एनडीटीवी इंडिया ने दिनांक 06.06.2009 को रात्रि 8.00 बजे मुकाबला कार्यक्रम प्रस्तुत किया जिसका विषय था – “क्या अंग्रेज़ी हमारे देश में नई गुलामी की निशानी है ?” इस कार्यक्रम का संचालन श्री दिबांग कर रहे थे। विषय मेरी रूचि का था तथा मुझे लगा कि काफी शोध और मेहनत से यह कार्यक्रम बनाया गया होगा इसलिए मैंने इस कार्यक्रम को देखने का निर्णय लिया। विशेष उत्साह का कारण यह भी था कि एक निजी चैनल ने हिंदी विषय पर एक सामयिक कार्यक्रम तैयार किया है, मन पहले से ही इस चैनल को साधुवाद देने लगा। इस कार्यक्रम में भाग लेनेवालों का नाम हैं – राजेन्द्र यादव, आलोक राय, सुधीश पचौरी, देवेन्द्र मिश्र, सुहेल शेख, तरूण विजय तथा महेश भट्ट। हिंदी और अंग्रेजी की यह चर्चा मुझे भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मैच से कहीं ज्यादा रूचिकर और आकर्षक लगती है, हमेशा। उत्सुकता और उत्कंठा के बीच कार्यक्रम शुरू हुआ। कार्यक्रम में मैंने पाया कि दिबांग की रूचि सुहेल, आलोक तथा सुधीर में ज्यादा थी तथा शेष प्रतिभागियों से पूछने के लिए प्रश्न पूछ लिए जाते थे। कार्यक्रम के निर्माता-निर्देशक भी तो कार्यक्रमों में प्रत्यक्ष पर प्रभावी भूमिका निभाते हैं, केवल दिबांग का ही नाम क्यों ? केवल सुविधावश। कार्यक्रम की प्रमुख झलकियॉ, सहभागियों के शब्दों में -
सुहेल शेख ( विज्ञापन जगत के हैं) – वह ज़माना गया, कॉमर्स या नौकरी करनी है तो अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी है।अंग्रेज़ी सीखना ग़ुलामी है कहना ठीक नहीं है। हिंदी के कारण ही चैनल प्रभावी हैं।मुझे मातृभाषा पर गर्व है। अंग्रेज़ी की ज़रूरत हर समय ज़्यादा होगी। भारत में लोग अंग्रेज़ी जानते हैं, वह लाभ है। अंग्रेज़ी के पीछे कोई नहीं दौड़ रहा है। अपने मनोरंजन और कल्चरल सेटिस्सफेक्शन के लेहिंदी को देखते हैं।अंग्रेज़ियत को महत्व नहीं देना चाहिए। अंग्रेज़ी की जरूरत कमर्शियल टूल की तरह है। विज्ञापन की दुनिया ने हिन्दी को अब्यूज़ किया है।
आलोक राय ( हिंदी और अंग्रेज़ी के ज्ञाता) – अंग्रेज़ी को इतना महत्व द्नेना गुलामी की निशानी है। अंग्रेज़ी एक साधन है। अंग्रेज़ियत को समझने के लिए गहराई में जाना पड़ेगा। अंग्रेज़ी को लेकर नाराज़गी क्यों ? अंग्रेज़ी से ज्ञान, कविता, साहित्य मिलता है। भाषा को लेकर क्या नाराज़गी। जो अंग्रेज़ी नहीं जानते वो हिंदी भी नहीं जानते। अंग्रेज़ी की वर्चस्वता की जड़ें कहीं और हैं। हिंदी की विविधता कठिनाई नहीं है। वह हिंदी को संपन्न करती है। हिंदी का दुर्भाग्य है कि हिंदी के प्रतिनिधि के रूप में कुछ गलत लोग आए हैं। हिंदी को खास परंपरा से जोड़ा जाता है। भाषा को केवल व्यापार से नहीं देखना चाहिए। छोटे जगहों पर सोचें कि अंग्रेज़ी सीख लें वह नहीं होता है। सरकार बहुत कुछ कर सकती है, सोच-समझकर भाषा नीति अपनानी चाहिए। भाषा के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया पर नीति काम नहीं करती है, उसकी एक प्रक्रिया है।
सुधीश पचौरी – बिना हिंदी के अंग्रेज़ीवाला चल नहीं सकता। अंग्रेज़ीवालों से पूछो कि हिंदी उनकी ज़रूरत क्यों हो गई है। हिंदी में ठेकेदारी प्रथा है। हिंदी एक ग्लोबल भाषा है। हिंदी, साहित्य सम्मेलन की भाषा नहीं रह गई है। भाषा का ब्राह्मणवाद बंद कर देना चाहिए। हिंदीवाला सोचता है कि यदि फूंक भी मार दूंगा तो 5 करोड़ उड़ जेंगे इसलिए वह विनम्रता से मुस्कराते रहता है। हिंदी इन्क्लुयज़न (inclusion) की भाषा है। पंडितों की हर बात सरल नहीं होती है। बाषा तो जनता लाती है। भाषाएं एक-दूसरे में घुल-मिल जाती है जैसे आदमी-आदमी से मिल जाते हैं।
राजेन्द्र यादव – अंग्रेज़ी एक माध्यम है। अंग्रेज़ी गुलामी की निशानी थीऔर लड़न् का हथियार थी। स्वतंत्रता के युद्ध के समय का एटीट्यूड (attitude) भाषा को लेकर है, उसे छोड़ना चाहिए। अंग्रेजी वर्चस्व की भाषा है, सत्ता की भाषा है। 250 साल से अंग्रेज़ी हमारी भाषा हो गई है। हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू का देश में कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं है, घर नहीं है। सत्ता जो भाषा बोलेगी वह सब स्वीकारेंगे।
तरूण विजय – जर्मनी, इस्रार्ईल और ना चीन में अंग्रेज़ी में पढ़ाई होती है।
महेश भट्ट – अंग्रेज़ी को कम्यूनिकेशन टूल की अहमियत देनी चाहिए। भाषा को लेकर जब गौरव का अनुभव नहीं होता तब भाषा मर जाती है। बच्चा जब फर्स्ट स्टैंडर्ड में पढ़ता है तो भाषा संस्कृति लेकर आती है। वह जैक एंड ज़िल और बाबा ब्लैक शिप नहीं समझता है। यह सुपर पॉवर की ज़बान है, अपने माई-बाप की भाषा बोलना हमारी मजबूरी है। उसे देवी का दर्ज़ा नहीं देना चाहिए।
देवेन्द्र मिश्र (संस्कृत के विद्वान) – अंग्रेज़ियत में बुराई है अंग्रेज़ी में नहीं। भाषा के माइनस प्वांइट को छोड़ना चाहिए। संस्कृत को राजभाषा बनाने से विरोध नहीं होता।
उक्त चर्चाएं हुईं तथा बाद में इस चर्चा का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए दिबांग ने कहा कि – “अंग्रेज़ी का भारतीयकरण हुआ है तथा उसे देश की भाषा मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।“ एक हिंदी चैनल से अंग्रेज़ी के बारे में दी गई यह टिप्पणी एक सामान्य टिप्पणी नहीं की जा सकती है। यह दिबांग की सोच है चैनल की यह कहना आसान नहीं है परन्तु एक दशा और दिशा की और संकेत और समर्थन करनेवाला यह वाक्य, हिन्दी चैनलों की नई सोच को बखूबी दर्शा रहा है।
सुहेल शेख ( विज्ञापन जगत के हैं) – वह ज़माना गया, कॉमर्स या नौकरी करनी है तो अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी है।अंग्रेज़ी सीखना ग़ुलामी है कहना ठीक नहीं है। हिंदी के कारण ही चैनल प्रभावी हैं।मुझे मातृभाषा पर गर्व है। अंग्रेज़ी की ज़रूरत हर समय ज़्यादा होगी। भारत में लोग अंग्रेज़ी जानते हैं, वह लाभ है। अंग्रेज़ी के पीछे कोई नहीं दौड़ रहा है। अपने मनोरंजन और कल्चरल सेटिस्सफेक्शन के लेहिंदी को देखते हैं।अंग्रेज़ियत को महत्व नहीं देना चाहिए। अंग्रेज़ी की जरूरत कमर्शियल टूल की तरह है। विज्ञापन की दुनिया ने हिन्दी को अब्यूज़ किया है।
आलोक राय ( हिंदी और अंग्रेज़ी के ज्ञाता) – अंग्रेज़ी को इतना महत्व द्नेना गुलामी की निशानी है। अंग्रेज़ी एक साधन है। अंग्रेज़ियत को समझने के लिए गहराई में जाना पड़ेगा। अंग्रेज़ी को लेकर नाराज़गी क्यों ? अंग्रेज़ी से ज्ञान, कविता, साहित्य मिलता है। भाषा को लेकर क्या नाराज़गी। जो अंग्रेज़ी नहीं जानते वो हिंदी भी नहीं जानते। अंग्रेज़ी की वर्चस्वता की जड़ें कहीं और हैं। हिंदी की विविधता कठिनाई नहीं है। वह हिंदी को संपन्न करती है। हिंदी का दुर्भाग्य है कि हिंदी के प्रतिनिधि के रूप में कुछ गलत लोग आए हैं। हिंदी को खास परंपरा से जोड़ा जाता है। भाषा को केवल व्यापार से नहीं देखना चाहिए। छोटे जगहों पर सोचें कि अंग्रेज़ी सीख लें वह नहीं होता है। सरकार बहुत कुछ कर सकती है, सोच-समझकर भाषा नीति अपनानी चाहिए। भाषा के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया पर नीति काम नहीं करती है, उसकी एक प्रक्रिया है।
