दिनांक 18 अप्रैल, 2009 को समाचार की सुर्खियों में एक 11 वर्षीय बालिका शन्नो की मृत्यु की ख़बर के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा की भी चर्चा थी। समाचार में उल्लेख था कि अंग्रेज़ी का अल्फाबेट याद न करने पर शिक्षिका मंजू ने शन्नो को दंडित करते हुए उसके कंधे पर दो इंटें लटकाकर दो घंटे तक खड़ा किया था जिसके फलस्वरूप शन्नो की मृत्यु हो गयी। यह एक बेहद दुखद ख़बर थी। विभिन्न समाचार विश्लेषकों ने शन्नो की मृत्यु के लिए विद्यालय और शिक्षिका को ज़िम्मेदार ठहराने का प्रयास किया। दिनांक 19 अप्रैल 2009 को इस विषयक जॉच की खबर प्रकाशित हुई और इसके बाद इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। मैं बेसब्री से किसी और पहल, किसी और सोच की प्रतीक्षा करता रहा किंतु शन्नो का मामला विद्यालय के सख्त रवैया के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा।
शन्नो मुझे एक बालिका नहीं लग रही है और न ही शन्नो की मृत्यु केवल एक दुर्घटनाजनित मृत्यु ही लग रही है और न ही विद्यालय या शिक्षिका इस दुर्घटना के लिए केवल जिम्मेदार नज़र आ रहे हैं। शन्नो भारत की उन असंख्य बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों, पुरूष-महिलाओं की प्रतिनिधि है जो अपनी मातृभाषा और हिंदी को छोड़कर अंग्रेज़ी भाषा को अलादीन का चिराग मानकर अपनाने का अथक प्रयास करते रहते हैं। अपनी मातृभाषा या हिंदी में सोच, चिंतन करते हुए उसे अंग्रेज़ी में अनुदित करने का प्रयास करते रहते हैं और सटीक शब्दावली याद न आने पर ख़ुद पर खीझते हुए स्वंय को ज़ाहिल, गंवार कहने में भी नहीं हिचकिचाते। शिशु जब से तुतलाना आरम्भ करता है उसी समय से अंग्रेज़ी का अल्फाबेट जन्मघुट्टी की तरह पिलाने का प्रचलन हमारे देश की आम बात है। केवल अंग्रेज़ी बोलने भर से शिक्षित होने का प्रमाण माना जाना हमारे देश की परम्परा बन चुकी है। शन्नो इसी सोच की बलि चढ़ गई। “जैक एंड ज़िल, वेंट प द हिल” को यदि बच्चे परिवार, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच नहीं सुना पाते तब तक न तो वह बच्चा समझदार माना जाता है और न ही उसके अभिभावक आधुनिक ख़याल के माने जाते हैं।
ऐसी स्थिति में क्या करे विद्यालय और क्या सिखाए शिक्षक ? एक अंग्रेज़ी ही तो है जिसके लिए अभिभावक परेशान रहते हैं क्योंकि यदि अंग्रेज़ी नहीं आएगी तो इंग्लिश मिडीयम स्कूल में एडमिशन नहीं हो पाएगा और यदि बच्चा इंग्लिश मीडियम स्कूल में नहीं पढ़ता है तो फिर वह एक कमज़ोर विद्यार्थी माना जाता है। प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय का लक्ष्य अपने विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी सिखाना रहता है। यदि शन्नो के विद्यालय ने अंग्रेज़ी सिखाने के लिए सख्ती की तो उसका दायित्व केवल विद्यालय पर ही नहीं जाता है बल्कि हमारा समाज भी ज़िम्मेदार है। दंडित शन्नो को दंड से अधिक मानसिक भय भी रहा होगा। अल्फाबेट न सीख पाने का दुःख भी रहा होगा। आज न जाने कितने विद्यार्थी प्राथमिक विद्यालय में अल्फाबेट से जूझ रहे हैं और इस भाषा को सीखने के लिए मानसिक कष्टों से गुज़र रहे हैं। इस विषय पर यदि सर्वेक्षण या शोध किया जाए तो कई चौंकानेवाले तथ्यों के उजागर होने की संभावना है।
