रविवार, 27 फ़रवरी 2011

राजभाषा अधिकारी, पदोन्नति और साक्षात्कार

यूँ तो किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंकों और उपक्रमों में राजभाषा अधिकारी की पदोन्नति केवल एक सीमा तक ही होती है और उसी निर्धारित सीमा के अंतर्गत राजभाषा अधिकारियों की पदोन्नति प्रक्रियाएं भी की जाती हैं. केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों, राष्ट्रीयकृत बैंकों तथा उपक्रमों में राजभाषा अधिकारी एक आवश्यकता है इसलिए इन कार्यालयों में राजभाषा विभाग और राजभाषा अधिकारी ज़रूर होते हैं. एक ही समय में अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए राजभाषा अधिकारी 52-55 की उम्र तक बमुश्किल अपनी संस्था के मध्य प्रबंधन तक पहुँच पाते हैं जबकि उन्हीं के साथ नौकरी में लगे संस्था के अन्य अधिकारी इस उम्र तक आते-आते वरिष्ठ प्रबंधन और कार्यपालक तक के पद पर पहुँच जाते हैं. इसका प्रमुख कारण है राजभाषा अधिकारियों को संस्था विशेष के मुख्य धारा का अंग नहीं माना जाता है तथा उनकी भूमिका एक सहायक विभाग की होती है इसलिए इनकी पदोन्नति भी कछुए से भी धीमी गति से होती है. इसके बावजूद भी साक्षात्कार की प्रक्रिया वर्ष दर वर्ष जारी रहती है और कनिष्ठ प्रबंधन में अधिक संख्या में पदोन्नति मिलती है जबकि मध्य प्रबंधन में पदोन्नति अधिकतम 2-3 कि संख्या तक सिमट जाती है और वरिष्ठ प्रबंधन तक पहुंचते-पहुंचते संख्या केवल एक तक भी सिमट जाती है.

सामन्यतया राजभाषा अधिकारी अपने संस्था के विभिन्न अधिकारी संवर्ग में अन्य अधिकारियों से काफी वरिष्ठ होता है जिसका एकमात्र कारण है उनको संस्था के अन्य अधिकारियों की तरह पदोन्नति का अवसर न मिल पाना और पदोन्नति के प्राप्त अवसरों में काफी कम संख्या में पदोन्नति करना. संस्था विशेष के प्रबंध की यह एक सामान्य सोच है कि चूँकि राजभाषा अधिकारी एक विशिष्ट निर्धारित कार्य करते हैं इसलिए पदोन्नति कुछ विशेष सहायक नहीं होती यदि इसे शुद्धतः कार्य के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो. दूसरा सामान्य मत है कि एक-दो अधिकारी यदि वरिष्ठ प्रबंधन में हैं तो इससे संस्था का कार्य आसानी से चल जाता इसलिए अधिक संख्या में पदोन्नति भविष्य में प्रबंधन के लिए यह उलझन पैदा कर सकती है कि अब इससे आगे पदोन्नति कैसे दी जाए. एकमात्र राजभाषा अधिकारी ही है जिसे किसी भी संस्था में पदोन्नति के पूर्वनिर्धारित दायरे के बारे में सेवाग्रहण करते समय ही ज्ञात रहता है अर्थात प्रत्येक राजभाषा अधिकारी को यह मालूम रहता है कि राजभाषा अधिकारी के पद पर कार्य करते हुए उसे एक सीमा तक ही पदोन्नति मिल सकती है जबकि इसका उल्लेख उसके नियुक्ति पत्र में कहीं भी नहीं रहता है. उसके साथ कार्यग्रहण किये अधिकारी काफी पहले ही उससे आगे निकल जाते हैं लेकिन आश्चर्य तब होता है जब उसके लिपिक और टंकक जो यदि संस्था के सामान्य धारा के हुए तो उससे आगे निकलकर वरिष्ठ अधिकारी के पद पर पहुँच जाते हैं यह विशेषकर बैंकिंग में होता है. इसके बावजूद उससे 5-7-10 वर्ष बाद में कार्यग्रहण किये अधिकारी भी उससे वरिष्ठ हो जाते हैं.

राजभाषा अधिकारियों के साक्षात्कार सामान्यतया दो प्रकार के होते हैं. पहला प्रकार तब उपयोग में लाया जाता है जब राजभाषा के आरम्भिक पद पर एक प्रतियोगी कि नियुक्ति होती है. इस दौरान उससे हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य, उसके अनुभव, संस्था विषयक प्रमुख बातें कि जाती हैं. दूसरा रूप तब प्रयोग में लाया जाता है जब राजभाषा अधिकारी को पदोन्नति दी जाती है. इस प्रक्रिया में विशेषकर राजभाषा नीति और संस्था के कारोबार के कुछ अति महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे जाते हैं. पहली प्रक्रिया में विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सम्मिलित होते हैं जबकि दूसरी प्रक्रिया पूर्णतः आंतरिक होती है जिसमें हिंदी का एक भी विशेषज्ञ नहीं होता होता है.
  
