सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

राजभाषा हिंदी और मानसिकता

एक सर्वमान्य कहावत है कि जहाँ धुआँ है वहाँ अग्नि भी किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान है। ठीक इसी तरह यह भी मान्यता है कि जहाँ मानव समुदाय है वहाँ अवश्य कोई न कोई भाषा होगी। इस संकल्पना के आधार पर यदि हम अनुमान लगाएँ कि भारत में कुल कितने मानव समुदाय हैं और कुल कितनी भाषाएँ हैं तो मामला उलझनपूर्ण हो जाएगा। भाषा, उप-भाषा और बोलियों के वर्गीकरण से संख्या हजारों तक पहुँच जाएगी। अंतत: संविधान के पन्ने पलट कर राजभाषा नीति को देखा जाएगा और वर्तमान में आठवीं अनुसूची में दर्ज कुल 24 भाषाओं की अधिकृत संख्या को सर्वमान्यता प्राप्त होगी। इस प्रकार मानव मस्तिष्क राष्ट्र की भाषागत उत्कंठा को एक संतोषप्रद विराम देने में सफल होगा।

क्या भारत देश के किसी नागरिक के लिए यह संभव है कि वह आठवीं अनुसूची में दर्ज कुल 24 भाषाओं में कार्य करे। यह प्रश्न प्रथम दृष्टया अपने आप में आधारहीन नजर आता है। मानव मन के व्यावहारिक पक्ष का यदि विश्लेषण करें तो अधिकांश मानसिकता भाषा के मुद्दे में या तो उलझन में हैं अथवा उदासीन हैं। वर्षों से भाषाओं के बारे में चर्चा करते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है कि देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हुए राजभाषा कार्यान्वयन की गति बढ़ानी चाहिए। राजभाषा कार्यान्वयन का यह प्रयास अति व्यापक, सघन और निरंतर गतिमान है। आठवीं अनुसूची में दर्ज़ भाषाएँ अपनी क्षमताओं को स्पष्ट कर चुकी हैं तथा सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में इन भाषाओं की उपयोगिता बखूबी प्रमाणित हो चुकी है। अपने-अपने राज्यों में यह भाषाएँ प्रगति कर रही हैं तथा एक-दूसरे राज्यों से पत्राचार हेतु प्रमुखतया अंग्रेज़ी का सहारा ले रही हैं ऐसी स्थिति में राजभाषा का प्रयोग अपेक्षित गति नहीं पकड़ पा रहा है। इस विषय पर किए गए विभिन्न विश्लषणों के परिणामों का स्पष्ट संकेत राजभाषा कार्यान्वयन की मानसिकता पाई गयी। राजभाषा कार्यान्वयन की सर्वप्रमुख चुनौती हिंदी में कार्य करने की मानसिकता में परिवर्तन लाना है।

मानसिकता में परिवर्तन के लिए अथक प्रयास जारी है। इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों के परिणाम भी मिल रहे हैं। भूमंडलीकरण से एक और दुनिया लगातार सिमट रही है तो दूसरी तरफ संपूर्ण विश्व अपनी-अपनी विशिष्ट पहचान के लिए प्रयत्नशील है। वैश्विक स्तर का यह एक नया द्वंद्व है जिसमें भौगोलिक सीमाओं के विस्तार के बजाए विभिन्न राष्ट्र अपनी सभ्यता और संस्कृति के विस्तार हेतु प्रयत्नशील हैं। ऐसी स्थिति में भाषा स्वंय ऊभरते हुए विश्व में अपनी पहचान बनाने लगी है जिसमें सांस्कृतिक गतिविधियॉ, वाणिज्यिक रिश्ते तथा सम्प्रेषण के विभिन्न साधनों का बखूबी उपयोगी किया जा रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम अपने देश का अवलोकन करें तो अंग्रेज़ी का प्रभुत्व अपनी अभेद्य सी लगनेवाली छवि से दूर जाता नज़र आ रहा है। विश्व में भाषाएँ वर्तमान में जिस तरह अपनी वर्चस्वता हेतु प्रयासरत हैं वह पहले कल्पनातीत थी। हिंदी के प्रति मानसिकता में भी व्यापक परिवर्तन हुआ है। कल तक हिंदी को केवल मनोरंजन की भाषा का दर्ज़ा देनेवाले आज राजभाषा हिंदी को भी खुले मन से स्वीकारने लगे हैं। इस स्वीकारोक्ति में राजभाषा की आवश्यकता सर्वमान्य है किंतु स्वंय राजभाषा में पहल कर कार्य करना अभी भी एक कठिन कार्य है। अंग्रेज़ी में कार्य करने की आदत तथा नीतियों आदि का मूल रूप से अंग्रेज़ी में ही तैयार किया जाना मानसिकता परिवर्तन में महत्वपूर्ण प्रतिकूल भूमिकाएँ निभाते हैं तथा इस परिवेश में राजभाषा कार्यान्वयन से जुड़े कर्मचारियों को इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास करने की आवश्यकता है।

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