हंसी भी कहाँ, खुशी के लिए
वर्षों ऑनलाइन जीवन का एक सक्रिय भाग रहने के कारण यह स्पष्ट हुआ कि अधिकांशतः झूठी हंसी आदत सी हो गयी है। किसी भी पोस्ट पर की गई टिप्पणियों की यदि आवधिक समीक्षात्मक विश्लेषण किया जाए तो ज्ञात होता है कि गिनी-चुनी प्रतिक्रिया ही हृदय और मस्तिष्क की उपज होती है शेष मात्र औपचारिकता होती है। इस प्रकार की औपचारिकताएं एक क्षद्म और आधारहीन छवि निर्मित करने के लिए किया जाता है। यह मौलिकता से किया गया छलावा है
क्यों शब्दों में दिखावा हो रहा है ? यदि किसी को व्यक्तिगत रूप से दिखावे से बचने का अनुरोध करें तो वह कभी नहीं मानेगा कि उसकी टिप्पणियां इमोजी आधारित दिखावा हैं। ऐसे लोग पोस्ट पर आना ही छोड़ देते हैं। सभी हिंदी समूह का यही दर्द है कि रचनाओं पर प्रतिक्रियाएं नहीं मिलती हैं। विभिन्न समूह के एडमिन आदि टिप्पणियों आदि के लिए कई युक्तिगों का प्रयोग करते हैं फिर भी अपेक्षित सफलता नहीं मिलती है। अब यहां यह भी कहा जा सकता है कि शीर्षक हंसी का है तो चर्चा प्रतिक्रिया की क्यों की जा रही है?
समूह के निष्क्रिय सदस्य अत्यधिक दुखी और निराश सदस्य हैं क्योंकि वह हैं या नहीं इससे कुछ उन्हें फर्क नहीं पड़ता है। अपने अस्तित्व के प्रति उदासीन निष्क्रिय सदस्य मात्र समूह संख्या वृद्धि के कारक होते हैं। दूसरा वर्ग उन रचनाकारों का है जो अपनी रचना पोस्ट कर उससे कट जाते हैं न तो किसी दूसरे की पोस्ट पर दिखलाई पड़ते हैं और न ही अपने पोस्ट की टिप्पणियों का खयाल रखते हैं या उत्तर देते हैं। ऐसे सदस्य अवसाद रोग से पीड़ित होते हैं जो अपनी भावनाओं को अपनी रचना में उड़ेल निवृत्त हो जाते हैं। यहां फिर प्रश्न उभरेगा कि शीर्षक हंसी की है तो चर्चा इन सदस्यों की क्यों ? असामाजिकता हिंदी समूह की एक बड़ी चुनौती है।
हंसते नहीं है अब लोग क्योंकि ऐसे लोगों की मान्यता है कि हंसना असामाजिक कृत्य है । यदि हंसते तो अपनी मांगों को अभिव्यक्त करते तथा दूसरों की भावनाओं से भी जुड़ते। ऐसे सदस्य जो तर्कहीन उटपटांग पोस्ट कॉपी कर अन्य समूह में पोस्ट करते है वह हास्य निर्मित करने का प्रयास करते हैं। खिलखिलाकर हंसे नहीं या ठहाका न लगाया तो दिन उदास सा बीत जाता है। आजकल लोग हंसना भूल रहे हैं जो एक समस्या है। हंसना बंद क्या कर दिए रचनाएं उबाऊ और थकाऊ आने लगी है और जबरदस्ती का लेखन लगने लगा है।
धीरेन्द्र सिंह
18.09.2025
20.22
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