राजभाषा को देश अभी भी समझ रहा है। इस समझ में ऊभरे नए-नए विचारों की नई-नई बोलियॉ होती हैं पर सबसे मज़ेदार बात यह है कि इन बोलियों के भाव दशकों पुराने होते हैं। चूँकि राजभाषा हिन्दी को अभी भी हमारा देश समझने में की प्रक्रिया में है इसलिए इन रागों को अब भी वैसे ही सुना जाता है जैसे दशकों पहले सुना जाता था। इस प्रक्रिया में वक्ता और श्रोताओं में बौद्धिक गम्भीरता का दर्शन सहज ही हो जाता है। न तो राजभाषा के राग अलापने वाले थके और न ही श्रोता उकताए हैं। यूँ तो सम्पूर्ण वर्ष इस तरह के दिलकश नज़ारे मिल जाते हैं किंतु सितम्बर माह में इसकी धूम रहती है। आईए कुछ महत्वपूर्ण और व्यापक प्रसारित राजभाषा रागों से परिचित हो लें –
हठवादी राग – यह राग उन लोगों में ज्यादा लोकप्रिय है जिन लोगों ने भारत के संविधान में राजभाषा के अनुच्छेदों को न तो पढ़ने की ज़हमत उठाई है या / और न इसे समझने की कोशिश की है। यह राग हिन्दी को पूरे देश में तत्काल अनिवार्य रूप से करने की बात कहता है तथा इस राग का मानना है कि क्रमबद्ध रूप से धीरे-धीरे हिन्दी को लागू करने की बात एक औपचारिकता है जिससे हिन्दी नहीं आएगी। सरकार आज से इसे अनिवार्य कर दे तो कल से पूरे देश में राजभाषा लागू हो जाएगी और अपने विचारों के समर्थन में वही पुराना नाम कमाल पाशा का उदाहरण जोशीले अंदाज़ में प्रस्तुत कर देते हैं। इस हठवादी राग में जोश बेलगाम होता है जिससे श्रोतागण तालियॉ खूब बजाते हैं।
सुधारवादी राग – इस राग के समर्थक हमेशा बौद्धिक परिवेश में जीने के चिन्तन से ग्रसित रहते हैं तथा सहजतापूर्वक दूसरों में गलतियॉ ढूँढ लेना इनकी एक प्रमुख विशेषता होती है। राजभाषा नीति का पठन किए हुए इस राग में बोलने वाले हमेशा इतिहास में हुई गलतियों की चर्चा करते हैं। इनका दृढ़ मत होता है कि संविधान निर्माण के समय ही हिन्दी को अनिवार्य कर देना चाहिए था। राजभाषा को लागू करने का यह प्रयास एक अंतहीन सिलसिला है तथा उस समय के नेताओं की अदूरदर्शिता है। इस राग को अलापने वालों के व्याख्यान पर तालियॉ नहीं बजतीं जिसे एक गम्भीर बौद्धिक परिवेश के चिंतन का क्षण समझने के भ्रम में ऐसे वक्ता स्वंय में खुश हो लेते हैं।
राष्ट्रवादी राग – प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक ध्वज, अपनी भौगोलिक सीमाऍ तथा अपनी भाषा होती है जो राष्ट्र की अस्मिता की एक सशक्त पहचान होती है, इस विचार को कट्टरतापूर्वक मानने वाले लोग राष्ट्रवादी राग के अनुयायी होते हैं। इनका यह मानना रहता है कि राष्ट्र के प्रति इनकी लगन, इनकी सोच तथा इनका समर्पण सर्वश्रेष्ठ है जबकि कुछ ना कुछ कमी देश के अन्य नागरिकों में है। इनके सम्बोधन में राष्ट्र की आजादी के समय के क्रांतिकारियों का उल्लेख अवश्य रहता है। यह लोग बेधड़क बोल जाते हैं कि जिस देश की अपनी भाषा नहीं वह देश सही मायनों में स्वतंत्र देश ही नहीं है। इनके अनुसार देश के कामकाज में अंग्रेज़ी का प्रयोग बौद्धिक गुलामी का प्रतीक है। ऐसे लोग लॉर्ड मैकाले का उल्लेख करना नहीं भूलते तथा प्रश्नांकित तालियों को सुनकर अपने संबोधन पर धन्य-धन्य हो जाते हैं।
