स्थूल रूप से आकलन किया जाए तो वर्तमान में हिंदी के कुल तीन प्रमुख रूप हैं जो कारोबारी हिन्दी, साहित्यिक हिंदी और आम बोलचाल की हिन्दी है। हिन्दी इतिहास के पन्नों को पलटने पर यह स्पष्ट होता है कि विगत में हिंदी कामकाज की भाषा नहीं बन सकी थी किन्तु हिंदी का साहित्यिक रूप अपनी बुलन्दी पर हमेशा रहा है। 90 के दशक से साहित्यिक हिंदी पर कारोबारी हिंदी का प्रभाव पड़ना आरम्भ हुआ जिसे सहजतापूर्वक देखा जा सकता है। यद्यपि कारोबारी हिंदी का स्वर्णिम काल 80 के दशक से ही आरम्भ हो चुका था। कारोबारी हिंदी की इस तूफानी विकास यात्रा में आधुनिक विपणन युग का प्रमुख योगदान है। अतएव अब यह आवश्यक हो गया है कि हिंदी के विकास में सामानान्तर चल रही कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी का अन्तर गंगा-यमुना की संगम की तरह रखा जाए।
इस मुद्दे को उठाने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वर्तमान में हिंदी पर चौतरफा भाषाई घुसपैठ जारी है जिसका स्वरूप विशेषकर महानगरों की आम बोलचाल की हिंदी में देखा जा सकता है। इस घुसपैठ को रोकना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है किंतु घुसपैठ के प्रभाव को कम किया जा सकता है। हिंदी भाषा का यह जॉच बिन्दु हिंदी लेखन से सीधे जुड़ा है। हिंदी में लिखनेवालों को अपनी-अपनी विधाओं के अस्तित्व को बनाए रखना है उसे बचाए रखना है। इसके लिए यह आवश्यक है कि यह स्पष्ट किया जाए कि कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी के अन्तर्गत क्या-क्या आता है। कारोबारी हिंदी के अंतर्गत वर्तमान में अंग्रेज़ी की अनुदित सामग्रियॉ अधिक हैं जो केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में उपलब्ध हैं, मीडिया द्वारा कारोबारी हिंदी में प्रयुक्त शब्दावलियॉ हैं, वित्तीय अख़बारों और पत्रिकाओं की भाषा आदि हैं। जबकि साहित्यिक हिंदी में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं के अतिरिक्त मीडिया, रंगमंच, संस्कृति आदि हैं।
कारोबारी हिंदी के विकास के लिए काफी अधिक अनुवाद कार्य हुआ है जबकि साहित्यिक हिंदी में भी अनुवाद अनवरत जारी है लेकिन दोनों के अनुवाद में व्यापक अंतर है। साहित्यिक हिंदी में अनुवाद करने के लिए शब्दों के लिए न तो अटकना पड़ता है और न भटकना पड़ता है। साहित्यिक हिंदी इतर साहित्य को बखूबी अभिव्यक्त कर देती है क्योंकि साहित्यिक हिंदी की परम्परा कारोबारी हिंदी से अत्यधिक पुरानी है और इसमें शब्दों के विपुल भंडार हैं। शब्दों का यह भंडार कारोबारी हिंदी के लिए पूरी तरह से उपयोगी नहीं है। कारोबारी हिंदी को कामकाज की प्रणाली के अनुसार न केवल हिंदी में नए शब्द तलाशने पड़ते हैं बल्कि वाक्य रचना भी साहित्यिक हिंदी से भिन्न रचनी पड़ती है। इस तलाश में एक तरफ नए-नए शब्दों का प्रादुर्भाव होता है तो दूसरी और हिंदी वाक्य रचना की नई शैली भी विकसित होती है। कारोबारी हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं से शब्द लिए जाते हैं तथा नए शब्द गढ़े भी जाते हैं जबकि साहित्यिक हिंदी में इस तरह के परिवर्तन बहुत कम होते हैं और यदि होते भी हैं तो साहित्यिक हिंदी उसे बखूबी खुद में समा लेती है जिसका सामान्यतया अनुभव नहीं हो पाता है।
विपणन के इस युग में प्रत्येक वस्तु का मूल्यांकन किया जा रहा है तथा उसकी कीमतें निर्धारित की जा रही हैं। संपूर्ण विश्व क्रेता और विक्रेता बना हुआ है, अभिव्यक्तियॉ भावनाओं से दूर होती जा रही हैं और व्यवहारिकता को समाज पनाह देने को विवश है। कारोबार आम जीवन शैली को प्रभावित करते जा रहा है और पभोक्तावाद की लहर से कोई भी अछूता नहीं है। जिंदगी को बाज़ारवाद जितनी गहराई से छू रहा है उतनी ही तेज़ी से अभिव्यक्तियॉ भी बदल रही हैं। प्रौद्योगिकी की भाषा अभी हिंदी पर आक्रमण नहीं की है किन्तु जैसे-जैसे हिंदी में प्रौद्योगिकी का प्रयोग बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे हिंदी के समक्ष एक और नई चुनौती उभरती जाएगी। हिंदी भाषा की परंपरागत शैली को बनाए रखने के लिए हिंदी लेखकों को विशेष ध्यान देना चाहिए। अनेकों अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं घुसपैठ की तैयारियॉ कर रही हैं। अगर हमें अपनी वस्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेचनी है तो अपनी भाषा को भी वहॉ ले जाना होगा। अगर भाषा जाएगी तो संस्कृति जाएगी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यदि हमारी संस्कृति अपना ली गई तो वहॉ के बाज़ार में हमारा प्रवेश आसानीपूर्वक हो सकेगा। इस प्रकार की कार्यनीतियॉ निकट भविष्य में भाषागत चुनौतियॉ खड़ी करेंगी जिसमें प्रौद्योगिकी की उल्लेखनीय भूमिका होगी।
धीरेन्द्र सिंह.
