हिंदी दिवस भाषा का तपिश भरा दिन होता है। प्रतिवर्ष प्रशंसाओं और आलोचनाओं आदि से परिपूर्ण यह दिन शाम होते होते चर्चाओं, प्रतिक्रियाओं आदि से थक कर निढाल हो जाता है। या यूँ भी कहा जा सकता है कि दिवस चेतनाशून्य हो जाता है। यह विचार केवल कुछ हिंदी दिवस की देन नहीं है बल्कि अनवरत यही सिलसिला चलते चला आ रहा है। भाषा की इस तपिश को हमारा देश देख रहा है, समझ रहा है तथा एक सार्थक और सकारात्मक परिवर्तन की बाट जोह रहा है। राजभाषा से जुड़े अधिकांश लोगों का ध्यान हिंदी दिवस पर तथाकथित राजभाषा हिंदी की ओर नहीं जा पाता है। अपनी-अपनी हिंदी दिवस की व्यस्तताओं के बीच थकी हुई सी राजभाषा की ओर देखने का समय कहॉ? कृपया इन चंद पंक्तियों से किसी कुंठा या नकारात्मक उर्जा की ओर न जांए,यह तो एक ऐसा दर्द है जिसे छुपा पाना असंभव है और यह किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति पा ही लेता है।
आख़िर हिंदी दिवस को शाम होते-होते राजभाषा थकी सी क्यों लगती है? इस प्रश्न से पहले यह विचारणीय है कि थकान होती किसे है, राजभाषा को अथवा व्यक्ति विशेष को? राजभाषा की थकान से क्या तात्पर्य निकाला निकाला जाए? अरे, इतने सारे प्रश्न अचानक मन में क्यों उभर रहे हैं? यह क्या? भाषा के प्रश्न पर मन इतना बेसब्र क्यों हो जाता है ? ऐसा लगता है कि इस विषय पर मन खुल कर बहस करने को तैयार है। पर बहस,चर्चाऍ तो होती रहती हैं,फिर यह आस कैसी? यह तो एक सोच मात्र है, इसपर बहस या चर्चा तो केवल हिंदी दिवस को ही सम्भव है अन्यथा शेष दिवसों में सुध ही नहीं आती। यूँ तो यह बहुत पुराना और घिस चुका वाक्य है यह फिर भी प्रासंगिक है। हिंदी दिवस को थकान तो व्यक्ति को होती है बल्कि राजभाषा तो सतत निखरती जाती है तथा शाम ढलते-ढलते वह दीप्ति व उर्जा की प्रखरता पर होती है।
हिंदी दिवस एक दिखावा है, राजभाषा का दुख प्रदर्शन है, घड़ियाली आंसू है, एक दिन हिंदी का शेष दिन अंग्रेज़ी का आदि अनेकों वाक्य हैं जो राजभाषा की प्रतिकूल टिप्पणियों से भरपूर हैं। यह सारे वाक्य हिंदी दिवस को या उसके आस-पास निकलते हैं मानों किसी खोह से नकारात्मक उर्जा निकल आयी हो। कौन गढ़ता है ऐसे वाक्य? सरल उत्तर है, हम लोगों में से ही कोई एक, जिसका प्रयोग अन्यों द्वारा किया जाता है। यहॉ प्रश्न उभरता है कि यह "एक" और "अन्य" कौन लोग हैं? राजभाषा को नकारात्मक उर्जा की चादर से ढंकने की कोशिश करनेवाले कौन लोग हैं? क्या यह वे लोग हैं जिन्हें राजभाषा नहीं आती है? यह एक बेतुका सवाल लगता है। राजभाषा सभी कार्यालय कर्मियों को आती है विशेषकर विभिन्न सरकारी कार्यालयों के कर्मचारियों को। यदि किसी को नहीं आती है तो वे गंभीरतापूर्वक सीखने का प्रयास करते हैं। सत्य तो यह है कि नकारात्मक बोल बोलनेवाले राजभाषा के बारे में कुछ जानते नहीं या अधूरी जानकारी रखते हैं।
हिन्दी
दिवस पर प्रायः जिस हिन्दी की चर्चा होती है वह ना तो अखबारी हिन्दी है, ना तो बोलचाल की हिन्दी है और
ना ही विभिन्न मनोरंजन के केन्द्रों की हिन्दी है। इस दिवस पर चिंता जिस हिन्दी की
होती है वह है कामकाजी हिन्दी। विभिन्न मंत्रालयों, सरकारी कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों में जिस गति से अँग्रेजी का प्रयोग
किया जा रहा है वह गति राजभाषा को नहीं मिल पा रही है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि राजभाषा
को अँग्रेजी जैसी गति ना मिल पाने का मूल कारण क्या है? 14 सितंबर
1949 से लगातार राजभाषा को सिंचित किया जा रहा है परंतु प्रायः कोंपल तक ही आकार राजभाषा
रुक जाती है। क्या कभी राजभाषा कार्यान्यवन की गहन समीक्षा की गयी है? क्या इस बात का अंदाज़ा लगाने की कोशिश की गयी है कि कहीं राजभाषा केवल सांविधिक
अपेक्षाओं तक तो सिमट कर नहीं रह गयी है? हिन्दी की तो बहुत चर्चाएँ-परिचर्चाएँ
होती हैं किन्तु राजभाषा अब तक कार्यालय की चौखट से बाहर कदम नहीं रख सकी है? आवश्यकता है कि हिन्दी दिवस पर कार्यालय की हद से बाहर राजभाषा पर भी गहन और व्यापक चर्चा हो। जिस दिन से
राजभाषा पर व्यापक निगरानी शुरू हो जाएगी उसी दिन से राजभाषा पुष्पित और सुगंधमयी लगाने
लगेगी और हिन्दी संपूर्णता में समर्थ हो जाएगी।
हिंदी दिवस के अवसर पर बिना किसी विवाद में उलझे हुए यह अभिलाषा है कि भारतीय संविधान की राजभाषा नीति का मनोयोगपूर्वक कार्यान्वयन हो, राजभाषा विषयक निर्णयों,दिशानिर्देशों आदेशों आदि को अपनाया जाए, कामकाजी हिंदी के रूप में राजभाषा की प्रकृति, अंदाज़ तथा तेवर की पहचान सबको हो जाए और हिंदी साहित्य तथा राजभाषा को एक ही नज़रिए से देखने में तब्दीली आ जाए। हिंदी दिवस के अवसर पर राजभाषा से सीधे जुड़े सभी लोग राजभाषा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अपनी कर्मठता से कार्यरूप में सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर सकें। हिंदी दिवस के पावन अवसर पर बस यही अभिलाषा है।
धीरेन्द्र सिंह.
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