गुरुवार, 25 नवंबर 2010

राजभाषा एक ज़रिया या नज़रिया

राजभाषा में आकर्षण नहीं है बल्कि एक वैचारिक घर्षण है जिसके कारण इससे सक्रिय रूप में जुड़नेवालों की संख्या सीमित है। सरकारी कार्यालयों के कर्मियों को अंग्रेज़ी में काम करने की आदत तथा उस आदत में परिवर्तन कर राजभाषा में कार्य करने के लिए प्रेरित करना चुनौतीपूर्ण और कौशलपूर्ण कार्य है। यही कारण है कि कई विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी स्वंय को राजभाषा कार्यान्वयन से निकालकर अपनी संस्था के अन्य कार्यों को करने लगे हैं तथा पूछने पर कहते हैं कि – "मैं कनवर्ट हो गया"। राजभाषा कार्यान्वयन का कल का सिपाही आज स्वंय को राजभाषा से जुड़ा हुआ नहीं बतलाता है, यह स्थिति लगभग प्रत्येक केन्द्रीय कार्यालय विशेषकर बैंकों, वित्तीय संस्थाओं आदि में देखने को मिलती रहती है। इस प्रकार के अधिकारी राजभाषा छोड़ते ही अपने कार्य में अंग्रेज़ी का शुमार करने लगते हैं तब यह सोचना पड़ता है कि क्या राजभाषा विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी के पास भी इतना कमज़ोर आधार लिए रह सकती है ? क्या इस प्रकार के विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी संस्था विशेष में एक अधिकारी के रूप में प्रवेश करने के लिए राजभाषा का उपयोग करते हैं ? जिस विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारी को कार्यान्वयन का एक सशक्त ज़रिया बनना चाहिए वह राजभाषा को ही ज़रिया बना रहा है, यह भी एक उल्लेखनीय स्थिति है।

विशेषज्ञ अधिकारी की बात यहीं तक रहती तो ठीक रहता किंतु पिछले एक वर्ष अर्थात वित्तीय वर्ष 2009-10 से राजभाषा अधिकारियों में विशेषकर पिछले 2-3 वर्षों में नियुक्त राजभाषा अधिकारियों में एक नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी में जाने का चलन हो गया है। कनिष्ठ प्रबंधन से मध्य प्रबंधन तथा आगे के पदों को पाने की तीव्र लालसा दिखलाई पड़ रही है। स्थितियॉ भी कुछ ऐसी निर्मित हो गई हैं कि एक लम्बे अर्से के बाद राजभाषा के रिक्त पदों के विज्ञापन निकल रहे हैं। इस स्थिति में भी कोई बुराई नहीं है। अच्छे अवसर को भला कोई कैसे छोड़ेगा। कठिनाई तब निर्मित होती है जब राजभाषा अधिकारी यह सोचकर कार्य करता है कि उसे शीघ्र ही यह संस्था छोड़ देनी है तथा नई संस्था से जुड़ना है तथा इस वैचारिक घटनाचक्र में राजभाषा ठहरी हुई प्रतीत होती है। न तो कोई नई पहल होती है और न ही कार्यान्वयन की कोई नई योजना बनती है। ऐसे राजभाषा अधिकारियों का अधिकांश समय इंटरनेट पर नई रिक्तियों की तलाश आदि में अधिक व्यय होता है। संस्ता को इनसे जो लाभ मिलना चाहिए वह पूरी तरह नहीं मिल पाता है। यहॉ ज़रिया को देखने का नज़रिया इतना भिन्न है कि कार्यान्वयन गौण हो जाता है।

इस समय राजभाषा अधिकारियों का एक तीसरा पक्ष भी है जिसमें अधिकांश वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी 3-4 वर्षों में सेवानिवृत्त होनेवाले हैं तथा इनकी सोच है कि बहुत कर चुके राजभाषा कार्यान्वयन अब सेवांत पश्चात की दुनिया की व्यवस्था की जाए जिसमें उनका अधिकांश समय व्यस्त रहता है। अब ऐसी स्थिति में राजभाषा कहॉ दिखेगी परिणामस्वरूप जो ज़रूरी लगा सो कर दिया शेष के लिए देखी जाएगी रवैया कार्य करने लगता है। यह स्थिति सबसे खतरनाक है। चूंकि इस श्रेणी में प्राय: वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी रहते हैं इसलिए यदि यह शिथिल हो गए तो इनके साथ कार्य करनेवाले राजभाषा अधिकारियों के कार्यनिष्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार राजभाषा कार्यान्वयन की गति धीमी, बेढब हो जाती है और अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते हैं।

आप कहेंगे कि मैं कौन सी नई बात कह रहा हूं यह तो किसी भी कार्यालय में पाई जानेवाली एक सामान्य स्थिती है। सही सोच है किन्तु वहॉ अन्य लोग भी रहते हैं जो स्थिति को संभाल लेते हैं किन्तु राजभाषा के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। यदि राजभाषा अधिकारी शिथिल होता है तो कहीं न कहीं राजभाषा कार्यान्वयन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। राजभाषा अधिकारी तथा राजभाषा कार्यान्वयन के बीच एक अत्यधिक संवेदनशील सम्बन्ध है। एक से दूसरा बहुत जल्दी प्रभावित होता है। इसलिए यह तीसरा पक्ष भी अपनी पुरजोर दखल रखता है।

उक्त तथ्यों तथा कथ्यों में ज़रिया की झलक तो खूब मिल रही है किन्तु राजभाषा कार्यान्वयन का नज़रिया कहीं दबा हुआ प्रतीत हो रहा है। यह स्थिति राजभाषा कार्यान्वयन जगत की ऊभरती हुई एक नई स्थिति है जिसका प्रभाव राजभाषा कार्यान्वयन पर पड़ रहा है किन्तु इस स्थिति को रोकने का कहीं कोई उपाय होते नहीं दिख रहा है। राजभाषा जगत में नई रिक्तियों की भरमार है तथा इस अनोखे अवसर का हर कोई लाभ उठाना चाह रही है तथा राजभाषा कार्यान्वयन की गति धीमी पड़ती जा रही है। नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति आदि जैसे सक्षम मंच इस दिशा की और नहीं देख रहे हैं। यदि शीघ्र ही राजभाषा कार्यान्वयन की इस स्थिति में सुधार लाने की कोशिश नहीं की जाएगी तो राजभाषा कार्यान्वयन काफी प्रभावित हो सकता है। ज़रिया और नज़रिया में एक दूरी आवश्यक है। राजभाषा कार्यान्वयन का नज़रिया और प्रभावशाली और परिणामदायी हो इस दिशा में विशेषज्ञ राजभाषा अधिकारियों को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए, यही समय की मांग है।

Subscribe to राजभाषा/Rajbhasha

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें