रविवार, 21 जून 2009

हिंदी-राष्ट्र की धड़कन-राष्ट्र की सोच.

भारत देश में आम बोलचाल की भाषा, फिल्मों तथा दूरदर्शन के निजी चैनलों पर चटखती-मटकती हिंदी, राष्ट्र की धड़कनों को बखूबी बयॉ कर रही है परन्तु यह हिंदी राष्ट्र की सोच को अभिव्यक्ति नहीं कर पा रही है। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र की धड़कनों और राष्ट्र की सोच के मध्य एक लंबा अन्तराल निर्मित हो गया है। यह अन्तराल हिंदी की धड़कनों (हिंदी के अध्यापक, रचनाकार आदि) को हिंदी की सोच (व्यावसायिक, राजनैतिक, विधिक, नीतिपरक आदि) से मिलाने में बाधक है। लोकप्रिय हिंदी (बोलचाल, मीडिया, फिल्में, साहित्यिक आदि) और राजभाषा हिंदी, रेल की पटरियों की तरह सामानान्तर हैं जिनके मिलन का प्रयास अत्यावश्यक है। हिंदी की लोकप्रियता भाषा की पराकाष्ठा की और है तथा हिंदी के इस विधा में लगातार नवीनताऍ और विभिन्नताऍ जुड़ती जा रही हैं। विश्व की प्रमुख भाषाओं को चुनौती देती हिंदी का कमज़ोर पक्ष है राष्ट्र की सम्पूर्ण सोच का वाहक बनना। वर्तमान में राजभाषा के रूप में हिंदी की चुनौती राष्ट्र की संपूर्ण सोच को अभिव्यक्ति प्रदान करने के अधिकार को प्राप्त करना है।

वर्तमान विश्व में उन्नत राष्ट्रों की विभिन्न विशिष्टताओं में उनकी अपनी भाषा का पल्लवन भी एक प्रमुख विशेषता है। एक राष्ट्र किसी भी दूसरे राष्ट्र के विकसित भाषा को स्वीकार कर अपनी माटी की विश्व पहचान नहीं करा सकता यह अनेकों माध्यमों से प्रमाणित हो चुका है। इसके बावजूद भी हिंदी के राजभाषा स्वरूप को लेकर तर्क-कुतर्क जारी है जिससे राजभाषा हिंदी की हानि हो रही है। बैकिंग, बीमा, आयकर, सीमा शुल्क, प्रौद्योगिकी, रसायन, विधि आदि की भिन्न-भिन्न शब्दानलियॉ हैं जिनको आम हिंदी की शब्दावलियों के द्वारा अभिव्यक्त करना कठिन है। यह केवल हिंदी के साथ नहीं है बल्कि विश्व की सभी उन्नत भाषाओं के साथ ऐसा ही होता है। ज्ञातव्य है कि प्रत्येक भाषा में बोलचाल की भाषा, मीडिया की भाषा, साहित्यिक भाषा और कामकाजी भाषा में अन्तर होता है। सड़कों पर प्रयुक्त शब्दावली जनहित के कार्यालयों की शब्दावली नहीं बन सकती, कार्यालयों की शब्दावली विधि की शब्दावली नहीं बन सकती, विधि की शब्दावली प्रौद्योगिकी की शब्दावली नहीं बन सकती यद्यपि न सभी में हिंदी अपनी स्वाभाविक पहचान के साथ अवश्य रहती है। हिंदी शब्दावलियों की इतनी विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं का विकास करना अत्यावश्यक है। हिंदी के परम्परागत साहित्य (कहानी, कविता आदि) को छोड़ दें तो शेष विषयों पर कितना लिखा जा रहा है और क्या लिखा जा रहा है, यह सोच का विषय है।

विश्व की अन्य विकसित भाषाओं में न केवल तथाकथित साहित्य बल्कि अन्य विषयों पर खूब लिखा जाता है, मौलिक लिखा जाता है। हिंदी अब भी अनुवाद के सहारे चल रही है। यह तथ्य है कि प्रौद्योगिकी में कुछ समय तक अनुवाद पर निर्भर रहना पड़ेगा किन्तु अन्य क्षेत्रों में तो मौलिक लिखा जा सकता है। यहॉ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अन्य क्षेत्रों से क्या तात्पर्य है। मेरा आशय विभिन्न सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों आदि के विभिन्न विषयों पर हिंदी में मौलिक रूप से लिखना। यदि इस तरह का मौलिक लेखन व्यापक स्तर पर नहीं किया जाएगा तो राष्ट्र की सोच की संवाहिनी हिंदी कैसे बन सकेगी। इन क्षेत्र में हिंदी में जो भी लिखा जा रहा है उसमें अधिकांश अनुवाद है. क्या राजभाषा को अनुवाद की भाषा होना चाहिए ? यहॉ प्रश्न ऊभरता है कि कठिनाई क्या है ? कठिनाई सिर्फ यह है कि इस दिशा में न तो पहल हो रही है और न ही सवाल किए जा रहे हैं अलबत्ता राजभाषा के कार्य से जुड़े लोगों पर छींटाकशी की जाती है। राजभाषा कार्यान्वयन के लिए एक जनमत की आवश्यकता है। राजभाषा विकसित हो चुकी है, सक्षम हो चुकी है परन्तु खुलकर प्रयोग में नहीं लाई जा रही है। हिंदी राष्ट्र की धड़कन तो बन चुकी है परन्तु राजभाषा अब भी राष्ट्र की सोच की भाषा बनने की प्रतीक्षा कर रही है। और कितनी प्रतीक्षा ? इसका उत्तर और कहीं नहीं हमारे पास है, हम सबके पास।

धीरेन्द्र सिंह.

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