खिंची प्रत्यंचा पर धनुष की टंकार हमेशा अर्जुन ही उत्पन्न नहीं कर सकते बल्कि अनेकों एकलव्य में भी क्षमता है लेकिन
ना जाने क्यों राजभाषा हमेशा अर्जुन को ही महत्व देती है एकलव्य अधिकांश मामलों
में छूट जाते हैं। यह वाक्य पढ़ते ही मस्तिष्क में तत्काल यह प्रश्न उठ जाता है कि राजभाषा से
अर्जुन और एकलव्य का कैसा नाता? राजभाषा के परिप्रेक्ष्य में अर्जुन अर्थात किसी ना किसी रूप में प्रशासन का प्रिय
व्यक्ति जिसे सत्ता हमेशा अग्रणी रखती है। एकलव्य से तात्पर्य यह है कि राजभाषा के ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति जो मनोयोग से राजभाषा
कार्यान्यवन करते हैं और उसमें मौलिकता का पुट डालते हुये राजभाषा
कार्यान्यवन को हमेशा आकर्षक और तरोताजा बनाए रखते हैं। आधुनिक समय में
अर्जुन प्रशासन के अनुदेशों के अनुरूप कार्य करता है जबकि एकलव्य प्रशासन के
अनुदेशों को और बेहतर बनाने के लिए यदा-कदा अपनी राय प्रशासन के समक्ष प्रस्तुत करता
है। सामान्य शब्द में आधुनिक युग में राजभाषा के अर्जुन प्रायः वही बात करते हैं, अक्सर वही कार्य करते हैं जो प्रशासन कहता है जबकि
राजभाषा के एकलव्य प्रशासन के निर्णयों, अनुदेशों में आवश्यकतानुसार अपनी राय-बात भी बेहिचक रखते हैं।
यदि केंद्रीय कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों के राजभाषा कार्यान्यवन का विश्लेषण किया जाय तो यह तथ्य उभरता है कि कार्यालय
विशेष राजभाषा कार्यान्यवन की अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखा खींच चुके हैं और वर्षों
से उस रेखा के अंतर्गत कार्य कर रहे हैं। राजभाषा की सदा कार्यालयों के सभी कर्मचारियों तक भी पूरी तरह नहीं पहुँच पायी है।
उदाहरण के तौर पर राजभाषा की तिमाही रिपोर्ट की मद संख्या एक में राजभाषा अधिनियम 1963 की धारा 3(3) का उल्लेख है जिसके तहत कौन-कौन से कागजात आते हैं उसका भी वर्णन है किन्तु इसके बावजूद भी रिपोर्ट को भरते समय कुछ प्रतिशत कार्यालय गलतियाँ
करते हैं। इस प्रकार राजभाषा रिपोर्ट की कई और मदें हैं जिसकी रिपोर्टिंग पूर्णतया सही नहीं की जा रही है। इनमें सुधार
लाने के लिए कर्मचारियों को प्रदान किए जानेवाले दिशानिर्देश, प्रक्रिया में आवश्यक परिवर्तन लाना समय की मांग है। यह परिवर्तन तिमाही रिपोर्ट की समीक्षा के अतिरिक्त राजभाषा कार्यशाला, राजभाषा निरीक्षण के दौरान भी किया जाय तो बेहतर परिणाम मिलने
की संभावनाएँ प्रबल रहती हैं।
राजभाषा कार्यान्यवन में नयेपन के नाम पर यूनिकोड है जिसकी सीमाएं
केवल कम्पुटर में यूनिकोड की उपलब्धता तक सीमित हैं। यूनिकोड प्रौद्योगिकी का एक शस्त्र
है जिसका उपयोग राजभाषा की विभिन्न छटाओं को प्रभावशाली ढंग से कर्मचारियों तक पहुंचाना है। कर्मचारी ही क्यों स्वयं राजभाषा अधिकारियों को भी प्रौद्योगिकी
के अपने ज्ञान को एक नयी पहचान और नया आसमान देने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा
कर्मचारियों के प्रौद्योगिकी ज्ञान को यूनिकोड के माध्यम से राजभाषा में ढालने का सघन
प्रयास तो राजभाषा अधिकारियों की सेवा का एक अंग है। अब तो राजभाषा की प्रत्येक प्रस्तुति में प्रौद्योगिकी का उपयोग किए जाने का वक़्त है।
कागज और चार्ट से पावर प्वाइंट कहीं अधिक आकर्षक, स्पष्ट और प्रभावशाली है। इस यूनिकोड को भी सभी सरकारी कार्यालयों ने पूरी तरह लागू नहीं किया है और कहीं तो यूनिकोड का प्रवेश ही नहीं हो पाया है।
एक कार्यालय का तो कहना है कि उनके द्वारा अपनाए जा रहे सॉफ्टवेयर की कर्मियों को आदत
पद चुकी है इसलिए वह कार्यालय पुराने ढर्रे पर चल रहा है। यह भी सुनने को मिलता है कि नया सॉफ्टवेयर नहीं खरीदा जा सकता इसलिए यूनिकोड लागू
