सोमवार, 23 मार्च 2009

राजभाषा चौक

महानगरों तथा नगरों में राजभाषा चौक का अस्तित्व पाया जाता है। यह चौक पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से लगातार अपनी उपस्थिति में वृद्धि करते हुए प्रगति दर्ज़ करते जा रहा है। राजभाषा चौक एक विशिष्ट चौक है जिसका अस्तित्व सूक्ष्म है पर प्रभाव व्यापक है। यह चौक अपनी परिधि के अंतर्गत चलायमान है अर्थात धरती की तरह अपनी ध्रुरी पर घूमनेवाला यह एक ऐसा विलक्षण ग्रह है जिसे खगोलशास्त्री तक नहीं पकड़ पाए हैं। यह उल्लेखनीय है कि खगोलशास्त्रियों की नज़रों से बचा हुआ राजभाषा चौक नामक यह ग्रह सक्रियतापूर्वक भारत के सभी शास्त्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में व्यस्त है और प्रगति भी कर रहा है। यह चौक चूँकि सूक्ष्म है इसलिए इसको विशेष वर्ग के लोग ही देख सकते हैं जबकि सार्वजनिक तौर पर इसका अनुभव किया जा सकता। इस विशेष वर्ग में प्रमुखतया केन्द्रीय कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों के कर्मी हैं जो इस चौक से पूरी तरह से वाकिफ हैं। किसी भी नगर में इस चौक को स्थापित करने के लिए संबंधित राज्य से अनुमति नहीं लेनी पड़ती है बल्कि केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग से अनुमति प्राप्त करनी पड़ती है। सामान्यतया एक नगर में केवल एक नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के गठन की अनुमति प्राप्त होती है। इस नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति को में राजभाषा चौक के नाम से अभिव्यक्त कर रहा हूँ।

पक नगर के एक कार्यालय में राजभाषा चौक की धुरी स्थापित होती है जहाँ से इस चौक के संयोजन का कार्य होता है। इस चौक के अध्यक्ष तथा सदस्य-सचिव भी इसी कार्यालय में पदस्थ होते हैं। सामान्यतया चौक के संचालन का दायित्व सदस्य-सचिव का होता है जबकि अध्यक्ष नियंत्रण बनाए रखते हैं। गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय के सतत् निगरानी में नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति कार्यरत रहती है। इस प्रकार से चौक की गतिविधियों को संचालित किया जाता है। इस चौक पर हर किसी को आने की अनुमति नहीं है बल्कि राजभाषा चौक के सदस्य अथवा उनके प्रतिनिधि ही चौक पर विचरण कर सकते हैं। विचरण शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि वर्तमान में अधिकांश सदस्य इस चौक पर केवल विचरण करते ही पाए जाते हैं। बहुत कम सदस्य सक्रियतापूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर पाते हैं। एक समय वह भी था जबकि चौक की चमक से नगर के कार्यालयों की राजभाषा दीप्ति में चार चाँद लगा रहता था जबकि आज चौक एक अनियंत्रित गहमागहमी से भरा हुआ है। एक सक्षम, समर्थ चौक जिसके बल पर नगर में राजभाषा की मशाल प्रखरतम की जा सकती है आज अपनी क्षमता के अत्यधिक कम उपयोग से मन ही मन आहत नज़र आता है। चौक सदस्य-सचिव के हवाले कर अधिकांश सदस्य केवल विचरण करते ही नज़र आते हैं।

वर्ष में छमाही आधार पर दो बार राजभाषा चौक की बैठकें आयोजित होती हैं। इस बैठक में राजभाषा की व्यापक और सारगर्भित समीक्षा होती है, भविष्य के आयोजनों के निर्णय लिए जाते हैं। चौक के सदस्य कार्यालयों के प्रमुख अपनी उपलब्धियों को उत्साहपूर्वक चौक के अभिलेख में प्रविष्ट कराते हैं। एक बेहतरीन योजना बनाई जाती है और उसके सफल कार्यान्वयन का वायदा कर सभा समाप्त होती है। नगर में राजभाषा कार्यान्वयन को नई उर्जा, नई दिशा आदि प्रदान करने में इस चौक का उल्लेखनीय योगदान रहता है। चौक की जब बैठक आयोजित होती है तो चौक झूम उठता है। सदस्य-सचिव की भाग-दौड़ चौक की बैठक को गंभीरता प्रदान करते रहता है। राजभाषा अधिकारियों का झुंड एक तरफ अपने सुख-दुःख की चर्चा करते हुए अपनी बेबाक समीक्षाओं में खोया रहता है। विभिन्न कार्यालयों के उच्चाधिकारी अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए फाईलों में डूबे रहते हैं। यहाँ पर एक बौद्धिकतापूर्ण गंभीरता पसरी रहती है, अपने-अपने दायरे को बखूबी बयाँ करते हुए। बीचृ-बीच में सबकी नज़रें सदस्य-सचिव को तलाशते रहती हैं क्योंकि सदस्य-सचिव की गतिविधियाँ बैठक के आरम्भ होने के समय का संकेत देती रहती हैं। चौक जगमग-जगमग करते रहता है।

अचानक फोटोग्राफर सक्रियतापूर्वक कैमरे के लेन्स को व्यवस्थित करते हुए फोटो मुद्रा में प्रवेश करता है और सभी राजभाषा अधिकारी अपनी-अपनी जगह पकड़ लेते हैं। यह गतिविधि अध्यक्ष, अतिथियों आदि के आगमन का स्पष्ट संकेत होता है। तालियां बजती हैं, अध्यक्ष आदि मंच को सुशोभित करते हैं। ऐसे अवसरों पर अक्सर तालियाँ थकी-थकी सी लगती हैं जैसे एक ऐसी औपचारिकता का निर्वाह कर रही हैं जिसकी वह अभ्यस्त हो चुकी हैं। सदस्य-सचिव द्वारा कार्यवाही आरम्भ की जाती है तथा निर्धारित परम्परा के अनुसार बैठक गतिशील होती है। वार्षिक कार्यक्रम के अनुसार हिंदी पत्राचार के लक्ष्य प्राप्त करनेवाले कार्यालय की प्रशंसा में तालियाँ बजती है तथा उस कार्यालय के उच्चाधिकारी आश्चर्यचकित होकर सभा को देखते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि कार्यालय के सभी पत्रों पर प्राय: उनका हस्ताक्षर रहता है फिर हिंदी में इतने सारे पत्र कब और कैसे लिखे गए ? उन्हें भी मालूम रहता है कि ऐसे प्रश्नों के उत्तर चौक में नहीं दिए जाते हैं इसलिए जो हो रहा है उसे होने दें, शायद चौक की यही परम्परा भी है। इस सोच के विश्लेषण की आवश्यकता है। यदा-कदा ही उच्चाधिकारियों को चौक में बोलते हुए सुना जाता है अन्यथा उनकी भूमिका एक आवश्यकता पूर्ति की ही होती है।

चौक में एक व्यक्ति हमेशा तनावपूर्ण व्यस्त रहता है तथा जो सदस्य-सचिव के चेहरे पर स्पष्ट झलकते रहता है। बैठक ठीक-ठाक संपन्न होने की चिंता की चादर में लिपटे सदस्य-सचिव की व्यथा को किसी से क्या लेना-देना ? अपने-अपने कार्यालय की सबको पड़ी रहती है तथा सदस्य़ यह भूल जाते हैं कि चौक किसी एक का नहीं है बल्कि यह साझा है। चौक की पत्रिका प्रकाशित की जानी है तो यह सदस्य-सचिव जाने, राजभाषा कार्यान्वयन के विभिन्न आयोजन किए जाने हैं तो सदस्य-सचिव सोचे, हमें क्या ? इस बेरूख़ी से सदस्य-सचिव कभी अपना दुःख प्रकट नहीं करता है इसलिए नहीं कि वह कर नहीं सकता बल्कि इसलिए कि चौक के दायित्वों की समन्वयक की भूमिका का निर्वाह जो करना है। सबको पुष्पों की तरह चौक में पिरोए रखना सदस्य-सचिव का सर्वप्रमुख कार्य जो है। अधिकांश सदस्यों की चौक उत्सवों में सहभागिता अपने कार्यालय को शिकायतमुक्त रखने तथा चौक के पुरस्कार पाने तक ही सीमित है। किसी अन्य दायित्व से जितना बचा जा सके उतना अच्छा है का सिद्धांत अब तक सदस्यों को सफलता देते आया है। इस सोच को परिवर्तित करने का दायित्व भी यदि सदस्य-सचिव पर डाला जाए तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि सदस्य-सचिव का भगवान भला करे।

नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति को नराकास के रूप में संचालित करनेवाली समितियों की संख्या काफी कम है। यदि देश की सभी नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियाँ पूर्णतया सक्रिय होकर तथा सभी सदस्यों के रचनात्मक सहयोग के साथ कार्य करें तो निश्चित ही राजभाषा चौक जैसा विचार लुप्त हो जएगा तथा नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति अपने उद्देश्यों को बखूबी निभा पाएगी। यदि सभी राजभाषा अधिकारी एक साथ मिलकर राजभाषा कार्यान्वयन के लिए कार्य नहीं करेंगें तब तक राजभाषा चौक की सोच समाप्त नहीं हो सकती है। उपलब्धियों का कोई अन्त नहीं है, संभावनाओं की कोई सीमा नहीं है तथा क्षमताओं की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है क्या इन मूलभूत बातों की चर्चा चौक के लिए प्रासंगिक और शोभनीय है ? स्वप्रेरणा और स्वपहल के आकाश तले,
कीर्तिमानों के पताकों के साथ खड़ी है एक निनाद की प्रतीक्षा में, एक हुंकार के आगाज़ में। राजभाषा चौक भौंचक हो दिग्भ्रमित राजभाषा अधिकारियों की गतिविधियों को मूक हो निरख रहा है और वक्त इतिहास में सब यथावत दर्ज़ करते जा रहा है।
धीरेन्द्र सिंह.

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