शनिवार, 13 जुलाई 2024

हिंदी हकला रही है

हिंदी लेखन में धमाका करने की एक अदृश्य परंपरा रही है जिसमें रचनाकार को निरंतर एक भव्य और विशिष्ट रूप देने का प्रयास किया जाता है। इस प्रणाली में सोशल मीडिया में प्रौद्योगिकी ने अच्छी खासी भूमिका निभाई है जिसमें रचना के नीचे रचनाकार का बसा फोटो संलग्न रहता है। इस प्रकार की रचनाकार संलग्न रचना चीख-चीख कर यह कहती है कि रचना गौण और रचनाकार का फोटो प्रमुख। हिंदी के बिखरते रचना संसार की यही बानगी है। सोशल मीडिया के हिंदी के विभिन्न समूह रचनाकार के फोटो संलग्न रचना को सम्मान दे रहे हैं। संभवतः दो या तीन हिंदी समूह होंगे जो केवल रचना ही स्वीकार करते हैं।


हिंदी की हकलाहट एक निजी व्यापक अवलोकन के पश्चात जनित विचार है। हिंदी पत्रकारिता में हिंदी की स्वाभाविक चाल क्रमशः असंतुलित हो रही है। इस दिशा में हिंदी समाचार चैनल भी अपना सहयोग दे रहे हैं। हिंदी पत्रकारिता में वर्तमान पत्रकारों में से अधिकांश युवा हिंदी पत्रकार निःसंकोच अंग्रेजी के शब्दों को दैनिक तथा समाचार चैनल में प्रवाहित कर रहे हैं। यह सब पढ़, देख कर प्रतीत होता है कि हिंदी के नए पत्रकार मात्र हिंदी शब्दावली का प्रयोग कर अपनी बात सहजता से प्रस्तुत नहीं कर सकते।


वर्तमान हिंदी साहित्य तो अजीब चाल चल रहा है। हिंदी प्रकाशकों का मुद्रण अबाधित गति से कुछ पुस्तकें स्वतः प्रकाशित कर रहे हैं तो अधिकांश रचनाकार से मुद्रण शुल्क लेकर पुस्तकें मुद्रित कर रहे हैं। यदि किसी सामान्य हिंदी प्रेमी से हिंदी साहित्य की अच्छी पुस्तक का नाम पूछा जाए तो अस्सी के दशक के बाद की शायद ही किसी साहित्यिक पुस्तक का नाम ले। पुस्तकें प्रतिमाह प्रकाशित हो रही हैं किंतु इनके अस्तित्व की जानकारी ही नहीं है। किस मानसिकता से हिंदी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं वह मानसिकता भी बहुअर्थी हैं।


हिंदी पत्रिकाएं भी अपनी-अपनी धुन पर गा रही हैं जिसे वही सुनते हैं जिनकी रचना प्रकाशित हुई होती है। पूरे भारत में एक भी हिंदी पत्रिका ऐसी नहीं है जिसके गुणवत्ता की गूंज हो। आकर्षक मुखपृष्ठ अच्छी रचना का न तो प्रतीक हैं और न ही निर्धारित रचनाकारों की रचनाएं प्रकाशित करना श्रेष्ठता का दृष्टांत। हिंदी पत्रिका की अनुगूंज तथा उसके आगामी अंक की ललक पत्रिका के श्रेष्ठता का मानक है।


ऑनलाइन विभिन्न हिंदी समूहों पर हिंदी अपने भद्दे और बिखरे रूप में मिलती हैं। यहां पर सदस्यता संख्या की होड़ मची है। मॉडरेटर और एडमिन में बहुत कम को हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य का ज्ञान है। यहां पर हिंदी के मानक स्वरूप पर प्रहार हो रहा है।


उक्त अति संक्षिप्त अभिव्यक्तियों का उद्देश्य यह दर्शाना है कि हिंदी प्रेमी हिंदी का चाहे कितना भी ढोल पीटें हिंदी वर्तमान में अपनी स्वाभाविकता और मौलिक रूप से खिसकती प्रतीत हो रही है। क्या इसे हकलाती हिंदी नहीं कहा जा सकता है?


धीरेन्द्र सिंह

11.07.2024

19.53

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