बुधवार, 3 जून 2009

हिंदी के इन सफेद हाथियों का सच.

राजभाषा अधिकारियों को निशाने पर ऱखना एक फैशन बन चुका है। जब जी में आता है कोई ना कोई विचित्र विशेषणों का प्रयोग करते हुए राजभाषा अधिकारियों पर उन्मादी छींटें उड़ा जाता है । इसी क्रम में एक नया लेख नवभारत टाइम्स, मुंबई संस्करण में दिनांक 29 मई 2009 को प्रकाशित हुआ। लेखक का नाम था – उदय प्रकाश, हिंदी साहित्यकार। हिंदी साहित्यकार शब्द का नाम के साथ प्रयोग से मेरा पहली बार सामना हुआ। लेख का शीर्षक था – "हिंदी के इन सफेद हाथियों का क्या करें।" इस लेख में कई बेतुके सवाल उठाए गए हैं जिनका उत्तर देना मैं अपना नैतिक कर्तव्य समझता हूँ इसलिए श्री उदय प्रकाश के इस लेख का क्रमवार परिच्छेद चयन कर मैं उत्तर दे रहा हूँ –

इस लेख के पहले परिच्छेद को कोट कर रहा हूँ – “सभी सरकारी विभागों में, पब्लिक सेक्टर की कंपनियों में और कई दूसरी जगहों पर भी भारी रकम खर्च करके राजभाषा हिंदी का ढांचा खड़ा किया गया है। इसमें ऊँची तनख्वाहों पर काम करने वाले लोग अंग्रेजी में तैयार कागज-पत्तर और दस्तावेजों का अनुवाद हिंदी में करने का स्वांग भरते हैं।“
उत्तर – उक्त परिच्छेद में "हिंदी का ढांचा" खड़े करने की बात की गई है जिसके बारे में कहना है कि यह ढांचा सांवैधानिक आवश्यकता के अनुरूप है तथा ढांचा खड़ा नहीं किया गया है बल्कि देश के नागरिकों की भाषाई आवश्कताओं का यह प्रतिबिम्ब है। यदि यह ढांचा ना रहता तो हिंदी में ना तो कोई कागज उपलब्ध हो पाता और ना ही साइन बोर्ड, नाम पट्ट आदि पर हिंदी में नाम पढ़ने को मिलता। "स्वांग" भरने की जानकारी किस आधार पर कही गई है इसका कहीं कोई पता नहीं चल सका है, अभिव्यक्ति में यह तिक्तता केवल अपूर्ण जानकारी की और इंगित करती प्रतीत हो रही है। इन कार्यालयों के कर्मियों से यदि इस बारे में पूछा जाए तो स्पष्ट जानकारी मिल सकती है अन्यथा दूर से धुंधला दिखलाई पड़ना स्वाभाविक है।

कोट – “यह ऐसी हिंदी होती है, जिसका एक वाक्य खुद अनुवाद करने वाले भी नहीं समझ पाते। इस तरह तैयार होने वाले हिंदी दस्तावेज सिर्फ तौल कर बेचने के काम आते हैं, क्योंकि जिन हिंदीभाषियों के लिए इन्हें तैयार किया गया होता है, उनका कुछ प्रयोजन इनसे नहीं सधता।”
उत्तर – चलिए मान लेता हूँ मैं उदय जी की बात कि "खुद अनुवाद करने वाले भी नहीं समझ " पाते वाक्य में कुछ सत्यता हो सकती है किन्तु क्या साहित्यकार जो लिखता है उसे वह हमेशा समझ पाता है ? राजभाषा की नई शब्दावलियाँ, नित नई अभिव्क्तियाँ आदि चुनौतीपूर्ण
हैं। शब्दों से अनजानापन किसी भी भाषा के वाक्यरचना को कठिन बना सकता है, फिर चाहे वह राजभाषा हिंदी ही क्यों ना हो। राजभाषा अभी कार्यान्वयन के दौर में है तथा धीरे-धीरे इसके प्रयोग में वृद्धि होती जा रही है। सत्य तो यह है कि किसी भी दस्तावेज को यदि केवल अंग्रेज़ी में जारी कर दिया जाए तो कर्मचारी हिंदी पाठ की मांग करते हैं क्योंकि हिंदी पाठ के द्वारा कर्मचारी अंग्रेजी पाठ को बेहतर समझ पाते हैं। कोई भी दस्तावेज केवल हिंदीभाषियों के लिए नहीं तैयार किया जाता है बल्कि जहाँ तक कार्यालय विशेष का विस्तार है वहाँ तक वह जाता है। हिंदी दस्तावेज तौल कर बेचने के काम नहीं आते बल्कि राजभाषा को और सरल, सहज और सुसंगठित करने के काम आते हैं। हाँ, काफी पुराने हो जाने के बाद हर भाषा के दस्तावेजों को नष्ट किया जाता है।

