शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति-दायित्व व कार्यनिष्पादन


नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति राजभाषा जगत का एक ऐसा मंच है जहां पर नगर में स्थित बैंकों, उपक्रमों और सरकारी कार्यालयों की राजभाषा गतिविधियां अपने आकर्षक, अद्भुद और अविवादी रूप में मुखरित होती हैं। इस समिति में सदस्य कार्यालयों के प्रमुख और राजभाषा अधिकारी होते हैं जिनके राजभाषा मंथन को भारत सरकार, गृह मंत्रालय, क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय के उप-निदेशक की निगरानी में सर्वसहमति से निर्णय तक पहुंचाया जाता है। नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति का संयोजक क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय द्वारा अनुशंसित तथा गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, नई दिल्ली द्वारा अनुमोदित कार्यालय होता है यद्यपि यह एक ऐसा मंच है जहां प्रत्येक सदस्य को बराबर का अधिकार है जबकि संयोजक कार्यालय केवल समन्वयक की भूमिका निभाता है। इसलिए यह समिति समस्त सदस्यों की अपनी समिति होती है जहां पर सर्वसहमति से राजभाषा विषयक निर्णय लिए जाते है और कार्यान्वित किए जाते हैं।

      गठन : नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियों के गठन के लिए दिनांक 22.11.1976 को गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, नई दिल्ली का कार्यालय ज्ञापन संख्या 1/14011/12/76 रा.भा. (का.1) आधार है जिसके दिशानिर्देशों के अनुरूप जिन नगरों में बैंकों, उपक्रमों के या केंद्रीय कार्यालयों के 10 या उससे अधिक कार्यालय हों वहाँ पर नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति का गठन किया जा सकता है।

      गठन की प्रक्रिया : गठन की प्रक्रिया आरंभ में श्रमसाध्य प्रतीत होती है क्योंकि किसी एक कार्यालय पर यह दायित्व होता है कि वह संयोजक का दायित्व संभाले। इस दायित्व में स्वेच्छा से की गयी पहल का महत्व होता है। यदि नगर में प्रचुर संख्या में कार्यालय नहीं होते हैं तो केंद्रीय कार्यालयों में से वह कार्यालय जिसमें वरिष्ठतम अधिकारी होते हैं वह कार्यालय संयोजन का दायित्व लेता है और उसमें बैंक और वित्तीय संस्थाएं भी सदस्य होती हैं। यदि नगर में बैंक के अधिक कार्यालय होते हैं तो वहाँ बैंकोंतथा वित्तीय संस्थाओं की अलग समिति होती है और केंद्रीय कार्यालयों की अलग, इस प्रकार एक नगर में दो समितियां कार्य करती हैं जिनका अलग-अलग कार्य क्षेत्र होता है। संयोजन का दायित्व वहन करनेवाला कार्यालय अपने क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय को सहमति पत्र देता है। वहाँ से अनुशंसित होकर पत्र राजभाषा विभाग, नई दिल्ली जाता है जहां पर सचिव (राजभाषा) उस नगर में नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति के गठन की अनुमति प्रदान करते हैं और इस प्रकार समिति अस्तित्व में आती है।

      उद्देश्य : इस समिति का प्रमुख उद्देश्य केंद्रीय सरकार के कार्यालयों/उपक्रमों/बैंकों आदि में राजभाषा नीति के कार्यान्यवन की समीक्षा करना, इसे बढ़ावा देना और इसके मार्ग में आई कठिनाईयों को दूर करना है।

      सदस्य बैंकों के दायित्व : नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति (नराकास) की सक्रियता और लोकप्रियता केवल संयोजक बैंक के ऊपर ही आश्रित नहीं रहती है बल्कि नराकास की सफलता सदस्य बैंकों के सक्रिय योगदान पर भी निर्भर करता है। चूंकि नराकास में सभी सदस्य बैंकों का बराबर का योगदान अपेक्षित है इसलिए प्रत्येक बैंक का नराकास के प्रति कुछ दायित्व है जिनमें से कुछ प्रमुख दायित्व निम्नलिखित हैं :-

(1)  राजभाषा अधिकारी की सक्रियता : नियमतः नराकास के सदस्य नगर स्थित कार्यालयों के वरिष्ठतम अधिकारी होते हैं तथा उस कार्यालय के राजभाषा अधिकारी उनकी सहायता के लिए होते हैं। नराकास और अपने कार्यालय के बीच राजभाषा अधिकारी एक सशक्त सेतु की भूमिका निभाता और महत्वपूर्ण पक्षों पर अपने कार्यालय के अध्यक्ष को समय-समय पर सूचित करता है, सलाह देता है और संयोजन करता है। जिस कार्यालय का राजभाषा अधिकारी जितना अधिक सक्रिय होगा वह उतना ही अधिक उसका कार्यालय नराकास में योगदान देने में अग्रणी होगा।

