मंगलवार, 10 अगस्त 2010

हिंदी विरूद्ध क्षेत्रीय भाषाएं


भारतीय भाषाओं की एक विचित्र स्थिति देखने को मिल रही है, हिंदी के विरूद्ध क्षेत्रीय भाषाएं खड़ी हो रही हैं। इस तथ्य को विभिन्न कार्यालयों के निमंत्रण की भाषा को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। राजभाषा नीति के मुताबिक इस प्रकार के निमंत्रण पत्र आदि त्रिभाषा में जारी होने चाहिए जिसका क्रम क्रमश: क्षेत्रीय भाषा, हिंदी तथा अंग्रेजी होना चाहिए। प्राय: त्रिभाषा रूप की अनदेखी कर केवल क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता है। इस पर न तो व्यापक चर्चा होती है और ना ही इस त्रुटि को सुधारने का कोई सार्थक प्रयास किया जाता है। यहॉ यह भी प्रश्न ऊभरता है कि राजभाषा निरीक्षण के विभिन्न चरण भी इस पर कोई कारगर कदम नहीं उठा रहे हैं। कभी स्थान की कमी, कभी अतिशीघ्रता की वजह से तो कभी अनजाने में निमंत्रण आदि में हिंदी का प्रयोग नहीं हो पाता है। कुछ समय तक यही चलता रहा तो इन निमंत्रण पत्रों में विशेषकर ग क्षेत्रों में हिंदी की उपयोगिता ना के बराबर होने लगेगी तथा भविष्य में इन निमंत्रण आदि को दिखलाकर यह भी कहा जा सकता है कि हिंदी का उपयोग तो पहले से नहीं हो रहा है अतएव बिना हिंदी के भी काम चल सकता है। ऐसा प्रश्न होगा तो क्या होगा जवाब ?

जवाब की जब कभी भी आवश्यकता होती है तब एक ही उत्तर तैयार रहता है और वह उत्तर है त्रिभाषा फार्मूला का पूरी तरह से अनुपालन। यह भी एक कटु सत्य है कि तथा क्षेत्रों में त्रिभाषा फार्मूला पर बल नहीं दिया जाता है बल्कि इसका अनुपालन ना कर पाने के विभिन्न कारणों का उल्लेख अवश्य किया जाता है। यद्यपि प्रशासनिक कार्यालयों में राजभाषा विभाग कार्यरत है तथापि विशेषकर निमंत्रण कार्डों पर भाषागत मुद्रण को व्यवस्थित नहीं किया जा रहा है। कुछ वर्ष पहले तक भारतीय भाषाओं ने अपने विकास की प्रक्रिया तेज कर दी थी जिसमें राजकीय कार्यों में अंग्रेजी के समकक्ष होने की कोशिश थी वह प्रक्रिया अब भी जारी है परन्तु इसमें हिन्दी को अनदेखा करने की झलक दिखलाई पड़ने लगी है जो समग्र रूप से भारतीय भाषाओं के लिए हितकारी नहीं है। यदि भारतीय भाषाएं एक-दूसरी भाषाओं का सार्वजनिक रूप से सम्मान नहीं करेंगी तो राष्ट्रीय स्तर पर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय भाषाओं को अपनी पहचान बनाए रखने में कठिनाई होगी। वैश्विक भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं का अपना एक विशेष महत्व है जिसे प्रत्येक राष्ट्र समझ रहा है।

भारतीय भाषाओं की इस स्थिति पर मार्च 2010 में भाषा शोध तथा प्रकाशन केन्द्र द्वारा आयोजित दो दिवसीय भारत भाषा संगम के उद्घाटन अवसर पर भारतीय भाषा केंद्रीय संस्थान के संस्थापक निदेशक तथा प्रतिष्ठित भाषाविद् श्री डी पी पट्टनायक ने कहा कि सभी भारतीय भाषाओं को खतरा है। उन्होंने कहा कि अब यह स्थिति निर्मित हो गई है कि अंग्रेजी शीर्ष पर है जबकि 35 भारतीय भाषाएं तलहटी पर हैं। भारतीय भाषाओं, बोलियों पर बोलते हुए प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्री शिव विश्वनाथन ने कहा कि " यह मृत भाषाओं का संगम नहीं है। हम यहॉ भाषाओं का उत्सव मनाने के लिए एकत्र हुए हैं।" उन्होंने कहा कि आधुनिक प्रजातंत्र अंग्रेजी पर निर्मित नहीं हो सकती है, वास्तविक प्रजातंत्र को बहुभाषी होना ही पड़ेगा। इस संगम में 320 भाषाओं के प्रतिनिधित्व उपस्थित थे। इस भाषा संगम में अंग्रेजी एक तरफ थी तथा भारतीय भाषाएं दूसरी और थीं। यहॉ हिन्दी पर ना तो कोई विशेष चर्चा हुई और ना ही इसे राजभाषा के रूप में विशेष दर्जा देकर जॉचा-परखा गया। यह संगम तो भाषाओं के अस्तित्व को लेकर चिंतित था। यही चिंता मुझे राजभाषा कार्यान्वयन में मिल रह् कुछ संकेतों को लेकर है। भविष्य में राजभाषा हिंदी के रूप को दृष्टिगत रखते हुए वर्तमान में राजभाषा कार्यान्वयन को गति और दिशा देनी होगी अन्यथा राजभाषा के साथ अन्याय होगा।

भाषा से विमुखता के कई कारण होते हैं किंतु यदि योजनाबद्ध तरीके से प्रयास किए जाएं तो भाषा की लोकप्रियता और उपयोगिता को प्राप्त किया जा सकता है अथवा उसे बरकरार रखा जा सकता है। विकास की गति ने भारतीय भाषाओं में एक नई सोच ला दी है जिससे वह अपनी विकास योजनाओं पर कार्यरत हैं साथ ही उनमें अपने अस्तित्व को लेकर भय भी है। इतिहासकार श्री ओ सी हॉंडा का कहना है कि भाषा मरती है अथवा जीवित रहती है महत्वपूर्ण नहीं है। भाषा का जन्म तथा मृत्यु तो सामाजिक प्रक्रिया है। भाषा से सामान्य व्यक्ति लाभान्वित होता है अथवा नहीं यह महत्वपूर्ण है। यह सोच कहीं न कहीं भाषा को बाजारवाद से जोड़ती है और यही व्यवहारिक सोच वर्तमान में भाषा की कसौटी बनी हुई है। यद्यपि भारतीय भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या लिखनेवालों की संख्या से अधिक है। भारतीय भाषाओं का यह ऊभरता अंतरद्वंद्व एक मानसिक भय का प्रतीक है। राजभाषा से न तो भारतीय भाषाओं की प्रतिद्वद्विता की जानी चाहिए और ना ही राजभाषा को किसी रूप में बाधक मानना चाहिए। राजभाषा का प्रयास सभी भारतीय भाषाओं से यथासंभव तालमेल बनाकर चलना है। राजभाषा तो इस दिशा में पहले से ही अग्रसर है। अनेकों कठिनाईयों के बावजूद हिंदी राजभाषा के रूप में विकसित होकर क्षेत्रीय भाषाओं से जुड़ रही है। राजभाषा के इस तालमेल के बावजूद भी राजभाषा को मुद्रण में अनदेखा करना राजभाषा विभागों, राजभाषा अधिकारियों और कर्मियों के लिए चुनौती है।





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