राजभाषा अधिकारी मनोयोग से राजभाषा कार्यान्वयन करता है और संस्था विशेष में राजभाषा को गति देने के लिए प्रयत्नशील रहता है. प्रत्येक कार्यालय में राजभाषा अधिकारी एक मील के पत्थर की तरह राजभाषा नीति का ध्वज लिए कार्यान्वयन हेतु सजग,सचेत होकर प्रयत्नशील रहता है और सम्बंधित चुनौतियों से जूझते रहता है. किसी भी आयोजन, सभा, समारोह आदि में राजभाषा अधिकारी की वही भूमिका होती है जैसे कि हिंदू समाज के किसी धार्मिक कार्य में पुरोहित कि भूमिका होती है तथापि राष्ट्रीयकृत बैंकों और उपक्रमों में उसकी पदोन्नति एक निर्धारित दायरे में होती है. राजभाषा अधिकारी लगातार राजभाषा तथा हिंदी में स्वयं को मांजते जाता है और संस्था कि छवि और राजभाषा प्रगति के ग्राफ को संतोषप्रद स्तर तक बनाये रखता है. उसके इन कार्यों में प्रबंधन का भरपूर सहयोग मिलता है, प्रसंशाएं मिलती हैं यदि कुछ नहीं मिलता तो वह है पदोन्नति. प्रबंधन से मिल रहें सहयोग से यह भी स्पष्ट होता है कि राजभाषा अधिकारियों की सीमित पदोन्नति शायद संस्था विशेष कि समस्या ना होकर सम्बंधित उद्योग से जुड़ी समस्या हो जिसपर व्यापक स्तर पर ध्यान देने कि आवश्यकता है. नब्बे के दशक में हिंदी से स्नातकोत्तर पदवी धारक को अपना कैरीअर बनाने कि जितनी संभावना थी उससे कई गुना अधिक अवसर वर्तमान में है इसलिए बहुत कम संख्या में युवा वर्ग राजभाषा अधिकारी के रूप में अपना कैरीअर आरम्भ करना पसंद कर रहें हैं. यदि यही सिलसिला रहा तो एक समय ऐसा भी आएगा कि राजभाषा अधिकारी मिलेंगे ही नहीं इसलिए समय रहते इसपर विचार किया जाना आवश्यक है.


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3 टिप्‍पणियां:

  1. निश्चय ही यह चिंता का विषय है और शीघ्र ही इस दिशा में सार्थकता के लिए कदम उठाये जाने चाहिए ।

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  2. nehagoyal123456@rediffmail.comरवि फ़र॰ 27, 10:06:00 pm 2011

    yes it is very serious problem. We should do something against this.

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  3. धीरेंद्र जी!
    आपकी पीड़ा कोई भुक्त भोगी ही समझ सकता है। यह तो सरकारी संस्थाओं/बैंकों/सार्वजनिक उपक्रमों में नियुक्त न केवल राजभाषा से जुड़े लोगों के साथ ही बल्कि इसी प्रकार की विशेषीकृत सेवा, जैसे, सुरक्षा, विधि आदि से जुड़े लोगों के साथ भी हो रहा है। इन सेवाओं की शुरुआत लगभग एक ही साथ या आगे पीछे हुई है। अतः समवेत और संकेंद्रित (कंसर्टेड) प्रयास की ज़रूरत है।
    मेरे विचार में तो यह एक ही प्रकार से संभव है और पूरी इंडस्ट्री के विशेषीकृत सेवा के लोगों को एक जुट हो प्रयास करना होगा।
    विशेषीकृत सेवा के लोगों की भर्ती होते ही उन्हें भी मुख्यधारा के कार्यों का, नए भर्ती प्रोबेशनरी अधिकारी की भाँति गहन इंडक्शन प्रशिक्षण दिया जाए और उनकी वरिष्ठता मुश्तरका रखी जाए, अलग नहीं। इन विशेषीकृत सेवा के अधिकारियों से भी सभी प्रकार के काम लिए जाएं और साथ ही राजभाषा के काम भी करें। हाँ, राजभाषा का काम पहले करना होगा। दूसरे काम इतनी ही मात्रा में हों कि राजभाषा का काम बाधित न हो। साथ ही हिंदी में काम करने का दायित्व बाकियों का ही है राजभाषा अधिकारी का नहीं। अतः एक समन्वय समिति का अविलंब गठन कराएं। किसी ईमानदार और दृढ़ एनजीओ को अवश्य शामिल करें। कार्यालयी काम में उल्झे लोग इस आंदोलन को ज़्यादा आगे तक नहीं ले जा पाएंगे।

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