पलकों में अगन जो समाई है
बलमा लगे बड़ा हरजाई है,
खाट का ठाठ अधूरा रह गया
बैरी बन गई यह कमाई है.
सूरज ना अच्छा, चॉद ना अच्छा
तारों की चादर खिलखिलाई है,
सूखे पत्तों को हवा खड़खड़ाए
लगे कदमों की वही अंगनाई है.
हवाओं का है कैसा यह ईशारा
बदली क्यों आज लड़खड़ाई है,
रोम-रोम सिसक-सिसक सहमे
धड़कनों का धड़कनों से लड़ाई है.
प्यार के संसार में है पुकार
चाहत बनी चुलबुली चतुराई है,
अंगडाई निमंत्रण को आगे बढ़ाए
आहत न करो और, दुहाई है.
बुधवार, 4 फ़रवरी 2009
दुहाई है
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कविता
हिंदी के आधुनिक रूप के विकास में कार्यरत जिसमें कार्यालय, विश्वविद्यालय, प्रौद्योगिकी में देवनागरी लिपि, ऑनलाइन हिंदी समूहों में प्रस्तुत हिंदी पोस्ट में विकास, हिंदी के साथ अंग्रेजी का पक्षधर, हिंदी की विभिन्न संस्थाओं द्वारा हिंदी विकास के प्रति विश्लेषण, हिंदी का एक प्रखर और निर्भीक वक्ता व रचनाकार।
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