बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

मृग मरीचिका

सत्य
हमेशा होठों से नहीं बोलता
अक्सर वह
चेहरे पर डोलता है,
नज़रों से बोलता है.

क्या बतला सकती हो
कि तुम क्या हो ?

यथार्थ -
नहीं.
प्रेरणा -
गलत,
एक व्यक्तित्व
वह तो सबका है.

अच्छा बस करो
बहुत बोल चुकी.

तुम्हें ही देखकर
प्रकृति ने
बिखेर दी
रंग-गंध की छटा,
तुम्हें ही पाकर
मानव में
जन्म हुआ
मनुष्यता का,
तुमसे ही उभरा
मैं-मेरा का बोल,
छुपने लगे सब
ले निज़ता की खोल.
तुम क्या हो...
सृष्टि की अद्भुत गीतिका हो
तुम मृग मरीचिका हो, तुम मृग मरीचिका हो.

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