नहीं किया जा सकता है। यूनोकोड को एक सॉफ्टवेयर समझने की भूल राजभाषा कार्यान्यवन के
लिए घातक है।
एक नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति में विभिन्न सदस्य
कार्यालयों की रिपोर्टों को मदवार अंक प्रदान किया जा रहा था। समिति के एक सदस्य ने
कहा कि सभी कार्यालयों ने हिन्दी सप्ताह, पखवाड़ा, माह मनाया इसलिए सभी रिपोर्टों की इस मद में सबको एकसमान अंक दिया जाये, आश्चर्य कि समिति ने इसे मान लिया। समिति के सदस्यों में
से किसी भी सदस्य ने आपत्ति नहीं की, इस प्रकार अधिक श्रम कर नयी सोच और नए कलेवर सहित कार्यक्रम करनेवाला और परंपरागत
पत्र लेखन, निबंध लेखन, सुलेख प्रतियोगिता करनेवाला एक ही तराजू में तौले गए। एक नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति की बैठक में हासी कवि सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय उप=समिति में लिया गया। हास्य कवियों को बाहर से बुलाने का भी निर्णय लिया गया। दूसरे
दिन यह कह कर कि हास्य कवि कविता की जगह चुट्कुले सुनाते हैं लिए गए निर्णय को रद्द
कर दिया गया और कहा गया कि ऐसे कई निर्णय बदले जाते हैं। ऐसी सोच वालों को यह समझा
पाना मुश्किल है कि राजभाषा कार्यान्यवन को गतिशील बनाने के लिए ऐसे आयोजन सहायक होते
हैं और राजभाषा में यदि साहित्य का छौंक लगाने का प्रयास किया जाएगा तो प्रतिकूल परिणाम
की संभावना पनपने का भय रहता है। यह आयोजन स्थानीय कवियों तक सिमट गया जिसके वही श्रोता
थे जो कवि के रूप में शामिल हुये थे। नगर राजभाषा कार्यान्यवन समिति में समूह के रूप में रहकर भी
एक नयी उड़ान, एक नया प्रयोग ना कर पाना एक विचित्र स्थिति
ही कही जाएगी।
विभिन्न सरकारी कार्यालयों का राजभाषा विभाग भी अपनी शिष्टता, शालीनता के संग अपने स्थान पर सुदूर दिये की लौ की तरह टिमटिमाता रहता है। जिन कार्यालयों
में राजभाषा विभाग जम गया है वहाँ सुदूर दिये की लौ नहीं मिलती बल्कि राजभाषा के प्रकाश पुंज की मशाल आलोकित रहती है। यह प्रकाश पुंज राजभाषा कार्यान्यवन के प्रभावशाली
विस्तार से ही उपलब्ध होता है। ऐसे कई कार्यालय हैं जिन्हें राजभाषा के शीर्ष पुरस्कार
लगभग प्रत्येक वर्ष प्राप्त होता है और ऐसे भी कार्यालय हैं जिन्हें पिछले दस वर्षों
में एक भी राजभाषा पुरस्कार नहीं मिल सका है। पुरस्कार विजेता कार्यालय भी कार्यरत
है और पुरस्कार ना जीत पानेवाला कार्यालय भी कार्य किए जा रहा है। राजभाषा कार्यान्यवन की संवेदनशीलता को समझ पाने और समझा पाने
की बात है। खुद में सिमट कर अपनी कार्यालयीन उपलब्धियों की सलवटों को देख कर ल्हुश
होना और जो मिल न सका उसमें पक्षपात आदि का दोष देना और कुछ नहीं एक कमजोरी की निशानी
है। राजभाषा कार्यान्यवन को एक विस्तार चाहिए, एक ऐसा विस्तार जिस
विस्तार में विभिन्न कार्यालय अपनी अन्य उपलब्धियों को दर्शाते हैं। राजभाषा कार्यान्यवन
को एक आसमान चाइए, एक ऐसा आसमान जिसमें कार्यालय के अन्य विभाग
अपना आकाशदीप जगमगाते हैं।
राजभाषा कार्यान्यवन में अर्जुन और एकलव्य की दूरियाँ घटाने का सार्थक प्रयास होना चाहिए। उन्मुक्त और पूर्वाग्रह रहित भाव
से मिल-जुलकर राजभाषा कार्यान्यवन को गतिशील रखना चाहिए। नए प्रयोग करने चाहिए।
कल्पनाओं की डोर में कार्यान्यवन का आकाशदीप उड़ना चाहिए। कर्मचारियों राजभाषा नीति और
वार्षिक कार्यक्रम एक राग और धुन के रूप में प्रस्तुत की जानी चाहिए। इस प्रकार राजभाषा
कार्यान्यवन की प्रगति होनी चाहिए जो कि ना तो कठिन है और ना ही काल्पनिक सोच है बस एक कार्य
करते रहना चाहिए। वह कार्य है कि कभी अर्जुन को एकलव्य बना देना चाहिए और कभी एकलव्य को अर्जुन
के रूप में कार्य करने का अवसर देना चाहिए।
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