शुक्रवार, 17 मार्च 2023

शिक्षा, रेटिंग और रिश्वत

शिक्षा, रेटिंग और रिश्वत


भारतीय जीवन में प्राथमिक स्तर से ही विद्यालय ज्ञान का मंदिर जाना जाता है। पिछले कुछ दशक से नर्सरी में प्रवेश के लिए अभिभावकों को कठिन श्रम करना पड़ता है। एक नियम यह कि विद्यालय के करीब रहनेवाले बच्चों को प्राथमिकता के आधार पर प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में प्रवेश मिलेगा। यह सब उल्लिखित करने का आशय सिर्फ यही है कि शिक्षा का स्तर बहुत कुछ विद्यालय की समाज द्वारा निर्धारित गुणवत्ता पर निर्भर करती है। किसी भी क्षेत्र में कुछ गिने-चुने विद्यालय ही प्रवेश आकर्षण और प्रवेश चुनौतियाँ लिए रहते हैं। इस प्रकार निरंतर शिक्षा महंगी और प्रवेश की चुनौतियाँ लिए रहती है। यह कहा जाता है कि भारत शिक्षा का केंद्र है और उच्च स्तरीय शिक्षा की गुणवत्ता विश्व स्तरीय है।


राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का स्वायत्त संस्थान जिसे NAAC के रूप में भी जाना जाता है। संक्षेपाक्षर में अंग्रेजी भाप्रभुत्व के कारण ‘नैक’ शब्द चलन में आ गया है इसलिए आगे ‘नैक’ शब्द का ही प्रयोग किया जाएगा। शिक्षा संस्थानों कि गुणवत्ता की जांच ‘नैक’ के निर्धारित मानकों और प्रक्रियाओं के द्वारा किया जाता है तथा तदनुरूप  विभिन्न शिक्षा संस्थानों का निर्धारण अर्थात रेटिंग निर्धारित किया जाता है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि ‘नैक’ का निर्धारण अर्थात रेटिंग शिक्षा संस्थानों के लिए क्यों आवश्यक है? इस रेटिंग के द्वारा पिछले दो या  तीन साइकल में 3.26 अंक प्राप्त करती हैं या प्रथम 100 विश्वविद्यालयों की सूची में आती हैं तो ऐसी शिक्षण संस्था के दरवाजे अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए खुल जाते हैं। इस प्रकार यह रेटिंग अपना विशिष्ट महत्व रखती है।


रेटिंग प्राप्ति के लिए उच्च शिक्षण संस्थाएं या विश्वविद्यालय निर्धारित मानकों का अनुकरण करें यह आवश्यक नहीं। कुछ संस्थाएं प्रलोभन या रिश्वत के आधार पर अपनी रेटिंग में गलत तरीके से वृद्धि  करती हैं। इस विषयक एक घटना प्रकाश में आई है कि वर्ष 2015 की कार्यपालक समिति की बैठक में यह खुलासा किया गया कि निरीक्षण टीम के एक सदस्य के उपहार बैग में एक लिफाफा रख दिया था जिसमें रूपए एक लाख नकद थे। उच्च रेटिंग प्राप्ति के लिए अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पाया जाना रेटिंग प्रणाली पर सवालिया निशान लगाते हैं। एनएएसी ने वर्ष 2022 में बड़ोदा एम एस विश्वविद्यालय के ग्रेडिंग परिणाम को रोक दिया क्योंकि गुमनाम सूचना प्राप्त हुयी थी कि विश्वविद्यालय प्राधिकारियों ने समीक्षा समिति को स्वर्ण, नकदी और अन्य प्रलोभन द्वारा प्रभावित करने का प्रयास किया था। यद्यपि बाद में एनएएसी ने ग्रेडिंग बढ़ाने की घटना को असत्य कहा। शोध और नवोन्मेषी आधारित प्रकाशित पेपर की दिशा में अधिक संख्या में पीएचडी विद्यार्थियों का नामांकन विशेषतया डीम्ड विश्वविद्यालयों द्वारा किया जाता है और प्रत्येक विद्यार्थी से कहा जाता है कि कम से कम दो पेपर प्रकाशित करें। परिणामस्वरूप एक वर्ष में 5000 से 6000 तक शोध पत्र प्रस्तुत किए जाते हैं पर उनकी प्रासंगिकता और गुणवत्ता बहस का मुद्दा बन जाती हैं। यह महज एक बड़ा मुद्रण प्रेस बन जाता है।


इस परिप्रेक्ष्य में यदि हिन्दी से पीएचडी किए विद्यार्थियों के पेपर का मूल्यांकन किया जाये तो अधिकांश शोध पेपर मुद्रण का जखीरा ही कहे जाएंगे क्योंकि इनकी प्रासंगिकता और गुणवत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अपने शोध विषय पर दस मिनट बोल पाना भी इनके लिए चुनौतीपूर्ण होता है। हिन्दी में पीएचडी कर नाम के आगे डॉ लिख देने से शिक्षा के उच्च गुणवत्ता की अनुभूति होती है। हिन्दी की यह रुग्ण मानसिकता किसी साहित्यिक आयोजन में देखने को मिलती है जहां मंच पर बैठा प्रत्येक व्यक्तियों को डॉ पदनाम से पुकारा जाता है। कितनी हास्यास्पद स्थिति है। कहीं पढ़ा था कि हिन्दी में पीएचडी की बैठक में भी ‘लिफाफा’ परंपरा अघोषित रूप से चलन में है। यह कहना गलत होगा कि केवल हिन्दी में ही पीएचडी ज्ञानखोखली टोली को भी उपजाती है अन्य विषयों में भी पीएचडी की ज्ञानखोखली टोलियाँ उत्पादित की जाती हैं। यह जानकारी मिलने के बाद हिन्दी के प्रत्येक पीएचडी धारी आदरणीय हो गए हैं।


 

सरगम के इसी सुर में यदि हिन्दी में तैयार विभिन्न विषयों की पुस्तकों की बात की जाय तो यहाँ भी कुछ कम अड़चनें नहीं हैं। भाषा के किस स्तर तक विषयों को समेटा गया है इसका यथार्थ हिन्दी माध्यम की पुस्तकों को पढ़कर ज्ञात नहीं होगा बल्कि इसके लिए कक्षा में जाकर शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य स्थापित भावों के आकलन पर ही सत्यता उभरेगी।   शिक्षा, रेटिंग और रिश्वत की त्रिवेणी भारतीय ज्ञान और बौद्धिकता को किस ऊंचाई पर पहुंचाएगी यह एक यक्ष प्रश्न है। शिक्षा के क्षेत्र में फैला यह भ्रष्टाचार कब भयमुक्त सकारात्मक शैक्षणिक परिवेश निर्मित करेगा इसे कौन जान पाएगा ? एक व्यवस्था का विवश होकर सहभागी  बनना क्या प्रत्येक विद्यार्थी की विवशता कही जाय या नियति?


धीरेंद्र सिंह


17.03.2023


15.19


Subscribe to राजभाषा/Rajbhasha

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें