मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

हिंदी से हिंदी की प्रतिद्वंदिता.

गंगा की तरह कल-कल, छल-छल बहती हिंदी भाषा के भी अनेकों नयनाभिराम तट हैं, इतिहास को स्वंय में समेटे हुए पुष्पित, पल्लवित होते कई घाट हैं तथा असंख्य मेलों, पर्वों आदि के द्वारा हिंदी अपने प्रवाह को शीतलता, मधुरता और उर्वकता से सजाते-सँवारते अपनी लोकप्रियता का शंखनाद किए जा रही है, कारवाँ दिन प्रति दिन नई मंज़िलें प्राप्त करते हुए निखरते जा रहा है। हिंदी के साज-श्रृंगार में विश्व की सहभागिता और योगदान के निनाद से हिंदी अपनी क्षमताओं के नए आयाम की ओर बढ़ रही है तथा संभावनाओं के नए द्वार को खोल रही है जिसको हम हिंदी फिल्मों, गानों, साहित्य, मिडीय, राजभाषा कार्यान्वयन आदि के द्वारा बखूबी अनुभव कर रहे हैं। इस प्रकार हिंदी की क्षमता अपनी विशेष छवि को एक मुकम्मल रूप देते जा रही है जिसके तहत् यह भी आवाज़ उठने लगी है कि क्या हिंदी महज़ भावनाओं को ही अभिव्यक्ति करने की क्षमता रखती है अथवा इसके और भी कई पाट हैं ? यदि उत्तर यह दिया जाए कि और भी पाट हैं तो इसका एक दिव्य दर्शन भारत में तो अवश्य होना चाहिए। अटपटी लगी यह बात क्योंकि भारत में तो हिंदी सड़क से लेकर संसद तक है फिर यह दिव्य दर्शन की सोच क्यों ऊभर आई है ?

यह सोच निराधार नहीं है। हिंदी का दिव्य पाट कोई और नहीं बल्कि व्यावसायिकता में हिंदी का बढ़ता प्रयोग है, हिंदी को कामकाजी भाषा के रूप में एक व्यापक आधार देने की तलाश है जिसे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मंच की आतुरतापूर्वक तलाश है। भूमंडलीकरण के दौर में विभिन्न दफ्तरों में भी राजभाषा की एक ऐसी पकड़ होनी चाहिए जिससे राजभाषा के विभिन्न तेवरों को हिंदी के विभिन्न घाटों से बखूबी जोड़ा जा सके। गंगा और यमुना का मिलन ऐतिहासिक, धार्मिक और भावनात्मक रागात्मकता का संगम बन इलाहाबाद की एक विशेष छवि निर्मित करने में सहायक हुआ है। कुछ ऐसा ही हो जाए कि कामकाजी हिंदी का भी रूप-रंग-तरंग हिंदी की अन्य विधाओं की भाँति निखर जाए। नि:संदेह हिंदी भाषा के इस संगम के लिए विश्व हिंदी मंच से बेहतर और क्या हो सकता है ? मैं तो यह मान कर चल रहा हूँ कि हिंदी भाषा के संगम की परिकल्पना का शुभारम्भ न्यूयार्क (विश्व हिंदी सम्मेलन) से हो चुका है अतएव संगम शब्द आते ही इलाहाबाद के बाद मेरे मस्तिष्क में जो दूसरा नाम उभरेगा वह न्यूयार्क के सिवा और क्या हो सकता है ? जहाँ संभावना उत्पन्न होती है, मूर्त रूप लेती है वही जन्म स्थली होती है।

राजभाषा हिंदी आज स्वंय को हिंदी की विभिन्न विधाओं के बीच अकेला अनुभव कर रही है जैसे कि मेले में साथ छूट गया हो। आकलन किया जाए तो यह स्पष्ट होगा कि भाषा की सभी खूबियों से राजभाषा हिंदी परिपूर्ण है फिर भी एक दीप्ति का अभाव खटकता है, मानो मध्याह्न में गोधूली बेला का प्रकाश हो। राजभाषा को सरकारी कार्यालयों तक ही सिमटे रूप में देखा जाना इतिहास की बात हो चुकी है, वैश्वीकरण ने कार्यालय से लेकर बाज़ार तक हिंदी के व्यवहार को विस्तारित कर दिया है जिसमें अनवरत विस्तार होते जा रहा है। कार्यालयों में प्रयोजनमूलक हिंदी को जब राजभाषा हिंदी के रूप में अपनाया गया था तो किसी को क्या मालूम था कि हिंदी को ही हिंदी से प्रतियोगिता करनी पड़ेगी ? राजभाषा हिंदी का प्रयोग करते हुए विभिन्न कार्यालयों विशेषकर सरकारी कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों में अक्सर यह बात कही जाती है कि राजभाषा हिंदी को उतना ही सरल, सहज और सर्वमान्य बनाया जाए जितना कि बोलचाल की हिंदी है। इन कार्यालयों में कार्यरत राजभाषा विभाग लगातार स्पष्ट करता आ रहा है कि लिखित और मौखिक भाषा में फर्क होता है परन्तु सरलीकरण की मॉग बदस्तूर जारी है।

राजभाषा हिंदी के सरलीकरण की मॉग को भाषाशास्त्र के नियमों की दुहाई देकर सुलझाया नहीं जा सकता है बल्कि एक स्वाभाविक अभिलाषा को अभिव्यक्ति से रोके जाने का एक बौद्धिक प्रयास अवश्य कहा सकता है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कार्यालय कर्मियों की सहज सरलीकरण की मॉग को देखते हुए भाषाशास्त्र के नियमों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। बैंकिंग, बीमा, आयकर आदि क्षेत्रों के पारिभाषिक, तकनीकी आदि शब्दों के सरलीकरण की राह दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है या यूँ कहा जाए कि वर्तमान में संभावना ही नहीं है तो शायद यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी परिस्थितियों में राजभाषा हिंदी को हिंदी की अन्य विधाओं के साथ जुगलबंदी प्रयोग की आवश्यकता महसूस होती है जिससे कि वह अपने तेवर में आमूल-चूल परिवर्तन कर प्रयोक्ता की कसौटी पर अपना परीक्षण दे सके। यह एक बड़ा प्रयोग है जिसके लिए वृहद मंच, वृहद प्रयोग और वृहद समीक्षा की आवधिक तौर पर आवश्यकता है।

राजभाषा हिंदी की वर्तमान शब्दावलियों के दुरूह लगनेवाले शब्दों के सरलीकरण का भगीरथ प्रयास जारी है। यह हल्का-फुल्का मज़ाक नहीं है बल्कि इस प्रयास में गंभीरता अपने पूर्ण ओजस में है तथा इसके परिणाम भी दृष्टिगोचित हो रहे हैं। यह शब्द तकनीकी, पारिभाषिक, विधिक आदि हैं तथा इन्हीं शब्दों के प्रयोक्ता की तलाश जारी है। साहित्य के रचे-बसे शब्दों के संग कार्यालयीन हिंदी के शब्दों की जुगलबंदी जम नहीं पाई है या यूँ कहें कि बन नहीं पाई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हिंदी की तमाम इ-पत्रिकाएँ तथा ब्लॉग हैं जो साहित्य की क्यारियों को अनवरत सिंचित कर रहे हैं किन्तु कार्यालय से महाविद्यालयों तक प्रयुक्त किए जानेवाले इन नए शब्दों को शब्दकोशों की लक्ष्मण रेखा में बाँध दिया गया है। इसका दायित्व विभिन्न कार्यालयों में कार्यरत कर्मियों पर है।

हिंदी में विभिन्न भाषिक प्रयोग सफलतापूर्वक किए जा रहे हैं। बोलचाल, गीत-संगीत, साहित्य-संवाद आदि विधाओं ने हिंदी को जिस लोकप्रियता की ऊँचाई प्रदान किया है उसी लोकप्रियता की प्राप्ति हेतु राजभाषा संघर्षरत है। हिंदी से हिंदी की यह प्रतिद्वद्विता हिंदी को एक नए अंदाज़ में प्रस्तुत करने की तैयारियॉ कर रही है तथा बाज़ारवाद और भूमंडलीकरण इसके लिए एक सशक्त आधार निर्माण में कार्यरत है।

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