राजभाषा अधिकारी प्रत्येक सरकारी कार्यालय का वह अधिकारी होता है जिसका एकमात्र दायित्व राजभाषा नीतियों का कार्यान्वयन होता है। यह अधिकारी केवल प्रशासनिक कार्यालयों में पदस्थ होते हैं तथा उस कार्यालय के अधीन कार्यरत सभी कार्यालयों में राजभाषा के निरंतर प्रचार और प्रसार का दायित्व होता है। यदि आप किसी भी केंद्रीय कार्यालय या बैंकों या बीमा कंपनियों में जाएं तो वहां राजभाषा पूरी तरह अपनी एक पहचान लिए नहीं मिलेगी। राजभाषा के इस अधूरी पहचान के लिए प्रमुख रूप से उस क्षेत्र का राजभाषा अधिकारी जिम्मेदार है। पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से कार्यरत यह राजभाषा अधिकारी अपने कार्यक्षेत्र के अधीन कार्यालयों राजभाषा की पूर्ण पहचान तक न बना पाए, इस कारण की सामयिक और क्षणिक समीक्षाएं कागजों पर लगभग पूरी तरह दर्ज मिलती हैं।
किसी भी कार्य में किसी भी प्रकार की कमी के लिए किसी को भी जिम्मेदार ठहरा देना बेहद आसान कार्य है। राजभाषा अधिकारी भी समय-समय पर जिम्मेदार ठहराया जाता है किंतु क्या कभी किसी ने राजभाषा अधिकारी के कार्य प्रणाली, कार्य सुविधाओं, कार्य की कठिनाइयों आदि की समीक्षा की है? अमूमन ऐसा नहीं होता है। राजभाषा अधिकारी की सामान्यतया निम्नलिखित कठिनाईयां हैं:-
1. कार्यालय में उनके बैठने का उचित स्थान नहीं रहता।
2. सामान्यतया यह सोच है कि राजभाषा अधिकारी के पास पूरे दिन का कार्य नहीं रहता।
3. राजभाषा विभाग का यदि कार्य लंबित रहता है तो उच्च कार्यालय द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जाती।
4. राजभाषा के कामकाज की पूर्ण जानकारी कार्यालय प्रमुखों को बतलाने में राजभाषा विभाग असफल रहता है।
5. राजभाषा अधिकारी को दूसरे विभाग का कार्य दिया जाता है जिसपर सतत और गहन अनुवर्ती कार्रवाई होती है अतएव राजभाषा अधिकारी राजभाषा का कार्य छोड़ कार्यालय के दूसरे कार्यों में अपना लगभग पूर्ण समय देने लगता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश कार्यालयों के राजभाषा विभाग में गहन अनुवर्ती कार्रवाई का अभाव है।
6. राजभाषा अधिकारियों को राजभाषा कार्यान्वयन का उचित, सार्थक, प्रयोजनपूर्ण राजभाषा प्रशिक्षण नहीं मिल पाता है। राजभाषा जगत में ऐसे राजभाषा प्रशिक्षकों का अभाव है जो राजभाषा कार्यान्वयन की बारीकियों को विश्लेषणात्मक ढंग से स्पष्ट कर सकें। इस प्रकार के प्रशिक्षण प्रायः वार्षिक कार्यक्रम और राजभाषा नीति की परिक्रमा कर पूर्ण हो जाते हैं।
7. अधिकांश राजभाषा अधिकारी राजभाषा कार्यान्वयन के ज्ञान के अभाव में यह नहीं समझ पाते कि उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में किस प्रकार राजभाषा कार्यान्वयन करते है जिससे वह अपने कार्यस्थल परिवेश में हीन भावना से ग्रसित होते हैं। यह हीन भावना ही उन्हें अन्य विभाग के कार्य करने को प्रेरित करती है जिससे अधिकारी की एक पहचान बनती है। बहुत कम राजभाषा अधिकारी इस प्रकार की हीन भावना से मुक्त होते हैं।
8. राजभाषा अधिकारी के अतिरिक्त कोई अन्य विधा के विशेषज्ञ अधिकारी को किसी अन्य विभाग का कार्य नहीं सौंपा जाता है।
9. पिछले 5 वर्षों में नियुक्त अधिकांश राजभाषा अधिकारियों को हिंदी साहित्य का ज्ञान नहीं है जिससे वह अपनी भाषा कौशल का प्रदर्शन कर स्टाफ को मोहित और आकर्षित करने में असफल होते हैं। इसके लिए भर्ती प्रणाली जिम्मेदार है। पहले हिंदी और अंग्रेजी भाषा के आधार पर नियुक्तियां होती थीं किंतु कुछ समय से भाषा के अतिरिक्त अन्य पेपर को भी हल करना पड़ता है।
10. किसी भी कार्यालय में राजभाषा की पहचान एक सांविधिक दायित्व तक सीमित है जिसका कार्यान्वयन विभिन्न आवधिक रिपोर्ट प्रेषित कर पूर्ण किया जाता है।
11. विभिन्न केंद्रीय कार्यालयों में राजभाषा विभाग अपनी पहचान खोता जा रहा है। वर्ष 1980 के दशक में राजभाषा विभाग गरिमापूर्ण और सम्मानित पहचान बनाने में सफल था क्योंकि तब राजभाषा विभाग के विभागाध्यक्ष राजभाषा अधिकारी कार्यान्वयन को व्यापक तौर से स्पष्ट कर सके थे। अब वह स्थिति नहीं है और न वैसे विश्लेषण कर कार्यान्वयन करनेवाले विशेषज्ञ राजभाषा प्रभारी हैं।
उपरोक्त कुछ मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में विशेषकर नए भर्ती राजभाषा अधिकारी किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। लगभग सभी राजभाषा अधिकारी अपने कार्यस्थल पर अपनी और राजभाषा कार्यान्वयन की पहचान बनाने को उत्सुक हैं। यहां यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि कार्यालयों के प्रशासनिक प्रधान के समक्ष राजभाषा की वास्तविक स्थिति को भी ठीक से प्रस्तुत नहीं किया जा रहा अतएव वह भी राजभाषा की इस स्थिति से अनभिज्ञ है। राजभाषा अधिकारी मूक सिसकी में दूसरे विभाग का अधिक और राजभाषा कार्यान्वयन का कम कार्य किये जा रहा है।
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