चिंतनवादी राग – इस राग में बोलनेवाले लोग सामान्यतया ऊँचे ओहदेवाले होते हैं। प्राय: इन्हें मंच पर सम्माननीय स्थान प्रदान किया जाता है। गंभीर चेहरा लिए एक गहरे चिंतन की मुद्रा इनकी शैली भी होती है और अदा भी होती है। इनका कहना है कि स्वतंत्र देश में अपनी भाषा के लिए दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा, माह मनाना एक दुखद स्थिति है जिसपर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हिंदी दिवस के स्थान पर हम अंग्रेज़ी दिवस मनाऍ। श्रोताओं के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि बात हिंदी के पक्ष में हो रही है या अंग्रेज़ी के पक्ष में, इसके बावजूद भी वक्ता को भरपूर तालियों से नवाज़ा जाता है।
संतुलनवादी राग – इस राग का वक्ता त्रिभाषा सूत्र का हिमायती होता है इसलिए हिंदी के साथ-साथ यह स्थानीय भाषा के अतिरिक्त दक्षिण की एक भाषा की भी बात करता है। इस वक्ता के मन में क क्षेत्र के प्रति एक आक्रोश रहता है अतएव इस वक्ता की दलील रहती है कि क क्षेत्र के राज्यों को अपने पाठ्यक्रम में दक्षिण की एक भाषा को सम्मिलित करना चाहिए। इनके मतानुसार यदि गंभीरतापूर्वक त्रिभाषा सूत्र को लागू कर दिया जाए तो राजभाषा कार्यान्वयन संपूर्ण राष्ट्र में सुगमतापूर्वक संपन्न होगा।
समन्वयवादी राग – इस चिंतन के वक्ता वसुधैव कुटुंबकम के अंधी श्रद्धा लिए होते हैं। इनकी यह मान्यता है कि काम हो जाना चाहिए भाषा के झमेले में पड़ने से क्या हासिल होगा। हिंदी बोलो, अंग्रेज़ी बोलो या किमकोई और भाषा यदि आपकी बात सामनेवाला समझ ले रहा है तो यह काफी है। भाषा का महत्व केवल सम्प्रेषण है। भाषा को सब्यता और संसेकृति से जोड़ना मानसिक अल्पज्ञता के सिवा कुछ नहीं। इन आधुनिक चिंतको का यह कहना है कि हिंदी को यदि रोमन लिपि में भी लिखा जाए तो क्या हर्ज़ है। हिंदी फिल्मों के संवाद तथा उनका प्रचार-प्रसार रोमन लिपि में धड़ल्ले से हो रहा है। यह एक सा उदाहरण है जो भविष्य की हिंदी की ओर ईशारा कर रहा है। आधुनिक युग कारोबार विकास और संपन्नता की ओर उन्मुख है तथा इसमें भाषा, लिपि आदि पर विचार, संगोष्ठियॉ, चर्चाऍ आदि वक्त की बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं। हतप्रभ श्रोता असमंजस में डूबे रहते हैं तथा ताली बजाना कुछ को याद रहता है, कुछ भूल जाते हैं। इस समन्वयवादी वक्ता को लगता है कि जनमानस के चिंतन को इन्होंने बखूबी झकझोड़ दिया है।
इस प्रकार के कई राग हैं जो हर वर्ष सितंबर महीने में गाए जाते हैं, सुनाए जाते हैं, भाषिक बौद्धिकता के मंच पर भुनाए जाते हें। राजभाषा हिंदी को जम कर खरी-खोटी सुनाई जाती है, नए वायदे किए जाते है, पुराने आश्वासनों को मानसिकता में परिवर्तन न होने के कारण तार्किक चादर से खूबसूरती से ढंक दिया जाता है, राजभाषा अधिकारी या हिन्दी अधिकारी को इस विषय के एक प्रमुख और एकमात्र अभियुक्त के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तथा भिन्न-भिन्न शब्दावलियों से सम्बोधित किया जाता है, व्यक्तित्व मंडन किया जाता है। सितंबर का महीना बीतते ही राजभाषा की चर्चा फिर एक साल के लिए बंद हो जाती है। एक पर्व की तरह राजभाषा उत्व आता है और चला जाता है। सितंबर का महीना है चलिए एक नया राग ढूंढा जाए ।
धीरेन्द्र सिंह.
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