मंगलवार, 16 जुलाई 2024

साहित्य और एक चोर

चोरी समाज की एक असभ्य और आपराधिक क्रिया है। क्या सभी चोर आपराधिक भावना के होते हैं? साहित्यिक दृष्टि से नहीं किन्तु न्यायिक दृष्टि से प्रथम दृष्टया यह अपराध ही माना जाता है। एक घटना जुलाई 2024 के प्रथम सप्ताह में नवी मुंबई के पास नेरल में घटित हुई। नेरल प्राकृतिक दृष्टि से सम्पन्न स्थल है जहां भीड़ बहुत कम दिखती है। एक चोर कुछ दिनों से एक बैंड पड़े घर पर नजर गड़ाए हुए था और अवसर पाकर उसने उस बैंड घर का ताला तोड़कर प्रवेश किया और एलईडी टीवी संग कुछ अन्य वस्तुओं को चुरा ले गया। उस घर में चोरी के प्रथम कार्यनिष्पादन के दौरान चोर को यह अनुभव हुआ कि घर में चोरी की अच्छी संभावना है।


एक उत्सुक ऊर्जा, उत्साह और चोरी भावना में डूबा वह चोर दोबारा घर में प्रवेश कर गया और चोरी की क्रिया आरंभ की किन्तु अचानक एक फोटो और कुछ साहित्य देख चोर हतप्रभ जड़वत हो गया मानो काटो तो खून नहीं। यह क्या कर बैठा वह, चोर सोचने लगा और उसे भी नहीं पता कब उसके हाँथ जुड़कर उस फोटो को प्रणाम कर बैठा। मराठी के सुप्रसिद्ध दलित कवि नारायण सुर्वे का फोटो था तथा उनकी कुछ पुस्तकें थीं। अपराध भाव से द्रवित चोर कांपते मन से उस घर से खाली हाँथ बाहर निकल गया। उस चोर का मन उसे धिक्कार रहा था जैसे कह रहा हो छी यह क्या कर बैठे चोर। दलितों की साहित्यिक लड़ाई लड़नेवाले एक कर्मवीर और दूरदर्शी नायक के घर चोरी। दुख में कैसा खाना-पीना बस निढाल पड़ा अपने कुकर्म के लिए अपने को ही पश्चाताप की अग्नि में तपा रहा था।


उस चोर ने सोचा कि स्वयं को धिक्कारने से भला पश्चाताप पूर्ण हो सकता है। नहीं उसकी आत्मा नेकहा। फिर? चोर की बुद्धि ने प्रश्न किया। आत्मा चुप थी किन्तु विवेक ने कहा तत्काल टीवी सुर सनी वस्तुएं लौटा दे अन्यथा पश्चाताप की आग तुझे इतना तपाएगी कि तू झुलस जाएगा। अविलंब उस चोर ने उस घर से चोरी की गई सभी वस्तुओं को वापस उस घर में रख दिया। सामान बंद घर को लौटा जब चोर बाहर निकलने लगा तो उसे लगा कि कोई पीछे से उसका कॉलर पकड़ उसे खींच रहा है। रुक गए उसके कदम और स्वयं से प्रश्न कर बैठा, अब क्या? आत्मा ने कहा मैंने रोका है और तुम्हारे सामान लौटाने मात्र से बात नहीं बनेगी।


चोर सोच में पड़ गया कि इसके बाद अब क्या? विवेक ने कहा यह नारायण सुर्वे का घर है एक अद्वितीय सर्वहारा वर्ग का रचनाकार, शब्द से क्षमा प्रार्थना करो तब कहीं यह महान कवि तुम्हें क्षमा करेंगे। बुद्धि सक्रिय हुई और उस चोर ने मराठी में क्षमा याचना की और अंत में अंग्रेजी में “सॉरी” लिखकर घर के भीतरी दीवार पर चिपका दिया। उस चिपके कागज पर मराठी में  व्यक्त भावों का हिंदी अनुवाद निम्नलिखित है:-

मुझे मालूम नहीं था कि यह नारायण सुर्वे का घर है अन्यथा मैं चोरी नहीं करता। मुझे माफ़ कीजिए। मैंने आपका जो सामान लिया है उसे लौटा रहा हूँ। मैंने टीवी भी लिया था उसे वापस लाकर रख दिया हूँ, sorry


एक साहित्यकार का प्रभाव कितना गहन और व्यापक होता है। स्वर्गीय नारायण सुर्वे प्रख्यात दलित साहित्यकार थे और उनके फोटो तथा साहित्य से चोर द्रवित होकर पछताने लगता है। रचना कभी मरती नहीं। क्यों इस विषय पर लिखने का प्रयास किया गया जबकि समाचार यह सूचना दे ही रहा है। समाचार यह नहीं बोल रहा और न बोलेगा की साहित्यकार के अमर पहचान के अनेक उदाहरण विश्वविद्यालय और मंचों से प्रस्तुत किया जाता है। अब यह उदाहरण भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए कि स्वर्गीय नारायण सुर्वे के फोटो और साहित्य ने चोर का हृदय परिवर्तन कर दिया। यह एक विशिष्ट साहित्यिक घटना है।


धीरेन्द्र सिंह

17.07.2024

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भूतिया लेखन और हिंदी

भूत का अस्तित्व नहीं होता है, भूत का अस्तित्व होता है। बहुत अतृप्त आत्मा है, मृत्यु के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता। तर्क-वितर्क-कुतर्क और इनसे उपजा दर्शनशास्त्र। दर्शन व्यक्ति को अनछुए डगर का संकेत देता है। संकेत के इसी ऐतिहासिक इतिहास में यह शोध कर पाना कठिन है कि पहले “घोस्ट राइटिंग” अंग्रेजी में अस्तित्व में आया या हिंदी में भूतिया लेखन अपनी उपस्थिति दर्शा चुका था। लेखन में भूत कौन? वह अनजाना व्यक्ति जो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए पुस्तक आदि लिखता है और दूसरा व्यक्ति बिना लिखे लेखक बन जाता है और पुस्तक लिखनेवाला व्यक्ति अपना पारिश्रमिक लेकर गायब हो जाता है।


प्रतिभाओं की देश में कभी भी कमी नहीं रही है। यह अवश्य होता रहा है हिंदी विशेष के अधिकांश प्रतिभाओं के साथ जिनको वह अवसर नहीं मिल पाया जिसके आधार पर अपना जीविकोपार्जन कर पाते। भूतिया लेखन के उद्भव और विकास पर शोध विद्यार्थी कभी अपना काम करेंगे। यहां महत्व की बात यह है कि क्या वर्तमान में हिंदी भूतिया लेखन वर्ग सक्रिय है? कठिन प्रश्न है। यदि हां कहा जाए तो तत्काल प्रमाण की मांग उठेगी। भला भूत का कैसा प्रमाण?  सूचना, प्रत्यक्ष अनुभव तथा वर्तमान में पुस्तक के लेखक द्वारा पुस्तक पर न बोल पाना आदि कुछ ऐसे संकेत हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि भूतिया लेखन अभी भी सक्रिय है।


कौन है संरक्षक भूतिया लेखन का? संरक्षक? यह कैसा प्रश्न? क्या भूतिया लेखन असामाजिक उद्योग है ?  जी हां भूतिया लेखन के संरक्षक हैं। हिंदी के कुछ प्रकाशक तथा कुछ पीएचडी गाइड, कुछ गीतकार आदि भूतिया लेखन के संरक्षक हैं। बगैर विषय का ज्ञान होते हुए भी हिंदी माध्यम से डॉक्टर की डिग्री प्राप्त की जाती है। इस कार्य के लिए ऐसे गाइड की खोज करना श्रमसाध्य कार्य है। हिंदी के कुछ प्रकाशक भूतिया लेखन द्वारा पुस्तक प्रकाशन की व्यवस्था रखते हैं। खूबसूरत आवरण के अंतर्गत भूतिया लेखक अपने-अपने सरंक्षकों के अंतर्गत कार्यरत है। भूतिया लेखन कितने करोड़ का कारोबार है इसका आकलन व्यापक शोध से ही संभव है।