(2) समिति की बैठक में सहभागिता : भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग से यह स्पष्ट दिशनिर्देश जारी किया जा चुका है कि नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति की बैठक में कार्यालय के वरिष्ठतम अधिकारी सहभागी हों। इसके अतिरिक्त नराकास भी अनेकों बार इस अनुदेश का उल्लेख कराते रहती है किन्तु यह पाया गया है कि कई बार कार्यालय अध्यक्ष तथा उनके बाद के अधिकारी नहीं आते हैं और किसी ऐसे अधिकारी को समिति में सहभागिता हेतु भेजा जाता है जो राजभाषा के नीतिगत और अर्थगत निर्णयों में स्वतंत्र होकर भाग नहीं ले पाते हैं। ऐसी स्थिति में कार्यालय की सहभागिता कागज पर तो हो जाती है किन्तु यह सहभागिता परिणाममूलक नहीं हो पाती है। सदस्य बैंक को यह समझना चाहिए कि यदि उनके कार्यालय के वरिष्ठतम अधिकारी बैठक में भाग लेंगे तो उनके विचार, सुझाव से राजभाषा की गति में वृद्धि होगी।

(3)समय पर अंशदान देना : नराकास की बैठक में निर्धारित अंशदान राशि को समय से देने में भी कुछ सदस्य पीछे रह जाते हैं जिसकी वजह एकमात्र शिथिलता है। समय से अंशदान प्राप्त ना होने पर समिति अपने आयोजनों आदि को मूर्त रूप देने में कृपण होकर कार्य करती है। प्रसंगवश यहाँ एक तथ्य प्रस्तुत किया जा रहा है कि नराकास के अंशदान के नोट को स्वीकृति देने में उच्चाधिकारी पल भर भी विलंब नहीं कराते हैं। यहाँ पर चूक आरंभिक स्तर पर पेपर को गति देने में होती है। सदस्यों को अपने इस दायित्व को भी समय से पूर्ण कर लेना चाहिए।

(4) सदस्य-सचिव और सदस्यों से आपसी संपर्क : सदस्य कार्यालयों के राजभाषा अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे नराकास में कुछ नया करने के लिए आपस में संवाद बनाए रखें। समिति की बैठक में या नराकास के आयोजन में ही स्थापित करने से नराकास सक्रिय नहीं होगी इसके लिए सतत योजना, विचार मंथन चलते रहना चाहिए। जहां इस दायित्व में कमी होती है वहाँ की समिति अपनी विशिष्ट पहचान निर्मित करने में सफल नहीं हो पाती है।

(5) समस्या संग सुझाव भी दें: सामान्यतया यह पाया गया है कि सदस्य समस्याएँ तो रख देते हैं और उसके समाधान के बारे में अपनी राय प्रस्तुत नहीं करते हैं। समिति की बैठक में यह सोचकर नहीं सम्मिलित होना चाहिए कि समस्या का हल मंच देगा। यह एक स्वस्थ सहभागिता नहीं है आखिर यह समिति सबकी है इसलिए मंच पर पूरी तरह निर्भर होने के बजाय समस्या के संग एक समाधान प्रस्तुत करना सदस्य का दायित्व है।

(6) नराकास को कार्यालय से जोड़ें : नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति को सदस्य कार्यालयों से जोड़ने का दायित्व राजभाषा अधिकारियों का है। अपने-अपने कार्यालयों की राजभाषा की बैठक में नराकास का ज़िक्र होना चाहिए, उसकी उपलब्धियों का उल्लेख करना चाहिए और स्टाफ सदस्यों के समक्ष नाराकस की बेहतर तस्वीर प्रस्तुत करना चाहिए। यदि राजभाषा अधिकारी यह प्रयास करेंगे तो कार्यालय अध्यक्ष भी नराकास पर अपनी राय प्रस्तुत करेंगे जिससे कार्यालय में राजभाषा कार्यान्यवन का एक बेहतर माहौल पैदा होगा।

निष्पादन बेहतर बनाने के उपाय पर यदि सोचा जाय तो एक त्रिकोणात्मक स्थिति निर्मित होती है जो निम्नलिखित है :

