रविवार, 17 मार्च 2013

राजभाषा हो जाना


किसी भी प्रीति की प्रतीति समर्पित मनोभावों और प्रतिबद्ध अभिव्यक्ति से होती है। शाब्दिक प्रीति क्षणभंगुर होती है बुलबुले की तरह। इस वाक्य को लिखने के पीछे राजभाषा के एक विशाल अनुभव की शक्ति है जो स्पष्ट दर्शा रही है कि राजभाषा कार्यान्यवन से सीधे जुड़े अधिकांश लोग अस्थायी, आकस्मिक और अवसरवादी प्रवृत्ति से घिरे जा रहे हैं। यह वाक्य सीधे एक आक्षेप और प्रहार भी कहा जा सकता है किन्तु विश्लेषण का सत्य इसी दिशा की ओर इंगित करता है। इस संदर्भ में कुछ दिन पहले की घटना का उल्लेख प्रासंगिक होगा। 25 वर्ष से भी अधिक समय से राजभाषा की रोटी खानेवाले एक अधिकारी ने फुरसतिया बातचीत के दौरान कहा कि अभी 100 वर्ष और बीत जाएंगे फिर भी राजभाषा नहीं आएगी। इस वाक्य को इतनी हिकारत भरे लहजे में कहा कि लगा जैसे यकायक एक बिजली सी मुझमें उतर गयी हो। एक स्वाभाविक उभरता हुआ सवाल यहाँ यह है कि राजभाषा कार्यान्यवन से सीधे जुड़े लोग भी कितना राजभाषा को समझते हैं? गहनतापूर्वक और सुगमतापूर्वक राजभाषा कार्यान्यवन का निरीक्षण किया जाये तो स्पष्ट होगा कि पिछले दो दशकों में राजभाषा काफी प्रगति कर चुकी है।

समय चक्र के साथ राजभाषा कार्यान्यवन से जुड़े लोग बदल भी रहे हैं। अनुभवी लोग सेवानिवृत्त हो रहे हैं और नए और युवा चेहरे राजभाषा की कमान संभालने की तैयारी में लगे हैं। राजभाषा कार्यान्यवन के इस संक्रांति बेला में यह स्पष्ट है कि राजभाषा के बारे में अधिकांश सेवानिवृत्त हो रहे अनुभवी अपने अनुभव के नाम पर राजभाषा को अपनी कुंठाओं में लपेट कर धरोहर में दे रहे हैं जिसे नए राजभाषा अधिकारी विस्मय और उलझनपूर्ण मनःस्थिति से झिझकते हुये स्वीकार कर रहे हैं। राजभाषा कार्यान्यवन का यथार्थ कार्यालयों में बिखरा पड़ा है जिसे नए राजभाषा अधिकारी देख नहीं पा रहे हैं। देख नहीं पाने के लिए नए राजभाषा अधिकारी जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि कार्यान्यवन की वर्तमान प्रणाली दोषी है जिसमें स्वस्थ दृष्टि का अभाव है। नए राजभाषा अधिकारियों के राजभाषा विषयक प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर अनुभवी राजभाषा अधिकारियों से ना मिल पाना एक त्रासदीपूर्ण स्थिति है। कार्यान्यवन के भव्य रथ पर आरूढ़ राजभाषा आज समर्पित और कर्मठ राजभाषा अधिकारियों की तलाश में है, ठीक नए राजभाषा अधिकारियों की मानिंद।