इस विषय पर लिखने की आवश्यकता क्यों निर्मित हुई यह स्वाभाविक प्रश्न भी उभरता है। आजकल अंग्रेजी में यह विज्ञापन चलन में है कि “घोस्ट रायटर” उपलब्ध हैं जो व्यावसायिक तौर पर कुशलता से भूतिया लेखन कर सकता है। अंग्रेजी अब खुलकर स्वीकार कर रही है कि भूतिया लेखन निर्धारित पारिश्रमिक पर उपलब्ध है। इस तरह यह भी संभव है कि कालांतर में कोई मंच उभरे और कहे कि भूतिया लेखन सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध है। हिंदी जगत के विभिन्न गलियारों के कालीन के नीचे सक्रिय भूतिया लेखक समूह यदि अपने लेखन का विज्ञापन आरंभ कर देगा तो कितनी बौद्धिक अनियमितता प्रसारित हो जाएगी। एक सोचनीय स्थिति निर्मित हो सकती है।


यदि यह संशय उभर रहा है कि अब तक भूतिया लेखन कहां-कहां अपना घुसपैठ कर चुका है तो कहा जा सकता है जहां हिंदी है वहां भूतिया लेखन का कोई न कोई प्रकार अवश्य प्रचलित होगा। एक सामान्य उदाहरण ऑनलाइन हिंदी समूहों का है। यहां बेहिचक एक दूसरे समूहों की पोस्ट और रचनाओं की चोरी होती रहती है। चोरी कर आंशिक बदलाव कर कोई दूसरा अपने नाम से उसी रचना को प्रकाशित करता है तो यह भी भूतिया लेखन का एक प्रकार है। कई रचनाकार अपनी रचना को रंगीन अक्षरों में टाइप कर उसका फोटो निकालकर समूह में पोस्ट करते हैं और आश्वस्त हो जाते हैं कि उनकी रचना न चोरी होगी और न कोई दूसरा अपने नाम से इस रचना को प्रकाशित करेगा। सोचिए।


धीरेन्द्र सिंह

16.07.2024

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शनिवार, 13 जुलाई 2024

शब्दकोश ऋतु आयी

हिंदी भाषा के विकास यात्रा में 1970 के दशक में शब्दकोश का चलन अत्यधिक था। इस दशक में भाषा के प्रति व्यक्ति की चेतना अत्यधिक सजग रहती थी। यह सजगता हिंदी के नए शब्दों को सीखने के लिए भी थी और अंग्रेजी शब्द के सटीक हिंदी शब्द से परिचय की अभिलाषा भी थी। शब्दकोश बाजार में न केवल सहजता से उपलब्ध होते थे बल्कि विक्रेता द्वारा प्रमुखता से प्रदर्शित भी किए जाते थे। फादर कामिल बुल्के, ऑक्सफ़ोर्ड आदि शब्दकोष प्रचलन में थे। भाषा जब भी स्वयं को तनिक भी असमंजस में पाती है तो समाधान के लिए शब्दकोश की ओर लपकती हैं। इस क्रम में शब्दकोश में भी विकास हुआ जैसे डॉ. हरदेव बाहरी का दो खंडों का शब्दकोष, हिंदी थिसारस आदि की उपलब्धता हिंदी शब्दावली को और सुदृढ़ता प्रदान की। भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग द्वारा सरकारी कामकाज की विभिन्न शब्दावली शब्दकोश भी उपलब्ध हैं।


वर्तमान में हिंदी विभिन्न शब्दकोश से सज्जित है किन्तु क्या शब्द सज्जा मात्र से भाषा सक्षम हो जाती है ? पिछले तीन दशकों से हिंदी भाषा में शब्दावली की दो धाराएं सक्रिय है जिसमें एक शब्दकोश सज्जित शब्दावली दूजी देश के विभिन्न भागों में प्रयोक्ताओं द्वारा हिंदी शब्दावली। नदी के दो पाट की तरह वर्तमान में हिंदी शब्दावली की स्थिति है। प्रचुर मात्रा में विभिन्न अभिव्यक्तियों की शब्दावली शब्दकोश में अपने प्रयोग के लिए प्रतीक्षारत हैं। सरकारी कार्यालयों में यदा-कदा इन शब्दावलियों का प्रयोग हो रहा है किंतु जनसाधारण द्वारा इन शब्दावलियों को अपनाया नहीं जा रहा है। वर्तमान में हिंदी के असंख्य शब्द जिनमें नवनिर्मित शब्द भी हैं अपने प्रयोग से वंचित हैं। जब तक लगभग अछूते इन शब्दों का जनसामान्य द्वारा प्रयोग और स्वीकारोक्ति नहीं होगी हिंदी फंसे गले की तरह अभिव्यक्त होती रहेगी।