    राजभाषा कार्यान्यवन समिति तो एक हीरे की तरह है उसे जितना तराशा जाये उतना ही निखार आता है। इसे तराशने का अवसर प्रमुखतया तीन लोगों को मिलता है जो हैं 1. उच्चाधिकारी 2. सदस्य-सचिव और 3. सदस्य। इन तीन शक्तियों के मध्य में समिति रहती है। यहाँ यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि राजभाषा विभाग, क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय को क्यों छोड़ दिया गया? यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग तो दिशानिर्देशक, नीति निर्धारक है अतएव इसके बिना तो राजभाषा कार्यान्यवन का पहिया घूम ही नहीं सकता है। यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि समिति के दैनिक कामकाज में क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय सक्रियतापूर्वक जुड़े। समय-समय पर क्षेत्रीय कार्यान्यवन कार्यालय अपनी भूमिका को निभाते रहता है, दिशानिर्देश देते रहता है।

(1)  कार्यालयध्यक्ष की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका : राजभाषा कार्यान्यवन के इंजन में ईंधन का कार्य कार्यालय के अध्यक्षों द्वारा दिये गए सुझाव, लिए गए निर्णय, आर्थिक पक्ष पर अभिमत आदि ऐसे मुद्दे हैं जिसके बल पर विकास का पहिया घूमता है। जिस नाराकास में कार्यालयध्यक्षों की उपस्थिती जितनी अधिक होती है उस समिति की गतिविधियां उतनी ही प्रचुर, प्रमुख और प्रेरणादायी होती हैं। एक सुविचारित निर्णय, सर्वसहमति से पारित प्रस्ताव, सर्वांगीण प्रगति के लिए निर्धारित आर्थिक आधार केवल सदस्य कार्यालयों के उच्चाधिकारी की उपस्थिती से ही संभव है।

(2)  सदस्य-सचिव – एक कुशल संगठनकर्ता : नराकास की समिति में सदस्य-सचिव की भूमिका प्रमुखता से नज़र आती है। समिति की प्रत्येक गतिविधि में सदस्य-सचिव की उपस्थिती, योगदान आवश्यक ही नहीं अनिवार्य होती है। सदस्य-सचिव का सीधा संपर्क सदस्य कार्यालयों के राजभाषा अधिकारियों से होता है। यहाँ पर वैचारिक मतभेद, राजभाषा नीतियों की अपने-अपने ढंग से व्याख्या, कार्यान्यवन के विभिन्न दृष्टिकोणों का आपसी टकराव होने की संभावना हमेशा बनी रहती है ऐसी स्थिति में टकराव की स्थिति को दूर करते हुये कार्यान्यवन को गतिशील बनाए रखना सदस्य-सचिव का दायित्व है और यदि सदस्य-सचिव एक कुशल संगठनकर्ता नहीं बन पाता है तो समिति में राजभाषा अधिकारियों के बीच विवाद उत्पन्न हो जाने की संभावना बनी रहती है। सदस्य-सचिव यदि राजभाषा अधिकारियों में बेहतर ताल-मेल स्थापित कर पाने में सफल हो जाता है तो वह समिति को एक नयी बुलंदी देने की ज़मीन तैयार कर लेता है।

(3)  सदस्य- राजभाषा के आसमान में सम्मान की तलाश : सामान्यतया सदस्य को समिति से एक पुरस्कार की चाहत होती है इसी को मध्य में रख कर उसकी अक्सर राजभाषा की आहट होती है। राजभाषा की इस आहट से भी राजभाषा कार्यान्यवन को गति मिलती है। सदस्य बैंकों को यह नहीं देखना चाहिए कि दूसरे सदस्य कितना सहयोग दे रहा हैं क्योंकि प्रत्येक राजभाषा अधिकारी की क्षमताओं की सीमा है इसलिए एक बात को अपने उच्चाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करने में भी अंतर आ जाता है। जिसका सम्प्रेषण जितना स्पष्ट होता है वह उतनी ही आसानी से अपने कार्यालय से अनुमति प्राप्त कर लेता है। सदस्यों का एक दूसरे के प्रति आदर-सम्मान की भावना होने से भी आपसी ताल-मेल बेहतर बना रहता है।  सदस्यों में जितना अच्छा ताल-मेल होगा समिति के परिणाम उतने ही श्रेष्ठ होंगे।

उक्त त्रिकोण ही नराकास की रीढ़ की हड्डी है जिसके सहारे नगर में राजभाषा का विकास होता है, विभिन्न प्रतियोगिताओं, आयोजनों को सम्पन्न किया जाता है। नराकास के निष्पादन को बेहतर बनाने के लिए समिति को सोच, संकल्पना और सर्जना को न केवल नवीनता प्रदान करनी होगी बल्कि कार्यान्यवन को एक वृहद आयाम भी देना होगा जैसे :-

