जय हो, जय हो, जय हो
प्रतिद्वंदी का पराजय हो
शब्द शिल्पी गढ़ता रहे
धुन धमाका आशय हो
स्वर हाशिए पर टिका, लगे
आवाज़ महज़ जलाशय हो
एक निनाद वर्चस्वता का
चतुर तैराक की जय हो
प्रश्न मुद्रा में श्रवण खंगालता
संगीत से संबंध है साधता
झूमने-थिरकने से मन रहा
सिर्फ पुरस्कार कहे जय हो
बोल ही हैं गीत खोल
स्वर संवेदना हर शब्द तोल
इनका न अलग देवालय हो
समवेत सुर की जय हो
धीरेन्द्र सिंह
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
जय हो
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कविता
हिंदी के आधुनिक रूप के विकास में कार्यरत जिसमें कार्यालय, विश्वविद्यालय, प्रौद्योगिकी में देवनागरी लिपि, ऑनलाइन हिंदी समूहों में प्रस्तुत हिंदी पोस्ट में विकास, हिंदी के साथ अंग्रेजी का पक्षधर, हिंदी की विभिन्न संस्थाओं द्वारा हिंदी विकास के प्रति विश्लेषण, हिंदी का एक प्रखर और निर्भीक वक्ता व रचनाकार।
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