रविवार, 15 फ़रवरी 2009

प्रशिक्षण

छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई से हार्बर लाईन द्वारा शाम के समय पनवेल की ओर जानेवाली लोकल ट्रेन के डिब्बे सामान्यतया मानखुर्द स्टेशन के बाद आसानी से सॉस लेने लगते हैं और इसी स्टेशन से ट्रेन में मौसमी फल, अगरबत्ती, रूमाल, दॉत मज़बूत करने के पावडर और ना जाने क्या-क्या चीजें बिकती रहती हैं। विभिन्न वस्तुओं को बेचने वालों के आने का सिलसिला शुरू हो जता है तथा इन बहुरंगी विक्रेताओं के संग विभिन्न शैली थथा मुद्रा में भिक्षा मांगनेवाले भी आते रहते हैं। इस प्रकार ट्रेन में आर्थिक और सामाजिक स्थितियों के बहुआयामी अऩुभवों के साथ यात्रा जारी रहती है। यात्री भी इसके अभ्यस्त रहते हैं इसलिए आवाज़ कर्कश हो या मीठी उसमें निर्लिप्त हुए बिना स्थितिप्रज्ञ शैली में यात्रा जारी रहती है। यह लोकल ट्रेन का स्वाभाविक दैनिक दृश्य है। इसमें कभी-कभी कुछ नयापन भी दिखलाई पड़ता है जैसे पिछले कुछ दिनों से कुछ बालिकाओं का 3-4 समूह बेसुरा हारमानियम की सहायता से हिंदी फिल्मों के गीतों को अपने सुर में ढालकर भिक्षा मांग रही हैं। यह समूह सामान्यतया दो बालिकाओं का है यदा-कदा तीन बालिकाएँ दिख जाती हैं। इनके हारमोनियम के सुर तथा इनके गीतों के सुर में दूर-दूर तक कोई तालमेल नज़र नहीं होता है फिर भी इन बालिकाओं का संगीत प्रेम यात्रियों के श्रवण क्षमता की परीक्षा ले रहा है। इस प्रकार सामान्य तौर पर उपयोग में लायी जानेवाली वस्तुओं के सस्ते दामों की हलचलों, नए-पुराने हिंदी फिल्मा गीतों के बेसुरे नए-नए तर्ज़ तथा भक्तिभाव में डूबे निर्धारित यात्री समूहों की भजन मंडली के संग यात्रियों की बातचीत, ठहाकों, झगड़ों आदि के बीच प्रतिदिन एक चुनौतीपूर्ण यात्रा पूरी होती है। यह सब नियमित, निर्विघ्न चलते रहता है, मुंबई की लोकल ट्रेन की भॉति।

एक दिन यात्रा के दौरान एक असामान्य और अपरिचित अनुभव से गुजरना पड़ा। ट्रेन के डिब्बे में एक बालिका का सिसकियों भरा रूदन सुनाई दे रहा था। उस रूलाई में भयपूर्ण दर्द छुपा हुआ था जिसमें कड़े से कड़े दिलवाले व्यक्ति को हला देने की क्षमता थी। उस रूलाई में छिपे दर्द के भाव मुझे भी पीछे मुड़कर देखने पर विवश कर दिया। पछे मुड़कर डिब्बे में दूर-दूर देखने पर भी मुझे कोई नज़र नहीं आया किंतु सिसकयॉ लगातार सुनाई पड़ रही थी। अचानक एक सात-आठ वर्षीय बालिका मेरे आगेवाली सीट पर आकर बैठ गयी तथा तथा पीछे की ओर बड़े गुस्से से देखने लगी। धूलधूसरित बाल, मैली-कुचैली जीर्ण फ्राक, धूल भरे चेहरेवाली बालिका के मनोभावों को मैं पढ़ने की कोशिश कर रहा था कि एकाएक नन्हीं अंगुलियों के स्पर्श से मैं चौंक पड़ा, देखा तो मेरे सामने एक पॉच-छह वर्षीय बालिका भय से कांपते हुए भिक्षा मांग रही थी। ऑसुओं की सूखी लकीरों ने उसके धूल भरे गालों पर एक स्पष्ट रेखा बना दिया था मानो वह उसके भाग्य की लकीरें हों। उसके चेहरे पर केवल भय था तथा बीच-बीच में वह बैठी हुई लड़की को भयभीत निगाहों से देख लिया करती थी। मैंने देखा कि मेरे सामनेवाली सीट पर बैठी हुई बालिका भिक्षा मांगती हुई बालिका को ईशारे से दिशानिर्देश दे रही थी। उसके दिशानिर्देशों पर ध्यान देने से पता चला कि वह अपनी ऑखों के ईशारे से भिक्षा मांगती बालिका को संकेत दे रही है कि किस यात्री के पास अधिक देर तक रूक कर भिक्षा मांगनी चाहिए, किस यात्री के समक्ष गिड़गिड़ाना चाहिए, कब डिब् की दूसरी ओर की पंक्ति की ओर जाना चाहिए आदि।

अधिकांश यात्री रोती हुई बालिका को पैसे देकर उसकी पीड़ा के सहभागी बन रहे थे। बैठी हुई बालिका लगातार भिक्षा मांगती हुई लड़की को धमका रही थी। काफी देर से रोती हुई बालिका की शक्ति क्षीण होती जा रही थी जिससे उसका रूदन का स्वर धीरे-धीरे कम होते जा रहा था जिससे सिसकियॉ यात्रियों को स्पष्ट सुनाई नहीं दे रही थी परिणामस्वरूप वह यात्रियों की दयापात्र नहीं बन पा रही थी। अचानक बैठी हुई लड़की उठी और अपने हॉथ की लुटिया से भिक्षा मांगती लड़की के सिर पर तेज़ गति से प्रहार कर यथास्थान बैठ गई और मार खाकर बालिका ऊँचे सुर में रोती-बिलखती हुई भिक्षा मांगने लगी। मार खाकर बालिका के भिक्षा मांगने में करूणा ज्यादा दिखने लगी। थोड़ी देर बाद बालिका बालिका की रूलाई में फिर थोड़ी कमी आई तो बैठी हुई लड़की भिक्षा मांगती बालिका पर झपट पड़ी और रोती हुई बालिका भयाक्रांत हो चीख पड़ी,एक यात्री ने रोती हुई बालिका का बचाव करते हुए दूसरी बालिका को बुरी तरह डॉटा तो अगले स्टेशन पर दोनों बालिकाएँ उतर गईं।

कुछ दिनों बाद फिर दोनों बालिकाएँ ट्रेन में मिलीं। इस बार बैठी हुई बालिका तनावरहित थी तथा उसके हॉथ में लुटिया भी नहीं थी। भिक्षा मांगनेवाली बालिका की रूदन में एक स्वाभाविक दर्द था तथा वह तेज़ गति से भिक्षा मांग रही थी थथा बीच-बीच में उड़ती हुई निगाहों से बैठी हुई बालिका को देख लेती थी। भिक्षा मांगनेवाली बालिका ने पूरे डिब्बे में हृदय दहलानेवाली लाचार, दर्दभरी आवाज़ के साथ भिक्षा मांगते हुए डिब्बे में चर्चा का विषय बन चुकी थी। अगले स्टेशन पर वह कब ऊतर गई पता ही नहीं चला। मुंबई महानगर के पल-प्रतिपल दौड़ती-भागती हादसों भरी ज़िंदगी में बालिका का रोता हुआ असहाय दर्दभरा चेहरा मुझे याद आते रहा। लगभग एक सप्ताह बाद फिर भिक्षा मांगनेवाली बालिका ट्रेन में मिली, धूल भरे कपोलों पर सूखे आंसुओं की पंक्ति थी, रूलाई में एक ऐसा दर्द था जो सहज ही यात्रियों के मन को प्रभावित कर रहा था। इस बार वह अकेली थी तथा उसके गले में एक छोटी थैली लटक रही थी।
धीरेन्द्र सिंह.

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