इस मुद्दे को उठाने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वर्तमान में हिंदी पर चौतरफा भाषाई घुसपैठ जारी है जिसका स्वरूप विशेषकर महानगरों की आम बोलचाल की हिंदी में देखा जा सकता है। इस घुसपैठ को रोकना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है किंतु घुसपैठ के प्रभाव को कम किया जा सकता है। हिंदी भाषा का यह जॉच बिन्दु हिंदी लेखन से सीधे जुड़ा है। हिंदी में लिखनेवालों को अपनी-अपनी विधाओं के अस्तित्व को बनाए रखना है उसे बचाए रखना है। इसके लिए यह आवश्यक है कि यह स्पष्ट किया जाए कि कारोबारी हिंदी और साहित्यिक हिंदी के अन्तर्गत क्या-क्या आता है। कारोबारी हिंदी के अंतर्गत वर्तमान में अंग्रेज़ी की अनुदित सामग्रियॉ अधिक हैं जो केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में उपलब्ध हैं, मीडिया द्वारा कारोबारी हिंदी में प्रयुक्त शब्दावलियॉ हैं, वित्तीय अख़बारों और पत्रिकाओं की भाषा आदि हैं। जबकि साहित्यिक हिंदी में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं के अतिरिक्त मीडिया, रंगमंच, संस्कृति आदि हैं।
कारोबारी हिंदी के विकास के लिए काफी अधिक अनुवाद कार्य हुआ है जबकि साहित्यिक हिंदी में भी अनुवाद अनवरत जारी है लेकिन दोनों के अनुवाद में व्यापक अंतर है। साहित्यिक हिंदी में अनुवाद करने के लिए शब्दों के लिए न तो अटकना पड़ता है और न भटकना पड़ता है। साहित्यिक हिंदी इतर साहित्य को बखूबी अभिव्यक्त कर देती है क्योंकि साहित्यिक हिंदी की परम्परा कारोबारी हिंदी से अत्यधिक पुरानी है और इसमें शब्दों के विपुल भंडार हैं। शब्दों का यह भंडार कारोबारी हिंदी के लिए पूरी तरह से उपयोगी नहीं है। कारोबारी हिंदी को कामकाज की प्रणाली के अनुसार न केवल हिंदी में नए शब्द तलाशने पड़ते हैं बल्कि वाक्य रचना भी साहित्यिक हिंदी से भिन्न रचनी पड़ती है। इस तलाश में एक तरफ नए-नए शब्दों का प्रादुर्भाव होता है तो दूसरी और हिंदी वाक्य रचना की नई शैली भी विकसित होती है। कारोबारी हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं से शब्द लिए जाते हैं तथा नए शब्द गढ़े भी जाते हैं जबकि साहित्यिक हिंदी में इस तरह के परिवर्तन बहुत कम होते हैं और यदि होते भी हैं तो साहित्यिक हिंदी उसे बखूबी खुद में समा लेती है जिसका सामान्यतया अनुभव नहीं हो पाता है।
विपणन के इस युग में प्रत्येक वस्तु का मूल्यांकन किया जा रहा है तथा उसकी कीमतें निर्धारित की जा रही हैं। संपूर्ण विश्व क्रेता और विक्रेता बना हुआ है, अभिव्यक्तियॉ भावनाओं से दूर होती जा रही हैं और व्यवहारिकता को समाज पनाह देने को विवश है। कारोबार आम जीवन शैली को प्रभावित करते जा रहा है और पभोक्तावाद की लहर से कोई भी अछूता नहीं है। जिंदगी को बाज़ारवाद जितनी गहराई से छू रहा है उतनी ही तेज़ी से अभिव्यक्तियॉ भी बदल रही हैं। प्रौद्योगिकी की भाषा अभी हिंदी पर आक्रमण नहीं की है किन्तु जैसे-जैसे हिंदी में प्रौद्योगिकी का प्रयोग बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे हिंदी के समक्ष एक और नई चुनौती उभरती जाएगी। हिंदी भाषा की परंपरागत शैली को बनाए रखने के लिए हिंदी लेखकों को विशेष ध्यान देना चाहिए। अनेकों अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं घुसपैठ की तैयारियॉ कर रही हैं। अगर हमें अपनी वस्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेचनी है तो अपनी भाषा को भी वहॉ ले जाना होगा। अगर भाषा जाएगी तो संस्कृति जाएगी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यदि हमारी संस्कृति अपना ली गई तो वहॉ के बाज़ार में हमारा प्रवेश आसानीपूर्वक हो सकेगा। इस प्रकार की कार्यनीतियॉ निकट भविष्य में भाषागत चुनौतियॉ खड़ी करेंगी जिसमें प्रौद्योगिकी की उल्लेखनीय भूमिका होगी।
धीरेन्द्र सिंह.
सुंदर समीक्षा. आभार.
जवाब देंहटाएंapka kehna bilkul sahi hai abhaar
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