रविवार, 27 अक्तूबर 2024

भाषा रचता शब्द

भाषा रचता शब्द


भाषा शास्त्र में शब्द की महत्ता और एकल इयत्ता है। वैश्विक गांव में जब विभिन्न भाषा और संस्कृति एक-दूसरे के समीप आते जा रहे हैं तब ऐसी स्थिति में भाषा की पारंपरिक शब्दावली को बनाए रखना एक चुनौती है जिससे विशेषकर औपनिवेशिक देश गुजर रहे हैं। हिंदी भाषा भी इनमें से एक है।


भारत देश के एक बड़े प्रकाशन द्वारा अपने दैनिक में मीठा शब्द का प्रयोग रोमन भाषा में किया गया है।(कृपया संलग्नक देखें) क्या यह हिंदी भाषा के लिए एक उत्साहजनक स्थिति कही जाएगी? कुछ अति उत्साही लोग कहेंगे कि देखिए हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन गयी है और लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक ने हिंदी के मीठा शब्द को अपने परिशिष्ट के शीर्षक में MEETHA लिखकर प्रयोग किया है जो अंग्रेजी पर हिंदी के प्रभुत्व का परिचायक है। ऐसी बोली हिंदी के कुछ मंचों पर सुनने को मिलती है पर ऐसी धारणा रखनेवाले संलग्नक में यह भी देखते हैं कि :-


1. देवनागरी लिपि को खतरा :- हिंदी के शब्दों को रोमन लिपि में लिखने और उसके प्रयोग को बढ़ाने से देवनागरी लिपि के लोप होने का खतरा है। मोबाइल के रोमन की बोर्ड इस दिशा में पहले से सक्रिय हैं।


2. भारतीय संस्कृति पर आघात :- संलग्नक के शीर्षक में मीठा शब्द के आगे किसी भारतीय मिष्ठान का फोटो नहीं है बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनी का लोकप्रिय चॉकलेट है। यह भारतीय पर्व आयोजन की परम्परा में व्यावसायिक लाभ और परम्परा पथ भ्रमित करने का प्रयास नहीं है?


3. लंदन का दैनिक नहीं है :- संलग्नक के शीर्षक में meetha शब्द का प्रयोग लंदन के दैनिक में नहीं होगा और न ही इस प्रकार का परिशिष्ट, यह मात्र भारतीय पाठकों को रिझाने का प्रयास है। इस प्रकार का शब्द प्रयोग अंग्रेजी भाषा की जीत है। क्या लंदन या वाशिंगटन के दैनिक में शीर्षक हिंदी के किसी शब्द का प्रयोग किए हैं ? 


4. प्रायोजित परिशिष्ट :- यह भी हो सकता है कि दैनिक के इस परिशिष्ट को बहुराष्ट्रीय कंपनी ने प्रायोजित किया हो जो जानता है बिना स्थानीय भाषा के स्थानीय संस्कृति में किसी प्रकार भी पहुंचा नहीं जा सकता।


यह विषय विचारणीय भी है और चिंतनीय भी।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2024

10.49




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सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

बदलती हिंदी

यह कैसी हिंदी ? निम्नलिखित समाचार शीर्षक में लिपि देवनागरी है पर क्या इसे हिंदी भाषा कहा जा सकता है ? क्या भविष्य की हिंदी शब्दावली नए प्रकार की शब्दावली होगी ? क्या भविष्य में हजारों हिंदी शब्द लुप्त ही


जाएंगे? कृपया संलग्नक देखें और विचार करें कि क्या यथार्थ में हिंदी शब्दावली में अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ जारी है? कौन चाह रहा है शब्दावली बदलना? हिंदी पत्रकार?


धीरेन्द्र सिंह

22.10.2024

07.32




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"टेबल टॉप" - विपणन थाप

महाबलेश्वर प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित पहाड़ियों पर बसा पंचगनी और महाबलेश्वर प्रत्येक मौसम में यात्रियों को लुभाता है। यहां पर पंचगनी और महाबलेश्वर की प्राकृतिक छटाओं का वर्णन नहीं किया जाएगा। ज्ञातव्य है कि पंचगनी बोर्डिंग विद्यालय का एक श्रेष्ठ स्थल है। महाबलेश्वर में टेबल टॉप स्थल काफी लोकप्रिय स्थल है। चलिए टेबल टॉप पर चलते हैं।


महाबलेश्वर के पहाड़ के शीर्ष पर गोलाकार पर्वतीय हिस्से को टेबल टॉप के नाम से जाना जाता है। यहां पर वाहन रुकते ही कई लोग घेर लेते हैं जो प्रमुखतया घोड़े की एकल सवारी या घोड़ा गाड़ी से टेबल टॉप का भ्रमण कराने का आग्रह करते हैं। वाहन से बाहर निकलते ही घोड़े की लीद और गंध से परिसर भरा रहता है। यहां पर पहली बार जानेवाले व्यक्ति इन व्यक्तियों की बातों में उलझ जाते हैं। पार्किंग क्षेत्र के घोड़ा आग्रह से बचते हुए व्यक्ति जब आगे बढ़ता है तब वहां हाँथ में रसीद लिए व्यक्ति मिलता है और विस्तृत गोलाई को दिखाते हुए विभिन्न पॉइंट की विशेषता और महत्ता बतलाता है। वह यह भी मानसिक दबाव डालता है कि इतनी दूरी को पैदल तय कर पाना थका देता है और अधिक समय लेता है।


व्यक्ति उलझन में पड़ जाता है और जब टेबल टॉप की विस्तृत गोलाई पर दृष्टिपात करता है तो स्वयं को असमर्थ पाता है। एक घोड़ा गाड़ी रुपये 800 या 850 में उपलब्ध हो जाता है। यह पूछने पर की इतनी कम दूरी का इतना अधिक किराया क्यों तो उत्तर मिलता है एक घोड़ा गाड़ी का दिन में एक बार ही नंबर आता है। एक घोड़ा गाड़ी पर सामान्यतया 4 व्यक्ति ही बैठते हैं। यदि कोई व्यक्ति कहे कि दूसरे घोड़ा गाड़ी पर तो 6 लोग बैठे हैं तो उत्तर मिलता है कि व्यक्ति के वजन के अनुसार बैठाते हैं। यात्रियों को यह भी कहा जाता है कि आगे कीचड़ और फिसलन है इसलिए सावधानीवश इन गाड़ियों पर वजन का ध्यान रखा जाता है। भुगतान करने पर गाड़ी आ जाती है।


घोड़ा गाड़ी पर बैठने के बाद यात्रा साहसिक होती है। टेबल टॉप पट जगह-जगह हुए गड्ढे से जब गाड़ी गुजरती है तब यात्रियों को अपना संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी पकड़ को मजबूत करना होता है अन्यथा असन्तुलित होकर गाड़ी में गिरने का खतरा बना रहता है। पांडव चूल्हा और पांडव चरण निशान यथार्थ कम मनोरंजन ज्यादा लगते हैं। बॉलीवुड फिल्मों जैसे “तारे जमीन पर” आदि के शूटिंग स्थल को दिखलाया जाता है जिसे बगैर समझे हां कर देना यात्रियों की नियति है। न फ़िल्म का सेट न कलाकार न कैमरा आदि, मात्र स्थल दिखलाकर यात्रियों को काल्पनिक रूप से विभिन्न फिल्मों से जोड़ा जाता है। यहां अधिकतम पॉइंट हैं जिसे समझना कठिन है क्योंकि देखने के लिए मात्र वादी है। घोड़ा गाड़ी अधिकांश पॉइंट की चर्चा रुक कर करता है जबकि यात्री गाड़ी में बैठे रहते हैं। लगभग दस मिनट में इस तरफ के सारे पॉइंट पूरे हो जाते हैं किन्तु दो जगह जहां घोड़ा गाड़ी रुकती है वहां सायकिल पर आइसक्रीम का डब्बा लिए व्यक्ति रहते हैं। यात्रियों को देखते ही वहां के विभिन्न पॉइंट की जानकारी अच्छी हिंदी में देने लगते हैं। यद्यपि यह जानकारियां इन लोगों का सिद्ध मंत्र जैसा है इसलिए यात्रियों को अपनी भाषा से प्रभावित करते हैं। जानकारी विषयक सिद्ध सूचना मंत्र समाप्त होते ही दूसरा भाग आरम्भ होता है।


