बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

स्वावलंबी.

अपने स्वंय के विवेक से व्योम में रंगोली सजाना कल्पनाशीलता का द्योतक माना जाता है। अपने समर्पण और हठधर्मिता से राजभाषा अधिकारी बन जाने का वह एक निर्णय भीष्मप्रतिज्ञा की आधुनिक युग की जीवंतता को दर्शाता है। सृष्टि के निर्माण से लेकर स्वावलंबन अपने विभिन्न रूप-रंगों को दर्शाता रहा है। कभी विवशताऍ व्यक्ति को स्वावलंबी बनाती हैं, कभी चुनौतियॉ स्वावलंबन का दामन थामती हैं तो कभी काल के बवाल से उत्पन्न मलाल स्वावलंबन का इंद्रजालिक जाल पसार देता है। इन सबसे भिन्न एक जाल और है जो अपनी विशिष्टाओं के कारण मूक शोध का विषय बना हुआ है। यह एक ऐसा जाल जिसमें न तो इंद्रजाल जैसा हतप्रभ कर देनेवाला चमत्कार है और न ही बहेलिए की आखेट की धूर्ततापूर्ण शैली बल्कि इस जाल में मोहपाश है। एक ऐसा मोहपाश जिसमें भव्यता है, लक्ष्य संधान की चुनौतियॉ हैं और जिसमें जाल का एक मुख्य कार्यकर्ता स्वंय उलझा हुआ है, जिसे राजभाषा अधिकारी के रूप में जाना - पहचाना जाता है।

परिवर्तनशील जगत में गति की तीव्रता का साम्राज्य है। गति ने समय के महत्व को जिस उर्जा से वर्तमान में प्रतिपादित किया है इसकी मिसाल सालों-साल के इतिहास में ढूँढ पाना कठिन है। आज यह कहा जा सकता है कि मति से गति को प्रभावित नहीं किया जा सकता बल्कि गति अब मति पर अपनी वर्चस्वता बनाते जा रही है। गति-मति की इस सम्मति से स्वावलंबन की धुरी को बनाए रखना एक बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य हो चला है। इसी चुनौती को वर्तमान के लोग अपने-अपने ढंग से निभाए जा रहे हैं जिसमें से कुछ लोग ज़िंदगी के गीत गाए जा रहे हैं तो कुछ लोग ज़िंदगी द्वारा छकाए जा रहे हैं। अतएव, इन परिस्थितियों में राजभाषा अधिकारियों को स्टाफ,राजभाषा नीति और वार्षिक कार्यक्रम के कार्यान्वयन की बदलती बैंकिंग विधाओं संग तालमेल का संतुलन बनाए रखने की चुनौती है। इस चुनौती के लिए राजभाषा अधिकारियों को एक बार फिर 80 के आरंभिक दशक का राजभाषा का दौर याद आ रहा है जब विभिन्न कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों आदि के राजभाषा अधिकारी एक-दूसरे को सराहते और स्वीकारते थे। अब ऐसी प्रशंसाऍ करनेवाले गिने-चुने रह गए हैं तथा अधिकांश राजभाषा अधिकारी न जाने क्यों सिमटे या समेटे हुए हैं। इसे ऐसे भी तो कहा जा सकता है कि वे स्वावलंबी बन गए हैं।

यह स्वावलंबन राजभाषा अधिकारियों के कार्य के दायरे को बाँध रहा है। यह प्रश्न यहॉ उठना स्वाभाविक है कि क्या है यह स्वावलंबन, ? ख़ुद पर निर्भरता या कि स्वंय पर टिके रहना ? ख़ुद पर निर्भरता तो एक मानवीय गुण है पर यहॉ हम व्यक्ति की चर्चा नहीं कर रहे हैं बल्कि राजभाषा अधिकारी की बात कर रहे हैं और राजभाषा अधिकारी की ख़ुद पर निर्भरता एक विशेषता नहीं बल्कि एक समस्या है। राजभाषा कार्यान्वयन तो समूह को साथ लेकर चलने पर प्रभावी होती है, समूह की निर्भरता पर व्यक्तिगत निर्भरता की धूरी रहती है इसलिए राजभाषा अधिकारी की ख़ुद पर निर्भरता एक मिथक भी है और यथार्थ भी। राजभाषा कार्यान्वयन को दृष्टिगत रखते हुए राजभाषा अधिकारी की यदि स्वंय पर टिके रहने की चर्चा करें तो यह एक असहायता वाली स्थिति है जिसमें अस्तित्व संकट का आभास होता है। वर्तमान समय में निर्भरता और टिके रहना राजभाषा अधिकारी का एक यक्ष प्रश्न है जिसका समाधान तलाशने के लिए भगीरथ प्रयास किए जा रहे हैं।