शन्नो केवल प्राथमिक विद्यालय स्तर पर ही नहीं पाई जाती है। शन्नो विद्यालयों, महाविद्यालयों, दफ्तरों तक में व्याप्त है। महाविद्यालयों में सामान्यतया यह अनुभव रहा है कि अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों की तुलना में गैर अंग्रेज़ी विद्यालियों में पढ़े विद्यार्थी कहीं बेहतर पाए जाते हैं परन्तु महाविद्यालय की इतर गतिविधियों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है। यह महाविद्यालय की विवशता है वहॉ कार्यरत मंजू शिक्षिकाओं की चुनौती है, महाविद्यालयों की छवि का प्रश्न है, साख का मामला है, विपणन की मांग है। शन्नो हर जगह परेशान हैं। मंजू हर जगह कार्यनिष्पादन के श्रेष्ठ प्रदर्शन के दबाव में है। अन्य भारतीय भाषाएं बिखरी हुई सी पड़ी हैं, ठीक उस नृत्य टोली की तरह जिसमें प्रमुख नर्तक का परिधान, स्थान, मुद्राएं समूह के अन्य नर्तकों से भिन्न और विशिष्ट होता है। अंग्रेज़ी को प्रमुख नर्तक बना दिया गया है तथा अन्य सभी भारतीय भाषाओं को उस टोली का सहायक नर्तक बनाकर प्रस्तुतियॉ की जा रही हैं और तालियॉ बजाई जा रही हैं। शन्नो को प्रमुख नर्तक की भूमिका में ढालने का प्रयास एक दुखद हादसा में बदल जाना पीड़ादायक हो जाएगा, ऐसा तो किसी ने सोचा ही नहीं था।
सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में कार्यरत राजभाषा अधिकारी या हिंदी अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन के लिए मंजू जैसी मानसिकता से ही गुज़र रहे हैं। यहॉ की शन्नो अर्थात कर्मचारी परिपक्व और उम्रदराज़ है फिर भी अंग्रेज़ी के अल्फाबेट को नहीं सीख पा रही है। यह और बात है कि यहॉ की शन्नो काफी चतुर और समझदार है इसलिए अल्फाबेट पूरी तरह याद न होने के बावजूद भी कभी तेज़ी से बोलकर या घसीटकर लिख कर अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर रही है। मंजू को सब पता है फिर भी वह कुछ नहीं कर सकती क्योंकि यह प्राथमिक विद्यालय नहीं है इसलिए खामोशी से देखे जा रही है। आख़िर काम तो चल रहा है न, बस यही तो चाहिए। आक़िर भाषा की उपयोगिता केवल काम ही तो चलाना है फिर भले ही अल्फाबेट आए या ना आए। मंजू अल्फाबेट को लेकर परेशान है और शन्नौ अल्फाबेट को लेकर परेशान है। अंग्रेज़ी चल रह है। शन्नो तुम्हारी मृत्यु इस देश के भाषिक सोच का परिणाम है। यह भाषा की बलिदानी है। प्रणाम शन्नो।
धीरेन्द्र सिंह.
शन्नो मुझे एक बालिका नहीं लग रही है और न ही शन्नो की मृत्यु केवल एक दुर्घटनाजनित मृत्यु ही लग रही है और न ही विद्यालय या शिक्षिका इस दुर्घटना के लिए केवल जिम्मेदार नज़र आ रहे हैं। शन्नो भारत की उन असंख्य बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों, पुरूष-महिलाओं की प्रतिनिधि है जो अपनी मातृभाषा और हिंदी को छोड़कर अंग्रेज़ी भाषा को अलादीन का चिराग मानकर अपनाने का अथक प्रयास करते रहते हैं। अपनी मातृभाषा या हिंदी में सोच, चिंतन करते हुए उसे अंग्रेज़ी में अनुदित करने का प्रयास करते रहते हैं और सटीक शब्दावली याद न आने पर ख़ुद पर खीझते हुए स्वंय को ज़ाहिल, गंवार कहने में भी नहीं हिचकिचाते। शिशु जब से तुतलाना आरम्भ करता है उसी समय से अंग्रेज़ी का अल्फाबेट जन्मघुट्टी की तरह पिलाने का प्रचलन हमारे देश की आम बात है। केवल अंग्रेज़ी बोलने भर से शिक्षित होने का प्रमाण माना जाना हमारे देश की परम्परा बन चुकी है। शन्नो इसी सोच की बलि चढ़ गई। “जैक एंड ज़िल, वेंट प द हिल” को यदि बच्चे परिवार, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच नहीं सुना पाते तब तक न तो वह बच्चा समझदार माना जाता है और न ही उसके अभिभावक आधुनिक ख़याल के माने जाते हैं।