सुधीश पचौरी – बिना हिंदी के अंग्रेज़ीवाला चल नहीं सकता। अंग्रेज़ीवालों से पूछो कि हिंदी उनकी ज़रूरत क्यों हो गई है। हिंदी में ठेकेदारी प्रथा है। हिंदी एक ग्लोबल भाषा है। हिंदी, साहित्य सम्मेलन की भाषा नहीं रह गई है। भाषा का ब्राह्मणवाद बंद कर देना चाहिए। हिंदीवाला सोचता है कि यदि फूंक भी मार दूंगा तो 5 करोड़ उड़ जेंगे इसलिए वह विनम्रता से मुस्कराते रहता है। हिंदी इन्क्लुयज़न (inclusion) की भाषा है। पंडितों की हर बात सरल नहीं होती है। बाषा तो जनता लाती है। भाषाएं एक-दूसरे में घुल-मिल जाती है जैसे आदमी-आदमी से मिल जाते हैं।
राजेन्द्र यादव – अंग्रेज़ी एक माध्यम है। अंग्रेज़ी गुलामी की निशानी थीऔर लड़न् का हथियार थी। स्वतंत्रता के युद्ध के समय का एटीट्यूड (attitude) भाषा को लेकर है, उसे छोड़ना चाहिए। अंग्रेजी वर्चस्व की भाषा है, सत्ता की भाषा है। 250 साल से अंग्रेज़ी हमारी भाषा हो गई है। हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू का देश में कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं है, घर नहीं है। सत्ता जो भाषा बोलेगी वह सब स्वीकारेंगे।
तरूण विजय – जर्मनी, इस्रार्ईल और ना चीन में अंग्रेज़ी में पढ़ाई होती है।
महेश भट्ट – अंग्रेज़ी को कम्यूनिकेशन टूल की अहमियत देनी चाहिए। भाषा को लेकर जब गौरव का अनुभव नहीं होता तब भाषा मर जाती है। बच्चा जब फर्स्ट स्टैंडर्ड में पढ़ता है तो भाषा संस्कृति लेकर आती है। वह जैक एंड ज़िल और बाबा ब्लैक शिप नहीं समझता है। यह सुपर पॉवर की ज़बान है, अपने माई-बाप की भाषा बोलना हमारी मजबूरी है। उसे देवी का दर्ज़ा नहीं देना चाहिए।
देवेन्द्र मिश्र (संस्कृत के विद्वान) – अंग्रेज़ियत में बुराई है अंग्रेज़ी में नहीं। भाषा के माइनस प्वांइट को छोड़ना चाहिए। संस्कृत को राजभाषा बनाने से विरोध नहीं होता।
उक्त चर्चाएं हुईं तथा बाद में इस चर्चा का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए दिबांग ने कहा कि – “अंग्रेज़ी का भारतीयकरण हुआ है तथा उसे देश की भाषा मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।“ एक हिंदी चैनल से अंग्रेज़ी के बारे में दी गई यह टिप्पणी एक सामान्य टिप्पणी नहीं की जा सकती है। यह दिबांग की सोच है चैनल की यह कहना आसान नहीं है परन्तु एक दशा और दिशा की और संकेत और समर्थन करनेवाला यह वाक्य, हिन्दी चैनलों की नई सोच को बखूबी दर्शा रहा है।
हिंदी के साथ हमेशा ही ऐसा होता आया है...!इसके लिए पडोसी देश को भी जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते...!हमारे यहाँ हिंदी सिनेमा में काम करने वाले भी पत्रकारों से अंग्रेजी में बोलते है क्यूँ..?वोट मांगते वक़्त न शर्माने वाले नेता हर जगह अंग्रेजी में गिटर पिटर करते नहीं थकते?ये सब कौन है?निस्संदेह देशवासी...फिर क्यूँ नहीं कुछ सोचते?हिंदी का प्रचार प्रसार भी हमें ही करना होगा...कोई दूसरा नहीं आएगा....!
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