(1)  परम्पराओं का आधुनिकीकरण : बैंक के स्टाफ सदस्यों में नराकास की लोकप्रियता आयोजित प्रतियोगिताओं के द्वारा होती है। बैंकिंग विषयों पर निबंध लेखन को छोडकर शेष आयोजित प्रायियोगिताओं में नयेपन की आवश्यकता है। यह नयापन प्रौद्योगिकी की सहायता से, आकर्षक प्रस्तुति एवं संचालन आदि से लाया जा सकता है। अब नए स्टाफ सदस्यों की संख्या बढ़ रही है जो युवा हैं इसलिए तदनुसार प्रतियोगिताओं के विषय चयन से लेकर पुरस्कार वितरण तक कहीं प्रस्तुति के अंदाज़ में परिवर्तन किया जाना चाहिए तो कहीं प्रौद्योगिकी के माध्यम से आकर्षक बनाना चाहिए। ऐसा होना शुरू हो गया है पर गति बहुत धीमी है।

(2)  छाते से बाहर नीला आसमान है : प्रायः यह पाया जाता है कि संस्कृति का नाम लेकर जो होता चला आ रहा है उसपर ही मुहर लगती है और कुछ नयेपन की बात पर संस्कृति की दुहाई देकर एक नयी संभावना को प्रस्ताव में ही समेट दिया जाता है। आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी ने अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का वृहद आधार दिया है, वैश्विक दृष्टिकोण और चिंतन ने परिवर्तन का नूतन बयार दिया है किन्तु अधिकांश नराकास अपने-अपने छाते से बाहर झाँकने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। यदि ऐसा ही रहा तो नए स्टाफ सदस्यों को नराकास अपने से जोड़ नहीं पाएगा।

(3) उप-समिति के गठन में परिवर्तन : नराकास में लिए गए निर्णयों को कार्यान्वित करने के लिए उप-समिति का गठन किया जाता है। इस उप-समिति के सदस्य केवल सदस्य बैंकों, वित्तीय संस्थाओं के राजभाषा अधिकारी होते हैं। प्रतियोगिताओं के आयोजन, कार्यान्यवन के लिए नए प्रस्ताव आदि को उप-समिति में एक रूप देकर समिति में निर्णय के लिए प्रस्तुत किया जाता है। कभी-कभी कुछ विशेष आयोजन के लिए उप-समिति को निर्णय लेना पड़ता है इसलिए यह आवश्यक है कि उप-समिति में अध्यक्ष भी हों। उप-समिति का अध्यक्ष संयोजक बैंक के अतिरिक्त सदस्य बैंकों से एक उच्चाधिकारी को एक निर्धारित अवधि के लिए बनाया जाए और उसके बाद दूसरे सदस्य बैंक के उच्चाधिकारी को निर्धारित अवधि के लिए उप-समिति कि अध्यक्षता दी जाए। यह ढांचा राजभाषा कार्यान्यवन के लिए और प्रभावशाली परिणाम में अत्यधिक सहायक साबित होगा।

(4) पत्रिका के संपादक बदलते रहें : प्रत्येक नराकास द्वारा पत्रिका प्रकाशित कि जाती है। इस पत्रिका के सदस्य-सचिव संपादक होते हैं और सदस्यों में से चयनित संपादक मण्डल में होते हैं। यह एक पुरानी परंपरा है और इसमें परिवर्तन लाना चाहिए। परिवर्तन इसलिए क्योंकि पत्रिका का उद्देश्य भी राजभाषा कार्यान्यवन है अतएव कार्यान्यवन कि इस प्रक्रिया में सम्पादन के अनुभव से समिति के अन्य सदस्य वंचित क्यों रहें? अतएव सदस्यों की सहमति से क्रम से संपादक को परिवर्तित करना चाहिए। इस प्रकार समिति राजभाषा अधिकारियों की गुणवत्ता में निखार लाने में सहायक होगी तथा संबन्धित बैंक के उच्चाधिकारी भी पत्रिका के लिए अपने विचार देते हुये प्रसन्नता का अनुभव करेंगे।

(5)  कार्यालयाध्यक्षों से विचार प्रस्तुत करने का आग्रह : नगर राजभाषा कार्यान्यवन की समिति की बैठक में अक्सर कार्यालयाध्यक्षों को बोलने के लिए आग्रह नहीं किया जाता है। अधिकांश समय मंच ही बोलता रहता है। यह एक पुरानी और उबाऊ संचालन शैली है। बैंकों की समीक्षा के दौरान जिस बैंक की समीक्षा हो जाय उस बैंक के उच्चाधिकारी से राजभाषा कार्यान्यवन पर बोलने का अनुरोध करना चाहिए इससे बैठक में उनकी सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित की जा सकेगी।          
    




Subscribe to राजभाषा/Rajbhasha

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें