रशासनिक अनुमति ले और यह प्रमाणित कर की राजभाषा या हिंदी विभाग भी अति सक्रिय और अति व्यस्त विभाग है। इस प्रकार की गतिविधाएं दर्शानेवाले गिने-चुने राजभाषा अधिकारी हैं। 3. असफल राजभाषा अधिकारी कहे उच्चाधिकारी :- एक सफल राजभाषा अधिकारी अपने उच्चाधिकारियों से लयबद्धता कायम कर लेता है और राजभाषा कार्यान्वयन में धमाकेदार कार्यनिष्पादन दर्शाता है। उच्चाधिकारियों को ऐसे राजभाषा अधिकारी पर गुरुर होता है। असफल राजभाषा अधिकारी अपनी असमर्थता को छुपाने के लिए प्रायः कहता है कि उच्चाधिकारियों से सहयोग नहीं मिलता है। इस प्रकार प्रत्येक सरकारी कार्यालय, बैंक तथा उपक्रम में राजभाषा कार्यान्वयन गतिशील है। असमर्थता की खुमारी उच्चाधिकारी, धन्य ऐसे राजभाषा अधिकारी😊 धीरेन्द्र सिंह href="http://feeds.feedburner.com/blogspot/HgCBx. rel="alternate" type="application/rss+xml">Subscribe to राजभाषा/Rajbhasha

शनिवार, 17 सितंबर 2022

राजभाषा और उलझ गए

राजभाषा और उलझ गई 14 सितंबर, 2022 को सूरत में आयोजित अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन में गृह मंत्री श्री अमित शाह ने हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं के समामेलन की बात कही। यह नई बात नहीं है। पिछले बीस वर्षों से यही बात की जा रही है। यह विचार व्यावहारिक कितना है उसपर आज तक विचार नहीं किया गया है। कैसे हिंदी में अन्य भारतीय भाषाओं की शब्दावली ग्रहण की जाएगी। शब्दावलियों के निर्माण का अनवरत सिलसिला जारी है। गृह मंत्री ने ऑनलाइन "शब्द सिंधु शब्दकोश" का लोकार्पण किया। प्रश्न यह है कि मात्र शब्दावली निर्माण से क्या होगा? गृह मंत्री श्री अमित शाह ने यह भी सुझाव दिया कि युवा वर्ग को राजभाषा के प्रति विशेष तौर पर जागरूक बनाया जाय। कौन बनाएगा युवा कार्मिकों को राजभाषा में कार्य करने के लिए तत्पर? राजभाषा अधिकारी का यह कार्य है। क्या राजभाषा अधिकारियों में मानसिक सोच में राजभाषा सोच को स्थापित करनी की योग्यता है? उत्तर है नहीं। राजभाषा की गति राजभाषा या हिंदी अधिकारी तक पहुंच कर टूट जाती है। यही कारण है कि वर्ष दर वर्ष हिंदी दिवस पर राजभाषा के एक ही सुर सुनाई देते हैं। इन सबके बावजूद भी गृह मंत्री श्री अमित शाह की बातों में एक आशा अवश्य झलकती मिली है जिसे भारत सरकार के राजभाषा विभाग अपने अथक प्रयास से पूर्ण भी कर सकती है। यदि ऐसा होगा तो निश्चित ही एक अविस्मरणीय ऐतिहासिक सफलता प्राप्त होगी। वित्त मंत्री सीतारमण ने अपने संबोधन में स्पष्ट दिशानिर्देश दिया है कि बैंकों में फ्रंट डेस्क पर कार्य करनेवाले स्टाफ को स्थानीय भाषा का ज्ञान होना चाहिए। सामान्यतया फ्रंट डेस्क पर लिपिक रहते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा का ज्ञान होता है और जो सामान्य बैंकिंग के कार्य सुचारू ढंग से अपनाते हैं। यदि किसी ग्राहक को ऋण आदि पर चर्चा करनी हो तो उन्हें अधिकारी वर्ग के पास जाना पड़ता है। वित्त मंत्री का कहना है कि अधिकारी ग्राहक को हिंदी में बात करने के लिए नहीं बोल सकते बल्कि अधिकारी को खुद उस राज्य की भाषा सीखनी चाहिए। बैंकिंग में सामान्यतया एक अधिकारी एक राज्य में चार वर्षों तक कार्यरत रहता है फिर उसका स्थानांतरण दूसरे राज्य में हो जाता है। इस प्रकार वह कई राज्यों में स्थान्तरित होता है तो कैसे वह कई राज्यों की भाषा सीख सकता है? मूलतः वित्त मंत्री का संकेत त्रिभाषा सूत्र की ओर है जो बैंक के लिए एक सामान्य कार्य नहीं। संविधान में राजभाषा विषयक अधिनियम में परिवर्तन किए बिना ऊक्त दो माननीय मंत्रियों के दिशानिर्देशों का पूर्ण अनुपालन कठिन लगता है। परिवर्तन यह कि राजभाषा हिंदी के साथ अंग्रेजी सह-राजभाषा के रूप में चलती रहेगी। प्रतिवर्ष हिंदी दिवस 14 सितंबर को महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं तदनुसार दिशानिर्देश जारी किए जाते हैं और सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग बढ़ते जाता है। धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 14 सितंबर 2022

हिंदी दिवस-भ्रमित लोग

हिंदी दिवस - भ्रमित लोग प्रतिवर्ष 14 सितंबर को मनाए जानेवाले दिवस को हिंदी दिवस के रूप में जाना जाता है। अधिकांश लोग भारतीय संविधान के 343 से 351 तक के तथ्यों से अनभिज्ञ हैं इसलिए हिंदी दिवस को बोलचाल से लेकर साहित्यिक हिंदी से जोड़ते हैं जो हिंदी दिवस से संबंधित ही नहीं है। यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि फिर क्या है हिंदी दिवस? राजभाषा हिंदी की बात है :- हिंदी दिवस का आयोजन सरकारी कार्यालयों, राष्ट्रीयकृत बैंकों, उपक्रमों के कामकाज में हिंदी का प्रयोग बढ़ाना है। इस प्रक्रिया को राजभाषा कार्यान्यवन कहते हैं। यहां साहित्यिक हिंदी की कोई जगह नहीं है क्योंकि राजभाषा हिंदी का अपना अलग साहित्य है जो कार्यालयों तक सीमित है। राजभाषा/हिंदी विभाग:- सरकारी कार्यालयों आदि में राजभाषा या हिंदी विभाग होता है जिसका कार्य सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाना है। यह विभाग सरकारी कर्मचारियों के लिए हिंदी प्रशिक्षण भी प्रदान करता है। मनोरंजक लेखन:- अति उत्साह में हिंदी दिवस पर लिखे अधिकांश लेख मनोरंजक होते हैं क्योंकि वह राजभाषा हिंदी से भटक साहित्यिक हिंदी आदि पर चर्चा करते हैं जिसका भटकाव गुदगुदाता है। जटिल है हिंदी दिवस:- हिंदी दिवस संविधान की नीतियों में उलझा एकं जटिल समस्या है जिसका समाधान अत्यंत कठिन है। सरकार के कागजों में अभी भी अंग्रेजी का प्रयोग होता है। कहाँ है हिंदी? धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 23 मई 2022

प्रकाशक के चंगुल

प्रकाशक का चंगुल हिंदी के कुछ अति विशाल प्रकाशक हिंदी प्रकाशन की गरिमा को बनाए हुए हैं इसलिए क्योंकि वह बड़े हैं। अनेक हिंदी प्रकाशक विशाल प्रकाशक बनने के प्रयास में हैं। उभरते हुए प्रकाशक निम्नलिखित उपायों से अपने चंगुल में नए लेखक और लेखिकाओं को लेते हैं : 1. महिला रचनाकार :- उभरते हुए प्रकाशक नई रचनाकारों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपनी युक्तियों का पूर्ण प्रयोग करते हैं और कई नई लेखिकाएं ऐसे प्रकाशकों से जुड़ जाती हैं। जुड़ने वाली महिलाओं में अधिकांश घरेलू महिलाएं या सामान्य कामकाजी महिलाएं होती हैं। इस प्रकार महिलाओं की अच्छी खासी संख्या जोड़कर उनमें से चयनित महिलाओं से अपने प्रकाशन का प्रचार-प्रसार करवाते हैं। 2. पुस्तक लोकार्पण - गलत शब्द और नौटंकी : उभरते प्रकाशक अपने संपर्क जाल से रचनाकारों को आकर्षित करते हैं और यदि कुछ पुस्तकें प्रकाशित करने का अवसर मिल जाता है तो प्रकाशन के बाद लोकार्पण करते हैं। विमोचन शब्द को छोड़कर पुस्तक लोकार्पण जैसा शब्द प्रकाशक और उससे जुड़े लोगों द्वारा प्रयोग किया जाना बौद्धिक दिवालियापन का संकेत देता है। प्रकाशक रचनाकार से कहता है पुस्तक का प्रचार-प्रसार करिए। रचनाकार को यह बतलाता है कि ऑनलाइन भी "लोकार्पण" हो सकता है। रचनाकार अपने संपर्क के रचनाकारों से संपर्क कर ऑनलाइन आयोजन करता है। इस प्रकार प्रकाशक एक ऐसे समूह को बनाने में सफल हो जाता है जिसमें सभी रचनाकार होते हैं और सब अपनी पुस्तक प्रकाशन की कामना लिए रहते हैं। "लोकार्पण" नौटंकी का आरंभ होता है। ऑनलाइन एक समूह अनजाने में उभरते प्रकाशक के चंगुल में फंसते जाता है। आयोजन में प्रकाशक भी उपस्थित होता है। आयोजन का संचालन करनेवाला "लोकार्पण" पुस्तक और उसके रचनाकार की एक तरफ रखकर ऑनलाइन "टीम" के सदस्यों के परिचय के दौरान उसके समस्त रचना संसार को प्रस्तुत करने लगता है। ऐसी स्थिति में समझ में नहीं आता कि यह आयोजन "टीम" सदस्यों के रचना संसार से अवगत कराना है या "लोकार्पण" का है। बेहद नीरस और उबाऊ होता है विषय से हटकर "टीम" रचना संसार की कसीदाकारी। चंगुल में फंसे रचनाकार समझ नहीं पाते कि ऐसे संचालन से प्रकाशक यह टोह लेता है कि छपास की बीमारी किस में अधिक है और अपना अगला ग्राहक ढूंढ लेता है। 3. तेरी जय - मेरी जय : प्रकाशक के आयोजन चंगुल में फंसे रचनाकारों द्वारा एक-दूसरे की जम कर तारीफ की जाती है। इसके अतिरिक्त "टीम" के कुछ मित्र दर्शक होते हैं और खूब तारीफ करते हैं। एक नौटंकी अपनी यात्रा में लगातार प्रकाशक की मदत करते जाती है। 4. त्रुटियां स्वीकार नहीं : ऑनलाइन "लोकार्पण" नौटंकी की यदि त्रुटियों का उल्लेख समीक्षा में कर दिया जाए तो प्रकाशक तिलमिला जाता है। चूंकि उभरते ऐसे प्रकाशक धन अर्जन का ही लक्ष्य रखे रहते हैं इसलिए खुद नहीं टकराते बल्कि यदि कोई महिला रचनाकार हो तो अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करते हैं कि वह त्रुटि दर्शानेवाले टिप्पणीकार से भिड़े। कुछ संवाद के बाद आयोजन की त्रुटियों की सभी टिप्पणियों को डिलीट कर देते हैं। 5. पुस्तक विमोचन नहीं आता : उभरते प्रकाशक का उद्देश्य अपने प्रकाशन संस्था का प्रचार करना होता है इसलिए पुस्तक विमोचन आयोजन में कोई रोए या गाए फर्क नहीं पड़ता बल्कि वाहवाही मिलती है। एक या दो वक्ता पुस्तक विमोचन पर बोल पाते हैं अन्यथा शेष प्रशंसा के सिवा कुछ बोल ही नहीं पाते। 6. रचनात्मक विरोध आवश्यक : हिंदी भाषा और साहित्य के हित में है कि उभरते प्रकाशकों द्वारा नव प्रकाशित पुस्तक विमोचन के नाम पर यदि रचनाकारों का शोषण हो रहा हो और प्रकाशक आयोजन में उपस्थित होकर अपनी दुकानदारी चला रहा हो तो इसका विरोध करना चाहिए। विरोध ऐसे संचालकों का भी किया जाना चाहिए जो पुस्तक और उसके रचनाकार को छोड़ उपस्थित रचनाकारों के लेखन संसार का वर्णन करता है। इस प्रकार के संचालक को यह समझना चाहिए कि आयोजन पुस्तक विमोचन का है न कि सम्मिलित रचनाकारों के लेखन संसार के वर्णन का। समय की बर्बादी है। ऊक्त विचार काल्पनिक नहीं बल्कि अनुभव आधारित है। कब तक हिंदी लेखन, प्रकाशन में गुटबंदी चलती रहेगी। कौन रोकेगा उसे ? निश्चित एक प्रबुद्ध और जीवंत मस्तिष्क। हिंदी लेखन जगत में उभरते प्रकाशकों के चंगुल के विरोध और रचनात्मक टिप्पणी से त्रुटियों को दर्शाने का सिलसिला आरम्भ न होगा तो हिंदी लेखन का अहित होगा। धीरेन्द्र सिंह href="http://feeds.feedburner.com/blogspot/HgCBx. rel="alternate" type="application/rss+xml">Subscribe to राजभाषा/Rajbhasha

शुक्रवार, 25 जून 2021

राजभाषा के थके सिपाही

जब तक एक सियाह घने राजभाषा बादल गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के रूप में छाए रहते हैं तब तक सरकारी बैंकों में देवनागरी लिपि में कामकाज की झलक मिल जाती है। कम्प्यूटर के प्रचलन से प्रौद्योगिकी ने जिस तरह से विकास किया उस गति से राजभाषा कार्यान्वयन अपना विकास नहीं कर सका परिणामतः वर्तमान में भी सरकारी कामकाज में देवनागरी लिपि का प्रयोग दोयम दर्जे का है। संविधान के सशक्त पक्ष का वर्तमान समय लाभ नहीं उठा पा रहा है। इन बैंकों के राजभाषा के आंकड़े भले ही लक्ष्य के अनुसार अपनी रिपोर्ट दें इससे यह कदापि नहीं प्रमाणित होता है कि राजभाषा कार्यान्वयन प्रगति पर है।इस चिंताजनक परिस्थिति का एक बड़े मंच पर विश्लेषण और कार्यान्वयन के लिए एक सक्षम जुझारू नेतृत्व की आवश्यकता है। सामान्य तौर पर देखने से यह लगता है कि राजभाषा के कार्य से जुड़े अधिकारी थक चुके हैं शायद उन्होंने मन में यह जान लिया है कि राजभाषा कार्यान्वयन महज एक सरकारी लक्ष्य पूर्ति का कागजी आंकड़ा है। प्रौद्योगिकी से इतर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को महत्व दिया जा रहा है और इस प्रकार हिंदी का प्रचार और प्रसार हो रहा है। क्या मात्र हिंदी के विकास से राजभाषा स्वयं विकसित हो जाएगी? इसी प्रश्न के दायरे में राजभाषा उलझी हुई है।

रविवार, 13 सितंबर 2020

प्रेयसी हिंदी

हिंदी दिवस पर मन अत्यधिक गहनता और व्यापकता से तुम्हारी अनुभूति करता है, विश्लेषण करता है और जीवकोपार्जन में तुम्हारी उपयोगिता की विभिन्न व्याख्या करता है। कल मेरी प्रेमिका ने मेरे राजभाषा के लेख को पढ़कर मुझसे प्रश्न की। बेहद साधारण सा प्रश्न था कि मैं हिंदी को क्या समझता हूँ। मैंने जो उत्तर दिया उनसे वह सहमत न थी और मैं उनको संतोषप्रद उत्तर न दे पा रहा था। प्रश्नों की झड़ी रोककर उन्होंने कहा कि यदि मैं प्रेम करूँगा तो किस भाषा में अभिव्यक्त करूँगा। मेरा उत्तर था हिंदी। उन्होंने कहा क्या आपने कभी अपनी हिंदी को प्रेयसी के रूप में देखा है? यह प्रश्न मुझे रोमांचित कर गया। सच हिंदी हमेशा मेरे निजतम भावनाओं की।संवाहिका रही पर हिंदी के इस स्पंदन से दूर ही रहा। मेरी प्रेमिका ने कहा कि अपनी प्रेमिका के स्थान पर हिंदी को बैठाकर मैं अपने भावों को लिखूँ। क, ख, ग... से परिचित होते हुए हिंदी के शब्द और वाक्य बनाने की प्रसन्नता की धुंधली यादें अब भी जीवंत हैं। सस्वर वंदना, राष्ट्रगान प्राथमिक विद्यालय में अनुराग के ही द्योतक तो थे। कॉपी में या पुस्तकों के अंतिम पृष्ठ पर लिखे-मिटाए जानेवाले नाम। इस प्रकार हिंदी कब अस्तित्व से जुड़ गई पता ही न चला। जीवन के विभिन्न पक्षों को पहचानने तथा कई तरह के मनोभावों का एकमात्र विश्वसनीय चैनल हिंदी ही तो थी। आज जब अपनी हिंदी प्रेयसी से बातें कर रहा हूँ तो लग रहा है कि एक लंबी उम्र कस्तूरी मृग की तरह गुजार दी। ओ मेरी प्रेयसी हिंदी आज यह बेहिचक स्वीकार कर रहा हूँ कि यदि तुम न होती तो मेरे अस्तित्व की पहचान भी न होती। सुनो बेहद रूमानी प्रेयसी हो। आदिकाल से आधुनिक काल तक तुम्हारे नूपुर की रुनझुन से खुद को अभिव्यक्त करते आया। कितना तराशा है न तुमने मेरे रूप को। मैं बेढब न दिखूं इसलिए तुमने अपने को विभिन्न रूपों में सजाकर मेरा साथ दिया। जब भी किसी उत्सव में मैं सम्मिलित हुआ तब तुम विशेष रूप से मेरी अभिव्यक्ति को एक नई धार और शब्दों से तराशती रही। मंचों पर लोग मेरी वाणी और प्रस्तुति की प्रशंसा नहीं करते थे बल्कि वह तुम्हारी ही प्रशंसा थी। भाषाओं के इस कठिन दौर में तुम जिस तरह सजी-संवरी कभी बातों में, कभी गीतों में, कभी मंचीय या फिल्मी संवादों में या शैक्षणिक वर्गों में गुंजित होती हो यह तुम्हारी अदाओं की शक्तियां ही तो है। देखो न न जाने कब से मैं तुम्हारा अनुरागी हूँ पर अनुभूतियों का प्रस्फुटन आज हो रहा है। नसों में भावनात्मक चिंगारियां दौड़ रही हैं और तुम उन चिंगारियों की प्यास हो। तृष्णाएं तुमसे न जाने कब से तृप्त होती रहीं पर मन के भटकाव से तुम्हारे शब्दमयी सोंधेपन से आज रूबरू हो पा रहा हूँ। तुम्हारे पहलू में बैठ श्रृंगार के अनेक अध्यायों को आत्मसात किया पर तुम्हारे साँसों की ऊष्मा से अनभिज्ञ रहा। कई अवसरों पर तुमने किस तरह सहारा देकर संकट से उबारा है फिर चाहे वह अनुवाद हो या घोष वाक्य आदि लिखना हो। प्रेम का इतना मूक और भव्य यात्रा को न तो मैने कहीं पढ़ा न सुना। मेरी हिंदी तुम अद्भुत हो। प्रज्ञा की असंख्य विधाएं हैं। प्रेम भी एक सशक्त प्रज्ञा है जो सूर्य की मानिंद व्यक्ति को आलोकित रखती है। प्रेम का सबसे आवश्यक अंग अभियक्ति है। अभिव्यक्ति के लिए भाषा आवश्यक है। मेरी हिंदी, मेरी आशा, मेरी भाषा, मेरा विश्वास तुम सजी-धजी हमेशा मेरे पास। आज यह भी स्वीकार करता हूँ कि मेरे प्रति तुम्हारे अगाध प्यार ने मुझे एक विशिष्ट पहचान दिया जो सिर्फ तुम पर ही आधारित है। तो मेरी मौन प्रेयसी यह लिखते समय भावुकता में मेरे नयन कोर भींग उठे हैं। हिंदी दिवस पर मेरा यह वादा है प्रिये कि तुमको सजाने-संवारने और बहुमुखी सौंदर्य वृद्धि में सम्पूर्ण प्रतिभा के संग लगा रहूंगा। सच तुमसा प्यारा, तुमसा रूमानी, तुम्हारे पहलू की जिंदगानी अन्यत्र कहीं नहीं। आ मेरी प्रेयसी नमन। धीरेन्द्र सिंह
मराठी भाषा की अनिवार्यता 

राजभाषा कार्यान्वयन-लिखित हिंदी, चिंदी-चिंदी

संविधान के ऐतिहासिक निर्णय ने 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाने की जो राह प्रदत्त की वह प्रतिवर्ष अगस्त, सितंबर माह में प्रशस्त, प्रखर और प्रयोजनपूर्ण नजर आती है। देवनागरी लिपि हिंदी में सरकारी कामकाज करने की यह वैधानिक शक्ति अब सिर्फ कागजों में सिमट गई है और वर्ष 2020 में वेबनार, वेब संगोष्ठी आदि प्रौद्योगिकी जनित उपायों से भी हिंदी दिवस हंगामा मचाया जा रहा है। इस प्रशस्त पथ पर दो प्रमुख राही हैं जिसमें प्रथम राजभाषा कार्यान्वयन तथा द्वितीय लिखित हिंदी है। इन दो प्रमुख पथिकों का विश्लेषण निम्नलिखित अनुसार है:- 1. राजभाषा कार्यान्वयन: यह पथ सरकारी कार्यालयों, उपक्रमों, बैंकों से निकलता है तथा इन कार्यालयों के सभी स्तर के कर्मचारी पथिक हैं। पद के कारण अग्र पंक्ति पथ प्रदर्शक का ध्वज राजभाषा अधिकारी या हिंदी अधिकारी को सौंपा जाता है। राजभाषा अधिकारी में भी दो वर्ग हैं प्रथम प्रौढ़ तथा द्वितीय नई भर्ती राजभाषा अधिकारी। इन पथ प्रदर्शकों में आपस में ही घमासान होता है। नवांकुर राजभाषा अधिकारी सम्पूर्ण आसमान को देवनागरी लिपि से भरने का कूवत रखता है जबकि प्रौढ़ राजभाषा अधिकारी अपनी पदोन्नति और बेहतर पोस्टिंग पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए रखता है। नवांकुर के हर ऐसे कार्यक्रम जो राजभाषा कार्यान्वयन को गति दें उसे प्रौढ़ राजभाषा अधिकारी अपनी वरिष्ठता का उपयोग कर प्रशासनिक अधिकारी को कुछ खोट बताकर रद्द कर देता है। नवांकुर तिलमिलाता है पर खराब पोस्टिंग और पदोन्नति में अड़चन न डाल दें प्रौढ़ राजभाषा अधिकारी सोच चुप हो जाता है। प्रौढ़ राजभाषा अधिकारी नवांकुर राजभाषा अधिकारी के अद्यतन प्रौद्योगिकी ज्ञान का उपयोग कर राजभाषा प्रचार-प्रसार की चीजें बनवाता है और उच्च प्रशासनिक राजभाषा बैठक में अपनी सोच, प्रेरणा आदि बनाकर प्रस्तुत करता है। प्रौढ़ राजभाषा अधिकारी पदोन्नति और बेहतर पोस्टिंग पा लेता है और नवांकुर प्रौद्योगिकी की धुन में कार्यनिष्पादन की नई सरगम को बनाने में लगा रहता है। उसकी पदोन्नत न होने पर घिसे मुहावरे और असंगत दर्शन का प्रसाद दे तृप्ति का अनुभव करने को कहा जाता है। जी हां, यही है सरकारी कार्यालयों की राजभाषा कार्यान्वयन। कृपया अपूर्ण और तथ्यहीन लेखन का आरोप मत लगाइये। आप सहमत होंगे यदि राजभाषा अधिकारियों की धड़कनों को सुन पाईये। यहां न तो हिंदी कार्यशाला की दयनीय स्थिति का वर्णन कर रहा, न तो भ्रमित कर देनेवाले हिंदी अनुवाद का उल्लेख, न ही हिंदी की तिमाही रिपोर्ट गाथा का वर्णन और न ही राजभाषा अधिकारियों से राजभाषा कार्यान्वयन के अलावा अन्य कार्य लेने की साजिश का उल्लेख है। बस विशुद्ध रूप से राजभाषा प्रवर्ग में फैलते वर्चस्वता और गुटबंदी की ओर इंगित किया जा रहा। राजभाषा कार्यान्वयन के सभी उलझनों का उद्गम है। 2. लिखित हिंदी : उत्तरप्रदेश का चौंका देनेवाला हिंदी विषय में अनुत्तीर्ण विद्यार्थियों का प्रतिशत और सरस्वती कान्वेंट स्कूल जैसे कुकुरमुत्ते की तरह फैल रहे विद्यालय लिखित हिंदी की भयावह तस्वीर पैदा कर रहे। रोमन लिपि में हिंदी लिखने का चलन तमाम देवनागरी लिपि लेखन सुविधाओं के बाद भी बाधित। हिंदी भाषी अवश्य देवनागरी लिपि टंकण की ओर धीमी गति से बढ़ रहे हैं। स्पष्ट उच्चारण के कारण बोलकर टाइप करना प्रचलित नहीं हो पा रहा। यदि बात सरकारी कार्यालयों की करें तो 80 के दशक में द्विभाषिक अग्रेषण पत्र ही हिंदी पत्र संख्या वृद्धि के प्रमुख जनक थे वह आज भी अबाधित गति से जारी है। कहाँ, कौन देवनागरी लिपि में टाइप कर रहा या लिख रहा वही मुट्ठी भर राजभाषा और हिंदी से जुड़े लोग। अपनी डफली-अपनी राग। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि 80 के दशक में जिस सुनियोजित ढंग से राजभाषा कार्यान्वयन हुआ वह 90 के उत्तरार्द्ध तक आते-आते थम गया। इसके बाद राजभाषा उच्च पद, अच्छी जगह स्थानांतरण और गुटबंदी का रूप ले लिया जिसका दंड राजभाषा से जुड़ी नई पीढ़ी के अधिकांश लोग अनुभव कर रहे होंगे। लिखित हिंदी तो दिन पर दिन गूलर का फूल होती जा रही। यह सब लिखने के बाद भी नव-जागृति और नव-परिवर्तन की कामना सहित हिंदी दिवस की शुभकामनाएं। धीरेन्द्र सिंह 13 सितंबर, 2020

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सोमवार, 10 सितंबर 2018

हिंदी - अंग्रेजी - राजभाषा

देश में भाषा की सुगबुगाहट तेज होने लगी है। 14 सितंबर कुछ दिनों के बाद है। इस दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।  हर तरफ हिंदी की सुगबुगाहट लेख, कविता, चर्चाओं के माध्यम से तथा भांति - भांति के विचार प्रस्तुत किए जा रहे हैं। हिंदी दिवस विषयक कुछ मुद्दे निम्नलिखित हैं : -
1. भारतीय संविधान के अनुसार 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में आयोजित करना चाहिए या राजभाषा दिवस के रूप में ?
2. यदि 14 सितंबर हिंदी दिवस है तो राजभाषा दिवस कब है ?
3. सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों के कितने ग्राहक राजभाषा के बारे में जानते हैं ? क्या कभी किसी स्तर पर संस्था विशेष या उद्योग विशेष द्वारा सर्वेक्षण, शोध, जानकारियां आदि संपन्न किया गया है ?
4. हिंदी दिवस आयोजन से क्या तात्पर्य है ? किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस दिन का आयोजन किया जाता है ?
5. हिंदी मतलब देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी जबकि मोबाइल  से अधिकांश लोग हिंदी टाइपिंग रोमन स्क्रिप्ट का उपयोग करते हैं । इस दिशा में क्रमशः देवनागरी लिपि के लुप्त होने की प्रक्रिया पर प्रौद्योगिकी और देवनागरी की बोर्ड विशेषज्ञ क्या प्रयास कर रहे हैं ?
6. सरकारी कार्यालयों,बैंकों, उपक्रमों में पदस्थ हिंदी अधिकारी या राजभाषा अधिकारियों को उनके सेवाकाल में क्या राजभाषा कार्यान्वयन या हिंदी प्रचार - प्रसार का प्रशिक्षण दिया जाता है ?
7. क्या किसी गैर सरकारी राजभाषा विशेषज्ञ द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन की लेखा परीक्षा (आडिट) किया जाता है ?

उक्त कुछ मुद्दे हैं जो सरकारी कार्यालयों में राजभाषा के प्रचार - प्रसार और विस्तार के लिए अहम भूमिका निभाने की क्षमता रखते हैं। क्या उक्त मदों पर कार्य या कार्रवाई हो रही है ? इसका स्पष्ट उत्तर अभी भी प्रतीक्षित है।

धीरेन्द्र सिंह



रविवार, 14 जनवरी 2018

                      राहें राजभाषा की
  1.    1980 के लगभग राष्ट्रीयकृत बैंकों में राजभाषा कक्ष की स्थापना हुई है। तीन से भी अधिक दशक बीत जाने के बाद राजभाषा की प्रगति का स्वतंत्र विश्लेषण नहीं हुआ है। अब भी राजभाषा सरकारी तंत्र के दायरे में पुष्पित और पल्लवित हो रही है। भारत सरकार की राजभाषा नीति और वार्षिक कार्यक्रम के आधार पर राजभाषा कार्यान्वयन को गतिशील बनाने का कागजी प्रगति अधिक और वास्तविक प्रगति कम दिखलाई पड़ती है। हिंदी की तिमाही, छमाही और वार्षिक कागजी रिपोर्ट पर गतिमान राजभाषा कार्यान्वयन अब अपनी प्राकृतिक आभा और अंदाज को धीरे-धीरे खो रही है। राजभाषा की प्रगति का आधार केवल हिंदी की तिमाही प्रगति रिपोर्ट है जिसकी वित्त मंत्रालय, वित्तीय सेवाएं विभाग, गृह मंत्रालय राजभाषा विभाग द्वारा आवधिक समीक्षा और निरीक्षण किया जाता है। संसदीय राजभाषा समिति द्वारा भी राजभाषा कार्यान्वयन की समीक्षा की जाती है।
          हिंदी की तिमाही प्रगति रिपोर्ट की यदि गहन और व्यापक समीक्षा की जाय तो यह शायद ही कहीं कार्यान्वयन की सत्यता दर्शाते हुए मिले। आज भी अधिकांश हिंदी तिमाही रिपोर्ट राजभाषा कार्यान्वयन के आंकड़ों को अधिक दर्शाती हैं। हिंदी की तिमाही रिपोर्ट पर चलनेवाला राजभाषा कार्यान्वयन अपनी सत्यता को दर्शाने में अब भी असफल है। विभिन्न सरकारी राजभाषा कार्यान्वयन के निरीक्षण के कार्यालय अब तक इस तिमाही रिपोर्ट को पूरी तरह से अपने निरीक्षण के दायरे में नहीं ले रहे। एक कठोर कार्रवाई और कार्यवाही नहीं लिया जा रहा जिसका एक कारण प्रेरणा और प्रोत्साहन से राजभाषा कार्यान्वयन हो सकता है। विगत तीन से भी अधिक दशकों से राजभाषा निरीक्षण की एक ही प्रणाली से यह यह प्रणाली अपनी विशिष्ट महत्ता को कमतर करते जा रही है। अब प्रत्येक सरकारी कार्यालयों और उपक्रमों को मालूम हो गया है कि राजभाषा कार्यान्वयन मूलतः हिंदी की तिमाही रिपोर्ट आधारित है इसलिए इस रिपोर्ट को बनाते समय वार्षिक कार्यक्रमों के लक्ष्यों का विशेष ध्यान रखा जाता है तदनुसार आंकड़ों को चयनित कर रिपोर्ट में दर्शस्या जाता है। सिर्फ हिंदी की तिमाही रिपोर्ट में सिमटी राजभाषा अपनी पहचान और कार्यान्वयन की गरिमा को प्रभावित कर रही है।

       वर्तमान में राजभाषा की राहों के प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित है जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सहज, सरल और सुंदर गति की राजभाषा कार्यान्वयन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावनाएं हैं : -
  1. विशेषकर बैंकों में राजभाषा अधिकारी राजभाषा विभाग के अतिरिक्त अन्य विभाग का कार्य भी प्रति कार्यदिवस कर रहे हैं जिससे कार्यान्वयन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  2. अभी भी कार्यालयों में अंग्रेजी में बनी रबड़ की मुहरें मिल जाती हैं। तीन से भी अधिक दशक के बाद धारा 3(3) की यह चूक कार्यान्वयन की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगा रही है।
  3. क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालयों में पदस्थ राजभाषा निरीक्षण अधिकारी केंद्रीय कार्यालय की प्रणाली से अवगत होते हैं अतएव बैंकों और उपक्रमों में राजभाषा निरीक्षण को वह सम्पूर्णता में नहीं कर पाते। यदि इन कार्यालयों में निरीक्षण के लिए बैंक एवं उपक्रम के सेवानिवृत राजभाषा अधिकारियों को सलाहकार के रूप में रखा जाय तो निरीक्षण और अधिक प्रभावी और फलदायी होगा।
  4. हिंदी कार्यशालाएं अपनी महत्ता और इयत्ता खोती जा रही हैं। यह कार्यशाला तीन दिन से दो दिनों की हुई और अब एक दिन में सिमट गई है। एक सत्र उद्घाटन का एक सत्र समापन का तो सिर्फ अधिकतम 2 सत्र बचते हैं। इन 2 सत्रों से राजभाषा कार्यशाला कितना लाभकारी होगी यह एक शोध का विषय है।
  5. बैंकों में प्रायः राजभाषा अधिकारी द्वारा अन्य कार्य करना न केवल राजभाषा की सुगम प्रगति को बाधित करता है बल्कि राजभाषा की छवि को भी प्रभावित करता है।
  6. राजभाषा कार्यान्वयन के निरीक्षण, अनुवर्ती कार्रवाई और कार्यान्वयन में शिथिलता का आभास होता है क्योंकि राजभाषा की अनुगूंज मंद पड़ती जा रही है।
  7. राजभाषा के पुरस्कारों के आधार और उसकी सत्यता की जांच के लिए भी उचित स्तर पर कार्रवाई की जानी चाहिए।
  8. हिंदी पत्रिकाओं की सामग्री के लिए विभिन्न विषयों का प्रतिशत निर्धारित करना चाहिए जिसमें लेख, कविता, समीक्षा, संस्थागत विषयों आदि का प्रतिशत निर्धारित हो। इस प्रकार यह पत्रिका बहुपयोगी और लोकप्रिय बनाई जा सकताई है। स्थानीय राजकीय भाषा को भी एक पृष्ठ निर्धारित किया जाय।

शनिवार, 11 नवंबर 2017

राजभाषा अधिकारी, मूक सिसकी

राजभाषा अधिकारी प्रत्येक सरकारी कार्यालय का वह अधिकारी होता है जिसका एकमात्र दायित्व राजभाषा नीतियों का कार्यान्वयन होता है। यह अधिकारी केवल प्रशासनिक कार्यालयों में पदस्थ होते हैं तथा उस कार्यालय के अधीन कार्यरत सभी कार्यालयों में राजभाषा के निरंतर प्रचार और प्रसार का दायित्व होता है। यदि आप किसी भी केंद्रीय कार्यालय या बैंकों या बीमा कंपनियों में जाएं तो वहां राजभाषा पूरी तरह अपनी एक पहचान लिए नहीं मिलेगी। राजभाषा के इस अधूरी पहचान के लिए प्रमुख रूप से उस क्षेत्र का राजभाषा अधिकारी जिम्मेदार है। पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से कार्यरत यह राजभाषा अधिकारी अपने कार्यक्षेत्र के अधीन कार्यालयों राजभाषा की पूर्ण पहचान तक न बना पाए, इस कारण की सामयिक और क्षणिक समीक्षाएं कागजों पर लगभग पूरी तरह दर्ज मिलती हैं।

किसी भी कार्य में किसी भी प्रकार की कमी के लिए किसी को भी जिम्मेदार ठहरा देना बेहद आसान कार्य है। राजभाषा अधिकारी भी समय-समय पर जिम्मेदार ठहराया जाता है किंतु क्या कभी किसी ने राजभाषा अधिकारी के कार्य प्रणाली, कार्य सुविधाओं, कार्य की कठिनाइयों आदि की समीक्षा की है? अमूमन ऐसा नहीं होता है। राजभाषा अधिकारी की सामान्यतया निम्नलिखित कठिनाईयां हैं:-
1. कार्यालय में उनके बैठने का उचित स्थान नहीं रहता।
2. सामान्यतया यह सोच है कि राजभाषा अधिकारी के पास पूरे दिन का कार्य नहीं रहता।
3. राजभाषा विभाग का यदि कार्य लंबित रहता है तो उच्च कार्यालय द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जाती।
4. राजभाषा के कामकाज की पूर्ण जानकारी कार्यालय प्रमुखों को बतलाने में राजभाषा विभाग असफल रहता है।
5. राजभाषा अधिकारी को दूसरे विभाग का कार्य दिया जाता है जिसपर सतत और गहन अनुवर्ती कार्रवाई होती है अतएव राजभाषा अधिकारी राजभाषा का कार्य छोड़ कार्यालय के दूसरे कार्यों में अपना लगभग पूर्ण समय देने लगता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश कार्यालयों के राजभाषा विभाग में गहन अनुवर्ती कार्रवाई का अभाव है।
6. राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा कार्यान्वयन का उचित, सार्थक, प्रयोजनपूर्ण राजभाषा प्रशिक्षण नहीं मिल पाता है। राजभाषा जगत में ऐसे राजभाषा प्रशिक्षकों का अभाव है जो राजभाषा कार्यान्वयन की बारीकियों को विश्लेषणात्मक ढंग से स्पष्ट कर सकें। इस प्रकार के प्रशिक्षण प्रायः वार्षिक कार्यक्रम और राजभाषा नीति की परिक्रमा कर पूर्ण हो जाते हैं।
7. अधिकांश राजभाषा अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन के ज्ञान के अभाव में यह नहीं समझ पाते कि उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में किस प्रकार राजभाषा कार्यान्वयन करते है जिससे वह अपने कार्यस्थल परिवेश में हीन भावना से ग्रसित होते हैं। यह हीन भावना ही उन्हें अन्य विभाग के कार्य करने को प्रेरित करती है जिससे अधिकारी की एक पहचान बनती है। बहुत कम राजभाषा अधिकारी इस प्रकार की हीन भावना से मुक्त होते हैं।
8. राजभाषा अधिकारी के अतिरिक्त कोई अन्य विधा के विशेषज्ञ अधिकारी को किसी अन्य विभाग का कार्य नहीं सौंपा जाता है। 
9. पिछले 5 वर्षों में नियुक्त अधिकांश राजभाषा अधिकारियों को हिंदी साहित्य का ज्ञान नहीं है जिससे वह अपनी भाषा कौशल का प्रदर्शन कर स्टाफ को मोहित और आकर्षित करने में असफल होते हैं। इसके लिए भर्ती प्रणाली जिम्मेदार है। पहले हिंदी और अंग्रेजी भाषा के आधार पर नियुक्तियां होती थीं किंतु कुछ समय से भाषा के अतिरिक्त अन्य पेपर को भी हल करना पड़ता है।
10. किसी भी कार्यालय में राजभाषा की पहचान एक सांविधिक दायित्व तक सीमित है जिसका कार्यान्वयन विभिन्न आवधिक रिपोर्ट प्रेषित कर पूर्ण किया जाता है।
11. विभिन्न केंद्रीय कार्यालयों में राजभाषा विभाग अपनी पहचान खोता जा रहा है। वर्ष 1980 के दशक में राजभाषा विभाग गरिमापूर्ण और सम्मानित पहचान बनाने में सफल था क्योंकि तब राजभाषा विभाग के विभागाध्यक्ष राजभाषा अधिकारी कार्यान्वयन को व्यापक तौर से स्पष्ट कर सके थे। अब वह स्थिति नहीं है और न वैसे विश्लेषण कर कार्यान्वयन करनेवाले विशेषज्ञ राजभाषा प्रभारी हैं।

उपरोक्त कुछ मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में विशेषकर नए भर्ती राजभाषा अधिकारी किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। लगभग सभी राजभाषा अधिकारी अपने कार्यस्थल पर अपनी और राजभाषा कार्यान्वयन की पहचान बनाने को उत्सुक हैं। यहां यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि कार्यालयों के प्रशासनिक प्रधान के समक्ष राजभाषा की वास्तविक स्थिति को भी ठीक से प्रस्तुत नहीं किया जा रहा अतएव वह भी राजभाषा की इस स्थिति से अनभिज्ञ है। राजभाषा अधिकारी मूक सिसकी में दूसरे विभाग का अधिक और राजभाषा कार्यान्वयन का कम कार्य किये जा रहा है। 

चेन्नई, चंदन और चटकार


चेन्नई और खासकर सम्पूर्ण तमिलनाडु को।हिंदी विरोधी मानने का प्रचार किया गया। अधिकांश लोग यह मानकर चल रहे कि तमिलनाडु में हिंदी का प्रचार-प्रसार बेहद कठिन है। ऐसी सोच रखनेवाले यह नहीं देखते कि दक्षिण हिंदी प्रचार सभा अबाध गति से हिंदी शिक्षण कर रहा। इस प्रकार के लोग चेन्नई की सड़कों पर नहीं घूमते जिससे वह इस तथ्य से अनभिज्ञ रह जाते हैं कि कहीं-कहीं दरवाजे पर हिंदी टीचिंग का बोर्ड लटकता दिखाई देता है। यह सब चल रहा है अनवरत बिना किसी शोर शराबे के। अभिभावक अपने बच्चों को केंद्रीय विद्यालय में दाखिला दिलाने को उत्सुक दिखते हैं जिसका एक प्रमुख उद्देश्य हिंदी ज्ञान प्राप्त करना भी है।

इसी प्रसंग में यदि बात चेन्नई में राजभाषा कार्यान्वयन की करें तो मामला शांत और आराम करता हुआ प्रतीत होता है। बैंक या कार्यालयों में राजभाषा का मूल कार्य भी अधूरा बिखरा पड़ा नज़र आता है। मुख्य नाम बोर्ड और कुछ संवैधानिक पट्ट पट्टिकाएं जिनका निर्माण एक स्थान पर बड़ी संख्या में वितरण हेतु होता है वह त्रिभाषिक या द्विभाषिक नज़र आती है। शेष कार्य बदस्तूर अंग्रेजी में जारी है। नई पीढ़ी के कर्मियों को कार्य में राजभाषा प्रयोग का जोश, उल्लास और उत्साह नहीं मिल रहा। हिंदी की आवधिक रिपोर्टों को प्रेषित न किया जाना अधीनस्थ कार्यालयों की आदत है। नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति केवल सदस्य कार्यालयों तक सिमटी है।

चेन्नई का एक नवीनतम उदाहरण है। अभी हाल में उत्तरभारत से एक अधिकारी स्थान्तरित होकर सपत्नी चेन्नई आये। फो दिनों मरीन ही पास पड़ोस के लोगों से परिचय हुआ।।उस बिल्डिंग में सभी दक्षिण भारतीय रहते थे। पड़ोसी ने अपने लड़के को हिंदी पढ़ने के लिए भेज दिया और दूसरे दिन से बिल्डिंग के कुछ और विद्यार्थी हिंदी पढ़ने के लिए आने लगे। कुछ फिनों बाद उस अधिकारी से जब पूछा गया कि उनकी ष्टिमाती का हिंदी ट्यूशन कैसा चल रहा। उत्तर मिला अचानक विद्यार्थियों ने आना बंद कर दिया। उत्सुकतावश प्रश्न किया गया कि क्या उनकी पत्नी के9 अंग्रेजी आती है उत्तर ना था। हिदी को।अंग्रेजी में पढ़ाती तो विद्यार्थी नहीं जाते।

एक और ज्वलंत उदाहरण । एक कार्यालय में दो वरिष्ठ नागरिक कार्यवश आये और संबंधित स्टाफ से एक वरिष्ठ तमिल में बात करना चाहा टैब अंग्रेजी में बात करने का अनुरोध किया गया। उन वरिष्ठ ने तमिल सीखने की सलाह दी। अचानक दूसरे वरिष्ठ बोल पड़े ऐसी अनुचित राय मत दीजिए। इन लोगों का दो तीन वर्ष में स्थानांतरण हो जाता है।। तमिल एक कठिन भाषा है यह नहीं सीख पाएंगे। बेशक आप।हिंदी सीख लीजिये, यह एक आसान भाषा है। दिलचस्प बात यह कि दोनों तमिल भाषी थे और अच्छी हिंदी में बातें कर रहे थे। यह जानकारी एक तीसरे वरिष्ठ ने देते हुए कहा कि फोनों तमिल।भाषी हैं पर बातें हिंदी में कर रहे।

तीसरा ज्वलंत उदाहरण। मुम्बई से चेन्नई यात्रा करते समय एक भजन मंडली समूह मिला जो तमिल भजन करने मुंबई गय्या था। उस समूह के मुखिया ने कहा कि मुम्बई जाकर यह ज्ञान हुआ कि हिंदी के बिना गुजारा नहीं। हम सब हिंदी सीखेंगे। 

नई पीढ़ी स्टाफ के रूप में हिंदी सीखने की लालसा लिए है। ख़ुद के प्रयास से ऐसे स्टाफ हिंदी बोलने का प्रयास भी करते हैं किंतु इनकी अभिला अभी तक अधूरी है। चेन्नई में कार्यरत स्टाफ हिंदी सीखने को तत्पर हैं किंतु इन्हें कार्यालयीन समय में हिंदी सीखने का प्रयास नदारद है। प्राज्ञ, प्रवीण और प्रबोध प्रशिक्षण की जानकारी नहीं और न ही प्रोत्साहन राशि के बारे में अवगत हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि चेन्नई चंदनीय सुगंध और शीतलता को लिए है बस एक दमदार और प्रभावशाली राजभाषा का तिलक लगानेवाला चाहिए।
धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति - प्रयोजन, प्रयास, प्रतिबद्धता

नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति प्रत्येक भारतीय नगर में राजभाषा का एक मुखर मंच है। केंद्रीय कार्यालय, बैंक, उपक्रम, बीमा कंपनियाँ इस समिति की सदस्य हैं। यदि सम्पूर्ण भारत की नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के कार्यनिष्पादन का विश्लेषण किया जाये तो यह स्पष्ट होता है कि इन समितियों के कार्यनिष्पादन में भिन्नता है जबकि लक्ष्य सबका एक है। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के वार्षिक कार्यक्रमों के विभिन्न लक्ष्यों को प्राप्त करने में नराकास (नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति) के सभी सदस्य प्रयासरत रहते हैं तथा यह समिति मिलजुलकर और एक दूसरे को सहायता प्रदान कर प्रगति करती है। यद्यपि अभी भी कई नगर ऐसे हैं जहां पर नराकास गठित नहीं की गयी है किन्तु ऐसे नगरों में नराकास के गठन की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है।

गठन : किसी भी नगर में स्थित कार्यालयों में से किसी एक कार्यालय का चयन राजभाषा विभाग द्वारा किया जाता है जिसे नराकास के संयोजन का दायित्व दिया जाता है । नगर के एक कार्यालय का चयन चयनित कार्यालय के कार्यालयाध्यक्ष की सहमति से होता है। सामान्यतया यह कोशिश रहती है कि नगर में स्थित ऐसे कार्यालय को नराकास के संयोजन का दायित्व दिया जाये जहां नगर स्थित कार्यालयों के वरिष्ठतम प्राधिकारी पदस्थ हों। यह स्थिति सामान्यतया केंद्रीय कार्यालयों के नराकास में दिखलाई पड़ती है। यहाँ पर यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि किसी नगर में अधिकतम तीन प्रकार के नराकास का गठन हो सकता है यथा - केंद्रीय कार्यालयों की नराकास, बैंको की नराकास और उपक्रमों की नराकास। यह तीनों नराकास सामान्यतया महानगरों में गठित होते हैं अन्यथा केंद्रीय कार्यालयों की  नराकास और बैंकों की नराकास अधिकांश नगरों में पाये जाते हैं। इसके बावजूद बहुत छोटे नगरों में केवल एक नराकास गठित होती है जिसमें केंद्रीय कार्यालय, बैंक और उपक्रम सदस्य होते हैं।

सदस्य -सचिव : यह एक पदेन पद है तथा संयोजक कार्यालय का राजभाषा अधिकारी स्वतः समिति का सदस्य - सचिव बन जाता है। यह पद नराकास की एक ऐसी धुरी है जिसपर नराकास की गतिविधियां व गति पूरी तरह निर्भर रहती है। संबन्धित क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय से सदस्य-सचिव का सीधा संबंध जुड़ा रहता है तथा कार्यान्वयन, प्रशिक्षण आदि के अधिकारियों से समय-समय पर संपर्क होते रहता है तथा तदनुसार नगर में राजभाषा कार्यान्वयन गतिशील रहता है। सदस्य-सचिव एक तरफ समिति के पदेन अध्यक्ष को राजभाषा कार्यान्वयन विषयक सहायता प्रदान करता है तो दूसरी ओर समिति के सदस्यों के विचारों, सोच और सहयोग के आधार पर राजभाषा विषयक विविध गतिविधियों को अंतिम रूप प्रदान करता है। सामान्यतया सदस्य-सचिव की गतिशीलता के अनुरूप समिति गतिशील रहती है यद्यपि समिति पर नियंत्रण अध्यक्ष का रहता है। 

अध्यक्ष : समिति का अध्यक्ष पद एक पदेन पद होता है जो संयोजक कार्यालय के कार्यालय प्रमुख के लिए है। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के दिशानिर्देशानुसार तथा राजभाषा नीति के परिप्रेक्ष्य में नगर में राजभाषा कार्यान्वयन की प्रगति की जाती है। समिति की बैठक का आयोजन, समिति की गतिविधियों को मंजूरी, समिति के सदस्य कार्यालयों के हिन्दी की रिपोर्ट की समीक्षा आदि महत्वपूर्ण कार्यों का दायित्व अध्यक्ष का होता है। इस समिति में लिए गए निर्णय केवल अध्यक्ष द्वारा लिए गए निर्णय नहीं होते हैं बल्कि समिति के सभी सदस्यों से विचार-विमर्श कर निर्णय लिए जाते हैं। इस समिति के अध्यक्ष की दोहरी भूमिका होती है जिसमें एक तरफ तो समिति के सदस्यों के पक्ष को ध्यान में रखना पड़ता है तो दोसारी ओर राजभाषा नीति, वार्षिक कार्यक्रम के लक्ष्यों आदि को वरीयता देते हुये समिति को गतिशील बनाए रखना पड़ता है। अध्यक्ष का पद अत्यधिक दायित्व वाला पद है। 

क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय : : प्रत्येक समिति का संबन्धित क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय में उप-निदेशक (कार्यान्वयन) पदस्थ होते हैं। इस कार्यालय की भूमिका प्रेरक और प्रोत्साहक की भूमिका होती है। राजभाषा नीति एवं वार्षिक कार्यक्रम के लक्ष्यों के अनुसार प्रगति का जायजा लेने के लिए सामान्यतया इस समिति के प्रत्येक बैठक में क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय के प्रतिनिधि होते हैं जो उप-निदेशक (कार्यान्वयन) होते हैं या सहायक निदेशक (कार्यान्वयन) होते हैं अथवा शोध अधिकारी (कार्यान्वयन) उपस्थित होते हैं। इन अधिकारियों द्वारा भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के दिशानिर्देशों को समिति तक प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित की जाती है। क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय की निगरानी के अंतर्गत नराकास कार्य करता है।  

संयोजक कार्यालय के प्रधान कार्यालय की भूमिका : नराकास के संयोजनकर्ता यदि  केंद्रीय कार्यालय, बैंक, उपक्रम के प्रधान कार्यालय नहीं हैं तब उस कार्यालय के नरकस की बैठकों में कार्यालय के प्रधान कार्यालय की भूमिका रहती है। कुछ लोग इस मत के भी होते हैं कि नराकास में संबन्धित बैंक के प्रधान कार्यालय की क्या भूमिका है ? यहाँ इस तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक है कि राजभाषा कार्यान्वयन के निर्धारित लक्ष्य होते हैं तथा स्पष्ट राजभाषा नीति है जिसके अनुसार राजभाषा कार्यान्वयन करना होता है। संयोजक कार्यालय चूंकि राजभाषा विषयक महत्वपूर्ण दायित्यों का निर्वहन करता है अतएव नराकास में लिए गए निर्णयों के उचित एवं प्रभावशाली कार्यान्वयन के लिए समिति के अध्यक्ष को उपयुक्त मशवरा दे सकता है और सदस्य-सचिव को कार्यान्वयन के लिए यथोचित दिशानिर्देश दे सकता है। नराकास के निर्णयों के कुशल एवं प्रभावशाली कार्यान्वयन के लिए संयोजक बैंक के प्रधान कार्यालय की भूमिका मत्वपूर्ण है अतएव नराकास की प्रत्येक बैठक में प्रधान कार्यालय के प्रतिनिधि की उपस्थिती जरूरी है। 
  
प्रयास एवं पहल :  नराकास द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन को अब केवल समिति के सदस्य कार्यालयों तक सीमित रखने की आवश्यकता नहीं है। राजभाषा कार्यान्वयन के अंतर्गत अब समय आ गया है की राजभाषा की गूंज को समिति के सदस्यों से बाहर ले जाया जाये। इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि नराकास नगर के महाविद्यालयों, विश्वविद्यालय में राजभाषा की जानकारी का प्रचार-प्रसार करें। ग्राहकों के बीच राजभाषा को लेकर जाएँ। इस प्रकार नगर की स्थानिक परिस्थितियों और विशेषताओं को दृष्टिगत रखते हुये नए प्रयास और पहल की जा सकती है। यह समय की और राजभाषा कार्यान्वयन की मांग है कि नराकास अपने सशक्त मंच का प्रयोग करते हुये राजभाषा को नए प्रयासों और पहल से एक नयी गति, ऊर्जा और दिशा प्रदान करे।   

प्रतिबद्धता : प्रतिबद्धता किसी भी कार्य एवं लक्ष्य के लिए परम आवश्यक है। नराकास के संयोजन, संचालन और नवोन्मेषी राजभाषा कार्यान्वयन के लिए प्रतिबद्धता अत्यावश्यक है। यदि समिति के सदस्य-सचिव की प्रतिबद्धता प्रबल होगी तो समिति के सदस्य कार्यालयों में पदस्थ राजभाषा अधिकारियों की प्रतिबद्धता उच्च स्तर की होगी। यदि किसी नराकास में यह स्थिति है तो सदस्य बैंकों के कार्यालय प्रमुख सहित समिति के अध्यक्ष कार्यान्वयन को अपना उत्साहपूर्ण सहयोग उल्लासित मन से देते रहेगे और ऐसी समिति अपनी एक विशेष पहचान बनाने में कामयाब होगी। प्रतिबद्धता के लिए प्रमुख प्रेरक की भूमिका संयोजक बैंक के प्रधान कार्यालय और क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय बखूबी निभा सकते हैं। 


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शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

पुरस्कारों से दबी राजभाषा

राजभाषा कार्यान्वयन प्रेरणा और प्रोत्साहन से किया जाता है, यह सर्वविदित है। इसी क्रम में श्रेष्ठ  राजभाषा कार्यान्वयन के विभिन्न महत्वपूर्ण पुरस्कारों को भी प्रदान किया जाता है। पुरस्कार जीतना हमेशा अच्छा होता है और प्रत्येक कार्यालय इसे पाने के लिए राजभाषा कार्यान्वयन में श्रेष्ठ कार्यनिष्पादन में व्यस्त रहता है। इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार प्राप्त करना प्रत्येक कार्यालय की चाहत होती है क्योंकि वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन की श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए इससे बड़ा पुरस्कार कोई नहीं है। सब लोग जानते हैं कि प्रत्येक योजना अपने आप में विशिष्ट और विशेष लक्ष्यों के प्राप्ति के लिए एक प्रेरक होती है। इस प्रकार राजभाषा के कई पुरस्कार हैं जो अपनी विशिष्टता के लिए राजभाषा जगत में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। राजभाषा के इन पुरस्कारों को पाने के लिए होड सी लगी हुयी है। ऐसी प्रबल और स्वस्थ प्रतिद्वंदिता में कुछ ऐसी भी घटनाएँ हो जाती हैं जो राजभाषा कार्यान्वयन के इस प्रयास को प्रभावित करती हैं। 

किसी भी सरकारी कार्यालय के उच्च प्रशासक से राजभाषा विषयक चर्चा करने पर राजभाषा पुरस्कार चर्चा का एक प्रमुख विषय रहता है। इन चर्चाओं में यह भी टिप्पणी रहती है कि पुरस्कारों को "मैनेज" किया जाता है। यहाँ यह प्रश्न उभरता है कि उच्च प्रशासक किस आधार पर अपरोक्ष में इस प्रकार कि बातें कर जाते हैं? यहाँ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सभी सरकारी कार्यालयों के प्रशासक अपरोक्ष में ऐसी ही बातें करते  हैं । कभी कहीं किसी उच्च प्रशासक से इस तरह कि बातें अनौपचारिक बातचीत के दौरान सुनने को मिलती है। यदि उनसे इस तरह कि बातों का आधार पूछा जाय तो प्रायः यही उत्तर मिलता है कि उनके कार्यालय के राजभाषा अधिकारी द्वारा यह बात बार-बार उनसे कही जाती है। यदि देखा जाय तो इस प्रकार कि बातें अक्सर ऐसे ही राजभाषा अधिकारी करते हैं जिन्हें अपने कार्यकाल में राजभाषा का एक भी पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ है।

क्या राजभाषा कार्यान्वयन वस्तुतः राजभाषा के विभिन्न पुरस्कारों से दबी है या कि चतुराईपूर्वक उसे पुरस्कारों से दबाने की असफल कोशिशें की जा रही हैं। राजभाषा कार्यान्वयन के विभिन्न चुनौतीपूर्ण कार्यों को करने की आवश्यक कौशल न रखनेवाले राजभाषा अधिकारी इस प्रकार के अतार्किक शोर मचाते हैं और अपनी राजभाषा कार्यान्वयन विषयक कमजोरी को छुपने का प्रयास करते हैं। राजभाषा के विभिन्न पुरस्कारों के निर्णय का आधार होता है। सरकारी कार्यालयों के राजभाषा का प्रत्येक सजग विभाग अन्य कार्यालयों की राजभाषा प्रगति की जानकारी रखता है। राजभाषा की विभिन्न बैठकों में कार्यालयों के राजभाषा विषयक प्रगति की चर्चा व समीक्षा की जाती है। सब कुछ स्पष्ट रहता है फिर भी उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को कल्पित कथा सुनाकर कुछ राजभाषा अधिकारी राजभाषा को बदनाम करने की भूमिका निभाते हैं। 

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि उच्च प्रशासनिक अधिकारी सामान्यतया राजभाषा विषयक सूचनाओं के लिए अपने कार्यालय के राकभाषा विभाग पर निर्भर रहते हैं। उच्च प्रशासनिक अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन की वास्तविकता से परिचित हों इसीलिए नगर राजभाषा कार्यन्वयन समिति की बैठकों में कार्यालय प्रमुख की सहभागिता पर बल दिया जाता है। अब समय आ गया है कि वृहद परिप्रेक्ष्य में राजभाषा को  संबन्धित राजभाषा विभाग से बाहर निकाल कर एक नयी व्यापकता दें जिससे राजभाषा कार्यालय के प्रत्येक स्तर तक अपने स्पष्ट रूप में रहे। राजभाषा कार्यन्वयन के लिए पुरस्कार अति आवश्यक है किन्तु राजभाषा पुरस्कारों को विचित्र अफवाहों के दल-दल से बचाना भी बहुत जरूरी है। 

रविवार, 17 अगस्त 2014

बैंकों में राजभाषा का क्रान्ति वर्ष 2013-14

भारत सरकार की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन के लिए बैंकों द्वारा प्रयास में काफी तेजी आई है। इस तेज़ी का एक प्रमुख कारण यह भी है कि भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग द्वारा तथा वित्त मंत्रालय, वित्तीय सेवाएँ विभाग, राजभाषा विभाग द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन के प्रति पिछले एक वर्ष के दौरान जो तेज़ी, गति और दिशानिर्देशों संग अनुवर्ती कार्रवाई की जा रही है उससे बैंकों के राजभाषा विभाग में एक नयी गति तथा तत्परता आई है। कृपया इसका यह अर्थ मत निकालिएगा कि इससे पहले बैंकों में राजभाषा कार्यान्वयन धीमी गति में था वस्तुतः इससे पहले कुछ गिने-चुने बैंकों में ही राजभाषा गतिशील थी अन्यथा शेष बैंक धारा 3(3) के अनुपालन तक ही सिमटे हुये थे। पिछले एक वर्षों से अर्थात वर्ष 2013 से विभिन्न राजभाषा विभागों द्वारा जितनी अनुवर्ती कार्रवाई की गयी उतनी पहले नहीं दिखलाई देती थी अतएव राजभाषा के इतिहास में वर्ष 2013 से राजभाषा कार्यान्वयन के परंपरागत ढंग में नवीनता लायी गयी जिसे सभी बैंकों ने खुले दिल से स्वीकारा और उसका कार्यान्वयन भी किया। यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। 

अब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि ऐसा क्या हो गया वर्ष 2013 में कि राजभाषा में एक नवीन परिवर्तन संग नयी गति आई। इस विषय पर बहुत अधिक चर्चा ना कर यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार, राजभाषा विभाग के सचिव द्वारा बैंकों के प्रशासनिक कार्यालयों तथा शाखाओं का सघन और गहन  निरीक्षण का अभियान तथा इस अभियान के अंतर्गत तात्कालिक समीक्षा और दिशनिर्देशों ने राजभाषा कार्यान्वयन को अधिक स्पष्ट और सरल बना दिया। बैंकों की प्रत्येक बैठक में संबन्धित बैंकों के उच्चाधिकारियों तथा कार्यपालकों की उपस्थिती ने बैंकों  में राजभाषा के प्राथमिकता में वृद्धि की । यहाँ यह भी उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि वर्ष 2013 से पहले भारत सरकार, राजभाषा विभाग के सचिव को अधिकांशतः सरकारी आयोजनों में ही सुना जा सकता था। जबकि अब सचिव विभाग के निदेशक संग स्वयंउपस्थित होकर संवाद करती हैं।  सचिव द्वारा इस पहल ने राजभाषा को एक नयी गरिमा और बैंकिंग कार्य के एक अनिवार्यता का स्वरूप प्रदान किया जो किसी अति कुशल शिल्पकार की कलाकृति से कम नहीं है।

प्रायः यह अनुभव किया गया है कि यदि उच्च स्तर से किसी कार्य के प्रति तेज़ी दिखलाई पड़ती है तो स्वतः वह प्रवाह सम्पूर्ण कार्यालयीन व्यवस्था को प्रभावित करता है। भारत सरकार, राजभाषा विभाग द्वारा नए दृष्टिकोण से राजभाषा कार्यान्वयन से प्रभावित होकर वित्तीय सेवाएँ विभाग, राजभाषा विभाग ने सघन अनुवर्ती कार्रवाई आरंभ की । सघन शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया कि जब तक किसी पत्र का संतोषप्रद उत्तर वित्तीय सेवाएँ विभाग को प्राप्त नहीं हो जाता है तब तक लगातार अनुस्मारकों की बौछार लगी रहती है। यहाँ पर यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि वर्ष वर्ष 2013 से पहले वित्तीय सेवाएँ विभाग द्वारा पत्रों और अनुस्मारकों के इतने कार्रवाई को अनुभव नहीं किया गया था। वित्तीय सेवाएँ विभाग ने आपसी संवाद-सार्थक दिशा अभियान द्वारा राजभाषा को बैंकिंग कामकाज का अभिन्न हिस्सा बनाने की योजना आरंभ की जो मूलतः राजभाषा विभाग द्वारा की गयी पहल का प्रभाव था।

भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के वार्षिक कार्यक्रम के आधार पर वित्त मंत्रालय, वित्तीय सेवाएँ विभाग के सचिव ने राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिए विशेषकर उन बैंकों को दिशानिर्देश दिया जिन बैंकों के कार्यालय या शाखाएँ विदेशों में स्थित हैं। तदनुसार कुछ बैंकों के शीर्ष कार्यपालक विदेशों में राजभाषा कार्यान्वयन के लिए विभिन्न आयोजन किए। एक बैंक के कार्यपालक निदेशक ने विदेश स्थित अपने कार्यालय और शाखा में भारत से बैनर तैयार कर स्वयं ले गए और वहाँ प्रदर्शित किए। इसके अतिरिक्त आपसी संवाद-सार्थक दिशा पर चर्चा भी की। आपसी संवाद-सार्थक दिशा का मॉडल -2 भी तैयार होकर कार्यान्वयन की दिशा में अग्रसर है। वित्त मंत्रालय, वित्तीय सेवाएँ विभाग, राजभाषा विभाग की यह एक उल्लेखनीय पहल और दिशानिर्देश है जिसने बैंकों में राजभाषा कार्यान्वयन को गति प्रदान की ।    

भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग और वित्त मंत्रालय, वित्तीय सेवाएँ विभाग, राजभाषा विभाग की जुगलबंदी ने राजभाषा अधिकारियों की चेतना को और प्रखर कर धारदार बनाया जिससे कई बैंकों में राजभाषा कार्यान्वयन में उल्लेखनीय प्रगति हुयी जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यहाँ यह सोचना पूर्ण सत्य नहीं होगा कि चूंकि भारत सरकार, राजभाषा विभाग अति सक्रिय होकर निरीक्षण आदि करने लगा तो राजभाषा अति गतिशील हो गया। यद्यपि इस सोच में बहुत अधिक सत्यता तो है किन्तु इससे भी प्रमुख सत्य यह है कि बैंक कर्मियों को एक ऐसी सशक्त और स्वाभाविक प्रेरणा मिली कि वे स्वतः प्रेरित होकर राजभाषा में कार्य करने लगे। श्रेष्ठ राजभाषा कार्यान्वयन वही है जिसमें कर्मचारी स्वतः प्रेरित होकर कार्य करने लगें। 

लगभग एक वर्ष से कम समय में राजभाषा इतनी सशक्त हो गयी कि अब सभी बैंक ए टी एम से पर्ची द्विभाषिक (हिन्दी और अँग्रेजी ) देना आरंभ कर रहे हैं। ग्राहकों को उनके खाते की विवरणियाँ, पास बूक में प्रविष्टियाँ, डिमांड ड्राफ्ट आदि हिन्दी में देने की तैयारी को पूर्ण करने के अंतिम चरण में बैंक है। अब विभिन्न बैंकों के राजभाषा विभाग अपने दायित्वों को पूर्ण करने में व्यस्त हैं तथा इससे राजभाषा की लोकप्रियता में वृद्धि हुई है। यह भी अति महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है कि अपने सभी निरीक्षणों में और आयोजनों में सचिव राजभाषा द्वारा स्थानीय भाषा के महत्व को स्पष्ट किया जाता है तथा यह आग्रह भी किया जाता है कि राजभाषा में यथासंभव स्थानीय शब्दों को सम्मिलित किया जाये। सचिव द्वारा स्थानीय भाषा के महत्व को सुनकर स्थानीय स्टाफ और ग्राहक खुश होते हैं और राजभाषा से जुड़ जाते हैं। सचिव केवल बैंक कर्मियों को ही संबोधित नहीं करतीं हैं बल्कि ग्राहकों, विद्यार्थियों,हिन्दी के प्राध्यापकों, पत्रकारों आदि से भी राजभाषा विषय पर चर्चा कर राजभाषा पर आम सोच का विश्लेषण करती हैं और यथावश्यक दिशानिर्देश देती हैं। 

राजभाषा की उक्त गतिविधियां जारी हैं और आगे कुछ नया और क्या होनेवाला है इसकी उत्सुकता भी है। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग और वित्त मंत्रालय,वित्तीय सेवाएँ, राजभाषा विभाग के राजभाषा कार्यान्वयन की उक्त नयी शैली ने वर्ष 2012-13 को राजभाषा कार्यान्वयन का क्रान्ति वर्ष बना दिया है। प्रसंगवश उल्लिखित किया जा रहा है कि जब भी कोई नया कदम उठाया जाता है तो ऐसा भी होता है कि कुछ लोगों को असुविधा होती है क्योंकि ढर्रे पर चल रहे कार्य में कई घुमाव आ जाते हैं जिससे आरंभिक दौर में कुछ अनावश्यक हलचल होती है। इस क्रान्ति वर्ष में उपलब्धियों के अंबार विरुद्ध कुछ असुविधाओं के टीले भी उभरते और लुप्त हो जाते  हैं। राजभाषा कार्यान्वयन की यह नयी गति ऐसे टीलों को राजभाषाई जुगनू मानकर अनदेखा कर प्रगति मार्ग प्रशस्त करते जा रही है।   
  


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गुरुवार, 11 जुलाई 2013

क्षेत्रीय राजभाषा सम्मेलन – आयोजन, संयोजन

 क्षेत्रीय राजभाषा सम्मेलन का आयोजन हमेशा प्रतिभागियों के लिए मोहक होता है पुरस्कार विजेताओं के लिए सम्मोहक होता है तथा कुछ प्रतिभागियों की दृष्टि में आलोचक होता है। इन तीन प्रमुख धाराओं में अनवरत नियमित क्षेत्री राजभाषा सम्मेलन सम्पन्न हो रहा है और अपनी प्रभावशीलता में गुणात्मक वृद्धि कर रहा है। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग के सचिव, संयुक्त सचिव, विभाग के विभिन्न निदेशक, राजभाषा भारती पत्रिका की टीम, राजभाषा विभाग की टीम, संबन्धित क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय के उप-निदेशक और उनकी टीम, संबन्धित नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति के अध्यक्ष और टीम आदि मिलकर इस सम्मेलन को प्रभावशाली बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और यह प्रयत्न हमेशा सफलता को प्राप्त करता है। इस आयोजन का प्रमुख आकर्षण सचिव, राजभाषा विभाग होते हैं जिनसे कुछ नयी बातें, राजभाषा की कतिपय नयी राहें, राजभाषा के उन्नयन के लिए नयी दृष्टि और नई निगाहें आदि की अनन्य अभिलाषा प्रतिभागियों में होती है। यह अभिलाषा इतनी प्रबल होती है कि इस सम्मेलन के आयोजन की सूचना मिलते ही नवीन जानकारियों की कामना में मन मोहित हो जाता है और सम्मेलन की तिथि का बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगता है।
मोहक आयोजन स्थल भी होता है क्योंकि देश के प्रत्येक राज्य में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आदि विविधताएँ लिए कई स्थल होते हैं जहां नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति कार्यरत होती है। अन्य कार्यालयों के मित्रों, परिचितों, नवागंतुकों आदि से मिलकर उनके कार्यालय के राजभाषा कार्यान्यवन में सुविधापूर्वक और स्वतंत्रतापूर्वक ताकने-झाँकने और जाँचने का अवसर मिलता है। इस प्रकार मोहकता के विभिन्न रूप हैं जिनकी यहाँ पर पूर्णरूपेण चर्चा कर पाना संभव नहीं है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आवश्यकता में यदि मोहकता का मिश्रण हो जाता है तब वह सम्मेलन महज एक कामकाजी आवश्यकता नहीं रह जाता बल्कि राजभाषा के सुरों से सजा एक एक ऐसा अनुपम गुलदस्ता हो जाता है जिसकी सुरभि प्रेरणा, प्रोत्साहन और प्रीति से ओत –प्रोत कर देती है। क्षेत्रीय राजभाषा सम्मेलन में प्रत्येक प्रतिभागी को बोलने और सुनने का मौका मिलता है जिससे सम्प्रेषण केवल एकतरफा नहीं रहता बल्कि अभिव्यक्ति का एक ऐसा सशक्त मंच बन जाता है जहां न केवल भावनाओं, विचारों को प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है बल्कि उनपर निर्णय लिए जाने का प्रस्ताव भी पारित होता है। यह वस्तुतः एक रोमांचकारी अनुभव है।

यह सम्मलेन एक दिवसीय होता है किन्तु इसके आयोजन, संयोजन में कई दिनों का अथक परिश्रम जुड़ा  होता है। जिस नगर या महानगर में इसका आयोजन होता है उससे संबन्धित क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय के उप-निदेशक के कंधों पर काफी ज़िम्मेदारी होती है। इन जिम्मेदारियों में से कुछ प्रमुख ज़िम्मेदारी निम्नलिखित हैं :
(1)   कार्यस्थल का चयन : सम्मेलन के लिए उचित कार्यस्थल का चयन काफी महत्वपूर्ण है। न्यूनतम 250 से 300 प्रतिभागियों के बैठने की व्यवस्था आवश्यक है। चयनित सभागार में यथोचि ध्वनि व्यवस्था का होना आवश्यक है। मंच कम से कम मध्यम आकार का होना चाहिए। पार्किंग की व्यवस्था होनी चाहिए। चयनित कार्यस्थल परिसर में चाय, भोजन के लिए उपयुक्त स्थान होना चाहिए। पंजीकरण तथा पत्रिका आदि प्रदर्शन के लिए परिसर में उचित जगह होनी चाहिए। सुविधापूर्वक जहां सब पहुँच सके ऐसा स्थल होना चाहिए।
(2)   सचिव से तिथि की प्राप्ति : चूंकि इस सम्मेलन के एक प्रमुख आकर्षण राजभाषा विभाग के सचिव होते हैं इसलिए सर्वप्रथम सम्मेलन आयोजन की तिथि का अनुमोदन सचिव से प्राप्त करना होता है। यदि किसी सम्मेलन के आयोजन तिथि से कुछ दिन पहले यह भनक तक लग जाती है कि सम्मेलन में सचिव की उपस्थिती संदेहपूर्ण है तो तत्काल 25% उपस्थिती में गिरावट आ जाती है विशेषकर वरिष्ठ प्रबंधन के अधिकारियों में। उप-निदेशक (कार्यान्यवन) पर यह दबाव रहता है कि सम्मेलन की तिथि निर्धारण से पहले तिथि का अनुमोदन सचिव से अवश्य करवाएँ और तिथि की घोषणा से पूर्व सचिव से तिथि अनुमोदन की पुष्टि अवश्य प्राप्त कर लें।
(3)   सूचना प्रेषण : प्रत्येक क्षेत्रीय कार्यालय के अंतर्गत आनेवाले सभी कार्यालयों को यदि सम्मेलन में आमंत्रित किया जाये तो संभवतः आयोजन स्थल छोटा पड़ जाये। प्रायः ऐसा होता है कि आमंत्रण में उन कार्यालयों को प्राथमिकता दी जाती है जो राजभाषा कार्यान्यवन में सक्रिय हैं। आमंत्रण के दूसरे क्रम में ऐसे कार्यालय आते हैं जिनके अधीन कई छोटे कार्यालय (जैसे बैंकों की शाखाएँ) होते हैं। तीसरे क्रम में छोटे कार्यालय आते हैं। अक्सर यह तीसरे कार्यालय छूट जाते हैं क्योंकि इनमें ना तो राजभाषा विभाग होता है ना ही राजभाषा अधिकारी पदस्थ होता है। ऐसा आवश्यक नहीं कि निमंत्रित सभी कार्यालय सम्मेलन में सहभागी हों। सम्मेलन सभागार भर जाएगा कि खाली रहेगा यह अंदेशा आयोजन तिथि तक रहता है।
(4)   भोजन बनानेवाले का चयन : सम्मेलन में मंच, विशिष्ट अतिथियों, सहभागियों के बाद यदि कुछ महत्वपूर्ण होता है तो वह है चाय-पान और भोजन। इसके चयन में आयोजन कार्यस्थल के नाराकास की सक्रिय सहभागिता होती है। निर्धारित बजट में संतोषप्रद भोजन प्रदान करना भी एक चुनौतीपूर्ण कारी है, जिसे आखिर में सफलतापूर्वक अंजाम दे ही दिया जाता है।
(5)   सक्रिय कार्यकर्ताओं का चयन : आयोजन में विभिन्न कार्यों के लिए मानव श्रम की भी आवश्यकता होती है। कुशल और तत्काल उचित निर्णय ले सकनेवाले अधिकारियों का चयन कठिन कार्य है। निम्नलिखित कार्यों के लिए कुशल कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है :
(1)   पंजीकरण और फ़ाइल आदि प्रदान करने के लिए। (अक्सर यह कार्य राजभाषा विभाग के स्टाफ संभालते हैं)
(2)   सम्मेलन सभागार में बैठने की व्यवस्था नियंत्रित करने के लिए।
(3)   उद्घोषक/उद्घोषिका का चयन।
(4)   मंच पर पुरस्कार वितरण की प्रक्रिया को नियंत्रित करना। (प्रायः यह कार्य राजभाषा विभाग के अधिकारी संभालते हैं)
(5)   वाहन व्यवस्था का नियंत्रण।
(6)   आयोजन नगर में विभिन्न स्थलों पर बैनर लगाने के लिए उपयुक्त स्थल चयन।
(7)   अतिथियों को विमानपत्तन/रेल्वे स्टेशन से ले आना-ले जाना।
(8)   विशिष्ट व्यक्तियों की देखभाल।
(6)   सांस्कृतिक कार्यक्रम हेतु : सम्मेलन में स्थल विशेष की सांस्कृतिक विरासत की झलक के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किया जाता है। एक राजी में अनेकों सांस्कृतिक विधाएँ होती हैं उनमें से प्रमुखतम विधाओं का चयन तथा उन्हें बखूबी प्रदर्शित करनेवाले कलाकारों के चयन के लिए कार्यकर्ता की आवश्यकता होती है।
(7)   प्रेस नोट और पत्रकारों के लिए कार्यकर्ता : सम्मेलन से पहले और सम्मेलन के दिन तक स्थानीय प्रेस में सम्मेलन विषयक समाचार प्रकाशित करना और सम्मेलन की रिपोर्ट पत्रकारों को प्रदान करने के लिए कार्यकर्ता की जरूरत होती है। यद्यपि सम्मेलन रिपोर्ट में राजभाषा विभाग के अधिकारियों का सहयोग होता है किन्तु रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक अनुभवी कार्यकर्ता की आवश्यकता होती है।      
      उक्त प्रकार से और कई मदें हैं जिनमें सक्रिय कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है। अधिकांश कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजन स्थल से ही मिल जाते हैं, यदा-कदा क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय आयोजन स्थल से बाहर के अपने सदस्य कार्यालय से कोई अनुभवी कार्यकर्ता की सहायता प्राप्त करता है। यद्यपि क्षेत्रीय राजभाषा सम्मेलन में सम्पूर्ण नियंत्रण गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, नयी दिल्ली का होता है किन्तु यह नियंत्रण निगरानी और आवश्यक दिशानिर्देश का होता है। सम्मेलन गरिमापूर्ण तरीके से सम्पन्न हो जाये राजभ्शा विभाग का यह मुख्य उद्देश्य होता है। निर्धारित ढांचे के अंतर्गत सम्मेलन को कौन सा क्षेत्र कितनी भव्यता और कुशलता से सम्पन्न कर पाता है इसका बहुत अधिक दारोमदार उस क्षेत्र के उप-निदेशक (कार्यान्यवन) के कंधों पर होता है।  



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