भारत देश में अंग्रेजी मोह है या विवशता यह चर्चा का एक अलग विषय है किंतु बेहिचक अंग्रेजी शब्दों की उपयोगिता और नव निर्मित शब्दों की स्वीकार्यता अबाधित जारी है। हिंदी शब्दावली से सौतेला व्यवहार क्यों? इस प्रश्न पर विचार और चिंतन हिंदी से सीधे जुड़े भाषा ज्ञानियों का सोच विषय है। हिंदी भाषा के प्रति क्या असावधानीपूर्वक व्यवहार किया जा रहा है? हिंदी के सटीक अर्थ अभिव्यक्त करनेवाले सरल और सहज शब्द के स्थान पर अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किस परिणाम की ओर इंगित कर रहा है, सोचनीय विषय है। सर्वविदित है कि भाषा वही जीवंत होती है जो इतर भाषा के शब्दावली को सहजता से ग्रहण कर ले किन्तु क्या एक लोकप्रिय शब्द को पार्श्व में रखकर दूसरी भाषा के शब्द को स्थापित करना न्यायपूर्ण भाषिक चेतना है?


न्याय शब्द का उल्लेख करते समय उभरा कि जुलाई 2024 के द्वितीय सप्ताह में भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाय चंद्रचूड ने कहा है कि विधिक पेशा या वृत्ति तथा साथ ही साथ विधिक शिक्षा भी उसी भाषा में होनी चाहिए जिस भाषा को एक सामान्य व्यक्ति समझ सके। इस विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि विधि के विद्यार्थी से कोई ग्रामीण विधिक सलाह लेने आए और विधि विद्यार्थी “खसरा” और “खतौनी” शब्द को न समझ पाए तो वह ग्रामीण की सहायता कैसे कर सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि विधिक प्रक्रियाओं को सहजतापूर्वक समझने के लिए उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1950 से लेकर 2024 तक के कुल 37,500 महत्वपूर्ण निर्णयों का अनुवाद किया है। कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है इस तथ्य को दर्शाते हुए चंद्रचूड ने राजकीय भाषा में न्यायप्रणाली को कार्य करने का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया है।


यदि केंद्रीय कार्यालयों, राष्ट्रीयकृत बैंकों, बीमा कंपनियों और उपक्रमों के कार्यालय में हिंदी विषयक संबंधित कार्यालय साहित्य का अवलोकन किया जाए तो असंख्य अनुदित साहित्य उपलब्ध है। इनमें से कई अनुवाद को नई और सटीक शब्दावलियों से संशोधित करना होगा क्योंकि सत्तर और अस्सी के दशक में हुए अनुवाद को वर्तमान तक अनेक परिवर्तनों को भी समाहित कर अद्यतन होना है। उल्लेखनीय है कि शायद ही पचास प्रतिशत इन हिंदी साहित्य का उपयोग हो पाता हो। भारत सरकार की राजभाषा कार्यान्वयन नीति वर्तमान में लड़खड़ा गयी है। इस लड़खड़ाहट में इन कार्यालयों में हिंदी शब्दकोश भी शांत और निष्क्रिय नजर आ रहे हैं। ऑनलाइन हिंदी शब्दकोश और हिंदी अनुवाद कुछ हद तक सहायक जरूर है किन्तु स्थायी समाधान नहीं है क्योंकि इस दिशा में बहुत कार्य शेष है।


भारत की नई शिक्षा नीति तथा उच्च शिक्षा हिंदी माध्यम से देने की पहल और गतिशीलता के लिए हिंदी में लिखित पुस्तकों आदि की अत्यधिक आवश्यकता है। उपरोक्त को दृष्टिगत रखते हुए यह स्पष्ट है कि हिंदी शब्दकोश की उपयोगिता अत्यधिक बढ़ेगी और हिंदी भाषा को प्रचुर संख्या में नया शब्द भी मिलेगा।


धीरेन्द्र सिंह

14.07.2024

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हिंदी हकला रही है

हिंदी लेखन में धमाका करने की एक अदृश्य परंपरा रही है जिसमें रचनाकार को निरंतर एक भव्य और विशिष्ट रूप देने का प्रयास किया जाता है। इस प्रणाली में सोशल मीडिया में प्रौद्योगिकी ने अच्छी खासी भूमिका निभाई है जिसमें रचना के नीचे रचनाकार का बसा फोटो संलग्न रहता है। इस प्रकार की रचनाकार संलग्न रचना चीख-चीख कर यह कहती है कि रचना गौण और रचनाकार का फोटो प्रमुख। हिंदी के बिखरते रचना संसार की यही बानगी है। सोशल मीडिया के हिंदी के विभिन्न समूह रचनाकार के फोटो संलग्न रचना को सम्मान दे रहे हैं। संभवतः दो या तीन हिंदी समूह होंगे जो केवल रचना ही स्वीकार करते हैं।


हिंदी की हकलाहट एक निजी व्यापक अवलोकन के पश्चात जनित विचार है। हिंदी पत्रकारिता में हिंदी की स्वाभाविक चाल क्रमशः असंतुलित हो रही है। इस दिशा में हिंदी समाचार चैनल भी अपना सहयोग दे रहे हैं। हिंदी पत्रकारिता में वर्तमान पत्रकारों में से अधिकांश युवा हिंदी पत्रकार निःसंकोच अंग्रेजी के शब्दों को दैनिक तथा समाचार चैनल में प्रवाहित कर रहे हैं। यह सब पढ़, देख कर प्रतीत होता है कि हिंदी के नए पत्रकार मात्र हिंदी शब्दावली का प्रयोग कर अपनी बात सहजता से प्रस्तुत नहीं कर सकते।


वर्तमान हिंदी साहित्य तो अजीब चाल चल रहा है। हिंदी प्रकाशकों का मुद्रण अबाधित गति से कुछ पुस्तकें स्वतः प्रकाशित कर रहे हैं तो अधिकांश रचनाकार से मुद्रण शुल्क लेकर पुस्तकें मुद्रित कर रहे हैं। यदि किसी सामान्य हिंदी प्रेमी से हिंदी साहित्य की अच्छी पुस्तक का नाम पूछा जाए तो अस्सी के दशक के बाद की शायद ही किसी साहित्यिक पुस्तक का नाम ले। पुस्तकें प्रतिमाह प्रकाशित हो रही हैं किंतु इनके अस्तित्व की जानकारी ही नहीं है। किस मानसिकता से हिंदी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं वह मानसिकता भी बहुअर्थी हैं।


हिंदी पत्रिकाएं भी अपनी-अपनी धुन पर गा रही हैं जिसे वही सुनते हैं जिनकी रचना प्रकाशित हुई होती है। पूरे भारत में एक भी हिंदी पत्रिका ऐसी नहीं है जिसके गुणवत्ता की गूंज हो। आकर्षक मुखपृष्ठ अच्छी रचना का न तो प्रतीक हैं और न ही निर्धारित रचनाकारों की रचनाएं प्रकाशित करना श्रेष्ठता का दृष्टांत। हिंदी पत्रिका की अनुगूंज तथा उसके आगामी अंक की ललक पत्रिका के श्रेष्ठता का मानक है।


ऑनलाइन विभिन्न हिंदी समूहों पर हिंदी अपने भद्दे और बिखरे रूप में मिलती हैं। यहां पर सदस्यता संख्या की होड़ मची है। मॉडरेटर और एडमिन में बहुत कम को हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य का ज्ञान है। यहां पर हिंदी के मानक स्वरूप पर प्रहार हो रहा है।


उक्त अति संक्षिप्त अभिव्यक्तियों का उद्देश्य यह दर्शाना है कि हिंदी प्रेमी हिंदी का चाहे कितना भी ढोल पीटें हिंदी वर्तमान में अपनी स्वाभाविकता और मौलिक रूप से खिसकती प्रतीत हो रही है। क्या इसे हकलाती हिंदी नहीं कहा जा सकता है?