कोट – “अर्थव्यवस्था पर स्थायी बोझ बना सरकारी हिंदी का पूरा ढांचा अगर रातोंरात खत्म कर दिया जाए और इससे बचने वाले धन को पिछड़े इलाकों के प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने पर लगा दिया जाए तो इससे न सिर्फ देश के दलित-पिछड़े तबकों को बल्कि पूरे देश को काफी लाभ होगा।“
उत्तर – सरकारी हिंदी क्या है यह अस्पष्ट है। यदि यहाँ पर आशय सरकारी कार्यालयों में कामकाज की भाषा से है तो यदि देखा जाए तो प्रत्येक देश में बोलचाल की भाषा और कामकाजी भाषा में फर्क होता है फिर उसे सरकारी भाषा कहने का क्या औचित्य ? हिंदी का पूरा ढांचा रातोरात खत्म करने का प्रयास काल्पनिक मात्र है तथा विवेक और सच्चाई को परे ऱख कर लिखा गया वाक्य है। ज्ञातव्य है कि हमारा देश प्रगतिशील देश है तथा प्राइमरी स्तर पर भी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है जिसके लिए धन कभी बाधा नहीं रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी जानकारी ना होने पर प्राय: इस प्रकार के वाक्य लिखे जाते हैं।

श्री उदय प्रकाश, हिंदी साहित्यकार के लेख के उक्त अंश लगभग संपूर्ण लेख को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस लेख के बारे में इससे अधिक मैं कुछ और नहीं कहना चाहता हूँ।

धीरेन्द्र सिंह.

5 टिप्‍पणियां:

  1. yahee to mushkil hai dhirendera jee..yadi kuchh na kiyaa jaaye to halla ..kuchh kiya jaye to bhee halla..waise mujhe hindi saahityakaaron se ek shikaayat ye rehtee hai ki yadi unkaa hindi prem itnaa hee hai to fir aaj kal saahitya itnaa mehnga kyun ho raha hai ki aam aadmee kee pahunch se baahar ho gaya hai...nishkarsh ye ki aalochnaa sabse aasaan kaam hai....kiye jaao....

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  2. अच्छी चर्चा है।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  3. सही बात कही आपने। सच को पूरी तरह से सामने आना चाहिए।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  4. यदि आप अंग्रेजी के लिखे को समझने के लिए डिक्शनरी को पलट सकते हैं तो हिंदी में लिखे को समझने के लिए शब्दकोष के प्रयोग को तुच्छ क्यों समझते हैं?

    यदि आप स्वांग कहते हैं किसी अनुवाद की प्रक्रिया को तो हिंदी साहित्यकार लिखकर किस स्वांग को निभाया जा रहा?

    यदि सरकारी हिंदी के ढ़ाँचे को खतम कर दिया जाये तो कल को आप सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भी हिंदी त्यागने की बात करेंगे जो हिंदी भाषा की नाव पर सवार हो कर अपना अस्तित्व बचाने में लगीं हैं।

    कैसे हिंदी साहित्यकार हैं आप जो हिंदी की अवहेलना कर रहे हैं, भले ही वह किसी विभाग की जिम्मेदारी हो।

    मुझे तो लगता है कोई व्यक्तिगत मामला है इस कथित लेख के पीछे :-)

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