एक ही पॉइंट स्थल के दूसरे भाग में बिन बुलाए आइसक्रीम वाला अब यात्रियों को अपनी आइसक्रीम की विशेषता बतलाता है। उसके अनुसार आइसक्रीम पूरी तरह विभिन्न फूलों से बना है जैसे केवड़ा, गुलाब आदि। आइसक्रीम उवाच श्रद्धापूर्वक करता है और प्रसाद के रूप में चखने के लिए आइसक्रीम देता है। हथेली पर गिरा आइसक्रीम का लघु अंश बोलता है कि पुष्प स्वाद है। आईस्क्रीन वाले की लगभग दस मिनट की निःशुल्क जानकारी, ज्ञान और आइसक्रीम प्रसाद के बाद व्यक्ति 50 रुपये का छोटा स्कूप पुष्प निर्मित आइसक्रीम लेकर घोड़ा गाड़ी पर बैठ जाता है। आइसक्रीम चीनी से भरी हुई मिलती है जिसे मीठा दांत हिचकिचाते स्वीकार करता है तथा शेष उसे फेंक देते हैं।  आइसक्रीम वाले की विपणन क्षमता अपना प्रभाव छोड़ जाती है और यात्रियों को याद आता है कि उसने यह भी कहा था कि स्ट्राबेरी और मिर्च की आइसक्रीम सुबह ही समाप्त हो गयी अब शाम की आएगी।


टेबल टॉप का अंतिम पड़ाव गुफा है जहां घोड़ा गाड़ी यात्रियों को उतारकर यह दिशानिर्देश देती है कि सामने ही द्वार है जिससे बाहर निकला जा सकता है और यात्रियों से विदा ले घोड़ा गाड़ी नए यात्रियों की तलाश में लग जाती है।  गुफा में उतरने के लिए सीढियां हैं जिससे नीचे पहुंच गुफा प्रवेश का शुल्क देकर एक संकरी गुफा में प्रवेश किया जा सकता है जो मानव निर्मित है। संकरी गुफा छोटी है जिसमें लाइट व्यवस्था जानबूझकर उपलब्ध नहीं कराई गई है और लोग मोबाइल टॉर्च का प्रयोग कर रोमांचित होते हैं। भीतर शिल्पकार द्वारा निर्मित शंकर भगवान की मूर्ति है जिसे नमस्कार कर लोग लौट आते हैं।


गुफा से ऊपर आकर जब घोड़ा गाड़ी वाले द्वारा दिशानिर्देशित द्वार पर व्यक्ति पहुंचता है तो पाता है कि टेबल टॉप पर इससे पहले आ चुके लोग सीधे इसी द्वार से गुफा तक जाते हैं और वहां से प्रकृति का अवलोकन और गुफा यात्रा कर लौट आते हैं। इस विषय पर पूछने पर पता चला कि घोड़ा गाड़ी से जो दिखलाया जाता है वह सब नीचे घूमने पर स्वतः मिल जाता है। व्यक्ति शायद तब यह सोचता है कि क्या वह टेबल टॉप के विपणन थाप में फंस गया?


धीरेन्द्र सिंह

21.10.2024

17.09





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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

शब्द कठिन या शब्द अपरिचय

“आपकी कविता में जो शब्द है आज के युवाओं का इनसे परिचय भी नहीं होगा। जिन चीजों को उन्होंने वास्तविकता में देखा नहीं होगा, समझा नहीं होगा, सुना नहीं होगा वो कविता के रूप महसूस कैसे करेंगे?”


