सत्य
हमेशा होठों से नहीं बोलता
अक्सर वह
चेहरे पर डोलता है,
नज़रों से बोलता है.
क्या बतला सकती हो
कि तुम क्या हो ?
यथार्थ -
नहीं.
प्रेरणा -
गलत,
एक व्यक्तित्व
वह तो सबका है.
अच्छा बस करो
बहुत बोल चुकी.
तुम्हें ही देखकर
प्रकृति ने
बिखेर दी
रंग-गंध की छटा,
तुम्हें ही पाकर
मानव में
जन्म हुआ
मनुष्यता का,
तुमसे ही उभरा
मैं-मेरा का बोल,
छुपने लगे सब
ले निज़ता की खोल.
तुम क्या हो...
सृष्टि की अद्भुत गीतिका हो
तुम मृग मरीचिका हो, तुम मृग मरीचिका हो.
बुधवार, 4 फ़रवरी 2009
मृग मरीचिका
लेबल:
कविता
हिंदी के आधुनिक रूप के विकास में कार्यरत जिसमें कार्यालय, विश्वविद्यालय, प्रौद्योगिकी में देवनागरी लिपि, ऑनलाइन हिंदी समूहों में प्रस्तुत हिंदी पोस्ट में विकास, हिंदी के साथ अंग्रेजी का पक्षधर, हिंदी की विभिन्न संस्थाओं द्वारा हिंदी विकास के प्रति विश्लेषण, हिंदी का एक प्रखर और निर्भीक वक्ता व रचनाकार।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
सुंदर भावपूर्ण लिखा है आपने ..
जवाब देंहटाएं