कौन कर रहा है यह भगीरथ प्रयास ? यह प्रयास करनेवाला व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि राजभाषा अधिकारी है। लेकिन इस प्रयास को भगीरथ प्रयास क्यों कहा जा रहा है ? इसका कारण यह है कि राजभाषा कार्यान्वयन के पथ पर चलते-चलते राजभाषा अधिकारी डगरभ्रमित होकर ऐसे स्थान पर पहुँच गया है जहॉ पर खुले आसमान के नीचे निर्जन विस्तृत पसरे वृहद मैदान में अंधियारे में एक मुकम्मल दिशा की तलाश कर रहा है। ऐसी स्थिति में निपट अकेले का अहसास हिंदी अधिकारी के विश्वास को शंसय का आकाश प्रदान कर रहा है। इस एकाकीपन में स्वावलंबन एकमात्र आधार भी है, एकमात्र विकल्प भी है और एकमात्र विवशता भी जिसके बल पर एक राह की चाह में राजभाषा अधिकारी स्वावलंबी बनते जा रहा है। उल्लेखनीय है कि कमोबेश राजभाषा अधिकारी इसी अवस्था में स्वावलंबी संघर्ष में उलझे हुए हैं किंतु एक-दूसरे की और न तो सहायतापूर्ण दृष्टिपात कर रहे हैं और न ही सहयोगपूर्ण अभिलाषा अभिव्यक्त कर रहे है। सब के सब एक ही दिशा की और दौड़ रहे हैं पर जीत की आकांक्षा लिए हुए, एक व्यक्तिगत जीत की, एक निजी उपलब्धि की जिसमें राजभाषा कार्यान्वयन दब गया है। स्वावलंबन की यह कैसी चाह है ?

स्वावलंबन अर्थात अकेले चलने की चाह, एक नई राह निर्माण करने की सपनीली कोशिशें तेज़ी से चल रही हैं। लक्ष्य केवल रिपोर्टों की चौहद्दी की एक पारंपरिक रंगोली रह गया है तथा राजभाषा कार्यान्वयन संविधान के आधार पर राजभाषा का आकर्षक बुर्ज़। कहे तो कौन कहे, सुने तो कौन सुने, स्वावलंबन की दौड़ जो आरंभ हो चुकी है। स्वंय को पूर्ण, स्वंय को राजभाषा ज्ञानी मानने का एक स्वविचारित मुगालता तथा इन सबके बीच मुझसे बेहतर न का एक आधारहीन दंभ। कैसे इस प्रकार के चिंतन का उद्भव हुआ ? इसलिए, मात्र इसलिए कि एक पदनाम जुड़ा है नाम के साथ, राजभाषा अधिकारी या हिंदी अधिकारी। राजभाषा कार्यान्वयन का यथार्थ कार्यालयीन कामकाज की भट्टी में दहक रहा है और स्वावंबन के तूफान में राजभाषा अधिकारियों की एक पीढ़ी बही चली जा रही है, अशक्त, असहाय और अलक्ष्यी सा। स्वावलंबन इतने आसानी से नहीं मिलता उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। कीमत में क्या चुकाना होगा, यह स्वावलंबन को भी नहीं मालूम, कितना भयावह है इस प्रकार का स्वावलंबन।


धीरेन्द्र सिंह.

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