भारत देश में प्राय: यह कहा जाता है कि अंग्रेज़ी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है तथा इस भाषा के द्वारा विश्व के ज्ञान, सूचनाओं आदि की खिड़कियॉ खुलती हैं। इस सोच के विरोध में भारत देश में अनेकों बार स्वर उठते रहे हैं तथा इस कथन की सत्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे हैं किंतु ऐसे स्वरों को अनसुना किया जाता रहा है। इस प्रकार देश के जनमानस में यह प्रचारित किया जा चुका है कि और प्रचारित किया जा रहा है कि भारतीय भाषाओं की तुलना में अंग्रेज़ी भाषा प्रगति का एकमात्र रथ है जिसे अपनाने से तरक्की की गारंटी मिल जाती है। यद्यपि देश में अनेकों ज्वलंत उदाहरण हैं जिनके आधार पर यह बखूबी बतलाया जा सकता है कि प्रगति के लिए अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाएं भी हैं जिनसे तरक्की की जा रही है। अंग्रेज़ी भाषा के संग हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के द्वंद्व में राष्ट्र प्रगति करते जा रहा है फिर भी उपलब्धियों की बुलंदी तक पहुँचना बाकी है। किसी भी राष्ट्र और भाषा का प्रगति में कितना तालमेली योगदान होता है इसके विश्व में कई ज्वलंत उदाहरण हैं। लेकिन बात तो अंग्रेज़ी भाषा के कठिनाई की करनी है तो इतनी लंबी भूमिका क्यों ?
हॉ, इस लेख का प्रेरक दिनांक 16 अप्रैल, 2009 को अंग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स (मुंबई) के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक चौंकानेवाला समाचार है। समाचार के शीर्षक का यदि हिंदी अनुवाद किया जाए तो कुछ ऐसा होगा – शहर के एयरपोर्ट पर भाषा-संबंधी विलंब को गपशप ने सुलझाया। इस शीर्षक में भाषा संबंधी विलंब में एक चुम्बकीय आकर्षण था जिसके प्रभाव में मैं एक सांस में पूरा समाचार पढ़ गया। इस समाचार के पठन के बाद यह सोच उत्पन्न हुई कि भाषा का द्वंद्व ज़मीन से आसमान तक कैसे पहुँच गया ? हमारे देश की सोच में अंतर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेज़ी का दबदबा है फिर यह भाषा की आसमानी लड़ाई कैसी ? क्या सचमुच अंग्रेज़ी बौनी होती जा रही है ? क्या भूमंडलीकरण ने अन्य तथ्यों के संग-संग भाषा की सत्यता को भी प्रकट करना शुरू कर दिया है ? क्या अंग्रेज़ी भाषा के प्रति भारत की सामान्य सोच में परिवर्तन होगा ? क्या संकेत दे रहा है यह समाचार ?
दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स में यह दर्शाया गया है कि क़ज़ाकिस्तान, रूस तथा कोरिया आदि देश के पायलट को एयर ट्रैफिक कंट्रोल (एटीसी) से अंग्रेज़ी में प्राप्त अनुदेशों को समझने में असुविधा होती है। अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त अंग्रेज़ी बोलने के लहज़े से उनको काफी कठिनाई होती है। इस कठिनाई का हल निकालने के लिए यह निर्णय लिया गया कि एटीसी और इस प्रकार के विदेशी पायलटों के बीच गपशप हो जिससे पायलट अंग्रेज़ी के लहज़े को भी समझ सकें। समाचार में इसका भी उल्लेख है कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अनुसार मार्च, 2008 तक भारत में विदेशी पायलटों की संख्या 944 थी। इस क्षेत्र की चूँकि निर्धारित शब्दावली एवं सीमित वाक्य होते हैं जिससे एक अभ्यास के बाद इसे सीखा जा सकता है परन्तु सामान्य बातचीत में कठिनाई बरकरार रहेगी। भविष्य में अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अनेकों भाषाएं विश्व में अपना दबदबा बनाने का प्रयास करेंगी अतएव हिंदी को अब और व्यापक रूप में अपनाने की आवश्यकता है। अंग्रेज़ी भाषा की इस प्रकार की कठिनाई की तरह कहीं भविष्य हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए घोर संकट न पैदा कर दे।
हॉ, इस लेख का प्रेरक दिनांक 16 अप्रैल, 2009 को अंग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स (मुंबई) के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक चौंकानेवाला समाचार है। समाचार के शीर्षक का यदि हिंदी अनुवाद किया जाए तो कुछ ऐसा होगा – शहर के एयरपोर्ट पर भाषा-संबंधी विलंब को गपशप ने सुलझाया। इस शीर्षक में भाषा संबंधी विलंब में एक चुम्बकीय आकर्षण था जिसके प्रभाव में मैं एक सांस में पूरा समाचार पढ़ गया। इस समाचार के पठन के बाद यह सोच उत्पन्न हुई कि भाषा का द्वंद्व ज़मीन से आसमान तक कैसे पहुँच गया ? हमारे देश की सोच में अंतर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेज़ी का दबदबा है फिर यह भाषा की आसमानी लड़ाई कैसी ? क्या सचमुच अंग्रेज़ी बौनी होती जा रही है ? क्या भूमंडलीकरण ने अन्य तथ्यों के संग-संग भाषा की सत्यता को भी प्रकट करना शुरू कर दिया है ? क्या अंग्रेज़ी भाषा के प्रति भारत की सामान्य सोच में परिवर्तन होगा ? क्या संकेत दे रहा है यह समाचार ?
दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स में यह दर्शाया गया है कि क़ज़ाकिस्तान, रूस तथा कोरिया आदि देश के पायलट को एयर ट्रैफिक कंट्रोल (एटीसी) से अंग्रेज़ी में प्राप्त अनुदेशों को समझने में असुविधा होती है। अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त अंग्रेज़ी बोलने के लहज़े से उनको काफी कठिनाई होती है। इस कठिनाई का हल निकालने के लिए यह निर्णय लिया गया कि एटीसी और इस प्रकार के विदेशी पायलटों के बीच गपशप हो जिससे पायलट अंग्रेज़ी के लहज़े को भी समझ सकें। समाचार में इसका भी उल्लेख है कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अनुसार मार्च, 2008 तक भारत में विदेशी पायलटों की संख्या 944 थी। इस क्षेत्र की चूँकि निर्धारित शब्दावली एवं सीमित वाक्य होते हैं जिससे एक अभ्यास के बाद इसे सीखा जा सकता है परन्तु सामान्य बातचीत में कठिनाई बरकरार रहेगी। भविष्य में अंग्रेज़ी के अतिरिक्त अनेकों भाषाएं विश्व में अपना दबदबा बनाने का प्रयास करेंगी अतएव हिंदी को अब और व्यापक रूप में अपनाने की आवश्यकता है। अंग्रेज़ी भाषा की इस प्रकार की कठिनाई की तरह कहीं भविष्य हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए घोर संकट न पैदा कर दे।
धीरेन्द्र सिंह.
हम समर्थन करते हैं.
जवाब देंहटाएंधीरेंद्र जी, आपने अंग्रेजी के घटते महत्व का यह एक अच्छा उदाहरण दिया है। इससे भी महत्वपूर्ण उदाहरण यह है कि अब भारत में सर्वाधिक पढ़े जानेवाले दस अखबारों की सूची में प्रथम तीन स्थान हिंदी अखबारों की है।
जवाब देंहटाएंटीवी चैनलों में भी हिंदी चैनलों को कहीं पीछे छोड़ दिया है। विदेश चैनल भी अब हिंदी में डब होकर आ रहे हैं, जैसे डिस्कवरी, एनिमल प्लेनेट, कार्टून नेटवर्क, नेशनल जोग्राफिक आदि।
अमरीका आदि में स्कूलों में हिंदी पढ़ना अब संभव है।
हमारे देश में अंग्रेजी को तरजीह मिली हुई है, वह इसलिए क्योंकि आजादी के वक्त सत्ता अंग्रेजीदां लोगों के हाथों में गई और उन्होंने शासन और संस्थाओं पर अपना वर्चस्व बनाए रखा है। इनमें राजनीतिक पार्टियां भी शामिल हैं। दोनों ही राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेज भारी अंग्रेजी समर्थक हैं।
प्रखर आलोचक डा. रामविलास शर्मा ने हिंदी और अंग्रेजी के मसले पर गंभीर विचार किया है। भाषा के बारे में उनके विचार उनके अनेक पुस्तकों में आए हैं। इनमें से प्रमुख ये दो हैं - भारत की भाषा समस्या, और, भाषा और समाज। दोनों ही राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं। इन्हें जरूर पढ़ें।
इन पुस्तकों में डा. शर्मा ने विश्लेषण किया है कि हमारे देश में अंग्रेजी क्यों बनी हुई है और उसे कैसे हटाया जा सकता है।
डा. शर्मा का कहना है कि सबसे पहले केंद्र से अंग्रेजी हटानी होगी, तभी अंग्रेजी यहां से हटेगी।
उन्होंने अंग्रेजी हटाने के लिए सभी भारतीय भाषाओं के संयुक्त मोर्चे की रणनीति भी सुझाई है क्योंकि अंग्रेजी के कारण सभी भारतीय भाषाओं का नुकसान होता है।