ऐसी स्थिति में क्या करे विद्यालय और क्या सिखाए शिक्षक ? एक अंग्रेज़ी ही तो है जिसके लिए अभिभावक परेशान रहते हैं क्योंकि यदि अंग्रेज़ी नहीं आएगी तो इंग्लिश मिडीयम स्कूल में एडमिशन नहीं हो पाएगा और यदि बच्चा इंग्लिश मीडियम स्कूल में नहीं पढ़ता है तो फिर वह एक कमज़ोर विद्यार्थी माना जाता है। प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय का लक्ष्य अपने विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी सिखाना रहता है। यदि शन्नो के विद्यालय ने अंग्रेज़ी सिखाने के लिए सख्ती की तो उसका दायित्व केवल विद्यालय पर ही नहीं जाता है बल्कि हमारा समाज भी ज़िम्मेदार है। दंडित शन्नो को दंड से अधिक मानसिक भय भी रहा होगा। अल्फाबेट न सीख पाने का दुःख भी रहा होगा। आज न जाने कितने विद्यार्थी प्राथमिक विद्यालय में अल्फाबेट से जूझ रहे हैं और इस भाषा को सीखने के लिए मानसिक कष्टों से गुज़र रहे हैं। इस विषय पर यदि सर्वेक्षण या शोध किया जाए तो कई चौंकानेवाले तथ्यों के उजागर होने की संभावना है।
शन्नो केवल प्राथमिक विद्यालय स्तर पर ही नहीं पाई जाती है। शन्नो विद्यालयों, महाविद्यालयों, दफ्तरों तक में व्याप्त है। महाविद्यालयों में सामान्यतया यह अनुभव रहा है कि अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों की तुलना में गैर अंग्रेज़ी विद्यालियों में पढ़े विद्यार्थी कहीं बेहतर पाए जाते हैं परन्तु महाविद्यालय की इतर गतिविधियों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है। यह महाविद्यालय की विवशता है वहॉ कार्यरत मंजू शिक्षिकाओं की चुनौती है, महाविद्यालयों की छवि का प्रश्न है, साख का मामला है, विपणन की मांग है। शन्नो हर जगह परेशान हैं। मंजू हर जगह कार्यनिष्पादन के श्रेष्ठ प्रदर्शन के दबाव में है। अन्य भारतीय भाषाएं बिखरी हुई सी पड़ी हैं, ठीक उस नृत्य टोली की तरह जिसमें प्रमुख नर्तक का परिधान, स्थान, मुद्राएं समूह के अन्य नर्तकों से भिन्न और विशिष्ट होता है। अंग्रेज़ी को प्रमुख नर्तक बना दिया गया है तथा अन्य सभी भारतीय भाषाओं को उस टोली का सहायक नर्तक बनाकर प्रस्तुतियॉ की जा रही हैं और तालियॉ बजाई जा रही हैं। शन्नो को प्रमुख नर्तक की भूमिका में ढालने का प्रयास एक दुखद हादसा में बदल जाना पीड़ादायक हो जाएगा, ऐसा तो किसी ने सोचा ही नहीं था।
सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में कार्यरत राजभाषा अधिकारी या हिंदी अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन के लिए मंजू जैसी मानसिकता से ही गुज़र रहे हैं। यहॉ की शन्नो अर्थात कर्मचारी परिपक्व और उम्रदराज़ है फिर भी अंग्रेज़ी के अल्फाबेट को नहीं सीख पा रही है। यह और बात है कि यहॉ की शन्नो काफी चतुर और समझदार है इसलिए अल्फाबेट पूरी तरह याद न होने के बावजूद भी कभी तेज़ी से बोलकर या घसीटकर लिख कर अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर रही है। मंजू को सब पता है फिर भी वह कुछ नहीं कर सकती क्योंकि यह प्राथमिक विद्यालय नहीं है इसलिए खामोशी से देखे जा रही है। आख़िर काम तो चल रहा है न, बस यही तो चाहिए। आक़िर भाषा की उपयोगिता केवल काम ही तो चलाना है फिर भले ही अल्फाबेट आए या ना आए। मंजू अल्फाबेट को लेकर परेशान है और शन्नौ अल्फाबेट को लेकर परेशान है। अंग्रेज़ी चल रह है। शन्नो तुम्हारी मृत्यु इस देश के भाषिक सोच का परिणाम है। यह भाषा की बलिदानी है। प्रणाम शन्नो।
धीरेन्द्र सिंह.
आपकी बात से सहमत हूँ। अंगरेजी को एक विकल्प होना चाहिये, न कि एक मजबूरी।
जवाब देंहटाएंअंग्रेज की गुलामी समाप्त हुई ... पर अंग्रेजी की गुलामी चल ही रही है।
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