क्या सचमुच कर्मठ और समर्पित राजभाषा अधिकारियों का अभाव है ? इसका उत्तर है हाँ, किन्तु इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न है कि क्या राजभाषा अधिकारियों में प्रतिभा की कमी है? इसका उत्तर है ना। राजभाषा अधिकारियों के इस हाँ और ना की स्थिति के बीच में राजभाषा कार्यान्यवन कहीं उलझा-उलझा सा गतिमान है। राजभाषा अधिकारियों की प्रतिभा भ्रमित हो गयी है। अधिकांश राजभाषा अधिकारी राजभाषा के पद को प्रगति के आरंभिक और पायदान के रूप में उपयोग कर अपने कैरियर को ऊंचे से ऊंचे पद तक ले जाना चाहते हैं। पद लिप्सा ने अधिकांश राजभाषा अधिकारियों की चेतना से राजभाषा को दूर कर दिया परिणामस्वरूप राजभाषा अधिकारी का पदनाम ना तो राजभाषा का रहा और ना ही कार्यान्यवन से पूरा जुड़ पाया। ऐसे अधिकारी  केवल पद प्राप्ति साधना में अपनी प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं। ऊंचा पद प्राप्त करना प्रत्येक कर्मचारी की एक सहज जिज्ञासा और आकांक्षा है, लेकिन राजभाषा के नाम पर पदोन्नति का यह खेल कहीं ना कहीं कार्यान्यवन को प्रभावित कर रहा है और कार्यान्यवन की छवि धूमिल हो रही है जो एक बड़ी हानि है।

नए राजभाषा अधिकारियों में कार्यान्यवन की उत्कंठा है, कार्यान्यवन की प्रणाली को समझने की स्वाभाविक ललक है ऐसे में उन्हें सही और सटीक उत्तर देने के बजाय यदि दार्शनिक लहजे में कार्यान्यवन को बतलाया जाये तो यह राजभाषा कार्यान्यवन के प्रति न्याय कदापि नहीं माना जाएगा। पानी में कूद जाओ तैरना खुद आ जाएगा जैसा जुमला कार्यान्यवन में लागू नहीं होते हैं। राजभाषा कार्यान्यवन एक गंभीर और महत्वपूर्ण विषय है जिसके लिए प्रतिबद्ध, समर्पित और सार्थक प्रयासों की आवश्यकता होती है। राजभाषा कार्यान्यवन की शाखाएँ-प्रशाखाएँ अनेक हैं जिनको सहेजने, संयोजने और सँवारने में राजभाषा अधिकारी का पूरा वक़्त चला जाता है। राजभाषा के अतिरिक्त कार्यालय के अन्य विभागों के दायित्व को संभालने वाले राजभाषा अधिकारी कुछ भी कहें किन्तु यह स्पष्ट है कि ऐसे अधिकारी राजभाषा कार्यान्यवन से गंभीरतापूर्वक नहीं जुड़े हैं अतएव नए राजभाषा अधिकारियों को ऐसे अधिकारियों की कार्यान्यवन विषयक सलाहों को गंभीरतापूर्वक नहीं लेना चाहिए।

राजभाषा कार्यान्यवन, कार्यालय के कर्मियों, राजभाषा नीति और वार्षिक कार्यक्रम के लक्ष्यों की जुगलबंदी है। यह जुगलबंदी जितनी सुसंगत, सुमधुर और सुरअर्जित होगी कार्यान्यवन उतना ही प्रखर और परिणामदाई होगा। जिस तरह जुगालबंदी में साज-साज़िंदे और गायक अपनी-अपनी धुन में डूब जाते हैं वही अंदाज़ राजभाषा कार्यान्यवन में भी अपेक्षित है। यदि राजभाषा अधिकारी राजभाषा के राग-रागिनियों में डूबकर अपने कार्यालय को एक राजभाषा की नयी धुन और अंदाज़ से सजाने का प्रयास करता है तो सम्पूर्ण कार्यालय उसके इस प्रयास की सराहना करता है। इस क्रम में प्राप्त राजभाषा की उपलब्धियां राजभाषा अधिकारी के छवि में निखार लाती है और सम्पूर्ण कार्यालय राजभाषा अधिकारी के प्रयासों का कायल हो जाता है। राजभाषा अधिकारी उस समय एक सफल राजभाषा माना जाता है जब वह मात्र पदनाम के लिए राजभाषा अधिकारी नहीं रहता बल्कि वह राजभाषा हो जाता है। राजभाषा हो चुके राजभाषा अधिकारी ही कार्यान्यवन के क्षेत्र में नए कीर्तमान स्थापित कर राजभाषा कार्यान्यवन को एक नयी ऊंचाई प्रदान कर रहे हैं।   
           


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