उक्त पंक्तियां मेरे द्वारा लिखित कविता “अनुगूंज” पर की गई है जिसकी रचना और पोस्ट की तिथि 15 अक्टूबर, 2024 है। क्यों उक्त पंक्तियां इतनी महत्वपूर्ण हो गयी हैं कि इनपर लिखने का प्रयास किया जा रहा है? कौन हैं जिया पुरस्वानी ? मुझे भी नहीं मालूम पर उन्होंने एक ज्वलंत समस्या को रखा है जिसमें “आज के युवाओं” के शाब्दिक ज्ञान की बात की गई है। उक्त पंक्तियों का मैंने निम्नलिखित उत्तर दिया :-

“एक जीवन होता है जो केवल अनुकरण करता है और जो परिवेश है उसके अनुसार ढलते जाता है, इस प्रकार के जीवन के लिए कुछ कहना, कुछ सुनना विशेष अर्थ नहीं रखता क्योंकि ऐसी जिंदगी जो मिल रहा है उससे खुश होती है। मेरी रचना भी परिवेश मुग्ध लोगों के लिए नहीं होती है और ऐसे लोग पूरा पढ़ते भी नहीं क्योंकि पढ़ नहीं पाते, कारण अनेक हो सकते हैं।

अब प्रश्न है कि फिर मैं लिखता क्यों हूँ ? मेरा लेखन हिंदी भाषा संचेतना के इर्द-गिर्द रहता है। मेरा लेखन शब्दावली में निहित अर्थ को और प्रखर तथा परिमार्जित करना होता है जो विभिन्न वाक्य प्रयोग से होता है। वर्तमान में हिंदी विज्ञान, अभियांत्रिकी, प्रौद्योगिकी आदि में हिंदी शब्दावली और उसके प्रयोग का जो अभाव है उसका एक प्रयोग है। मेरी रचनाएं भाषा शास्त्रियों और भाषा मनीषियों के चिंतन राह का एक सहयोगी पथिक है।

कुछ रचनाएं मात्र रचनाएं नहीं होतीं बल्कि एक दूरगामी लक्ष्य की धमक होती है और इस परिप्रेक्ष्य में आपकी सोच और चिंतन एक सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। धन्यवाद😊”

पुनः प्रश्न उभरा :-

“...जी, दूरगामी लक्ष्य में, भविष्य में, क्या आज के युवा सम्मिलित नहीं होंगे।
यदि होंगे तो भाषा का स्तर, थोड़ा बहुत उनकी समझ का तो होना चाहिए”

पुनः उत्तर देने का प्रयास :-

“...जी भाषा का रचयिता समाज होता है। प्रौद्योगिकी और अंग्रेजी भाषा को भारतीय युवा सीख रहे हैं अतएव विश्व में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। भाषा या भाषा की शब्दावली किसी के पास नहीं जाती, इन्हें समाज ही रचता है और समाज ही अभिव्यक्ति की बारीकियां इसमें समाहित करता है इस आधार पर विश्व क प्रत्येक भाषा की ओर व्यक्ति ही आते हैं। भाषा को समझना व्यक्ति का एक बौद्धिक और सामाजिक दायित्व है। हां यह कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति को अपने काम भर की भाषा आ जाती है तो वह व्यक्ति अपनी शाब्दिक दुनिया के अनुरूप ही शब्द सुनना चाहता है जो एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव है पर यथार्थ में भाषा या शब्द कहीं रुकती है ? नहीं, इनमें सतत विकास और विन्यास होते रहता है जो समय की मांग है😊”

मेरी रचनाओं को पढ़नेवाले अनेक लोग मेरे द्वारा चयनित शब्दावली से अपरिचित होने की बातें करते रहते हैं। अनेक लोगों को अनेक बार आश्वासन भी दिया हूँ कि सरल शब्दावली का प्रयोग करूंगा और करता भी हूँ पर क्या सभी विचार और भाव बोलचाल की शब्दावली में अभिव्यक्त किए जा सकते हैं ? उत्तर है नहीं।  यहां प्रश्न उठता है भाषा की वृहद भूमिका की और शब्दावली के अभिव्यक्ति क्षमता की। यहां पर एक पाठक वर्ग जो सहज और सामान्य शब्दावली का पक्षधर है इस वर्ग की मांग उचित है किंतु लेखन के व्यवहार्य के अनुकूल नहीं है। सामान्य शब्दावली के अतिरिक्त भी कई शब्दावली हैं जैसे विधि शब्दावली, प्रशासनिक शब्दावली, रेल शब्दावली, बीमा शब्दावली, बैंक शब्दावली, तकनीकी शब्दावली, प्रौद्योगिक शब्दावली, पारिभाषिक शब्दावली  आदि । इन शब्दावली के शब्दों का यदि प्रयोग न किया जाएगा तो हिंदी कैसे एक सक्षम और समर्थ भाषा बन सकती है ?”