उनकी एक अन्य महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि सभी हिंदी भाषी क्षेत्रों को एक करके एक अखंड हिंदी भाषी प्रदेश निर्मित करना चाहिए, जैसे तमिल, मलयालम, मराठी, बंगाली, गुजराती आदि अन्य भाषाओं के संबंध में किया गया है। डा. शर्मा कहते हैं कि गांधीजी ने भाषाई राज्यों की नीति देश के अन्य भागों में लागू किया गया, पर हिंदी प्रदेश में नहीं। इससे देश भी कमजोर हुआ है और हिंदी की शक्ति भी बिखर गई है। मायावती वगैरह नेता तो हिंदी प्रदेश को और भी छोटे टुकड़ों में बांट की बात कर रहे हैं।
डा. शर्मा में हिंदी, हिंदी साहित्य, हिंदी साहित्यकार, देश का इतिहास, राजनीति, दर्शनशास्त्र, ऋग्वेद आदि सैकड़ों विषयों पर सौ से ज्यादा महत्वपूर्ण ग्रंथ रचे हैं। उन्हें पड़ना और उन पर मनन करना हर हिंदी प्रेमी का कर्तव्य है। इससे उनका मनोबल ही नहीं बढ़ेगा, हिंदी का हित साधने के लिए व्यावहारिक मार्ग भी दिखाई देने लगेंगे।
यदि आप डा. शर्मा की कृतियों से पहले से ही परिचित न हों, तो उनकी पुस्तकों का अध्ययन तुरंत शुरू कर दें।
यदि परिचित हों, तो डा. शर्मा के विचारों से अधिकतम संख्या में हिंदी भाषियों को अवगत कराने का काम शुरू कर दें। इससे हिंदी जगत में एक वैचारिक आंदोलन चल पड़ेगा, जो अंग्रेजी हो हटा देगी और देश को उन्नति के मार्ग पर तेजी से बढ़ाएगी।
बालसुब्रमम्यम जी, आपके विचार वर्तमान समय के नब्ज़ को बखूबी बयॉ कर रहे हैं। काफी प्रेरक हैं आपके विचार। डॉ. रामविलास शर्मा जी की पुस्तकों को मैं केवल पढ़ता ही नहीं हूँ बल्कि कार्यशालाओं, संगोष्ठियों आदि में उनके विचारों को कोट भी करता हूँ। आपके सुझाव के अनुसार अब मैं डॉ. शर्मा जी के बारे में और अधिक बोलूँगा। काफी अच्छा लगा आपके विचारों को पढ़कर। कृपया ऐसे ही महत्वपूर्ण सुझाव देते ऱहिए। आज हिंदी को ऐसे ही तालमेल की ज़रूरत है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंभारत के अंग्रेजी अखबार प्राय: अंग्रेजी के महत्व को बताने वाला शरारतपूर्ण/कुटिल लेख लिखते रहते हैं। इन लेखों में अंग्रेजी का महत्व बताया जाता है उसमें यही बात तरह-तरह से कही जाती हैकि आज के युग में जो अंग्रेजी नहीं जानेगा वह पिछड़ जायेगा; उसे कोई नहीं पूछेगा ; आदि। ये मक्कार यह जानते हैं कि अंग्रेजी का यह महत्व 'बनावटी' (आर्टिफिसियल) है क्योंकि षडयन्त्र करके अघोषित रूप से अंग्रेजी को हर काम के लिये अनिवार्य बना दिया गया है।
जवाब देंहटाएंये कभी इस बात पर विचार ही नहीं करते कि भारत में क्या किया जाय कि अंग्रेजी के महत्व को शून्य किया जा सके। जो अंग्रेजी नहीं जानता किन्तु अन्यान्य विषयों में तेज है वह किसी भी हालत में पिछड़ने न पाये ; आदि।
अनुनाद जी, आपने दुखती रग पर अंगुली रख दिया है। अंग्रेज़ी अख़बार तो अपनी कहते रहते हैं पर हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी खुलकर हिंदी की तरफदारी नहीं करते हैं। जिस दिन हिंदी के सभी पक्षधर एकजुट होकर अपनी आवाज़ बुलंद (कोई विरोध नहीं) करना आरम्भ कर देंगें उस दिन से हिंदी अपनी ऊंचाई की ओर बढ़ने लगेगी। आपने सच कहा है कि हिंदी में विभिन्न प्रतिभाएं और क्षमताएं हैं जिनमें से अधिकांश अनजानी और अनसुनी है।
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