धीरेन्द्र सिंह

11.07.2024

19.53

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लटकती संभावनाएं

युक्तियों की अलगनी पर लटकती संभावनाएं प्रौद्योगिकी का उपहार है। यह एक ऐसा उपहार है जो मानवीय कल्पनाओं से इतर है। अत्यधिक कम समयावधि में प्रौद्योगिकी के इस उपहार में नव परिवर्तन और नव विकास उपलब्ध होते रहते हैं। प्रौद्योगिकी ने भाषाओं की दीवार को अत्यधिक कुशलतापूर्वक और सहजता से ढहा दिया है। अब विश्व में कहीं पर भी हिंदी में स्वयं को अभिव्यक्त किया जा सकता है बशर्ते अनुवादक उपकरण की उपलब्धता सामने वाले के पास भी हो। मोबाइल भी भारतीय भाषाओं का लक्ष्य भाषा में अनुवाद कर रहा है। अनुवाद की इस सुविधा से किसी भी भारतीय भाषा के सॉफ्ट प्रति का अनुवाद कर इतर साहित्य को भी हिंदी में पढ़ा जा सकता है।


प्रौद्योगिकी ने हिंदी भाषा के विकास और विन्यास के लिए अनेक द्वार खोल दिये हैं जिनमें निरंतर वृद्धि होती जा रही है। हिंदी जगत के युवा कल्पनाशील रचनाकार अपनी विभिन्न प्रस्तुतियों को प्रौद्योगिकी के माध्यम से प्रस्तुत करते जा रहे हैं। हिंदी का एक वर्ग अभी भी प्रौद्योगिकी से दूर है और यह वर्ग अधिकांशतः उम्र में अति वरिष्ठ हिंदी रचनाकार का है। अपनी योग्यता को अपनी कल्पनाओं के अनुरूप प्रस्तुत करने की अनंत संभावनाएं और क्षमता प्रौद्योगिकी की ही देन है। कुछ अति दंभी हिन्दीवाले अभी भी प्रौद्योगिकी के छोटे-नए अखाड़े में अपनी उपस्थिति दर्शाने में हिचक रहे हैं। इन जैसे तथाकथित हिंदी विद्वानों को मंच और मंच की झूठी प्रशंसा की आदत पड़ चुकी है इसलिए मंच के सिवा अन्यत्र स्वयं को उपस्थित करने का इनमें न तो आत्मविश्वास है और न ही प्रतिभा। 


फलों के बागान में लटकते फलों को देखकर यह निर्धारित करना कठिन हो जाता है कि किस फल को तोड़कर व्यक्ति ग्रहण करे। यही स्थिति हिंदी की है। प्रौद्योगिकी की अलगनी पर हिंदी सृजित नव संभावनाएं लटक रही हैं। व्यक्ति की प्रतिभा जिस संभावना को अपने अनुरूप और अनुकूल पाए ग्रहण कर सकता है। प्रतिदिन नई प्रस्तुतियां और अभिव्यक्तियां हिंदी को प्रौद्योगिकीमुखी बना रही हैं। हिंदी की प्रकाशित पुस्तकें भी अपनी सॉफ्ट प्रति तैयार कर प्रौद्योगिकी शरणागत हो रही हैं। अब यह चाहिए कि प्रौद्योगिकी में हिंदी के विभिन्न स्थलों पर प्रस्तुत के कथ्य, तथ्य और स्वास्थ्य का विश्लेषण किया जाए और निगरानी रखी जाए। भविष्य प्रौद्योगिकी में समाहित हिंदी का ही है।


यह भी उल्लेखनीय है कि एक सर्जनशील मन को सर्जना की असीम संभावनाएं प्रदान करनेवाला प्रौद्योगिकी लोकप्रियता और प्रसिद्धि भी प्रदान करता है। इस माध्यम से धनार्जन की भी प्रचुर राह हैं। मंच, मुद्रण और स्वमुग्ध वाली स्थितियां हिंदी जगत की पुरानी परंपराएं हो गयी हैं। प्रौद्योगिकी में हिंदी सरिता का प्रवाह अत्यंत सुखद है।


धीरेन्द्र सिंह

11.07.2024

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