हिंदी के शब्द क्रमशः मरते जा रहे हैं बोलियां भी समाप्त हो रही हैं ऐसे समय में न केवल हिंदी भाषा पर बल्कि भारतीय संस्कृति के एक भाग के प्रभावित होने का भी खतरा बना रहता है। शब्द यदि बचेंगे और सुगठित होते हुए जीवन के प्रत्येक भाग की अनुभूतियों और भावनाओं को सफलतापूर्वक अभिव्यक्त कर पाएंगे तो हिंदी ललित लेखन के अतिरिक्त भी अन्य विधाओं को बखूबी दर्शा पाएगी। शब्द कठिन होते हैं यह भाषा विषयक भ्रांति निकाल देनी चाहिए।

धीरेन्द्र सिंह
15.10.2024
16.55 



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सोमवार, 7 अक्तूबर 2024

हिंदी समूह - समग्र विकास (पहल-प्रश्रय-प्रभाव)

लिखित अभिव्यक्ति के लिए गठित और बने अनेक हिंदी समूह को संचालित, सुविकसित और सारगर्भित मूलतः एडमिन और मॉडरेटर बनाते हैं। जिनके द्वारा ही रचनाकार विकसित होते हैं और समूह को विकसित करते हैं। यहां यह मान लेना कि समूह का सदस्य रचनाकार दोयम दर्जे का होता है एक गलत सोच कही जाएगी, ऐसा कोई समूह मानता भी नहीं है। अभी भी कुछ हिंदी समूह हैं जहां एडमिन और मॉडरेटर सदस्य रचनाकार को आदर सहित अपने ही कतार में स्थान देते हैं। इस प्रकार के हिंदी समूह के एडमिन, मॉडरेटर अपने प्रयासों से  रचनाकार और रचनाओं की एक आकर्षक माला के रूप में आकर देते हैं जहां सबकी भूमिका उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण होती है। यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि इस विषय पर लिखने की क्या आवश्यकता है ? संबंधित समूह के एडमिन और मॉडरेटर सक्षम हैं समूह को सही दिशा और गति देने के लिए। यह सही सोच है पर क्या सभी हिंदी समूह अच्छे हिंदी समूह हैं? क्या हिंदी भाषा या हिंदी साहित्य के विकास को और तेज गति देने के लिए सभी हिंदी समूह में निरंतर विकास के लिए एक स्वस्थ समीक्षा जरूरी नहीं है ? हम समूह सदस्य यदि इस दिशा में नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा? समय-समय पर इस विषय पर  लिखा जाना हिंदी समूह समग्र विकास के लिए आवश्यक है।

एक हिंदी समूह है और उस समूह में हिंदी रचनाएं ही प्रकाशित होती हैं एक बार समूह में एक अंग्रेजी भाषा में लिखित रचना मिली। यह देखकर आश्चर्य हुआ। दूसरी सबसे उल्लेखनीय बात की संबंधित सदस्य का खाता क्षद्म था क्योंकि जो नाम लिखा था वह विचित्र था उदाहरण के लिए बरगद। उसके साथ ही अंग्रेजी में जो लिखा गया था वह तर्कपूर्ण नहीं था। इस विषय पर एक तीसरा व्यक्ति चर्चा में आकर कह रहा है कि इस समूह में अंग्रेजी भाषा में भी रचना स्वीकार होती हैं। इस विषयक स्पष्टता समूह के नियमावली में क्यों नहीं है, इस प्रश्न पर तीसरे व्यक्ति का उत्तर नहीं मिला।


यहां यह कह देना की समस्या जिस समूह की है वह समूह जाने सुर बेकार के विवाद वाली पोस्ट पर दूसरा समूह क्यों ध्यान दे या क्यों ध्यान दिया जाए। यह सोच क्या उस सोच जैसी नहीं होगी कि बगल के घर में क्या हो रहा है उससे क्या मस्तलब ? हिंदी के विकास के लिए किए जा रहे उल्लेखनीय प्रयास को अति श्रेष्ठ बनाने के लिए त्रुटियों का उल्लेख सकारात्मक भाव किया जाना आवश्यक है।


एक और हिंदी समूह है जिसमें एक उत्सव में  सहभागी “बैकलेस” परिधान की नारी का कहीं से उठाया हुआ फोटो है जिसपर नारी के संस्कार पर टिप्पणी की गयी है। पुरुष जब अपने "सिक्स" या "एट" पैक दिखाता है तो उसे शारीरिक सौष्ठव कह सराहा जाता है और यदि नारी ऐसा वस्त्र पहन लें तो तत्काल संस्कार उभर आता है। किसी भी परिधान का कोई कारण होता है जिसमें फैशन उद्योग की भी भूमिका होती है। ऐसे कार्य अनुभवी मॉडल करती हैं। इस मुद्दे को प्रस्तुत कर यह कहने का प्रयास किया जा रहा है कि पोस्ट करनेवाली की रचना मौलिक होनी चाहिए और रचना समर्थन में उवयुक्त फोटो होना चाहिए।


एक तीसरे समूह में एक अच्छे कवि ने किसी दूसरे कवि की रचना पोस्ट की जिसमें मूल कवि का नाम भी था। रचना पोस्ट करनेवाले सदस्य स्वयं अच्छी कविता लिखते हैं तथा दूसरे कवि की संलग्न रचना नारी गरिमा को ठेस पहुंचाती चतुराईपूर्वक लिखी गयी थी। चर्चा के बाद पोस्ट करनेवाले सदस्य सहमत हुए की उनकी रचनाएं अच्छी होती हैं। समूह का यह दायित्व भी होता है कि मौलिक लेखन को प्रोत्साहन दें।


नारी, नारी और नारी, यह सत्य है कि यत्र-तत्र-सर्वत्र नारी की अति महत्वपूर्ण भूमिका होती ही। नारी के अनेक सौंदर्य हैं या ऐसे भी कहा जा सकता है कि नारीत्व ही सौंदर्य है। क्या सौंदर्य का एकमात्र मानक नारी देह रह गया है जी कुछ हिंदी समूह में प्रमुखता से प्रदर्शित किया जा रहा है। निकट भविष्य में हिंदी का प्रमुख दायित्व हिंदी समूहों पर आनेवाला है और हिंदी समूहों का अपना भविष्य भी है अतएव समूह की महत्ता और गुणवत्ता पर निरंतर प्रयास की आवश्यकता है। इनपर गंभीरता से सोचना और सामयिक समीक्षा करना समय की मांग है।


धीरेन्द्र सिंह

08.10.2024

09.44




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शनिवार, 5 अक्तूबर 2024

हिंदी-अंग्रेजी-हिंदी

वर्तमान समय में हिंदी या केवल एक भारतीय भाषा सीखकर कुशल जीवनयापन या अति तार्किक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती है। विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन हो,हिंदी पत्रकारिता हो, विज्ञापन की दुनिया हो, उच्च शिक्षा के विभिन्न विषयों पर हिंदी में पुस्तकें तैयार करनी हो आदि, हर जगह बिना अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से हिंदी में कथ्य, भाव आदि अभिव्यक्ति में त्रुटियां होने की संभावना रहती है।


संलग्नक की दो भाषाओं में रिपोर्टिंग में हुई त्रुटि कितना बड़ा अर्थभेद उत्पन्न कर रही है। एक बड़े प्रकाशन समूह से प्रकाशित दिनांक 06 अक्टूबर 2024 के दोनों अंक हैं। अंग्रेजी दैनिक कहता है कि "87 वर्ष के मस्तिष्क मृत्यु के वरिष्ठतम व्यक्ति का अंगदान" जबकि हिंदी दैनिक का शीर्षक यह दर्शाता है कि जैसे  मुंबई के सबसे एमबी जिंदगी जीनेवाले व्यक्ति ने स्वेक्षा से अंगदान किया है। हिंदी दैनिक ने ब्रेन डेड  शब्द को शीर्षक से बाहर कर दिया जिससे यह भाव स्पष्ट हो रहा है कि मुंबई के सबसे अधिक दीर्घजीवी ने अंगदान किया। पत्रकारिता के स्वतंत्र, सरल, सहज और संक्षिप्त लेखन कौशल की विशिष्टता का अर्थ यह कदापि नहीं होता है कि भ्रामक शीर्षक दिया जाए। यद्यपि इस शीर्षक विषयक विस्तृत समाचार पढ़ने पर स्थिति स्पष्ट होती है किंतु क्या अंग्रेजी के पत्रकार की तरह हिंदी पत्रकार स्पष्ट शीर्षक नहीं लिख सकते थे ?


आए दिन हिंदी की विभिन्न विधाओं के लेखन में अर्थ फेर और सत्य लोप जैसे पाठ मिलते रहते हैं। यदि कोई पाठक मात्र शीर्षक पढ़कर आगे पढ़ने लगे तो एक अपूर्ण और भ्रामक सूचना का  वह संवाहक हो सकता है। वर्तमान में अनेक पाठक कई रिपोर्ट के शीर्षक मात्र पढ़कर आगे पढ़ने लगते हैं। यह एक उदाहरण है जो दर्शाता है कि हिंदी लेखन कुछ-कुछ छोड़ते, मोड़ते कार्यरत है जिससे हिंदी के विविध लेखन साहित्य में उपलब्ध जानकारी आदि एक पुष्टिकरण के लिए प्रेरित कर रही हैं। क्या वर्तमान समय कह रहा है कि अच्छी हिंदी के लिए क्या अंग्रेजी ज्ञान आवश्यक है?


धीरेन्द्र सिंह

06.10.2024

09.40




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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

हिंदी लेखन - भाववाद से भौतिकवाद

हिंदी कथा साहित्य के परिचारित विभिन्न हिंदी कथा साहित्य पुरस्कार प्रदाता पिछले दशक से जितने भी पुरस्कार दिए उसकी अनुगूंज एक बिजली सी कौंध दर्शा न जाने कहाँ शांत हैं। अब पहले की तरह न तो पुरस्कृत पुस्तकों पर पूरे देश के विश्वविद्यालय/ महाविद्यालय में चर्चा होती है और न ही राष्ट्र स्तरीय स्वीकार्य समीक्षक (यदि हों) की समीक्षा दृष्टव्य होती है। यह लिखने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वर्तमान में हिंदी कथा लेखन अनचीन्हा क्यों निकल जाता है ? क्या हिंदी कथा लेखन थक चुका है या लोकप्रियता से स्वयं को बचा रहा है। यह भी बात सुनाई पड़ती है कि पाश्चात्य लेखन की लोकप्रिय पुस्तकों के कथानक की झलकियां हाल-फिलहाल की पुरस्कृत हिंदी पुस्तकों में भी दिखलाई पड़ती हैं जिसपर बहस उठ सकती है।


मुंशी प्रेमचंद के समकक्ष रचनाकारों के बाद हिंदी में गद्य लेखन ऐसा नहीं हुआ जिसे रंगमंच लपक ले या हिंदी फिल्म निर्माता रुचि दिखाएं। हिंदी पुस्तकों को पठन क्रमशः कम होते जा रहा है पर पुस्तकों का प्रकाशन जारी है। क्या विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक चैनल की तरह हिंदी कथालेखन भी सत्य को जस का तस प्रस्तुत करने लगा है? अपने संवादों में स्वतः उठने वाली पाठक की वाह! ध्वनि अब गूंजती क्यों नहीं है? पुस्तक लिखना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि प्रति महीने कई पुस्तकें छप रही हैं और बिना अपनी धमक जताए सुप्त होती जा रही हैं।


संलग्नक की पंक्तियां यही गम्भीर स्थिति दर्शा रही हैं। अब हिंदी की पहले आ चुकी फिल्मों की कहानी में कुछ अंश जोड़कर नई हिंदी फिल्में बनाई जा रही हैं। दक्षिण भारत की फिल्में हिंदी फिल्म को खूब प्रभावित कर रही हैं। बड़ी बजट की हिंदी फिल्म पश्चिम की फ़िल्म के अनुरूप विशेष प्रभाव और कृतिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर रहे हैं। इस व्यस्तता में हिंदी का कथा जगत अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व को हिंदी रंगमंच और हिंदी फिल्मों से उदासीन क्यों रखे हुए है ?


धीरेन्द्र सिंह

04.10.2024

13.12



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